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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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वे नहीं रहे - 66 वां स्वर्णिम संस्मरण


संयम स्वर्ण महोत्सव

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शीतकाल में भोजपुर क्षेत्र पर सारा संघ विराजमान था। प्रकृति के बीचों- बीच श्री शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ भगवान का मंदिर है। मंदिर प्रांगण से ही लगा हुआ जंगल है, बहुत विशाल-विशाल चट्टानें है।  चारो ओर हरियाली ही हरियाली नजर आती है। वहाँ बैठते ही ध्यान लग जाता है, ध्यान लगाने की जरूरत नही पड़ती ।  वहीं जिनालय से कुछ दूरी पर एक दो  मंजिल का।महल है, जो खण्डहर हो चुका है। उसमे आज भी सुंदर कलाकृति बानी हुई है। एक दिन आचार्य महाराज उस कलाकृति को देख रहे थे, उन्होंने कहा- इतना विशाल महल, इतनी अच्छी कलाकृतियां किसने बनवाई होगी, उसका कही नाम तक नही लिखा। "आज लोग मंदिर की दो सीढ़िया लगवा देते है तो नाम लिखवा देते है, पर इस महल को किसने बनवाया नाम ही नही ओर वे भी नही रहे"। और बारह भावना की पंक्ति पढने लगे "कहाँ गये चक्री जिन जीता, भरत खण्ड सारा"।

 

सच बात है महान चक्रवर्ती छः खण्ड के अधिपति का भी नाम नही रहा, वे भी चले गये, फिर भी प्राणी अपने नाम के लिए दान करता है। ध्यान रखो - नाम के लिए दिया गया दान दान नही मान है। दान में समर्पण का भाव होना चाहिए, प्रतिफल की आकांक्षा नहीं रखना चाहिए। दान करने से दान का लोभ कम होगा, लेकिन नाम का लोभ बढ़ गया और नाम की कामना से मान कषाय भी बढ़ गयी इसलिए जिससे कषाय का त्याग हो वही सही त्याग माना जाता है जिससे कषाय में वृद्धि हो वह दान नही माना जा सकता ।

मान बधाई कारणे, जो धन ख़र्चे मूढ़।
मर के हाथी होयगा, धरती लटके सूढ़।।

भोजपुर (2002)

अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार

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