हितोपदेश - 65 वां स्वर्णिम संस्मरण
संसारी प्राणी सुख चाहता है, दु:ख से भयभीत होता है। दु:ख छूट जावे ऐसा भाव रखता है। लेकिन दुःख किस कारण से होता है इसका ज्ञान नही रखा जावेगा तो कभीभी दुःख से दूर नही हुआ जा सकता। आचार्य कहते हैं - कारण के बिना कोई कार्य नही होता इसलिए दुःख के कारण को छोड़ दो दुःख अपने आप समाप्त हो जायेगा। सुख के कारणों को अपना लिया जावे तो सुख स्वतः ही उपलब्ध हो जावेगा। दुःख की यदि कोई जड़(कारण) है तो वह है परिग्रह। परिग्रह संज्ञा के वशीभूत होकर यह संसारी प्राणी संसार मे रूल रहा है, दुःखी हो रहा है। पर वस्तु को अपनी मानकर उसे ममत्व भाव रखता है यही तो दुःख का कारण है।
आचार्य महाराज ने परिग्रह त्याग के बारे में बताया कि एक बार कुम्हार गधे के ऊपर मिट्टी लाद कर आ रहा था। वह गधा नाला पार करते समय नाले में ही बैठ गया। मिट्टी धीरे-धीरे पानी मे गलकर बहने लगी। उसका परिग्रह कम हो गया ओर उसका काम बन गया, उसे हल्कापन महसूस होने लगा। फिर हँसकर बोलेc- जब परिग्रह छोड़ने से गधे को भी आनंद आता है तो आप लोगों को भी परिग्रह छोड़ने में आंनद आना चाहिए। वहाँ बैठे श्रावक आचार्य भगवन् के कथन का अभिप्राय समाज गये और सभी लोग आनंद विभोर हो उठे। हँसी-हँसी में गुरुदेव से इतना बड़ा उपदेश मिल गया कि - यदि इसे जीवन में उतारा जावे तो संसार से भी तरा जा सकता है और शाश्वत सुख को प्राप्त किया जा सकता है।
छपारा पंचकल्याणक (20.1.2001)
अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
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