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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सत् शिव सुन्दर 3 - वैराग्य-प्रेरणा

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    सत् शिव सुन्दर 3 - वैराग्य-प्रेरणा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. वैराग्य की प्रेरणा जहाँ मिले वस्तुत: वही हमारे लिये कल्याण का साधन है।
    2. जिस वंश के हम अंश हैं उसके अनुरूप ही मोह का ध्वंस करना जरूरी है।
    3. शरीर को संवारो (सजाओ) नहीं किन्तु सम्हालो, यह मोक्षमार्ग में सहकारी है।
    4. दीपक जबसे जलना शुरू करता है तभी से बुझने लगता है।
    5. अनंत संसार परिभ्रमण के बाद भी यह जीव थका नहीं, बड़ी विचित्र दशा है इस जीव की।
    6. अरे भाई! जा तो रहे हो, पर जाते-जाते यह भी विचार करो कि जाना कहाँ है? एक बार उस गन्तव्य को प्राप्त करो जहाँ से पुनः लौटकर न आना पड़े।
    7. यदि अंधा कुएँ में गिरता है तो कोई बात नहीं किन्तु जानते-देखते हुए भी कोई व्यक्ति गिरे तब जरूर विचारणीय बात है।
    8. स्व पर अहितकारी मिथ्यात्व-असंयम के ऐसे विष बीज मत बोना, जिसके द्वारा उत्पन्न विषफल आपको खाना पड़े और नरक-निगोद आदि दुर्गतियों में जाना पड़े।
    9. हमारा जीवन पानी के बुलबुले की तरह क्षणभंगुर है जिसे फूटने में देर नहीं।
    10. प्राप्त संपदा और जीवन इन्द्रधनुष तथा आकाश नगर की भाँति क्षणभंगुर है जो तृण-बिन्दुओं के समान बहुत ही जल्दी बिखर जाने वाला हैं।
    11. यह संसार इन्द्रजाल के समान है जो देखने में दिखता तो बहुत सुन्दर है पर स्थिर रहने वाला नहीं है। देखते ही देखते नष्ट हो जाने वाला है।
    12. यह सारा का सारा संसार है केवल एक विशाल नाटक। भले ही इसमें तू भाँति-भाँति के वेश धर किन्तु इसमें भूलकर भी न अटक।
    13. अहो! इस निद्रा का माहात्म्य तो देखो, जिसके आने पर यह जीव शव जैसा दिखने लगता है, और उसके जाते ही शिव जैसा प्रतीत होता है।
    14. संसारी प्राणी की यह मूर्खता है जो नश्वर को सुरक्षित रखने का प्रयास करता है, सुरक्षा नहीं होने पर संक्लेश करता है जिससे दुर्गति का पात्र बनता है।
    15. जड़ तत्व की सुरक्षा के लिये जो व्यक्ति मूल्यवान चेतन धन का उपयोग करता है वह पैर धोने के लिये अमृत कलश ढोल रहा है, राख के लिये चन्दन की लकड़ी जला रहा है।
    16. यदि हमारे घर के अन्दर एक छोटा सा भी सर्प घुस आए तो हम घर छोड़कर भाग जाते हैं किन्तु हमारे भीतर रागद्वेष विषय-कषायों के कितने सर्प बैठे हुए हैं, पर हमें उनका ख्याल ही नहीं।
    17. जीवन बहुत थोड़ा है, यह प्रतिपल नष्ट हो रहा है, ऐसी स्थिति में आपके भीतर इसके प्रति जो अमरत्व की भावना है वह अयथार्थ है यानी क्षणिक पदार्थ में शाश्वत बुद्धि अयथार्थ है।
    18. जीवन में एक घड़ी भी वीतरागता के साथ जीना बहुत अर्थ रखता है किन्तु राग-असंयम के साथ हजारों वर्ष तक जीना कोई मायना नहीं रखता। सिंह बनकर एक दिन जीना भी श्रेष्ठ है किन्तु सौ साल तक चूहे बनकर जीने की कोई कीमत नहीं है।
    19. जब तक अपराधी एक अकेला रहता है तब तक वह अनुभव करता है कि हाँ मैं अपराधी हूँ मैंने अपराध किया है, मैं उसका दण्ड भोग रहा हूँ। किन्तु जब अपराधियों कीं संख्या बढ़ जाती है तो फिर उसमें भी एक प्रकार का रस आने लगता है।

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