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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. स्वाध्याय 3 - वक्ता/श्रोता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार शब्द अर्थ नहीं है वह तो अर्थ की ओर ले जाने वाला संकेत मात्र है। परमार्थ अभिव्यक्त होने पर शब्द बौने-निरर्थक से हो जाते हैं, अत: शब्दों के माध्यम से स्वयं जागें और परमार्थ की अभिव्यक्ति कर उसका रसपान करें। शब्दों में ऐसा जादू है कि टूटता हुआ दिल जुड़ जाता है और जुड़ता हुआ टूट जाता है। निर्भीकता, गम्भीरता व मधुरता से बोला गया शब्द ही प्रभावक होता है। शब्दों के माध्यम से मन जितना जितना अर्थ की ओर जाता है उसकी एकाग्रता उतनी ही बढ़ती जाती है। शब्दों को फोड़ने का प्रयास करो, उसके माध्यम से अर्थ की यात्रा करो क्योंकि शब्दों में अर्थ भरा है और अर्थ में परमार्थ। भाषा भावों को अभिव्यक्त करने का माध्यम है इसके अतिरिक्त उसका और क्या प्रयोजन है ? वास्तविक उपदेश वह है जिसके द्वारा हम अपने देश (आत्मा) के पास आ सकें अन्यथा वह उपदेश उपदेश नहीं पर-देश ही समझो। पढ़ाने का उद्देश्य मात्र विद्वता की प्रस्तुति ही नहीं अपितु सामने वाले का तत्व के प्रति समर्पण भाव लाना ही सही अध्यापन है। वक्ता की विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता से ही उसके द्वारा कही गई बातों पर विश्वास जमता है। अपनी प्रतिष्ठावश अज्ञात विषय के समाधान का साहस वक्ता को कभी नहीं करना चाहिए। जो विपक्ष की बात सुनने की क्षमता नहीं रखता और बात-बात में उत्तेजित हो उठता है वह सभा मंच पर बैठने के अयोग्य है। जैसे माँ अपने बच्चे को बड़े प्रेम से दूध पिलाती है ठीक वैसी ही मनोदशा होती है बहुश्रुतवान उपाध्याय महाराज की। अपने पास आने वालों को वे बताते हैं सांसारिक क्रियाकलापों से बचने के उपाय। उनका प्रभाव भी पड़ता है क्योंकि वे स्वयं उस प्रक्रिया की साक्षात् प्रतिमूर्ति होते हैं। आचरण के बिना साक्षर मात्र बने रहने से ठीक उसके विपरीत राक्षस बन जाने का भी भय रहता है। अक्षरों के ज्ञानी पण्डित अक्षरों का अर्थ भी नहीं समझते। 'क्षर' यानी नाशवान और ‘अ’ यानी नहीं अर्थात् मैं अजर-अमर अविनाशी हूँ। यह अर्थ है अक्षर का; इसे समझना चाहिए। कथन की शैली भले ही लच्छेदार शब्दों से युक्त हो किन्तु वह कथचित् से रहित है तो वह ज्ञान सम्यकज्ञान नहीं माना जा सकता। सिद्धांत कभी भी अपना नहीं होता..... हाँ! उसे अपना जरूर सकते हैं हम। जैसे घर की दुकान हो सकती है पर घर के नाप तौल नहीं हो सकते। वक्ता को निर्भीक होने के साथ-साथ निरीह भी होना चाहिए। जिस वक्ता की आजीविका श्रोताओं पर आधारित है वह वस्तु तत्व का प्रतिपादन सही-सही नहीं कर सकता। जिस प्रकार वातावरण से प्रभावित होकर गिरगिट अपना रंग बदलता रहता है उसी प्रकार आजकल के वक्ता भी स्वार्थ-सिद्धि की वजह से श्रोताओं का माहौल देखकर आगम के अर्थ को बदलते रहते हैं। सही वक्ता वह है जो निरीह हो, वीतरागी हो, पक्षपाती न हो, किसी भी प्रकार के प्रलोभनवश आगम को उलट-पुलट करने वाला न हो। जिस वक्ता के मन में धन कचन की आस और पाद-पूजन की प्यास विद्यमान है वह सत्य का उद्घाटक कभी नहीं हो सकता। यदि कोई सिद्धान्त का गलत अर्थ निकालता है तो उस समय बिना पूछे ही उसका निराकरण करना चाहिए। यदि उस समय हम समंतभद्राचार्य जैसी गर्जना नहीं करते तो ध्यान रखिये हमारा सम्यकज्ञान भी दूषण को प्राप्त होगा। आज के श्रोता की स्थिति उस माइक के समान है जो सुनता तो सबसे पहले है किन्तु उस सुने हुए को अपने पास नहीं रखता, तुरंत ही दूसरों तक पहुँचा देता है। वक्ता की प्रामाणिकता से वचनों में प्रमाणता आती है, इसलिए उपदेश देने वाले का पद महान् और प्रामाणिक ही होना चाहिए। जिस विषय के बारे में हमें पूर्वापर सही-सही ज्ञान नहीं है उस विषय पर हमें नहीं बोलना चाहिए। ऐसी स्थिति में यदि हम बोलते हैं, प्रवचन करते हैं तो बहुत सारे व्यवधान भी आ सकते हैं और यदि इसमें कषाय और आ जाये तब तो बहुत सारे अनर्थ भी हो सकते हैं। बोलना तो सरल है पर हर किसी के प्रश्न का जवाब देना उतना सरल नहीं है। अत: सोच समझकर पूर्वापर विचार कर आगम परक जवाब देने की कोशिश करना, भले ही जवाब देने में देर हो जाये पर जल्दबाजी में कुछ भी बोलकर अनर्थ नहीं करना। केवल लम्बी-चौड़ी भीड़ के समक्ष प्रवचन देने से ही प्रभावना होने वाली नहीं है बल्कि सही प्रभावना तो अपने मन पर नियन्त्रण करने से होती है। किसी को भी उपदेश सुनाना हो तो ध्यान रहे उसे सर्वप्रथम संवेग और निर्वेग का ही उपदेश देना चाहिए ताकि इन दोनों के माध्यम से वह सरलता से समझकर अपना कल्याण कर सके । शास्त्र का प्रयोग अपने लिए है, दूसरे को समझाने के लिए नहीं। दूसरा यदि अपने साथ समझ जाता है तो बात अलग है किन्तु उसको बुला बुलाकर आप उपदेश दोगे तो जिनवाणी का एक दृष्टि से अनादर होगा क्योंकि वह रुचि पूर्वक सुनेगा नहीं अथवा सुनेगा तो उसका दुरुपयोग करेगा इससे आप भी दोषी माने जायेंगे।
  2. स्वाध्याय 2 - प्रमाण/नय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार नयों में मत उलझो, नय तो मार्ग है मार्ग में सुख की अनुभूति नहीं। नय मार्ग ही है, अब चाहे निश्चय हो या व्यवहार, इसलिए आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने कहा है कि नय पक्षपात से अतिक्रान्त हुए बिना साधक को समयसार का आनंद आ ही नहीं सकता। प्रमाण और नय में उतना ही अन्तर है जितना कि दृष्टि और दृष्टिकोण में। अपनी दृष्टि तक सीमित रहते हुए भी दूसरों की दृष्टि पर प्रहार नहीं करना नय है। जिस प्रकार दो नयनों के माध्यम से मार्ग का ज्ञान होता है उसी प्रकार निश्चय एवं व्यवहार इन दोनों नयों के माध्यम से मोक्षमार्ग का ज्ञान होता है। जैसे दोनों कूल परस्पर प्रतिकूल होकर भी नदी के लिए अनुकूल है ठीक उसी तरह व्यवहार नय और निश्चय नय परस्पर एक दूसरे के प्रतिकूल होकर भी आत्मा के प्रमाणरूप ज्ञान के लिए अनुकूल है। व्यवहार और परमार्थ दोनों को जानों किन्तु अपेक्षा बनाकर परमार्थ को मुख्य और व्यवहार को गौण जानों। कैमरे के माध्यम से बाहरी शक्ल पकड़ में आती है और एक्सरे के माध्यम से भीतरी, क्योंकि अन्तरंग को पकड़ने की शक्ति मात्र एक्सरे में है कैमरे में नहीं। अत: आप एक्सरे के शौकीन बनें कैमरे के नहीं, कैमरा व्यवहार का प्रतीक है और एक्सरे निश्चय का। मन की चंचलता से होने वाली झगड़ालू प्रवृत्ति को दूर करने के लिये ही आगम में नयों की व्यवस्था है। निश्चय, व्यवहार के बिना नहीं होता और जो व्यवहार होता है वह निश्चय के लिए होता है। वह निर्णय सही नहीं है जो व्यवहार की ओर कदम नहीं बढ़ाता और वह व्यवहार भी सही नहीं माना जाता जो निश्चय तक नहीं पहुँच पाता, वो मात्र व्यवहाराभास है। निश्चय में यदि दौड़ लगाना चाहते हो तो बदलाहट अनिवार्य है रुकावट नहीं। जिस साध्य को सिद्ध करना है उसका लक्ष्य बनाना निर्णय है और जिसके माध्यम से साध्य सिद्ध होता है वह व्यवहार है तथा साध्य की उपलब्धि होना निश्चय है। इस तरह पहले निर्णय होता है फिर व्यवहार और अन्त में निश्चय। निर्णय को ही निश्चय मानना हमारी आध्यात्मिक भूल है। निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों का प्रयोग साधना में उतरे हुए व्यक्ति के लिये ही है, साधना का फल मिलने के बाद भी यदि कोई साधक नयों का प्रयोग करना चाहे तो यह ठीक नहीं। जैसे निचली कक्षा पास किये बगैर यदि विद्यार्थी ऊपर की कक्षा में बैठना चाहता है तो ठीक नहीं और पास होने के बाद भी उसी कक्षा में बैठना चाहे यह भी ठीक नहीं।
  3. स्वाध्याय 1 - अनेकान्त/स्याद्वाद विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अनेकान्त वस्तु का धर्म है और स्याद्वाद उसकी कथन पद्धति। ‘ही' एकान्त का प्रतीक है और ‘भी' अनेकांत का। 'ही' में किसी कि अपेक्षा नहीं है जबकि 'भी' पर के अस्तित्व को स्वीकार करता है। ‘ही' देखता है हीन दृष्टि से सबको और ‘भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सबको। ‘ही' पश्चिमी सभ्यता है 'भी' है भारतीय संस्कृति। भाग्य विधाता रावण था ‘ही' का उपासक और राम के भीतर ‘भी' बैठा था, यही कारण है कि राम उपास्य हुए हैं और रहेंगे आगे भी। ‘ही' के आसपास बढ़ती सी भीड़ लगती अवश्य किन्तु भीड़ नहीं ‘भी' लोकतन्त्र की रीढ़ है। हमें सबकी बात बिना पूर्वाग्रह के सुनना चाहिए यही तो अनेकान्त का मूल मन्त्र है। अनेकान्त की सहिष्णुता सभी धर्मों की विषमता का अन्त करती है तथा समझने का मार्ग खोलती है। अहिंसा धर्म की सुरक्षा के लिए अनेकान्त का आश्रय अनिवार्य है। दूसरों को द्वेष की दृष्टि से देखने वाला व्यक्ति अनेकान्त का उपासक नहीं बल्कि उपहासक है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आईन्सटाईन के द्वारा खोजा गया 'सापेक्षता का सिद्धान्त' (Theory of Relativity) वस्तुतः जैनदर्शन की ही देन है। इसी सिद्धान्त के माध्यम से वस्तु में अनेक धर्मों की सिद्धि होती है। जो आगम के आलोक में तत्व व्यवस्था देखना चाहते हैं उन्हें अनेकान्त के आलोक में आगम को देखना चाहिए। भले ही आप अनेकान्त के उपासक हैं लेकिन ये एकांत है कि एकांत में ही अकेले की मुक्ति होगी, वहाँ अनेकान्त नहीं रहेगा। अनेकान्त का मर्म जानने वाला व्यक्ति तीन काल में भी किसी दार्शनिक से भिड़ेगा नहीं। हाँ.....भेंट अवश्य कर सकता है। कभी निश्चय कभी व्यवहार दोनों हो लेकिन उपसंहार अनेकान्त में ही होना चाहिए। एकांतवाद की बू आने पर हम इन दोनों को नहीं पा सकेंगे। स्याद्वाद से एकांतवाद का खंडन और अनेकान्त का मण्डन होता है। हेय को छोड़ना और उपादेय को ग्रहण करना यही स्याद्वाद का सही फल है। अपना छोड़ना और पर को जोड़ना यह स्याद्वाद का फल नहीं है। वाद-विवाद नहीं अपितु निर्विवाद होने के लिए स्याद्वाद और अनेकांत का अवलम्बन लिया गया है। वाद् के पीछे एकांत लगाओगे तो गलत हो जायेगा। वाद् के पीछे तो स्यात् लगाओ, स्याद्वाद कहो, अनेकान्त धर्म कहो। जैनदर्शन का हृदय है अनेकान्त और अनेकान्त का हृदय है समता। सामने वाला जो कहता है उसे सहर्ष स्वीकार करो। विश्व में ऐसा कोई भी मत नहीं है जो भगवान महावीर की देशना से सर्वथा असम्बद्ध हो। दूसरों का विरोध करने की आदत छोड़िये, कोई कुछ कहे उसे सर्वप्रथम मंजूर करो, कैसे करो मंजूर ? कि हाँ भाई! आपका कहना भी कथंचित् ठीक है। कथंचित् यह एक ऐसा शब्द है जिसके माध्यम से हम सभी मान्यतायें स्वीकार कर सुन्दर समाधान दे सकते हैं। अनेकान्त की प्ररूपणा के लिए सहायक है नयवाद। जो कोई भी नीति है-अनीति है, ध्रुव है अध्रुव है, जितने भी नयजाल हैं, वे सब नयाश्रित है। जैन दर्शन वकालत नहीं करता अपितु जो वकालत करने के लिए विविध तर्कों से लैस (तैयार) होकर संघर्ष की मुद्रा में वकील आते हैं उन्हें साम्य भाव से सुनकर सही-सही जजमेंट (Judgement) देता है निष्पक्ष होकर निर्णय देता है। ६ के आगे ३ होने पर ६३ का संबंध बनता है और ३ के आगे ६ होने पर ३६ का आँकड़ा। ३ के आगे होने की स्थिति में अनेकान्तात्मक वस्तु मिट जाती है, स्याद्वाद समाप्त हो जाता है और जब ६ और ३ एक दूसरे की ओर देखते हैं तब मिलन की स्थिति बनती है पीठ दिखाने की नहीं। स्याद्वादी पीठ नहीं दिखाता किसी को। ‘ही' से हटकर यदि ‘भी' की ओर हमारी दृष्टि जाती है तो समझना कि हमने वीर प्रभु के शासन को समझा। मात्र अपनी लीक पर अड़कर लड़ने का नाम वीर-शासन नहीं है। अपने जीवन में आये वैधर्म्य विरोध और वैर आदि को छोड़ो। साम्य साधर्म्य भाव को धारण करो। तभी वीर शासन जयंती मनाना सार्थक होगी।
  4. संस्तुति 5 - श्वांस-श्वांस विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार श्वांस-श्वांस में यदि भक्ति और विश्वास जम जाये तो भवसागर से पार होने में देर नहीं। स्वार्थ की बुँ आते ही वर्षों का जमा हुआ विश्वास भी खिसकने लगता है। प्राचीन मंदिरों में दरवाजे बहुत छोटे बनाये जाते थे, उसका कारण है कि त्रिलोकीनाथ के दरबार में झुककर जाना जरूरी है क्योंकि अहंकार को गलाये बिना भगवद्भक्ति का आनंद आ ही नहीं सकता | बुद्धि नहीं, हृदय ही वास्तव में भक्ति भावना तथा समर्पण का केन्द्र है। श्रद्धा की अभिव्यक्ति आचरण के माध्यम से ही होती है। श्रद्धा जब गहराती है तब वही समर्पण बन जाती है। किसी पवित्र उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपने आपको श्रद्धेय के प्रति सौंप देना ही समर्पण है। सीता, अंजना और मैना-सुन्दरी जैसी महान सतियों का जीवन नारी जगत् के लिये आदर्श है। उनके जीवन में कितनी ही विषम परिस्थितियाँ आई किन्तु उन्होंने धीरज और साहस को नहीं छोड़ा। जंगलों में भटकते हुए भी धर्म तथा कर्मफल पर अटूट आस्था रखी।
  5. संस्तुति 4 - श्रद्धा/समर्पण विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार श्रद्धा, बुद्धि से परे है लेकिन उसकी विरोधनी नहीं। श्रद्धा से अन्धकार में भी जो प्रतीत हो सकता है वह प्रकाश में संभव नहीं, प्रकाश में सुविधा मिल सकती है पर विश्वास नहीं। श्रद्धा, आस्था और अनुराग से अभिषिक्त मन में ही भक्ति का जन्म होता है। श्रद्धा का सेतु एक ऐसा सेतु है जो श्रद्धेय और श्रद्धालु की दूरी को पाट देता है। मांगने से नहीं किन्तु अधिकार श्रद्धा से मिलते हैं। श्रद्धेय की सम्पदा पर श्रद्धालु का अधिकार सहज ही होता है। विश्वास दिलाया जा सकता है पर रास्ता तो स्वयं को तय करना होगा। आस्था मस्तिष्क में नहीं हृदय में जमती है अत: हमारी आस्था का केन्द्र ज्ञान सम्पन्न मस्तिष्क नहीं बल्कि भावना सम्पन्न हृदय होता है। निज आत्मा और परमात्मा पर आस्था-विश्वास की बात ही निराली है, उस समय की भावदशा के प्रभाव से अनादिकालीन मिथ्यादृष्टि सत्तर कोड़ाकोड़ी-सागर स्थिति वाले मिथ्यात्व को अन्त: कोड़ाकोड़ी कर देता है।
  6. संस्तुति 3 - भक्ति-महिमा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार भक्ति गंगा की लहर हृदय के भीतर से प्रवाहित होना चाहिए और पहुँचना चाहिए वहाँ जहाँ निस्सीमता हो । जब तक भक्ति की धारा बाहर की ओर प्रवाहित रहेगी तब तक भगवान् अलग रहेंगे और भक्त अलग रहेगा। भक्ति का असली रूप पहचान लो, तभी मंजिल तक पहुँचोगे अन्यथा संसार की मरुभूमि में ही भटकते रह जाओगे। स्तुति में तन्मयता आने पर अतिशय स्वयमेव प्रगट हो जाते हैं। लोग अतिशय को महत्व देते हैं पर अतिशय तो अब भक्तों का है भगवान् का नहीं। भगवान् के अतिशय तो उनके जीवन काल में ही पूरे हो चुके अतः अब अतिशय का होना हमारी विशुद्धता का परिणाम है। सत्य ही है जहाँ हमारा मन भक्ति से भर उठता है वहीं से अतिशय प्रकट होने लगते हैं। भक्ति करने से जब बाहरी बन्धन ताले-कड़ियाँ टूट सकती हैं तो क्या भीतरी कर्म बन्धन नहीं टूटेंगे? णमोकार मंत्र का माहात्म्य अद्भुत है जिसके श्रवण मात्र से पशु-पक्षियों ने भी सद्गति प्राप्त की। पूजा-भक्ति का माहात्म्य अद्भुत है बंधुओ! एक तिर्यच पर्याय में जन्म लेने वाला क्षुद्र मेंढ़क भी मरकर स्वर्ग के अपार वैभव को क्षणभर में पा लेता है। भक्त को भगवान् से कुछ याचना नहीं करनी चाहिए। अरे! जिस भक्ति के बल से मुक्ति का साम्राज्य मिल सकता है उससे संसार की तुच्छ सामग्री मांगकर भक्ति को क्यों दूषित करते हो? भगवान, भगवान ही है दाता नहीं और भक्त, भक्त ही है भिखारी नहीं। कोई भी भक्त, भगवान् से यह प्रार्थना नहीं करता कि हे! भगवन् आप मेरे मस्तिष्क में विराजमान रहिये बल्कि यही प्रार्थना करता है कि आप मेरे हृदय में विराजमान रहिये। मेरा हृदय आपके चरणों में रहे और आपके चरण मेरे हृदय में सदा-सदा बने रहें। चाहे आचार्य समंतभद्र ही या आचार्य मानतुंग अथवा आचार्य वादिराज, सभी ने भक्ति का माहात्म्य दिखाया। संकट की उन विषम घड़ियों में जब कोई सहारा नहीं था तब भगवान् की पवित्र भक्ति के बल पर ही धर्म की प्रतिष्ठा कायम की। विद्वेषी राजा और प्रजा को अपनी वीतरागता से प्रभावित कर धर्मानुयायी बनाया। जब कभी भी धर्म पर, धर्मात्मा पर संकट आये उपसर्ग हुए तब भगवान् की भक्ति के प्रभाव से ही देवों द्वारा अतिशय, चमत्कार हुए, उपसर्ग टले और धर्म की जय-जयकार हुई।
  7. संस्तुति 2 - भक्ति/स्तुति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार इधर-उधर की पंचायत में मत रमो किन्तु पंच परमेष्ठी की भक्ति में लीन हो जाओ, वह भक्ति तुम्हारी मुक्ति का कारण बनेगी। स्तुति करने का प्रयोजन मात्र रागात्मक क्षणों की प्राप्ति नहीं है बल्कि चित्त में शांति-वैराग्य और संयम में वृद्धि भी होनी चाहिए। भक्ति या गुणानुवाद आन्तरिक भावों के साथ होना चाहिए-वह मात्र दिखावा या प्रदर्शन नहीं हो । हे रसना! तूने आज तक राग भरे गीत-संगीत में ही रस लिया है अब उसमें रस ना ले। अध्यात्म भरी भक्ति वीतराग विज्ञान में रस ले। भक्ति, मुक्ति के लिये कारण है और भुक्ति संसार के लिये। पहले दासोऽहं फिर उदासोऽहं बाद में सोऽहं और अन्त में अहं, भक्त से भगवान् बनने का क्रम यही है। भक्ति कभी भी हेय बुद्धि से नहीं होती बल्कि उसे तो उपादेय बुद्धि से गद्गद् होकर करनी चाहिए। भक्ति तो ठीक है किन्तु अन्धभक्ति ठीक नहीं। बंधुओ! भक्ति को विवेक की डोर से बाँधे रखना। सच्चे दिगम्बर गुरुओं की हमें मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करनी चाहिए, साथ ही इस जिह्वा को यह शिक्षा देनी चाहिए कि हे! रसना जब तक तुझमें शक्ति है तब तक गुरु की महिमा गाती रह, तेरे लिये ये सौभाग्य के क्षण हैं। हम सभी महान् सौभाग्यशाली हैं जो दिगम्बर गुरुओं के दर्शन मिल रहे हैं, तरस गये वह बनारसीदास, भूधरदास, द्यानतराय जैसे विद्वान जिन्हें अपने जीवन काल में दर्शन नहीं मिल पाये। उनके हृदय की पीड़ा भजनों की पंक्तियों में झलकती है, कई जगह लिखा मिलता है - "कब मिल हैं वे गुरुवर उपकारी." कितनी आस्था-भक्ति थी गुरुओं के प्रति। पंच परमेष्ठी की भक्ति एवं ध्यान से विशुद्धि बढ़ेगी, संक्लेश घटेगा, वात्सल्य बढ़ेगा। हम भाग्यवान् हैं कि जिनवाणी आज उपलब्ध है, उस मातेश्वरी के माध्यम से हम कम से कम स्व-पर को समझकर पंच परमेष्ठी की स्तुति भक्ति तो कर सकते हैं। जिनवाणी की स्तुति करने से जिनदेव की भी स्तुति हो जाती है क्योंकि भगवान् तीर्थकर द्वारा ही प्रतिपादित सारा तत्व जिनवाणी में है। भक्ति जब पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है तब वाणी मूक हो जाती है कण्ठ अवरुद्ध हो जाता है आँखों से अश्रुधारा बहने लगती है, ऐसी स्थिति भक्ति भावना के प्रवाह में ही होती है। इतिहास के प्रसंग और प्रथमानुयोग में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे स्पष्ट है कि अंतत: धर्मात्मा की ही विजय होती है। जिसने भी पवित्र मन से भगवान् की पूजा भक्ति की है उसकी रक्षा देवताओं ने भी की है। महान् दार्शनिक होते हुए भी आचार्य समन्तभद्र महाराज स्तुति के क्षेत्र में पीछे नहीं रहे। चौबीस तीर्थकरों की स्तुति ‘स्वयंभूस्तोत्र' लिखने के बाद भी उन्होंने स्तुति के रूप में ‘स्तुति विद्या' लिखी। धन्य था उनका जीवन और अद्भुत थी उनकी भगवद्भक्ति। जैसे हो पृष्ठों के बीच गोंद लगाने पर दोनों पृष्ठ एक हो जाते हैं ठीक उसी प्रकार भक्त और भगवान् के बीच भक्तिरूपी गोंद लगाने से दोनों एकमेक हो जाते हैं। आचार्यों ने उपदेश दिया है कि हे! संसारी प्राणी तू क्यों यहाँ वहाँ की बातों में उलझ रहा है। पंच परमेष्ठी की भक्ति कर, भगवान् का गुणगान कर। भक्ति करने से चित्त को शान्ति मिलेगी, अहंकार घटेगा, नर पर्याय सार्थक होगी। भगवद्भक्त बीहड़ घनघोर जंगल में भी रास्ता पा लेता है और भगवान् को भूल जाने वाला साफ सुथरे रास्ते पर भी भटक जाता है। स्तुत्य प्रत्यक्ष हो या न हो स्तुति करने वाला तो गुणों का स्मरण कर पवित्र हो जाता है। प्रभु बनकर नहीं किन्तु लघु बनकर ही प्रभु की भक्ति की जा सकती है। जिस प्रकार सीपी के योग से तुच्छ जल कण भी महान् मुताफल बन जाते हैं ठीक उसी प्रकार भगवान् के प्रति किया गया अल्प स्तवन भी महत् फल प्रदान करता है। नाल से जुड़े कमल का जिस प्रकार सूर्य की तेज किरणें भी कुछ बिगाड़ नहीं कर पाती ठीक उसी प्रकार भगवद्भक्ति से जुड़े रहने पर भक्त का संसार में कुछ भी बिगाड़ नहीं होता।
  8. संस्तुति 1 - आराध्य/आराधना विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार उपास्य की उपासना उपास्य बनने के लिये ही होती है। उपासना से नहीं किन्तु वासना से उदासीन होना जरूरी है बन्धुओ! स्व-संवेदन रूप आत्मकथा के दरवाजे खोलने के लिये पंच परमेष्ठी की कथा सद्कथा मानी जाती है। प्रभु का अवलम्बन लेकर प्रभु बना जा सकता है। पंच परमेष्ठी की आराधना विषय कषायों से बचने के लिये होती है। पाप से भीति बिना भगवान् से प्रीति नहीं और भगवान् से प्रीति बिना आत्मा की प्रतीति नहीं। भगवान् की वीतरागता देखकर मन आह्वादित हो जाता है और उन जैसा बनने की भावना होती है। जिस प्रकार पहलवान को देखने से पहलवान बनने की और साहूकार को देखकर साहूकार बनने की भावना होती है उसी प्रकार भगवान् को देखकर भगवान् बनने की भावना होती है। अपने मित्र और आत्मीय बन्धु को देखकर जितनी प्रसन्नता होती है उससे भी अधिक प्रसन्नता जिनेन्द्र भगवान् का दर्शन करने से होनी चाहिए। पंच परमेष्ठी के अलावा आत्म कल्याण के लिये इस संसार में न कोई मंगलकारी है और न शरण । जैन दर्शन में व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व पूजा गया है, यही कारण है कि अनादि अनिधन गुणों में स्थित पंच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है। देव शास्त्र गुरु के माध्यम से जिस व्यक्ति ने अपने जीवन को वीतरागता की ओर मोड़ लिया वह एक दिन अवश्य विराम पायेगा। स्व की ओर आने का रास्ता यदि मिल सकता है तो मात्र देव-शास्त्र-गुरु के माध्यम से ही मिल सकता है अन्य किसी से नहीं। प्रभु के हृदय की बात जब तक नहीं समझोगे तब तक आप उन जैसे चैतन्य की परिणति को प्राप्त नहीं कर सकते। जब तक हमारा सम्बन्ध भगवान् से है तभी तक हम भक्त कहलाने के अधिकारी हैं। हे भगवन्! यह बात सही है कि आप सूर्य के समान हैं और हम दीपक के समान।लेकिन यह बात भी सही है कि सूरज की आरती सूरज से नहीं बल्कि दीपक से ही होती है। हे प्रभु! द्रव्य दृष्टि से हम और आप समान हैं पर पर्याय दृष्टि से हममें और आपमें बहुत अन्तर है।हीरा, हीरा ही है पर एक खान में पड़ा है और एक शान पर चढ़ा है। भक्त और भगवान् की दिशा एक ही है यह बात अलग है कि दशा भिन्न-भिन्न हैं। राग का ही यह प्रतिफल है कि हम भगवान् के समान होकर भी भगवान् जैसा अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। जिस प्रकार नदी सागर को देखकर ही नहीं किन्तु सागरमय होकर ही सागर बन पाती है, ठीक उसी प्रकार भगवान् को अकेले देखने मात्र से भगवान् नहीं बना जाता किन्तु उन जैसा आचरण करने से भगवान् बना जाता है। जिन और जन में इतना ही अन्तर है कि एक वैभव के ऊपर बैठा है और एक के ऊपर वैभव बैठा है। जिसमें रागद्वेष, अहंकार, ममकार आदि नहीं पाये जाते वे ही वास्तव में भगवान् हैं, ईश्वर हैं, वे ही हमारे लिये सुख-शांति के आधार हैं। हमें उन्हीं वीतरागी प्रभु की शरण लेनी चाहिए। भगवान् की रक्षा कोई नहीं करता बल्कि उनके पास रहने से हम स्वयं अपनी रक्षा कर लेते हैं। भगवान् की प्रतिमा दर्पण के समान है, उस दर्पण में अपने आपको देखकर अंतरंग पर लगी हुई कालिमा को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। पंचपरमेष्ठी तो निमित्त मात्र हैं, कार्य की सिद्धि के लिये उपादान आप स्वयं हैं। अपनी शक्ति की ओर दृष्टिपात करो उसी से कल्याण होने वाला है। पारसमणि के स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है लेकिन सच्चे देव तो ऐसी अद्भुत पारसमणि हैं जो अपने स्पर्श से लोहे को सोना तो क्या पारसमणि ही बना देते हैं। जिस प्रकार लौकिक क्षेत्र में आई समस्यायों को पंचायत की साक्षी में सुलझाया जाता है ठीक उसी प्रकार परमार्थ के क्षेत्र में पंचपरमेष्ठी रूपी पंचायत की साक्षीपूर्वक अपनी समस्यायों को सुलझाया जाता है। देव-शास्त्र-गुरु से आगे बढ़ने का जो मान होता है वह नियम से अनन्तानुबन्धीकषाय का मान है क्योंकि जिनके माध्यम से अपना सम्यग्दर्शन बना हुआ है अब उन्हीं से आगे बढ़ने का मान (अहंकार) कौन करेगा। पूजा करो, पूर्ण की करो, अनंत की करो। लोक में विख्यात है कि सुखी की पूजा करोगे तो तुम भी सुखी बन जाओगे। उस लौकिक प्रभु और उसकी भक्ति से क्या प्रयोजन जो सिर्फ संसार को ही दिलाता है। वास्तविक प्रभु और उसकी भक्ति तो वह है जो उसे भी प्रभु-परमात्मा बना दे। भगवान् की पूजन करने से हमें बहुत कुछ उपलब्ध होगा ऐसा भाव नहीं करना यानी फल के प्रति हेयबुद्धि हो, न कि पूजा के प्रति। हाँ! इतनी भावना जरूर भानी चाहिए कि हे भगवन्! जैसे आप स्वस्थ स्वरूपस्थ हुए हैं वैसे ही मैं भी स्वस्थ स्वरूपस्थ हो जाऊँ। हम अपने परिणामों से ही भगवान् से दूर हैं और परिणामों की निर्मलता से ही उन्हें हम निकट देख सकते हैं। भक्ति-आराधना सातिशय पुण्य का कारण तो है ही साथ ही साथ परम्परा से मुक्ति का कारण भी है। भगवान् आयतन ही हैं वह कभी अनायतन नहीं हो सकते, ऐसा नहीं कि व्यवहार नय से तो आयतन और निश्चयनय से अनायतन हैं।भले ही हमारी दृष्टि कैसी हो पर जो साधन सम्यक का कारण है वह कभी किसी भी परिस्थिति में मिथ्यात्व पोषक नहीं हो सकता। अपार वैभवशाली इन्द्र भी जब समवसरण में जाकर भगवान् के चरणों में झुक जाता है तब मिथ्यादृष्टि देव भी भगवान् की महिमा से प्रभावित हो जाते हैं और सम्यग्दर्शन प्राप्त कर भक्ति गुणगान करने लगते हैं। धन्य है प्रभु की महिमा जिसका वर्णन हम शब्दों में नहीं कर सकते। अर्थ और परमार्थ की दृष्टि का अन्तर तो देखिये! वही भरत प्रभु आदिनाथ के चरणों में रत्न चढ़ाता है और वही भरत छोटे भैय्या बाहुबली के ऊपर चक्ररत्न चलाता है। पूज्य और पूजक दोनों एक ही स्थान पर है। फर्क इतना है कि एक सिंहासन पर बैठा है और एक नीचे बैठा है। एक पूज्य है और एक पूजता है, एक व्यवस्था कर रहा है और एक की व्यवस्था हो रही है। मंदिर और मूर्तियाँ हमारी आस्था-निष्ठा के केन्द्र हैं, जहाँ हम अपनी भक्ति-भावनाओं को प्रदर्शित कर सकते हैं। मंदिर में जाकर यदि भगवान् से पूछो कि तुम कौन हो तो प्रतिध्वनि आती है कि तुम कौन हो? यदि हम कहें कि आप भगवान् हो तो प्रतिध्वनि सुनाई पड़ेगी कि आप भगवान् हो। इससे बड़ी महिमा मन्दिरों की और क्या हो सकती है। पूजा के समय चढ़ाये गये द्रव्य के माध्यम से श्रावक का परिग्रह के प्रति राग घटता है। भगवान् के सामने जाकर चावलादि चढ़ाने का अर्थ ही यही है कि हम त्याग के आदर्श के सामने जाकर त्याग की शिक्षा लेते हैं। विपत्ति के समय तो कोई भी भगवान् को याद कर सकता है किन्तु सुख के क्षणों में भी जो भगवान् को नहीं भूलता उसके जीवन में विपत्ति आती ही नहीं। अधिक कुछ स्वाध्याय साधना नहीं होती तो कम से कम निराकुलता से भगवान् का नाम तो लिया करो, यह नाम ही एक न एक दिन संसार से पार करा देगा। संसारी प्राणी दुनिया की नकल करने में लगा है पर उसे सही-सही नकल करना भी अभी नहीं आता, यदि नकल करना ही है तो भगवान् की नकल करो जो तुम्हें मुक्ति दिलायेगी। भगवन्! आप कहाँ? और हम संसारी जन कहाँ? फिर भी जिस प्रकार बहुत दूर रहने पर भी सूरज कमलों को खिला देता है ठीक उसी तरह आपका दर्शन-गुणस्मरण भी भव्यजीव रूपी कमलों को आनंदित करा देता है विकसित करा देता है। चैत्य और चैत्यालय को देखकर हमें जो बोध होता है वह बोध अन्य किसी के माध्यम से नहीं होगा। भगवान् के मन्दिर में प्रवेश करते ही दुनिया के सारे महल और मकान फीके लगने लगते हैं। भगवान् की पूजा संसार को दग्ध करने वाली है तथा काम वासना को शांतकर जीवन को पवित्र बनाती है। भगवान् का दर्शन करते-करते जिस दिन आपके अन्दर का सोया हुआ भगवान् जाग जाये, समझ लो उस दिन दर्शन करना सार्थक हो गया। पैसों से मंदिर और मूर्तियाँ बनाई जा सकती हैं पर भगवान् नहीं, भगवान् तो भावनाओं से ही बनते हैं। मूर्ति, पाषाण और कला की कीमत हो सकती है पर भगवान् की नहीं, भगवान् तो अनमोल हैं। हे भगवन् अब हमें प्रसिद्धि की नहीं सिद्धि की जरूरत है। जिस प्रकार सामान्य रंग और कपड़ों की ध्वजा होकर भी हम उसमें राष्ट्र के प्रति गौरव समान प्रतिष्ठापित कर लेते हैं ठीक इसी प्रकार स्थापना निक्षेप के माध्यम से हम पाषाण निर्मित प्रतिमा में भी प्राण प्रतिष्ठा द्वारा भगवत्पने का आरोपण कर लेते हैं जिससे हमारी अनन्य भक्ति निष्ठा जुड़ जाती है। भाव निक्षेप (साक्षात् भगवान्) के अभाव में स्थापना निक्षेप (मूर्तियाँ) ही एक ऐसा साधन है जिससे अपने आराध्य की तन्मयता के साथ आराधना की जा सकती है। मूर्ति पूजा का अर्थ मात्र धातु या पाषाण पूजा नहीं किन्तु मूर्ति में स्थापित गुणारोपण रूप अपने आराध्य की कल्पना कर उनका गुणगान करना है। भगवान् ने हमारी खोज नहीं की किन्तु हमने ही भगवान् को खोजा है। अहो! इस विषय बहुल संसार में भगवान् को खोज लेना कम पुरुषार्थ की बात नहीं है। सरोवर के बीच बैठा हुआ व्यक्ति जिस तरह दावानल से घिरे रहने पर भी उसकी दाह से बच जाता है ठीक उसी तरह भगवान् के मंदिर में पहुँचने पर भक्त पुरुष बाहरी विषय-कषायों के दावानल से भली-भांति बच जाता है।
  9. आगामी 5 नवम्बर को हैं आचार्य पदारोहण दिवस आपसे अनुरोध है की आप सभी कार्यक्रमों को आने वाले आचार्य पदारोहण दिवस 5 नवम्बर पर अपने समाज की एकता को सम्मिलित करके इन कार्यक्रमों को प्रस्तुत करे एवं अपने आस पास सभी मंदिरों तक यह सन्देश पहुचाये. संस्कृतिक कार्यक्रम https://vidyasagar.guru/files/category/4-1 आचार्य श्री के भजन यहाँ से डाउनलोड करें https://vidyasagar.guru/musicbox/songs/2-भजन/
  10. "एक साधक ने अपने लक्ष्य के अनुकूल पुरुषार्थ कर प्राप्त की कालजयी सफलता।" उन महान साधक की साधना से जुड़े विस्मयकारी प्रसंगों को, जिनसे जिनशासन हुआ गौरवान्वित, उन प्रसंगों को ही इस लेख का विषय बनाया जा रहा है। गुरुवाणी के साथ-साथ विषय की पूर्णता हेतु अन्य स्रोतों से भी विषय वस्तु को ग्रहण किया गया है। आगामी 29 नवंबर 2023 को हैं 52 वां आचार्य पदारोहण दिवस आचार्य श्री ज्ञानसागर द्वारा मुनिश्री विद्यासागर को आचार्य पद प्रदान करने की घोषणा एवं संस्कार २२ नवम्बर १९७२, माघ शीर्ष कृष्ण द्वितीया, नसीराबाद, राजस्थान आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज का सन् १९७२ में नसीराबाद में चातुर्मास चल रहा था। चातुर्मास के पूर्व जब वह अजमेर में विराजमान थे, तभी से उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। चातुर्मास समाप्ति की ओर था। आचार्य महाराज शारीरिक रूप से काफी अस्वस्थ एवं क्षीण हो चुके थे। साइटिका का दर्द कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। दर्द की भयंकर पीड़ा के कारण आचार्य महाराज चलने-फिरने में असमर्थ होते जा रहे थे। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज का विस्मयकारी निर्णय ऐसी शारीरिक प्रतिकूलता की स्थिति में ज्ञानमूर्ति आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने सल्लेखना व्रत ग्रहण करने का निर्णय लिया। समाधि हेतु आचार्य पद का परित्याग तथा किसी अन्य आचार्य के सान्निध्य में जाने का आगम में विधान है। आचार्य महाराज के लिए इस भयंकर शारीरिक पीड़ा की स्थिति में किसी अन्य आचार्य के पास जाकर समाधि लेना भी संभव नहीं था। अत: उन्होंने स्वयं आचार्य पद का त्याग करके अपने सुयोग्य शिष्य मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज को आचार्य पद पर आसीन करने का मानस बनाया। चातुर्मास निष्ठापन के दूसरे ही दिन आचार्य ज्ञानसागरजी ने संघ के समक्ष अपनी इस भावना को रखा। यह बात सुनकर संघ में सभी लोग सन्तुष्ट थे, सिर्फ मुनि श्री विद्यासागरजी को छोड़कर। मुनि श्री विद्यासागरजी की अस्वीकृति जब आचार्य महाराज ने मुनि विद्यासागरजी से आचार्यपद ग्रहण करने हेतु कहा, तब मुनिश्री बोले- "गुरुदेव! आप मुझे मुनि पद में ही साधना करने देंगे तो मुझ पर आपकी महती कृपा होगी।", मुनि विवेकसागरजी महाराज को आचार्य पद देगे तो अच्छा होगा (उस समय विवेकसागरजी महाराज वहाँ पर नहीं थे, उनका चातुर्मास कुचामन सिटी में था) अथवा क्षुल्लक श्री विजयसागरजी महाराज को मुनि दीक्षा देकर उन्हें आचार्यपद दे दीजिए। पद त्याग नहीं तो समाधि कैसे... जब मुनि श्री विद्यासागरजी ने मुनि पद पर रहते हुए अपनी साधना करने की भावना एवं आचार्य पद के प्रति अपनी निरीहता प्रकट कर दी तो आचार्य महाराज के सामने यह समस्या खड़ी हो गई कि अब मैं समाधि के लिए कहाँ जाऊँ...? मुनि श्री विद्यासागर जी ने दी गुरुदक्षिणा अनेक मूर्धन्य विद्वान ज्ञानार्जन एवं दर्शनार्थ उनके पास आते रहते थे। एक दिन आचार्य महाराज ने छगनलाल पाटनी, अजमेर वालों से कहा-"छगन जी! मेरी समाधि बिगड़ जाएगी।" पाटनी जी - "महाराज! ऐसा क्यों ?" ज्ञानसागरजी महाराज - "मुनि विद्यासागर आचार्य पद लेने से इंकार कर रहा है।" पाटनी जी - "आचार्य पद उनको लेना पड़ेगा। वो इंकार नहीं कर सकते।" महाराज - "वो तो साफ इनकार कर रहा है।" तब फिर छगनलाल पाटनी, ताराचंद जी गंगवाल व माधोलाल जी गदिया बीरवाले जहाँ मुनि विद्यासागरजी महाराज नसिया में ऊपर सामायिक कर रहे थे, वहाँ पहुँच गये। छगनलालजी ने महाराज से निवेदन किया - "महाराज श्री! क्या गुरु की समाधि बिगाड़नी है जो कि आप आचार्य पद नहीं ले रहे हैं।" मुनि विद्यासागरजी बोले - "मैं परिग्रह में नहीं फँसना चाहता, यह मेरे ऊपर बहुत भारी बोझ आ जाएगा।" उसी समय शान्तिलाल पाटनी, नसीराबाद वाले भी वहाँ पहुँचे और उन्होंने मुनि श्री विद्यासागर जी से कहा -"आपको यह पद स्वीकार करने में क्या तकलीफ है ?" तब मुनि श्री बोले -"मुझे विनाशीक पद नहीं चाहिये अविनाशी पद चाहिये |" छगनलाल पाटनी पुनः बोले - "आप गुरु को गुरु दक्षिणा में क्या दोगे ? क्योंकि आपके पास और कोई परिग्रह है ही नहीं, जो आप अपने गुरु को गुरु दक्षिणा में दे सको।" महाराजश्री कुछ देर मौन रहकर बोले - "चलो, गुरु की समाधि तो बिगड़ने नहीं दूँगा, चाहे मेरे ऊपर कितनी भी विपत्तियाँ आवें उनको मैं सहर्ष सह लूगा।" फिर मुनिश्री विद्यासागर जी ने आचार्य महाराज के पास आकर निवेदन किया, "हे गुरुदेव! मेरे लिए आज्ञा प्रदान कीजिए।" आचार्य महाराज ने उन्हें अपने कर्तव्य, गुरु सेवा और आगम की आज्ञा का स्मरण कराया और कहा कि - "गुरु दक्षिणा तो आपको देनी ही होगी।" इतना सुनते ही मुनिश्री अपने भावों को रोक न सके और एक बालक की भाँति विचलित हो उठे। शिष्य पर गुरु संग्रह, अनुग्रह आदि के माध्यम से कई प्रकार के उपकार करते हैं, पर शिष्य का गुरु पर क्या उपकार है ? गुरु के अनुकूल वृत्ति करके गुरु पर शिष्य उपकार कर सकता है। ऐसा विचार कर मुनि श्री विद्यासागर गुरु चरणों में नतमस्तक हो गए। तब इच्छा नहीं होते हुए भी दस दिनों के लम्बे अंतराल के पश्चात् उनको अपने ही दीक्षा-शिक्षा गुरु महाराज को आचार्य पद ग्रहण करने की "मौन स्वीकृति देकर गुरु दक्षिणा समर्पित करनी ही पड़ी।" मौन स्वीकृति मिलने पर आचार्य महाराज अत्यन्त आह्वादित हुए और उन्होंने तत्काल ही मुहूर्त देखने का संकेत किया। आचार्य पदारोहण मुहूर्त निर्धारण उसी समय वहाँ अन्य संघस्थ एक क्षुल्लक पद्मसागरजी महाराज विराजमान थे, जो ज्योतिष के बड़े विद्वान थे। उनसे आचार्य पद का मुहूर्त निकलवाया। क्षुल्लक जी मुहूर्त देखकर बोले - "मैंने मेरी जिंदगी में ऐसा बढ़िया मुहूर्त नहीं देखा, जो आचार्य पद दीक्षा लेने वाले के लिए और देने वाले के लिए निकला हो। बहुत ही उत्तम मुहूर्त है।" वह दिन था मगसिर कृष्ण दोज, वीर निर्वाण संवत् २४९९, विक्रम संवत् २०२९, दिनांक २२ नवम्बर १९७२, स्थान-श्री दिगम्बर जैन नसिया जी मंदिर, नसीराबाद, जिलाअजमेर, समय- प्रात: काल लगभग ९ बजे का। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का आचार्यपद से अंतिम प्रवचन जैसे कोई श्रावक (पिता) जब तक अपनी योग्य कन्या का विवाह समय पर नहीं कर देता तब तक उसे चैन नहीं रहता। उसी प्रकार आचार्य श्री ज्ञानसागरजी को पद देने से पूर्व तक चैन नहीं रहा, अत: उन्होंने उचित समय पर कन्यादान के समान अपने पद का दान किया और सब कुछ त्याग कर, समाधि जो मुख्य लक्ष्य था, उसकी ओर बढ़ गए। विशाल जनसमूह इस विस्मयकारी उत्सव को देखने के लिए उपस्थित था। आचार्य आसन पर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी विराजमान हैं। उनके पास ही मुनि आसन पर श्रमण विद्यासागरजी विराजमान हैं। उस दिन मुनि श्री विद्यासागर जी ने उपवास किया था। आचार्य पद से आचार्यश्री ज्ञानसागरजी ने अंतिम उपदेश दिया, उन्होंने बहुत ही मार्मिक शब्दों में कहा - "यह नश्वर शरीर धीरे-धीरे गिरता जा रहा है और मैं अब इस पद का मोह छोड़ कर आत्म-कल्याण में पूर्णरूपेण लगना चाहता हूँ। जैनागम के अनुसार यह करना अत्यन्त आवश्यक और उचित भी है।" आचार्य पद त्याग प्रवचन के पश्चात् जैसे ही मुहूर्त का समय हुआ, वैसे ही आचार्य श्री ज्ञानसागरजी अपने आचार्य आसन से उठे और मुनि आसन पर विराजमान मुनि श्री विद्यासागर को उठाकर अपने आचार्य आसन पर बिठाया। वे स्वयं मुनि आसन पर विराजमान हो गए। तत्पश्चात् उन्होंने आगमानुसार भक्तिपाठ आदि करते हुए, मुनि श्री विद्यासागर जी के ऊपर आचार्य पद के संस्कार किए। संस्कार करने के बाद आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपनी आचार्य पिच्छी मुनि श्री विद्यासागर जी को प्रदान की। स्वयं अपने मुनि आसन से नीचे उतरे और नवोदित आचार्य श्री विद्यासागर को त्रयभक्ति पूर्वक नमोस्तु किया। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने अत्यन्त विनम्र भाव से नग्रीभूत होकर मुनि श्री ज्ञानसागर जी को प्रति नमोस्तु निवेदित किया। उसी समय मुनिश्री ज्ञानसागर जी ने नवोदित आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की तीन प्रदक्षिणा लगाई। यह दृश्य देखने लायक था। उसके बाद आचार्य श्री विद्यासागर जी का आचार्य पद से प्रथम प्रवचन हुआ उन्होंने एकत्व विभक्त के ऊपर बहुत अच्छा प्रवचन दिया। आचार्य आसन पर किया प्रतिष्ठित आचार्य पद प्राप्त करने के पश्चात् आचार्य विद्यासागरजी अपने पूर्व स्थान पर बैठने लगे, तो मुनि श्री ज्ञानसागरजी आचार्य आसन की ओर संकेत करते हुए बोले "विद्यासागरजी ! क्या आचार्य आसन रिक्त रहेगा ? मैं अपना पद परित्याग कर चुका हूँ, आप यथास्थान बैठिएगा।" इस प्रकार उन्होंने विद्यासागरजी को आचार्य आसन पर बैठाया और स्वयं विद्यासागरजी के स्थान पर जाकर बैठ गए। ....और वे गदगद हो गए मुनि आसन पर बैठकर आचार्य महाराज (मुनिश्री ज्ञानसागर जी) गदगद हो गए। उनके चेहरे पर मुस्कान थी, क्योंकि वे आत्मसंस्कार के साथ सल्लेखना काल को स्वीकार कर रहे थे। उसके लिए वे निश्चिन्त हो गए थे। उन्हें हँसते हुए देख हम भी कुछ सोचकर हँसने लगे, तब गुरु महाराज ने मुझसे पूछा-"आप क्यों हँस रहे हैं ?" हमने कहा "जैसे आपने हँसते-हँसते आचार्य पद का त्याग किया है, वैसे ही मैं भी एक दिन हँसते हॅसते इस आचार्य पद का त्याग करूंगा, और ऐसे ही विकल्प रहित, उत्साह पूर्वक जीवन का उपसंहार करूंगा, यह विचार कर हँस रहा हूँ।" नवोदित आचार्य को बनाया अपना नियपिकाचार्य आचार्य श्री विद्यासागर जी गंभीर मुद्रा में आचार्य आसन में विराजमान थे। उनके हृदय में तरंगित भावनाओं को अभिव्यक्त करना कल्पनातिरेक होगा। कुछ क्षण पश्चात् मुनि श्री ज्ञानसागर जी उठे और आचार्य श्री विद्यासागरजी को नमन करते हुए बोले- "हे आचार्यश्री! मैं आपके आचार्यत्व में सल्लेखना लेना चाहता हूँ मुझे समाधिमरण की अनुमति प्रदान कीजिए।" मैं आपको निर्यापकाचार्य के रूप में स्वीकार करता हूँ। आप मुझे अपना क्षपक बना लीजिए। मुनि श्री ज्ञानसागर जी द्वारा समाधिमरण की भावना व्यक्त करने पर उपस्थित विद्वानों, श्रेष्ठी, साधकों एवं श्रावकों की आँखें अश्रुपूरित हो उठीं। गुरु की वाणी सुनकर आचार्य श्री विद्यासागरजी विस्मित थे, उनका हृदय करुणा से विगलित हो उठा। इस तरह २२ नवम्बर, १९७२ को नसीराबाद स्थित सेठ जी की नसिया में प्रात:काल ९ बजे बड़ी शालीनता और विनम्रता से गुरु ने शिष्य को आचार्य पद प्रदान किया। ८२ वर्षीय गुरुदेव आचार्य ज्ञानसागर ने २६ वर्षीय अपने सुयोग्य शिष्य को आचार्य पद एवं निर्यापकाचार्य का दायित्व सौंपा ॥ यह सब देखकर जन समूह स्तब्ध रह गया। उन्होंने अपने जीवन में ऐसा दृश्य कभी नहीं देखा था। नवोदित आचार्य श्री विद्यासागरजी उस दिन से लेकर फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा तक अर्थात् चार माह तक मात्र दूध, गेहूँ और जल ये तीन चीजें ही आहार में ग्रहण करते थे। कथनी-करनी में एकरूपता कार्यक्रम समापन के पश्चात् सर सेठ भागचंद्र जी सोनी, अजमेर (राजस्थान) ने लौटते समय आचार्य ज्ञानसागरजी से अजमेर पधारने की प्रार्थना की, तो गुरुवर मुस्कराने लगे। उनकी भक्ति और भोलेपन पर। और बोले - "भागचंद्रजी ! आप किससे अनुरोध कर रहे हैं। मैं अब संघ में मुनि हूँ, आचार्य नहीं। आप आचार्य विद्यासागरजी से चर्चा कीजिए।" मान मर्दन का अनूठा उदाहरण आचार्य पदारोहण देखने के बाद छगनलाल पाटनी जब अजमेर आए, तब अजमेर नसिया में विराजमान आर्यिका श्री विशुद्धमति माता जी ने श्रावक श्रेष्ठी पाटनी जी से आचार्य पद त्याग का आँखों देखा प्रसंग सुना। तब माता जी बोलीं - "ऐसा रिकॉर्ड हजारों वर्षों में नहीं मिलता, जो अपने शिष्य को आचार्य बनाकर स्वयं शिष्य बन जाए। इतना मान मर्दन करना बहुत ही कठिन है, जो कि अपने शिष्य को नमस्कार करे। धन्य हैं महाराज ज्ञानसागरजी।" दायित्व सौंपने की अनूठी कला काल का क्रम कभी रुकता नहीं। वह निरंतर प्रवाहमान है। चतुर्दशी का पावन पर्व आया। पूरे संघ ने उपवास के साथ पाक्षिक प्रतिक्रमण किया। प्रतिक्रमण के बाद आचार्य भक्ति करके नवोदित आचार्य की चरण वंदना की गई। यह दृश्य आश्चर्यकारी होने के साथ ही आनन्ददायक भी था। क्षपक मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने अपने स्थान से उठकर आचार्य श्री विद्यासागरजी के चरणों में अपना मस्तक रख दिया। दोनों हाथों से नियपिकाचार्य जी के दोनों चरण कमलों को तीन बार स्पर्श किया और नवोदित आचार्य के चरण स्पर्श से पवित्रित अपने दोनों हाथों को प्रत्येक बार अपने सिर पर लगाते रहे। फिर आचार्य गुरुदेव के सामने नीचे धरती पर बैठकर गवासन की मुद्रा में प्रायश्चित हेतु प्रार्थना की। संस्कृत भाषा में ही प्राय: गुरु शिष्य की बातें होती थीं। वह बोले - "भी गुरुदेव! अस्मिन् पक्षे मम अष्टाविंशति - मूलगुणेषु.मा प्रायश्चितं दत्त्वा शुद्धि कुरुकुरु।" इस प्रकार प्रायश्चित का निवेदन करते हुए उन्होंने निर्यापकाचार्य श्री विद्यासागरजी के दोनों हाथ पकड़कर अपने सिर पर रख लिये, आचार्य विद्यासागर मौन मध्यस्थ बने रहे। संघस्थ साधु मुनि श्री विवेकसागरजी महाराज कुचामन सिटी, राजस्थान से चातुर्मास वर्षायोग सम्पन्न करके विहार करते हुए अपने दीक्षा गुरु क्षपक श्री ज्ञानसागरजी एवं नवोदित आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के दर्शनार्थ नसीराबाद, अजमेर, राजस्थान पधारे थे। वह भी अपने स्थान से उठकर खड़े हुए और दोनों गुरुओं के श्रीचरणों में बैठकर विनयपूर्वक नमोऽस्तु निवेदन किया। उन्होंने भी अपने दीक्षा गुरु ज्ञानसागरजी का अनुकरण करते हुए पहले आचार्य विद्यासागरजी का चरणवंदन किया। पश्चात् स्वगुरु ज्ञानसागरजी के चरणों का वंदन किया। फिर हिन्दी भाषा में ही अपने गुरु से प्रायश्चित का निवेदन किया कि दीक्षा के बाद से अब तक जो भी अट्ठाईस मूलगुणों में दोष लगे हों, आप प्रायश्चित देकर मुझे शुद्ध करने की कृपा करें। तब क्षपक श्री ज्ञानसागरजी ने अपने ही द्वारा दीक्षित शिष्य मुनि विवेकसागरजी से कहा - "मैंने भी आपके सामने ही इन्हीं आचार्य महाराज से प्रायश्चित देने हेतु प्रार्थना की है। अब आप भी इन्हीं से निवेदन कीजिये।" तब श्री विवेकसागरजी महाराज ने नवोदित आचार्य महाराज से विनयपूर्वक निवेदन किया कि मुझे भी प्रायश्चित प्रदान करने की अनुकम्पा करें। ऐसा निवेदन करने पर आचार्य श्री ने पहले क्षपक श्री ज्ञानसागरजी को पाक्षिक प्रतिक्रमण के प्रायश्चित के रूप में ११ मालाएँ जपने का और श्री विवेकसागरजी को पाँच उपवास और ५१ मालाएँ जपने का प्रायश्चित सबके सामने दिया। फिर संघ के ऐलक जी, क्षुल्लक जी आदि अन्य त्यागीगण ने भी पाक्षिक प्रायश्चित नवोदित आचार्य महाराज से ग्रहण किया। सबको सात सात मालाएँ जपने का प्रायश्चित मिला। उपसंहार गुरु जी के बारे में सुनाना औपचारिकता जैसा लगता है। गुरु के बारे में कहना है तो उसका कोई अंत है ही नहीं। वह अनंत को कहना है। उनके विषय में कैसे स्तुति मैं कर सकता हूँ परन्तु कहने से आस्था बलवती हो जाती है। चाँद को देखूँ परिवार से घिरा सूर्य संत सा। रात को चाँद अकेला नहीं रहता, तारामंडल उसके चारों ओर बिखरा हुआ रहता है। ताराओं में चंद्रमा को ताराचंद भी कहते हैं। किन्तु दिन में जब सूर्य को देखते हैं तो वह किसी से भी नहीं घिरा रहता है। सूर्य के सिवाय और कोई परिग्रह से, परिवार से रहित नजर नहीं आता। इसी तरह गुरुजी को मैं सूर्य की तरह मानता हूँ, पर आपको चंद्रमा पसंद है इसलिए गुरुजी को चंद्रमा कहता हूँ। यदि सूर्य धरती को न तपाये अपने तेज से, तो वर्षा प्रारंभ नहीं होती। सूर्य नारायण की बदौलत हम सब आज खा-पी रहे हैं। सूर्य की तरह गुरुजी ने यदि हमको न तपाया होता, तो आज तक हम ठण्डे पड़ जाते। मन का काम नहीं करना। मन से काम करोगे, तो उनको और हमको भी समझ पाओगे। आज के दिन एक उच्च साधक ने अपने जीवन की अंतिम दशा में अपनी यात्रा को पूर्ण करने के लिए पूर्व भूमिका बनाई। "मैं आज के इस दिवस को आचार्य पद त्याग के रूप में स्वीकार करता हूँ, ग्रहण के रूप में नहीं।" आचार्य पद कार्य करने की अपेक्षा से महत्वपूर्ण होता है, आसन पर बैठने की अपेक्षा से नहीं। "गुरु महाराज ने आज आचार्यपद त्याग किया था, यह महत्वपूर्ण है। पद ग्रहण करना महत्वपूर्ण नहीं, क्योंकि ग्रहण करना हमारा स्वभाव नहीं त्याग करना हमारा स्वभाव है।" आचार्य पदारोहण दिवस पर आचार्य श्री के प्रवचन - मेरा लक्ष्य तो मेरे गुरु का अनुकरण करना है। ये तो सब व्यवहार के पद हैं। गुरु और शिष्य आगे पीछे दोनों में अंतर कहाँ
  11. जैन दर्शन की रीढ़ अनेकान्त एवं स्याद्वाद का वर्णन इस अन्तिम अध्याय में है। 1. अनेकान्त किसे कहते हैं ? अनेक + अन्त = अनेकान्त। अनेक का अर्थ है एक से अधिक, अन्त का अर्थ है गुण या धर्म। वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक गुणों या धर्मों के विद्यमान रहने को अनेकान्त कहते हैं। 2. अनेकान्त के कितने भेद हैं ? अनेकान्त के दो भेद हैं - सम्यक् अनेकान्त - वस्तु के अनेक गुण धर्मो को सापेक्ष रूप से स्वीकार करना। मिथ्या अनेकान्त - निरपेक्ष रूप से अनेक गुण धर्मों की कल्पना करना। 3. स्याद्वाद किसे कहते हैं ? अनेकान्त धर्म का कथन करने वाली भाषा पद्धति को स्याद्वाद कहते हैं। स्यात् का अर्थ है कथचित् किसी अपेक्षा से एवं वाद का अर्थ है कथन करना। 4. स्याद्वाद के कितने भङ्ग हैं ? स्याद्वाद के सात भङ्ग हैं, जिसे सप्तभङ्गी के नाम से भी जाना जाता है। 5. सप्तभङ्गी किसे कहते हैं ? “प्रश्न वशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधि प्रतिषेध विकल्पना सप्तभङ्गी'। अर्थ– प्रश्न के अनुसार एक वस्तु में प्रमाण से अविरुद्ध विधि निषेध धर्मों की कल्पना सप्त भङ्गी है। (रावा, 1/6/5) सप्त भङ्गों के समूह को सप्तभङ्गी कहते हैं। 6. सप्त भङ्ग के नाम क्या हैं ? सप्त भङ्ग के नाम इस प्रकार हैं-1. स्यात् अस्ति एव, 2. स्यात् नास्ति एव, 3. स्यात् अस्ति—नास्ति, 4. स्यात् अवक्तव्य एव, 5. स्यात् अस्ति अवक्तव्य, 6. स्यात् नास्ति अवक्तव्य, 7. स्यात् अस्ति—नास्ति अवक्तव्य। (रा. वा., 4/42/15) स्यात् अस्ति एव - किसी अपेक्षा से है। जैसे-सीताजी रामचन्द्रजी की अपेक्षा से धर्मपत्नी ही हैं। स्यात् नास्ति एव - किसी अपेक्षा से नहीं है। जैसे-सीताजी रामचन्द्रजी के अतिरिक्त अन्य पुरुष की अपेक्षा से धर्मपत्नी नहीं है। स्यात् अस्ति-नास्ति - किसी अपेक्षा से है, किसी अपेक्षा से नहीं है। जैसे-सीताजी रामचन्द्रजी की अपेक्षा से धर्मपत्नी है, अन्य पुरुषों की अपेक्षा से धर्मपत्नी नहीं है। स्यात् अवक्तव्य एव - किसी अपेक्षा से अवक्तव्य है। (नहीं कहा जा सकता है) जैसे-सीताजी रामचन्द्रजी की अपेक्षा से धर्मपत्नी है, अन्य पुरुषों की अपेक्षा से ही, इन दोनों अपेक्षाओं को एक साथ नहीं कहा जा सकता है। अतः युगपत् अपेक्षा अवक्तव्य है। स्यात् अस्ति अवक्तव्य - किसी अपेक्षा से है, पर अवत्तव्य है। जैसे-सीताजी रामचन्द्रजी की अपेक्षा से धर्मपत्नी है एवं उसी समय रामचन्द्रजी एवं अन्य पुरुष इन दोनों की अपेक्षाओं से एक साथ नहीं कहा जा सकता है। स्यात्नास्ति अवक्तव्य - किसी अपेक्षा से नहीं है, पर अवत्तव्य है। जैसे-सीताजी अन्य पुरुषों की अपेक्षा से धर्मपत्नी नहीं है एवं उसी समय रामचन्द्रजी एवं अन्य पुरुष इन दोनों अवस्थाओं का कथन युगपत् संभव नहीं है, अत: नास्ति अवक्तव्य है। स्यात् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य - किसी अपेक्षा से है, नहीं भी है, पर अवत्तव्य है। जैसे-सीता जी रामचन्द्र जी की अपेक्षा से धर्मपत्नी है, अन्य पुरुष की अपेक्षा से धर्मपत्नी नहीं है एवं उसी समय तीनों अवस्थाओं का कथन युगपत् संभव नहीं है, अत: अस्ति-नास्ति अवक्तव्य है। 7. सप्तभङ्गी का सैद्धांतिक उदाहरण आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने कौन-सा दिया था ? प्रथम गुणस्थानवर्ती अस्ति मिथ्यादृष्टि होता है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव नास्ति मिथ्यादृष्टि होता है। तीसरे गुणस्थान वाला जीव अस्ति-नास्ति मिथ्यादृष्टि होता है। दूसरे गुणस्थान वाला जीव अवक्तव्य मिथ्यादृष्टि होता है। क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव अस्ति अवक्तव्य मिथ्यादृष्टि है। उपशम सम्यग्दृष्टि नास्ति अवक्तव्य मिथ्यादृष्टि है। करण लब्धि वाला जीव अस्ति-नास्ति अवत्तव्य मिथ्यादृष्टि है। 8. अनेकान्त हमारे नित्य व्यवहार की वस्तु किस प्रकार से है ? अनेकान्त हमारे नित्य व्यवहार की वस्तु है, इसे स्वीकार किए बिना हमारा लोक व्यवहार एक क्षण भी नहीं चल सकता। लोक व्यवहार में देखा जाता है। जैसे-एक ही व्यक्ति अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र कहलाता है, वही अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता भी कहलाता है। इसी प्रकार अपने भांजे की अपेक्षा से मामा एवं अपने मामा की अपेक्षा से भांजा। इसी प्रकार श्वसुर की अपेक्षा से दामाद एवं अपने दामाद की अपेक्षा से श्वसुर कहलाता है। इसी प्रकार अपने गुरु की अपेक्षा से शिष्य एवं शिष्य की अपेक्षा से गुरु कहलाता है। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति में अनेक रिश्ते संभव हैं, उसी प्रकार एक वस्तु में अनेक धर्म विद्यमान हैं। कोई कहे हमारे मामा हैं तो सबके मामा हैं, सब मामा कहो तो यह एकान्त दृष्टि है, झगड़े का कारण है, अनेकान्त समन्वय की वस्तु है। 9. क्या वस्तु में सात ही भङ्ग होते हैं ? जिज्ञासा सात प्रकार से ज्यादा नहीं हो सकती एवं उनका समाधान भी सात प्रकार से किया जाता है, अत: प्रत्येक वस्तु में भङ्ग7 ही होते हैं। 10. सप्तभङ्गी के मूल में कितने भङ्ग हैं ? सप्तभङ्गी के मूल में तीन भङ्ग हैं- स्यात् अस्ति एव, स्यात् नास्ति एव एवं स्यात् अवक्तव्य एव इन तीन भङ्गों से चार संयुक्त भङ्ग बनकर सप्त भङ्ग हो जाते हैं। 11. क्या अनेकान्त छल है ? नहीं। छल में तो दूसरों को धोखा दिया जाता है किन्तु अनेकान्त में अनेक धर्म हैं। वत्ता किस धर्म को कहना चाह रहा वह अनेकान्त है। जैसे-‘नव कम्बलो देवदत्त:।' यहाँ नव शब्द के दो अर्थ होते हैं। एक 9 संख्या और दूसरा नया। इसके पास 9 कम्बल हैं3, 4, नहीं। श्रोता ने अर्थ किया इसका नया कम्बल है पुराना नहीं। (रा.वा, 1/6/8) 12. बनारस के पंडित गङ्गारामजी से मित्र ने पूछा आप जैन धर्मावलंबियों में पैदा नहीं होकर भी इस धर्म में इतना अनुराग क्यों रखते हैं ? पंडितजी ने अपने मकान के चारों ओर से लिए हुए 4 फोटो उठाए। चारों दिशाओं के लिए थे। फोटो दिखाकर पंडितजी ने कहा किसके मकान के फोटो हैं, पंडितजी ये तो आपके मकान के फोटो हैं, पंडित जी बोले यही तो स्याद्वाद है। मकान तो एक है परन्तु चारों ओर से देखने पर चारों भिन्न-भिन्न लगते हैं। इसी तरह किसी भी वस्तु को उसमें जितने गुण धर्म तथा पर्यायें हैं उतनी दृष्टियों से उसको बताना ही स्याद्वाद है। स्याद्वाद के बिना एकान्तवाद से किसी वस्तु का सम्पूर्ण व यथार्थ बोध नहीं हो सकता। 13. झगड़ते हुए एकान्तवादियों को अनेकान्तवादी ने किस प्रकार समझाया ? एक नगर में हाथी आया। छ: सूरदासों ने सुना तो सभी हाथी के पास पहुँचे। उनमें से एक ने पूँछ को छुआ और कहा कि ‘हाथी रस्सी की तरह है”। दूसरे ने उसके पैर को छुआ और कहा कि ‘हाथी तो खम्भे की तरह है”। तीसरे ने हाथी की सँड को छुआ और कहा ‘यह तो मूसल के समान है”। चौथे ने हाथी के पेट को छुआ और कहा ‘‘यह तो दीवार के समान है”। पाँचवें ने उसके कान को छुआ और कहा ‘यह तो सूप के समान है” छठवें सूरदास ने दाँत को छुआ और कहा‘यह तो धनुष के समान है”। छ: सूरदास एक स्थान पर बैठकर हाथी के विषय में झगड़ने लगे, सब अपनी-अपनी बात पर अड़े थे वहाँ से एक व्यक्ति निकला उसने उनके विवाद का कारण जानकर कहा, क्यों झगड़ते हो? तुम सबने हाथी के एक-एक अङ्ग का स्पर्श किया है, सम्पूर्ण हाथी का नहीं। इसलिए आपस में झगड़ रहे हो। ध्यान से सुनो-मैं तुम्हें हाथी का पूर्ण रूप बताता हूँ। पूँछ, पैर, सुंड, पेट, कान, दाँत आदि सभी अङ्गमिलाने से हाथी का पूर्ण रूप होता है। सूरदासों को बात समझ में आ गई। उन्हें अपनी-अपनी एकान्त दृष्टि पर पश्चाताप हुआ।
  12. जिसे समझे बिना हम अध्यात्म का रहस्य नहीं समझ पाते, ऐसे नयों का वर्णन इस अध्याय में है। 1. नय किसे कहते हैं ? ‘सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेश: नयाधीन:'। सकलादेश प्रमाण का विषय है और विकलादेश नय का विषय है। (स.सि., 1/6/24) अथवा ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। अथवा श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं। अथवा अनन्त धर्मात्मक पदार्थ के किसी एक धर्म को मुख्य और अन्य धर्मों को गौण करने वाले विचार को नय कहते हैं। 2. नय के कितने भेद हैं ? नय के 7 भेद हैं- नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढ़नय तथा एवंभूतनय। 3. नैगमनय किसे कहते हैं ? अनिष्पन्न अर्थ में संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगमनय है। जैसे-रसोई घर में अग्नि जलाते समय कहना मैं भोजन बना रहा हूँ। इसके तीन भेद हैं भूत नैगमनय - जहाँ पर भूतकाल का वर्तमान में आरोपण किया जाता है, उसे भूत नैगमनय कहते हैं जैसे-आज मुकुट सप्तमी को तीर्थङ्कर पाश्र्वनाथ मोक्ष गए। भावी नैगमनय - जहाँ पर वर्तमानकाल में भविष्य का आरोपण किया जाता है, वह भावी नैगमनय है। जैसे-अरिहंत भगवान् को सिद्ध कहना, राजकुमार को राजा कहना एवं ब्रह्मचारी जी को मुनि कहना। वर्तमान नैगमनय - जो कार्य करना प्रारम्भ कर दिया है, परन्तु अभी तक जो निष्पन्न नहीं हुआ है। कुछ निष्पन्न है, कुछ अनिष्पन्न है उस कार्य को हो गया ऐसा निष्पन्नवत् कथन करना वर्तमान नैगमनय है। जैसे -1. टेलर ने कपड़ा काटा थोड़ा सिला, कह दिया पूरा सिल गया है। 2. अधपके चावल को चावल पक गया ऐसा कहना। 4. संग्रहनय किसे कहते हैं ? जो नय अपनी जाति का विरोध नहीं करके एकपने से समस्त पदार्थों को ग्रहण करता है, उसे संग्रहनय कहते हैं। जैसे-द्रव्य कहने से समस्त द्रव्य, जीव कहने से समस्त जीव, मुनि कहने से समस्त मुनि और व्यापारी कहने से समस्त व्यापारी। (स.सि., 1/33/243) 5. व्यवहारनय किसे कहते हैं ? संग्रहनय के द्वाराग्रहण किए हुए पदार्थों का विधिपूर्वक भेद करना व्यवहारनय है। जैसे-द्रव्य के छ: भेद करना। जीव के संसारी-मुक्त दो भेद करना।। (स.सि., 1/33/244) 6. ऋजुसूत्रनय किसे कहते हैं ? वर्तमानकाल को ग्रहण करने वाला ऋजुसूत्रनय है। इसके दो भेद हैं सूक्ष्मऋचुसूत्रनय-जोनय एकसमयवर्ती पर्याय को विषय करता है वह सूक्ष्मऋजुसूत्रनय है। जैसे-सर्व क्षणिक है (सं. नयचक्र, 18) स्थूलऋजुसूत्रनय - जी नय अनेक समयवर्ती स्थूल पर्याय को विषय करता है, वह स्थूलऋजुसूत्रनय है। जैसे- मनुष्य आदि पर्यायें अपनी-अपनी आयु प्रमाण काल तक रहती हैं। (आ.प.,75) 7. शब्दनय किसे कहते हैं ? 1. संख्या, लिंग,कारक आदि के व्यभिचार (दोष) को दूर करके शब्द के द्वारा पदार्थ को ग्रहण करना शब्दनय है। जैसे - आम्रा वन:, आमों के वृक्ष वन हैं। यहाँ आम्र शब्द बहुबचनांत है और वन शब्द एकवचनांत है। यद्यपि व्यवहार में ऐसे प्रयोग होते हैं। तथापि इस प्रकार के व्यवहार को शब्दनय अनुचित मानता है। (स.सि., 1/33/246) 2. पर्यायवाची सभी शब्दों का एक ही अर्थ ग्रहण करता है, वह शब्दनय है। (रा.वा,4/42/17) जैसेनिग्रन्थ, श्रमण, मुनि आदि। 8. समभिरूढ़नय किसे कहते हैं ? एक शब्द के अनेक अर्थ होने पर किसी प्रसिद्ध एक रूढ़ अर्थ को शब्द द्वारा कहना समभिरूढ़नय है। जैसे-गो शब्द के पृथ्वी, वाणी, किरण आदि अनेक अर्थ हैं, फिर भी गो शब्द से गाय को ग्रहण करना।। (स.सि.1/ 33/247) 9. एवंभूतनय किसे कहते हैं ? जिस शब्द का जो वाच्य है, वह तद्रूप (उसी रूप) क्रिया से परिणत समय में ही जब पाया जाता है, उसे जो विषय करता है, उसे एवंभूतनय कहते हैं। जैसे- पूजा करते हुए को पुजारी कहना। राज्य करते समय राजा कहना। दीक्षा, प्रायश्चित देते समय आचार्यकहना, पढ़ाते समय शिक्षक कहना आदि। (स.सि., 1/33/248) 10. नौ नय कौन-कौन से होते हैं ? इन सातनयों में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनयमिला देने से नौनय हो जाते हैं। (आ.पा.,41) 11. द्रव्यार्थिकनय किसे कहते हैं ? द्रव्य अर्थात्सामान्यको विषय बनाने वाला नय। (आ.प., 185) 12. पर्यायार्थिकनय किसे कहते हैं ? पर्याय अर्थात् विशेष को विषय बनाने वाला नय। (आ.प, 191)जैसे-नदी की तरफ सामान्य दृष्टि डालने पर जल के रंग, गंध और स्वाद की ओर ध्यान न जाकर केवल जल की ओर ध्यान जाना। यह द्रव्यार्थिकनय का दृष्टान्त है। किन्तु जब जल के रंग, गंध और स्वाद की ओर ध्यान जाता है तब वह पर्यायार्थिकनय का दृष्टान्त है। 13. उपरोक्त कहे गए सात नयों में कितने नय द्रव्यार्थिकनय एवं कितने नय पर्यायार्थिकनय हैं ? आदि के तीन नय अर्थात् नैगमनय, संग्रहनय एवं व्यवहारनय, द्रव्यार्थिकनय हैं एवं शेष चार नय अर्थात् ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढ़नय एवं एवंभूतनय पर्यायार्थिकनय हैं। 14. इन सात नयों का विषय उत्तरोत्तर सूक्ष्म-सूक्ष्म है, इसके लिए उदाहरण दीजिए ? 1. किसी मनुष्य को पापी लोगों का समागम करते हुए देखकर नैगमनय से कहा जाता है कि यह पुरुष नारकी है। 2. जब वह मनुष्य प्राणीवध करने का विचार कर सामग्री संग्रह करता है, तब वह संग्रहनय से नारकी कहा जाता है। 3. जब कोई मनुष्य हाथ में धनुष और बाण लेकर मृगों की खोज में भटकता-फिरता है, तब उसे व्यवहारनय से नारकी कहा जाता है। 4. जब आखेट स्थान पर बैठकर पापी मृगों पर आघात करता है तब वह ऋजुसूत्रनय से नारकी कहा जाता है। 5. जब जीव प्राणों से विमुक्त कर दिया जाता है, तभी वह आघात करने वाला हिंसा कर्म से संयुक्त पापी शब्दनय से नारकी कहा जाता है। 6. जब मनुष्य नारक (गति व आयु) कर्म का बंधक होकर नारक कर्म से संयुक्त हो जाए तभी वह समभिरूढ़नय से नारकी कहा जाता है। 7. जब वही मनुष्य नरकगति को पहुँचकर नरक के दुख अनुभव करने लगता है, तभी वह एवंभूतनय से नारकी कहा जाता है। अध्यात्म नय 15. अध्यात्म पद्धति से नयों के मूल में कितने भेद हैं ? अध्यात्म पद्धति से नयों के मूल में दो भेद हैं निश्चयनय - गुण-गुणी में तथा पर्याय-पर्यायी आदि में भेद न करके अभेद रूप से वस्तु को ग्रहण करने वाला नय निश्चयनय कहलाता है। व्यवहारनय - गुण-गुणी में, पर्याय-पर्यायी में भेद करके वस्तु को ग्रहण करने वाला नय व्यवहारनय कहलाता है। (आ.प., 216) 16. निश्चयनय के कितने भेद हैं ? निश्चयनय के दो भेद हैं -शुद्धनिश्चयनय एवं अशुद्धनिश्चयनय। (आ.प,217) 17. शुद्ध निश्चयनय किसे कहते हैं ? जो नय कर्मजनित विकार से रहित गुण और गुणी को अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह शुद्ध निश्चयनय है। जैसे-जीव केवलज्ञानमयी है। शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा जीव के न बंध है, न मोक्ष है और न गुणस्थान आदि हैं। (आ.प., 218) 18. अशुद्ध निश्चयनय किसे कहते हैं ? जो नय कर्मजनित विकार सहित गुण और गुणी को अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह अशुद्ध निश्चय नय है। जैसे-आत्मा सम्पूर्ण मोह राग-द्वेष रूप भाव कर्मों का कर्ता और भोता है। (आ.प, 202) 19. व्यवहारनय के कितने भेद हैं ? व्यवहारनय के दो भेद हैं-सद्भूत व्यवहारनय एवं असद्भूत व्यवहारनय। (आ.प.,220) 20. सद्भूत व्यवहारनय किसे कहते हैं ? एक वस्तु में गुण-गुणी का संज्ञादि की अपेक्षा भेद करना सद्भूत व्यवहारनय का विषय है। जैसे-जीव के ज्ञान, दर्शनादि । 21. सद्भूत व्यवहारनय के कितने भेद हैं ? सद्भूत व्यवहारनय के दो भेद हैं 1. उपचरित सद्भूत व्यवहारनय - कर्मजनित विकार सहित गुण-गुणी के भेद को ग्रहण करने वाला नय उपचरित सद्भूत व्यवहारनय कहलाता है। जैसे-जीव के मतिज्ञान आदि गुण। (आ.प,224) 2. अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय - कर्म जनित विकार रहित जीव में गुण-गुणी के भेद रूप विषय को ग्रहण करने वाला नय अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय कहलाता है। जैसे-जीव के केवलज्ञानादि गुण। (आ.प., 225) 22. असद्भूत व्यवहारनय किसे कहते हैं ? भिन्न वस्तु को ग्रहण करने वाला असद्भूत व्यवहारनय हैं। जैसे-जीव का शरीर, मकान आदि। (आ.प,222) 23 .असद्भूत व्यवहारनय के कितने भेद हैं ? असद्भूत व्यवहारनय के दो भेद हैं उपचरित असद्भूत व्यवहारनय - संश्लेष सम्बन्ध रहित ऐसी भिन्न-भिन्न वस्तुओं का परस्पर में सम्बन्ध ग्रहण करना उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। जैसे-देवदत्त का धन, राम का महल, रावण की लंका आदि। (आ.प., 227) अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय - संश्लेष सहित वस्तु के सम्बन्ध को विषय करने वाला असद्भूत व्यवहारनय है। जैसे-जीव का शरीर कहना। (आ.प, 228) 24. उपचरित असद्भूत व्यवहारनय के कितने भेद हैं ? उपचरित असद्भूत व्यवहारनय के तीन भेद हैं - 1. स्वजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहारनय। 2. विजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहारनय। 3. स्वजातीय विजातीय उपचरित असद्भूतव्यवहारनय ।। (आ.प.,88) 25. स्वजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहारनय किसे कहते हैं ? जो नय उपचार से स्वजातीय द्रव्य का स्वजातीय द्रव्य को स्वामी बतलाता है. वह स्वजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे -शिष्य, पुत्र, पुत्री, स्त्री आदि मेरे हैं। (आ.प., 89) 26. विजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहारनय किसे कहते हैं ? सोना, चाँदी,वस्त्र , पिच्छी, कमडलु आदि मेरे है, ऐसा कहना विजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है | 27. स्वजातीय-विजातीय उपचरित असद्भत व्यवहारनय किसे कहते हैं ? देश, राज्य, दुर्ग ये सब मेरे हैं, ऐसा जो नय कहता है वह स्वजातीय-विजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। क्योंकि देश, राज्य आदि में सचेतन-अचेतन दोनों पदार्थ रहते हैं। (आ.प., 91) 28. नयाभास किसे कहते हैं ? जो किसी एक धर्म का ही अस्तित्व स्वीकार करता है और शेष समस्त धर्मों का निराकरण करता है, वह नयाभास कहलाता है। नयाभास, दुर्नय, निरपेक्षनय, मिथ्यानय ये सभी एकार्थवाची शब्द हैं। अध्यात्मनय के लिए निम्नलिखित सारणी प्रस्तुत है
  13. ध्यान किसे कहते हैं, कितने प्रकार के होते हैं, कौन से ध्यान स्वर्ग एवं मोक्ष के कारण हैं। इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. ध्यान किसे कहते हैं ? “उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्ता निरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्' (तसू,9/27) उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्त की वृत्ति को रोकना ध्यान है, जो अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है। निश्चयनयापेक्षा - इष्टानिष्ट बुद्धि के मूल, मोह का छेद हो जाने से चित्त स्थिर हो जाता है। उस चित्त की स्थिरता को ध्यान कहते हैं। ‘चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम्'-चित्त के विकल्पों का त्याग करना ध्यान है। (स सि, 9/20/858) 2. ध्यान कितने प्रकार के होते हैं ? ध्यान चार प्रकार के होते हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धम्र्यध्यान एवं शुक्ल ध्यान। 3. आर्तध्यान किसे कहते हैं एवं इसके कितने भेद हैं ? आर्त नाम दु:ख का है। दुखानुभव में चित्त का रुकना आर्तध्यान है, इसके चार भेद हैं। इष्ट वियोगज, अनिष्ट संयोगज, वेदनाजन्य एवं निदान। इष्टवियोगज - इष्ट गुरु शिष्य, मित्र, भाई, स्त्री, धन, क्षेत्र आदि केवियोग होने से, उसके संयोग के लिए जो निरंतर चिंतित रहता है, उसे इष्ट वियोगज आर्तध्यान कहते हैं। अनिष्ट संयोगज - अनिष्ट नेता, वस्तु, क्षेत्र, बंधु आदि के संयोग होने पर उसके वियोग के लिए जो निरंतर चिंतन होता है, उसे अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान कहते हैं। वेदनाजन्य - कैंसर, ब्लडप्रेशर, एड्स, हार्टअटैक, टी.वी., ट्यूमर आदि महारोग की वेदना होने पर उसे दूर करने के लिए हमेशा चिंतन करता है, उसे वेदना जन्य या पीड़ा चिंतन आर्तध्यान कहते हैं। निदान - आगामी भोगों की आकांक्षा से पीड़ित होकर उसकी प्राप्ति के लिए चिंतन करना निदान आर्तध्यान है। नोट - निदान ध्यान 1 से 5 वें गुणस्थान एवं शेष तीन आर्तध्यान 1 से 6 वें गुणस्थान तक रहते हैं। 4. रौद्रध्यान किसे कहते हैं एवं इसके कितने भेद हैं ? क्रूर परिणामों से उत्पन्न हुए ध्यान को रौद्रध्यान कहते हैं। इसके चार भेद हैं हिसानंद - हिंसा करने, कराने व अनुमोदना में आनंद मानने को हिंसानन्द रौद्रध्यान कहते हैं। मृषानन्द - झूठ बोलने में, दूसरों से झूठ बुलवाने में व झूठ बोलने वाले की अनुमोदना करने में तथा चुगली आदि में आनंद मानने को मृषानंद रौद्रध्यान कहते हैं। चौर्यानन्द - चोरी करने में, कराने में, चोरी की अनुमोदना करने में, चोर को न्याय दिलाने में और चोरी का माल खरीदने में आनंद मानने को चौर्यानन्द रौद्रध्यान कहते हैं। परिग्रहानन्द या विषय संरक्षणानंद - परिग्रह संचय करके आनंदित होना, विषयभोगों की वस्तुओं का संरक्षण करना, उसके संरक्षण व संचय में आनंद मानना परिग्रहानंद रौद्रध्यान है। नोट - सभी रौद्रध्यान 1 से 5 गुणस्थान तक होते हैं। 5. धम्र्यध्यान किसे कहते हैं ? शुभ विचारों में मन का स्थिर होना धम्र्यध्यान है। अथवा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र को धर्म कहते हैं और उस धर्म से युक्त जो चिंतन होता है, उसे धम्र्यध्यान कहते हैं। (र.क.श्रा, 3) अथवा मोह तथा क्षोभ से रहित जो आत्मा का परिणाम है, वह धर्म कहलाता है। उस धर्म से उत्पन्न जो ध्यान है, उसे धम्र्यध्यान कहते हैं। (त.अ., 52) इसके चार भेद हैं - आज्ञाविचय - जो इन्द्रियों से दिखाई नहीं देते ऐसे बंध, मोक्ष आदि पदार्थों में जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा के अनुसार निश्चय कर ध्यान करना सो आज्ञाविचय धम्र्यध्यान है। अपायविचय - संसार में भटकते प्राणी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र से कैसे दूर हों, इस प्रकार निरंतर चिंतन करना अपाय विचय धम्र्यध्यान है। विपाकविचय - (अ) कर्मों के उदय से सुख-दु:ख होता है, ऐसा चिंतन करना विपाक विचय धम्र्यध्यान है। (ब) जीवों को जो एक, अनेक भव में पुण्य-पाप कर्मों का फल प्राप्त होता है, उसके उदय, उदीरणा,संक्रमण, बंध और मोक्ष का चिंतन करना विपाकविचय धम्र्यध्यान है। (मू,401) संस्थानविचय - तीन लोक के आकार, प्रमाण आदि का चिंतन करना संस्थानविचय धम्र्यध्यान है।धम्र्यध्यान गुणस्थान 4 से 7 तक होते हैं। (स.सि., 9/36/890) 6. धम्र्यध्यान के दस भेद कौन-कौन से हैं ? 1. आज्ञा विचय, 2. अपाय विचय, 3. उपाय विचय, 4. जीव विचय, 5. अजीव विचय, 6. भव विचय, 7. विपाकविचय, 8. विराग विचय, 9. हेतुविचय, 10.संस्थान विचय (भा.पा.टी., 119) 7. संस्थान विचय धम्र्यध्यान के कितने भेद हैं ? संस्थान विचय धम्र्यध्यान के चार भेद हैं - (अ) पिण्डस्थ ध्यान - शरीर में स्थित आत्मा का चिंतन करना पिण्डस्थ ध्यान है। इसके पाँच भेद हैं 1. पार्थिवीधारणा - एकान्त में बैठकर साधक विचारे कि-संसार गहन समुद्र है, समुद्र जल से भरा है, यह संसार दुखों से भरा है। यत्र-तत्र स्वर्गादि विषय सुख रूप कमल खिले हैं। मध्य में 1000 पैंखुड़ियों का एक कमल है, ठीक इसके बीच में सुमेरुपर्वत है। उस पर एक आसन है। इस आसन पर मैं आसीन हूँ। 2.आग्नेयधारणा - आगे साधक विचार करता है कि अपने नाभिमण्डल में एक कमल विराजमान है, जिसमें 16 पैंखुड़ियाँ हैं, जिनमें क्रमश: अ आदि 16 अक्षर लिखे हैं। कमल की कर्णिका में ही महामन्त्र विराजमान है जिसमें से मन्द-मन्द धूम (धुएँ) की शिखा निकल रही है, धीरे-धीरे धूम के साथ स्फुलिंगे निकलने लगे हैं। ये पंक्ति बद्ध चिनगारियाँ क्रमश: शनै:-शनै: अग्नि रूप प्रज्वलित होकर कर्मरूपी ईंधन में लग चुकी हैं। अब धीरे-धीरे कर्म वन जलने लगा इसके बाद नोकर्म भी जलने लगा एवं जलकर मात्र भस्म ही शेष बची है। 3.वायुधारणा - इसके बाद ध्यानी चिंतन करता है कि महावेगवान वायु पर्वतों को कंपित करती हुई चल रही है और जो शरीरादि की भस्म है उसको इसने तत्काल उड़ा दिया है और वायु शांत हो गई है। 4.जलधारणा - इसके बाद ध्यानी चिंतन करता है कि बिजली, इन्द्रधनुष अादि सहित चारों तरफ से मूसलाधार वर्षा कर रहा है। यह जल शरीर के जलने से उत्पन्न हुई समस्त भस्म को प्रक्षालित कर देता है। 5.तत्त्वरूपवतीधारण - तत्पश्चात् ध्यानी पुरुष अपने को सप्त-धातु | रहित, पूर्णिमा के चन्द्रमा समान प्रभावाला, सिंहासन पर विराजमान, | दिव्य अतिशयों से युक्त, कल्याणकों की महिमा सहित, मनुष्यों-देवों |े से पूजित और कर्मरूपी कलंक से रहित चिंतन करे। पश्चात् अपने शरीर में स्थित आत्मा को अष्ट कर्मों से रहित पुरुषाकार चिंतन करे। (ब) पदस्थ ध्यान - 1. एक अक्षर को आदि लेकर अनेक प्रकार के पञ्च परमेष्ठी वाचक पवित्र मन्त्र पदों का उच्चारण करके जो ध्यान किया जाता है, उसे पदस्थ ध्यान कहते हैं। जैसे-ओम्, हीं आदि। 2. जिसको योगीश्वर अनेक पवित्र मन्त्रों के अक्षर स्वरूप पदों का अवलम्बन करके चिंतन करते हैं, उसे पदस्थ ध्यान कहते हैं। किसी नियत स्थान पर जैसे-नासिकाग्र या ललाट के मध्य में मन्त्र को स्थापित कर उसको देखते हुए चित्त को एकाग्र करता है। हृदय में आठ पैंखुड़ी वाले कमल का चिन्तन करे और आठ पत्रों में से पाँच पत्रों पर णमो अरिहंताण, णमो सिद्धाण, णमो आइरियाण, का चिंतन करे। इसी प्रकार हीं बीजाक्षर में तीर्थङ्कर ऋषभदेव से महावीर तक चौबीस तीर्थङ्कर अपने-अपने वर्णों (रंगों) से युक्त हैं, उनका ध्यान करे। (स) रूपस्थ ध्यान - समवसरण में विराजमान अरिहन्त परमेष्ठी के स्वरूप का चिंतन रूपस्थ ध्यान है। इस ध्यान में बारह सभाओं के मध्य विराजित अष्ट प्रातिहार्यों और चार अनंत चतुष्टय से सहित अरिहन्त परमेष्ठी के स्वरूप का चिंतन किया जाता है। (द) रूपातीत ध्यान - अमूर्त, अजन्मा, इन्द्रियों के अगोचर ऐसे परमात्मा सिद्ध परमेष्ठी का ध्यान करता है। पुन: वह योगी अपनी आत्मा को ही शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार परमात्मस्वरूप चिंतन करता है। मैं ही सर्वज्ञ हूँ, सर्वव्यापक हूँ सिद्ध हूँ इत्यादि रूप से अपनी शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है। इस प्रकार ध्यानी रूपातीत ध्यान में सिद्ध परमेष्ठी के ध्यान का अभ्यास करके शक्ति की अपेक्षा से अपने आपको भी उनके समान जानकर और अपने आपको भी उनके समान व्यक्त करने के लिए उसमें (अपने आप में) लीन हो जाता है। तब आप ही कमाँ का नाश करके व्यक्त रूप से सिद्ध परमेष्ठी हो जाता है। 8. हीं आदि का ध्यान किस प्रकार से करना चाहिए ? हीं का ध्यान - हीं में चौबीस तीर्थङ्कर समाहित हो जाते हैं और अत: उनका स्मरण सामायिक में अलगअलग रंग में कर सकते हैं। जैसे - सफेद रंग में - चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त। श्याम रंग में नेमिनाथ और मुनिसुव्रतनाथ। हरे रंग में सुपाश्र्वनाथ एवं पाश्र्वनाथ। लाल रंग में पद्मप्रभ एवं वासुपूज्य। पीत रंग में शेष सोलह तीर्थङ्करों का। प्रत्येक तीर्थङ्कर की स्तुति अथवा अर्घ (बिना द्रव्य के) सामायिक में पढ़ सकते हैं। उनके जन्म का स्थान, मोक्ष का स्थान, चिह्न, आयु, ऊँचाई एवं उनके अनन्तचतुष्टय आदि का भी स्मरण कर सकते हैं। एकाग्रता से शरीर के रोग भागते एवं मन प्रसन्न होता है। पञ्चपरमेष्ठी का ध्यान - अरिहन्त परमेष्ठी का श्वेत रंग में, नाभि में सिद्ध परमेष्ठी का लाल रंग में मस्तक में आचार्य परमेष्ठी का पीले रंग में कंठ में, उपाध्याय परमेष्ठी का हरे रंग में हृदय में, साधु परमेष्ठी का, काले रंग में मुख में ध्यान करना चाहिए तथा इनके मूलगुणों आदि का भी चिन्तन किया जा सकता है। 9. तीर्थराज सम्मेद शिखर जी का ध्यान किस प्रकार करना चाहिए? सर्वप्रथम अपने आसन को सही तरह से लगाकर, नासा पर दृष्टि रखते हुए दोनों हाथ की हथेली एक के ऊपर एक गोद में रखकर बैठ जाइए। आज अपने को तीर्थराज सम्मेदशिखर जी की वन्दना करना है। वैसे तो सभी तीर्थङ्करों का जन्म अयोध्याजी में एवं मोक्ष शिखरजी से होता है,किन्तु हुण्डावसर्पिणी काल के कारण जन्म भी अयोध्याजी के अलावा अन्य स्थानों में हुआ। इसी प्रकार मोक्ष भी शिखरजी के अलावा अन्य स्थानों से हुआ। जैसे - ऋषभदेव का कैलाश पर्वत से, वासुपूज्य का चम्पापुर से, नेमिनाथ का गिरनार से एवं महावीर स्वामी का पावापुर से किन्तु शिखरजी में भी इन चार तीर्थङ्करों के चरण चिह्न स्थापित किए हैं। अत: हम सभी शिखरजी में ही चौबीस तीर्थङ्करों के चरण चिहों का ध्यान करेंगे। सर्वप्रथम वन्दना प्रारम्भ करते समय गन्धर्व नाला, सीता नाला पार करते हुए चौपड़ा कुण्ड में पाश्र्वनाथ की प्रतिमा के दर्शन करते हुए, गौतम स्वामी के कूट पर पहुँचकर स्तुति अथवा अर्घ (बिना द्रव्य के) पढ़ते हुए क्रमश: कुन्थुनाथ आदि चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति अथवा अर्घ (बिना द्रव्य के) पढ़ते हुए उनके चरण चिहों का दर्शन करते हुए ध्यान कर सकते हैं। और वृद्धि करना चाहे तो उन तीर्थङ्करों का चिह्न, शरीर का रंग आदि का भी ध्यान कर सकते हैं। और उस टोंक से जितने मुनि मोक्ष पधारे उनकी संख्या भी मन में स्मरण कर सकते हैं, तथा मन-ही-मन में प्रत्येक टोंक की तीन-तीन परिक्रमा एवं कायोत्सर्ग भी कर सकते हैं। 10. ध्यान के लिए मन्त्रों को शरीर के किन-किन स्थानों पर स्थापित किया जाता है ? ध्यान के लिए मन्त्रों को शरीर के निम्न स्थानों पर स्थापित करना चाहिए - 1. नेत्र युगल, 2. दोनों कान, 3. नासिका का अग्रभाग,4.ललाट,5.मुख,6.नाभि,7.मस्तक,8. हृदय,9.तालु, 10.दोनों भौहोका मध्यभाग। इन दस स्थानों में से किसी भी एक स्थान में अपने ध्येय को स्थापित करना चाहिए। (ज्ञा, 30/13) 11. धम्र्यध्यान तो मिथ्यादृष्टियों के भी देखा जाता है ? यहाँ मोक्षमार्ग का प्रकरण है, मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन के बिना प्रारम्भ नहीं होता है, अत: धम्र्यध्यान के लिए सम्यग्दृष्टि होना अनिवार्य है। मिथ्यादृष्टियों को जो ध्यान होता है, उसे शुभ भावना कहते हैं। 12. ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावना व चिंता में क्या अंतर है ? जिन परिणामों से स्थिरता होती है, उसका नाम ध्यान है और जो मन का एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में चलायमान होना होता है, वह या तो भावना है, या अनुप्रेक्षा है या चिंता है। यहाँ चिंता का अर्थ चिंतन है। ‘‘चिंतनं चिंता' (स.सि., 1/13/182) 13. शुक्लध्यान किसे कहते हैं एवं इसके कितने भेद हैं ? मन की अत्यन्त निर्मलता होने पर जो एकाग्रता होती है, उसे शुक्लध्यान कहते हैं। इसके चार भेद हैं 1. पृथक्त्ववितर्क वीचार - पृथक्-पृथक् अर्थ, व्यञ्जन, योग की संक्रान्ति और श्रुत जिसका आधार है, वह पृथक्त्ववितर्क वीचार ध्यान है। वितर्क = श्रुतज्ञान। वीचार = संक्रान्ति। संक्रान्ति तीन प्रकार की होती है-अर्थ संक्रान्ति, व्यञ्जन संक्रान्ति एवं योग संक्रान्ति। अर्थ संक्रान्ति - ध्यान करने योग्य पदार्थ में द्रव्य को छोड़कर उसकी पर्याय का ध्यान किया जाता है अथवा पर्याय को छोड़कर द्रव्य का ध्यान किया जाता है। व्यञ्जन संक्रान्ति - वचन को व्यञ्जन कहते हैं। एक श्रुतवचन का आलम्बन लेकर दूसरे श्रुतवचन का आलम्बन होता है और उसे भी छोड़कर अन्य वचन का आलम्बन होना व्यञ्जन संक्रान्ति है। योग संक्रान्ति - मनोयोग को छोड़कर वचनयोग का ग्रहण करना उसे भी छोड़कर काययोग को ग्रहण करना योग संक्रान्ति है। (रावा, 9/44) 2. एकत्व वितर्क अवीचार - जो शुक्ल ध्यान तीन योगों में से किसी एक योग के साथ होता है तथा अर्थ, व्यञ्जन और योग की संक्रान्ति से रहित है, वह एकत्ववितर्क अवीचार शुक्ल-ध्यान है। (ससि., 9/40/898) 3. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति - जब सयोग केवली भगवान्का आयु कर्म अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है तब सब प्रकार के वचनयोग, मनोयोग और बादरकाययोग को त्यागकर मात्र सूक्ष्म काययोग रहता है तब सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान होता है। सूक्ष्म-सूक्ष्म। क्रिया =योग। अप्रतिपाति = गिरता नहीं, अर्थात् ऊपर ही जाता है। (स.सि., 9/44/906) 4. व्युपरतक्रियानिवृत्ति - वि+उपरत +क्रिया+अनिवृत्ति। विशेष रूप से उपरत अर्थात् दूर हो गई है, क्रिया (योग) जिसमें वह व्युपरत क्रिया है। व्युपरत क्रिया हो और अनिवृत्ति हो वह व्युपरतक्रिया निवृत्ति ध्यान है। अर्थात् योग रहित अवस्था में जो ध्यान होता है, उसे व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान कहते हैं। (तसू, 9/39) शुक्लध्यान गुणस्थान पृथक्त्ववितर्क वीचार में 8 से 11 तक। एकत्ववितर्क अवीचार में 12 वाँ। सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति में 13 वाँ। व्युपरतक्रियानिवृत्ति में 14 वाँ। 14. ध्यान का फल क्या है ? आर्तध्यान और रौद्रध्यान का फल संसार एवं धर्मध्यान और शुक्लध्यान का फल मोक्ष है। 15. ध्यान के विषय में चार अधिकार कौन-कौन से हैं ? धन्यता ध्यान करने वाला धयान चिन्तन क्रिया धयान का फल - संवर एवं निर्जरा ध्येय चिंतन योग्य पदार्थ (ज्ञा, 4/5) 16. ध्याता कैसा होना चाहिए ? पञ्चशील का पालन करने वाला हो अर्थात् पाँचों पापों से रहित हो। ध्यान के लिए मौन पथ्य है। मौन कैसा हो ? मन से, वचन से और काय से अर्थात् मन में बोलने के भाव नहीं लाना। वचन से हूँ हूँ भी नहीं करना एवं काय से कुछ भी न करना अर्थात् न इशारा करना, न लिखकर बताना। भोजन एक बार वह भी सीमित मात्रा में एवं भोजन सात्विक हो, अधिक तले, मिर्च मसाले एवं गरिष्ठ पदार्थ न हों, जनसम्पर्क न हो, मन को वश में करने वाला हो, जितेन्द्रिय हो, आसन स्थिर हो, धीर हो अर्थात् उपसर्ग आने पर न डिगे। ऐसे ध्याता की ही शास्त्रों में प्रशंसा की गई है। 17. ध्यान के लिए योग्य स्थान कौन-कौन से हैं ? ध्यान के लिए योग्य स्थान इस प्रकार हैं-पर्वत, गुहा, वृक्ष की कोटर, नदी का तट, श्मशान, उद्यान, वन, सागर का तट, नदियों का संगम जहाँ होता है, सिद्ध क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र, तीर्थक्षेत्र आदि योग्य स्थान हैं एवं वह स्थान स्त्री, पशु, नपुंसक और कुशील जनों से रहित हो। (रावा, 9/44) किन्तु समर्थजनों के लिए क्षेत्र का नियम नहीं है, कहीं भी कर सकते हैं। (ज्ञा, 28/22) 18. ध्यान के लिए दिशा एवं आसन कौन-कौन-सी हों ? ध्यान के लिए पूर्व और उत्तर दिशा में मुख करके ध्यान करना प्रशंसनीय है। अन्धकार का नाश करने वाले सूर्य का पूर्व दिशा में उदय होता है। अत: पूर्व दिशा प्रशस्त है। सूर्य के उदय के समान हमारे कार्य में भी दिन-प्रतिदिन उन्नति हो ऐसी इच्छा से व्यक्ति पूर्व दिशा की तरफ अपना मुख करके ध्यानादि इष्ट कार्य करते हैं। विदेहक्षेत्र में हमेशा तीर्थङ्कर रहते हैं। विदेहक्षेत्र उत्तर दिशा की ओर है। अत: उन तीर्थङ्करों को हृदय में धारणकर उस दिशा की तरफ मुख करके ध्यानादि इष्ट कार्य करते हैं। (भ.आ.टी., 562) ध्यान के लिए पद्मासन अथवा कायोत्सर्ग आसन श्रेष्ठ है। विषम आसन से बैठने वाले के शरीर में अवश्य पीड़ा होती है। उसके कारण मन में पीड़ा होती है और उससे आकुलता उत्पन्न होती है। आकुलता उत्पन्न होने पर क्या ध्यान होगा? नहीं अत: इन्हीं आसनों में ध्यान करना चाहिए। (म.पु.21/69-72) विशेष - समर्थजनों के लिए दिशा, आसन का कोई नियम नहीं है। (ज्ञा, 28/24) ध्यान के दृष्टान्त - 1. सिनेमा देखने के लिए जब आप जाते हैं तब वहाँ सिनेमा घर के दरवाजे, खिड़की, छिद्र बंद कर देते हैं। फिर सिनेमा घर के भीतर की बिजली भी बंद कर देते हैं। तब पर्दे पर दृश्य स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसी तरह आत्म दर्शन के लिए सर्वप्रथम इन्द्रियों के दरवाजे, खिड़की, छिद्र, बंद कर देते हैं। फिर मन के संकल्पों-विकल्पों की बिजली बंद की जाती है। तब कहीं जाकर अंदर की पिक्चर अर्थात् आत्मदर्शन होता हैं। 2. घड़ी में तीन काँटे होते हैं, घंटा, मिनट एवं सैकेण्ड का। घंटे का काँटा चलता है किन्तु चलता-सा दिखाई नहीं देता। उसी प्रकार मिनट का काँटा चलता है, किन्तु चलता-सा दिखाई नहीं देता, किन्तु सैकेण्ड का काँटा चलता नहीं भागता है। उसी प्रकार हम सब के पास तीन योग हैं। काययोग घंटे के काँटे के समान। वचनयोग मिनट के कॉटे के समान तथा मनोयोग सैकेण्ड के काँटे के समान। जब ध्यान करते हैं तब काय, वचन, तो स्थिर हो जाते हैं, किन्तु मन भागता है। तीनों काँटे 12 बजे मिल जाते हैं और तुरन्त सैकेण्ड का काँटा वहाँ से भाग जाता है। जब घंटे का काँटा, मिनट का काँटा बहुत पुरुषार्थ करता है। तब वह तीनों 1 बजकर 5 मिनट, 2 बजकर 10 मिनट आदि में मिल जाते हैं। उसी प्रकार जब घंटों ध्यान करते हैं तब तीनों मन, वचन और काय एक क्षण के लिए स्थिर हो जाते हैं और वहाँ से मन तुरन्त भाग जाता है। ध्यान के लिए यह भी आवश्यक है कि हम वर्षों की न सोचें, अभ्यास के लिए हम एक वर्ष के बाद की नहीं सोचेंगे, फिर एक माह के बाद की नहीं सोचेंगे। फिर एक पक्ष के बाद की नहीं सोचेंगे फिर एक सप्ताह, फिर एक दिन, एक घंटा ऐसा करते-करते एक समय पर आ जाइए यह भी एकाग्रता के लिए एक कला है। 18. एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय एवं असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय में कितने ध्यान होते हैं ? दो ध्यान होते हैं। आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान होते हैं। 19. पञ्चेन्द्रिय जीवों के कितने ध्यान होते हैं ? पञ्चेन्द्रिय जीवों के सभी ध्यान होते हैं।
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