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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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सात्विक व्यंग्य - 79 वां स्वर्णिम संस्मरण


संयम स्वर्ण महोत्सव

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ब्यावर के पश्च्यात १९७४ में आचार्य श्री ने अजमेर में चातुर्मास किया। आचार्य श्री दिव्य पुरुष है, प्रत्येक चातुर्मास में ऐसी घटनाएँ घटित होती है , जो इतिहास का अंग बन जाती हैं  आचार्यश्री प्रातः कालीन प्रतिक्रमण कर बैठे थे। भक्तो से चर्चा कर रहे थे। महाराष्ट्र अकलुज से एक युवा डॉक्टर चुन्नीलाल एम. बी. बी. एस. भी आचार्य श्री के दर्शन को आए थे। आचार्य श्री की आध्यत्मिक साधना और ज्ञान से प्रभावित होकर आध्यत्मिक-चर्चा करते रहते थे। एक दिन चर्चा के पश्चात आचार्य श्री की चरण रज लेने के लिए झुके तो उनकी जेब से पैसे बिखर ग़ये और वह पैसे उठाने लगे। यह देखकर आचार्य श्री हँस दिये और बोले देखो चेतन कैसे अचेतन के पीछे दौड़ रहा है।

 

आध्यत्मिक चर्चा करना सरल है किन्तु जीवन मे उतारना अत्यन्त कठिन है। डॉ. चुन्नीलाल के विवाह को अभी छह माह ही हुए थे। आचार्य श्री का सात्विक व्यंग्य उनके ह्रदय को छू गया। डॉ.चुन्नीलाल ने कहा - आचार्यश्री ! "मैं अचेतन के प्रति आकर्षण तोड़ने का साहस रखता हूँ। मै घर लौट कर अपनी पत्नी से चर्चा करूंगा, विश्वास छह माह की अवधि में आकर दीक्षा ग्रहण करुँगा।


डॉ. चुन्नीलाल ने अकलुज महाराष्ट्र से आचार्यश्री तीन पत्र लिखे। आचार्य वितरागी संत है, कभी पत्र नहीं लिखते। डॉ. चुन्नीलाल ने अपना वचन निभाया और १५ मई , १९७५ को आचार्यश्री आदिसागर जी से अकलुज में दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण की ओर वह मुनि वीरसागर के नाम से प्रसिद्ध हुए। निमित्य अकर्ता है ,अकिंचन है किन्तु प्रेरक- निमित्तो की उपादेयता को जो अस्वीकार करते है, उन्हें स्याद्वाद सिद्धान्त का बोध तक नही है। 

(१९७४ अजमेर)

ज्योतिर्मय निर्ग्रन्थ पुस्तक से साभार

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