गुरु की छांव - 72 वां स्वर्णिम संस्मरण
बड़े महाराज की बातों में बड़ा यानि महान राज रहता है, बहुत बड़ा रहस्य छुपा होता है। उनकी वाणी से सूत्र वाक्य निकलते हैं। यदि उनका अर्थ लगाया जाए तो बहुत बड़ा उपदेश उस सूत्र वाक्य के माध्यम से प्राप्त हो जाता है जो बिखरे जीवन को एक नया आयाम दे सकता है। इस जीवन को सत्य की सुगंध से सुभाषित कर सकता है। संसार के वास्तविक स्वरूप का बोध प्रदान कर सकता है।
सर्दी का मौसम था, ठण्ड बहुत पड़ रही थी इस कारण से सभी लोग तेज धूप में ही बैठे हुए थे। लेकिन आचार्य महाराज वहीं छाँव में विराजमान थे। सभी लोगों ने गुरुदेव से भी आग्रह किया कि - हे गुरुदेव! आप भी धूप में ही ये पाटा रखा है इस पर विराजमान हो जाइये। यह सुनकर आचार्य महाराज हँसकर बोले कि - पहले आप लोग हमसे छाया माँगते हैं, कहते हो- आप हमें अपनी छत्र छाँव में रख लो। फिर, धूप में जाने की बात करने लगते हो......। इस विनोदपूर्ण किन्तु शिक्षाप्रद बात का अभिप्राय समझ कर सभी लोग हँसने लगे.....।
एक दिन चर्चा के दौरान आचार्य महाराज जी ने बताया कि इतनी गर्मी पड़ रही है, फिर भी कुछ नहीं एक बार द्वितीय शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि जल जावे तो शांति आ जावेगी, जब तक यह शुक्लध्यान रुपी अग्नि नहीं जलती तब तक इस शरीर की गर्मी(यात्रा) समाप्त नहीं होगी। इस शरीर का क्या इसे तो एक दिन जलना ही है।
आचार्य भगवन ने लिखा है कि -
फूल फलों से ज्यों लदे,घनी छाँव के वृक्ष।
शरणागत को शरण दे,श्रमणों के अध्यक्ष।।
अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
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