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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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आध्यत्म गीत - 77 वां स्वर्णिम संस्मरण


संयम स्वर्ण महोत्सव

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आचार्य संघ का विहार चूलगिरी से श्रवणबेलगोल के लिए निर्विघ्न चल रहा था। विद्याधर कहार बने डोली उठा रहे थे श्रवणबेलगोल के निकट यात्री दल पहुँचा। सर्पीली पहाड़ियां, दुर्गम चढ़ाई, देवदारुओं का सघन वन, दूर दूर तक कोई बस्ती नहीं। कहार हाँफने लगे हय्या हय्या करने लगे। युवा विद्याधर के कंठ से एक मधुर गीत झरने लगा 

अर्हत् राम, रमैया
  हैया हो रे, हैया
     मेरे अर्हत् पावन हैं 
        करुणा के वे सावन है
          जन्म मृत्यु के दोनों तट से
              पार लगाते नैया
अर्हत् राम, रमैया
  हैया हो रे, हैया
     मिट्टी के घर मे बैठे है 
       अजर-अमर अविनाशी 
         बंद पिंजरा , पंख शिथिल हैं
           और चेतन प्यासी
             जल पोखर में डूब रहा है
                सागर का तैरैया 
अर्हत् राम, रमैया
  हैया हो रे, हैया
    मिट्टी सान रही मिट्टी को 
      शाख- शाख पर डोल रहा है
         मिला न कोई सहारा 
           सुख के सारे दाने चुग गई
              देखों रे काल चिरैया
अर्हत् राम, रमैया
  हैया हो रे, हैया
   आती, जाती सांसों के संग
      एक मुसाफिर ठहरा
        बाहर देखा घात लगाये
          मरण दे रहा पहरा
            सूरज डूबा, तत्क्षण जाना
                  चलने लगी पुरवैया
अर्हत् राम, रमैया
हैया हो रे, हैया

आचार्य श्री देशभूषण जी ने यह आध्यत्म गीत ,सुना तो वह मुग्ध हो गए। उन्होंने स्नेह भरे स्वर में कहा , "तेरा कंठ तो बड़ा मधुर है, कहाँ से सीखा , यह आध्यत्मिक गीत" विद्या ने कहा, "गुरुदेव ! सब आपका आशीर्वाद।" 

ज्योतिर्मय निर्ग्रन्थ पुस्तक से साभार

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