कब अस्त हो - 63 वां स्वर्णिम संस्मरण
हम सब संसार मे रहकर रोज, प्रतिदिन संसार की वस्तुओं को देखते है लेकिन हमारी दृष्टि उस ओर नाही जा पाती। ये वस्तुयें हमे संसार की नश्वरता का बोध कराती है। यदि हम चाहे तो प्रत्येक वस्तु से या घटना से कुछ सिख सकते है, वैराग्य प्राप्त कर सकते है, लेकिन हमारी दृष्टि उस वस्तु के स्वरूप की ओर जाना चाहिए तभी संभव है।
सर्वोदय तीर्थक्षेत्र अमरकण्टक 12.10.2003 रविवार की बात है में शाम को छत पर खड़ा था। सूर्य अस्त होता होता जा रहा था उसी ओर ध्यान लगाये था की इतने में आचार्य महाराज भी छत पर पधार गये कहने लगे कुंथु क्या देख रहे हो ? मैंने नमोस्तु करते हुए कहा - देखो आचार्य श्री जी ! सूर्य आधे से ज्यादा डूब गया, थोड़ी देर बाद अस्त होने वाला है। तब आचार्य महाराज जी ने कहा- "ऐसा ही हमारा जीवन है कब अस्त हो जावे पता ही नहीं।" इससे सिद्ध होता है कि आचार्य महारज की दृष्टि हमेशा वस्तुओं में तत्व एवं वैराग्य की बात ही देखा करती है। किसी ने कहा भी है कि "साधु की दृष्टि में, आँखों मे हमेशा वैराग्य रहता है।"
यदि कोई व्यक्ति जीवन मे घटित होने वाली किसी भी घटना को बारीकी से लेता है तो वह घटना उसके जीवन में आध्यत्म घटित कर जाती है। उसके अंदर एक वास्तविकता का जन्म हो जाता है, शाश्वत की प्यास जागती है। राजमार्ग से महाराजमार्ग के ओर बढ़ जाता है। संसार मे वैसे तो घटनाओं का घटनाक्रम चल ही रह है लेकिन इस घटनाक्रम के चलते यदि जीवन मे कुछ अभूतपूर्व घटित हो जाता है तो फिर कहना ही क्या? फिर तो उसका संसार चक्र हीघट सकता है । ऐसी घटना सभी के जीवन मे घटित हो एवं उसे देखने की दृष्टि भी उपलब्ध हो।
सर्वोदय तीर्थक्षेत्र अमरकण्टक 12.10.2003
अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
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