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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. उपयोग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आत्मा और उपयोग का सम्बन्ध स्वर्ण में पीलापन के समान है। आत्मा सोना है और उपयोग पीलापन है, जो एक दूसरे से पृथक् नहीं रह सकते। शुद्धोपयोग ध्यान की परिणति है और केवलज्ञान, ज्ञान की पर्याय या परिणति है, क्योंकि कुछ पर्यायें सादि अनंत होती है, केवलज्ञान सादि अनंत पर्याय है और शुद्धोपयोग सादि सान्त पर्याय है। आत्मा को विकल्प कराने वाला ज्ञानोपयोग है और आत्मा को समाधि की साधना में ले जाने वाला दर्शनोपयोग से ही आती है, ज्ञानोपयोग से नहीं। अशुभोपयोग से निवृत्ति होना रात्रि का समापन है और शुभोपयोग में प्रवृत्ति होना भोर होना है और शुद्धोपयोग दिन का प्रकाश है। शुभोपयोग में बैट घुमाओ और बॉल (गेंद) दूर गई तो अवसर मिलते ही शुद्धोपयोग रूपी रन बना लेना चाहिए। ध्यान रखना शुभोपयोग की रेखा से बाहर खेलने नहीं जाना, जिस खिलाड़ी का बैट हाथ से छूट जाता है, वह अच्छा खिलाड़ी नहीं माना जाता है। शुद्धोपयोग में प्रतिकार नहीं होता मात्र प्रतीति रह जाती है, इसलिए प्रतिकार नहीं करना। जो आया, उसे स्वीकार करो। हमारे उपयोग का विषय तत्वचिंतन बने, पंचपरमेष्ठी बनें, विषय/कषाय भूलकर भी न बने। गरम दूध में गिरा छोटा-सा तिनका जैसे चारों ओर घूमता है वैसे ही शरीर में कोई रोग हो जाये तो उपयोग तिनके की भाँति उसी की ओर जाता रहता है। शुभोपयोग साधन रूप एकदेश उपादेय है और शुद्धोपयोग केवलज्ञान का साधनरूप उपादेय है। उपयोग में जो विकार उत्पन्न होता है, वह आत्मतत्व को छोड़कर अन्य पदार्थों की ओर जाने से होता है। शुभोपयोग, शुद्धोपयोग का कारण है और शुद्धोपयोग केवलज्ञान का कारण है। । शुभोपयोग का अभाव सो शुद्धोपयोग, ऐसा अर्थ नहीं लेना बल्कि शुद्धोपयोग में शुभोपयोग का अभाव होता है, ऐसा अर्थ लेना। जिसमें शुद्धोपयोग की भूमिका नहीं बनती उसे भूलकर भी शुभोपयोग नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि वह भी परम्परा से मोक्ष का कारण है। शुद्धोपयोग रूप गाड़ी बिना रुके मोक्ष ले जाती है और शुभोपयोग रूप गाड़ी कई स्टेशनों पर रुकती हुई जाती है, पर पहुँचती वहीं है। शुद्धोपयोग तो उपादेय है, क्योंकि वह आत्मानुभूति कराता है। लेकिन शुभोपयोग भी उपादेय है, क्योंकि वह शुद्धोपयोग में कारण है। ज्ञानोपयोग होने से भय होता है, दर्शनोपयोग होने पर भय नहीं होता। अशुभोपयोग से बचने का नाम शुभोपयोग है। भगवान् की भक्ति, दान, व्रत, स्वाध्याय, दया व अनुकम्पा आदि क्रियाएँ शुभोपयोग कहलाती हैं। वस्तु को विषय बनाने का जो आत्मा का प्रथम पुरुषार्थ है, उसका नाम दर्शनोपयोग है। उपयोग लगाकर सुनो जीव उपयोगमय है, जीव का उपयोग से तादात्म्य सम्बन्ध है, जीव से उपयोग पृथक् नहीं होता, जैसे स्वर्ण से पीलापन। उपयोग में उपयोग लगाओ तो समय का पता ही नहीं लगेगा। ज्ञानोपयोग को दर्शन के समान बनाने का अर्थ है, चलाकर चिंतन नहीं करना, अवग्रह तक ही सीमित रहना, ईहा आदि को ज्ञान की ओर नहीं ले जाना। दर्शनोपयोग में वस्तु का अस्तित्व मात्र होता है, भेद-उपभेद नहीं होते। ज्ञानोपयोग के पूर्व में होने वाली उपयोग की दशा का नाम दर्शनोपयोग है। सामान्य अवलोकन का नाम, निराकार, निर्विकल्प दशा का नाम दर्शनोपयोग है। शुद्धोपयोग को यथाख्यात चारित्र या शुक्लध्यान के रूप में स्वीकारा है, इसी को निर्विकल्प समाधि, अभेद रत्नत्रय व वीतराग भाव भी कहते हैं। उस शुद्धोपयोग का दर्शन तीन लोक में यदि कहीं होगा तो वह श्रमण (साधु) की चर्या में ही होगा। शुभोपयोग बना रहेगा तो शुद्धोपयोग मिलेगा नहीं तो अशुभोपयोग में चला जावेगा। शुद्धोपयोग सरल प्राकृतिक है, वह दबाव से पैदा नहीं होता। शुद्धोपयोगी किसी से प्रभावित नहीं होता। आत्म स्वरूप को प्राप्त करने का उपाय शुद्धोपयोग है। शुद्धोपयोग की तरंग में अन्य तरंगे नहीं आती, उस समय मात्र शुद्ध द्रव्य का अनुभव होता है। जिसके जीवन में शुद्धोपयोग की रुचि नहीं है, बहुमान नहीं है तो वह शुभोपयोग को भी अधिक समय तक नहीं रख सकता। आटे की लोई शुभोपयोग की भाँति है, जो कि कोई काम की नहीं यदि उसे शुद्धोपयोग (रोटी) के रूप में नहीं ढाला गया तो लोई की उम्र ज्यादा नहीं होती। योग और उपयोग आत्मा की दो ऐसी शक्तियाँ हैं, जिनके माध्यम से हम अच्छे-बुरे दोनों कार्य कर सकते हैं। स्पन्दन क्रिया के बंद हुए बिना अंतरंग में क्या है यह दिखाई नहीं दे सकता। योग सिद्धि के बिना कोई भी क्रिया सिद्ध नहीं हो सकती। अस्थिर मन वाला व्यक्ति कभी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। शुद्धोपयोग कभी भी प्रवृत्ति के समय नहीं हो सकता है। योग और उपयोग में कारण ही गुणस्थान बनते हैं। उस शुद्ध निश्चयनय की कृपा से ही सिद्ध बना जा सकता है। कुम्भकार के उपयोग में कुंभाकार आये बिना योग के कुंभ नहीं बन सकते। आत्मा के घर में विकल्प करने वाला एक ही है, वह है उपयोग। उपयोग चारों ओर दौड़ लगाता रहता है, इसलिए आत्मा की शक्ति समाप्त होती रहती है। अंतर्मुहुर्त के बाद ज्ञानोपयोग का अभाव होना अनिवार्य है और उस स्थान पर दर्शनोपयोग होना अनिवार्य है। अग्नि से जैसे उष्णता पृथक् नहीं है, उसी प्रकार आत्मा से उपयोग पृथक् नहीं है। अपने उपयोग के रेडियो में ज्ञान चेतना की ही स्टेशन लगाओ।
  2. विगत सात दिनों से आप लोगों ने भगवान् महावीर से संबंधित भिन्न भिन्न विषयों पर चर्चा की है। यह आठवां दिन है। आप लोगों ने यह निश्चय किया है कि भगवान् महावीर के दिव्य संदेशों को उसी रूप से जीवन में उतारते हुए आदर्श उपस्थित करेंगे। भगवान् महावीर का वास्तविक बल जो शक्ति थी, वह अनेकांत में निहित थी, आज अनेकांत द्वारा ही भगवान् महावीर को देख सकते है। वे बड़े भी हैं और अगर छोटे भी कह दें तो उसकी बात मानेंगे, क्योंकि राम महावीर से पहले हुए, अत: इस अपेक्षा से छोटे हैं, पर हम संसार में बैठे हैं, अत: हमारे से बड़े हैं। अनेकांत का मतलब आग्रह, हठवाद, बकवाद नहीं। हरेक व्यक्ति के साथ वात्सल्य, प्रेम हो, यही स्याद्वाद है।भगवान् महावीर ने हरेक को अपनाया, किसी को ठुकराया नहीं, तभी वे तीन लोक के शिखर पर जा बैठे। कहा भी है - ही से भी को ओर ही बढ़े सभी हम लोग। छह के आगे तीन हो विश्व शाँति का योग ॥ अगर हम ‘ही' को हटाकर 'भी' का प्रयोग करें तो बहुत बड़ी बात होगी कोई हमें गाली न देगा बल्कि आरती उतारेगा, वात्सल्य रहेगा। मुख ‘ही' से ‘भी' की ओर हो, क्योंकि ही से पीठ के दर्शन होते हैं जो कि वास्तविक दर्शन नहीं हैं। पीठ तो अपजय का प्रतीक है, वास्तविक दर्शन मुख की ओर से होते हैं। भगवान् की आँखों में ज्योति है, उसको देखने पर आत्मा की ज्योति को देखने में सुविधा रहती है। भगवान् महावीर ने अनेकांत का शस्त्र लेकर यह नहीं कहा कि आप से हम भिन्न हैं। अनेकांत वाला हरेक को अपनाता है। सिद्धत्व को प्राप्त करने की शक्ति हर एक रखता है। भगवान् ने कहा कि कोई छोटा-बड़ा नहीं है। जीव अनादि काल से आ रहा है। अनन्त काल तक रहेगा, तब बड़ा-छोटा कैसे ? हम छोटे बड़े का विचार इसलिए करते हैं क्योंकि वैकालिक सत्ता से विमुख हैं। अब तो आपस में मिल जुलकर आत्मा की चर्चा में तल्लीन हो जाओ, भौतिक चकाचौंध में रस लेना छोड़ो। अनेकांत की चर्चा करो, जिससे प्रेम की डोरी में सब बंध जाये पुद्गल पिछड़ जाये और चैतन्य शक्ति जग जाये, उसी से प्रयोजन सिद्ध होगा। भगवान् महावीर ने जीव के विकास के लिए उपदेश किया, भौतिक उन्नति के लिए नहीं। उनके उपदेशों को अपनाकर कर्म बन्ध को नष्ट कर सकते हैं। उन्होंने अहिंसा परमो धर्म तथा अनेकांत का उपदेश देकर सभी जीवों से प्रेम करना सिखाया, मेरे में तेरे में का कोई अन्तर नहीं रखा। अनेकांत का मतलब समता से है। जहाँ समता है, वहाँ किसी प्रकार का झगड़ा, संघर्ष, विसंवाद नहीं, संवाद होगा। उस समता के लिए वीतरागता अपेक्षित है। समता जीव का एक अनन्य गुण है, भगवान् महावीर ने इसी को धारण कर अनेक विवेचना की हैं। राग पक्षपात का चिह्न है। समता की चरम सीमा तक जब भगवान् महावीर की दृष्टि चली गई, तभी वे निसंग हो गये और उन्होंने दुनियाँ को संगी बना लिया। उनकी दिव्य ध्वनि खिरने लगी आज उसका अभाव नहीं है, उसके बल पर आगे बढ़ने वाले अनेक सन्त महर्षि आज भी मौजूद हैं। पूर्व वक्ताओं ने कहा कि अनेकांत को समझना विवेचन करना बहुत कठिन है, पर मैं तो कहता हूँ कि अनेकान्त पर चलना बहुत सरल है, दुरूह नहीं है। लड़ाई करने पर तो पहले से अनेक तैयारियाँ करनी पड़ती है, लेकिन प्रेम से मिलने पर कुछ नहीं करना पड़ता। अनेकांत की व्याख्या करना प्ररूपण से पहले उसकी दृष्टि जाननी चाहिए प्ररूपण के अनुसार जीवन को चलाना। आज सब व्याख्या सुनने को तैयार हैं, पर अनेकान्त पर चलने की दृष्टि किसी की नहीं हुई। अपने जीवन में अनेकान्त को उतारे। नहीं तो अपने पास शान्ति नहीं, क्लान्ति रहेगी, समता का अभाव रहेगा। भगवान् महावीर 'अनेकान्त', ‘जिओ और जीने दो' तथा 'अहिंसापरमोधर्म:' के नारे से विश्व के नाथ बन गये। वे मात्र जैनियों के ही नहीं। हमें भी विश्व के साथ सम्बन्ध रखना है। दीवार या Division आदि की जरूरत नहीं। भगवान् के समवसरण में भी देव-दानव पशु, मनुष्य सब बैठते थे। हम उनके उपासक कहलाते हैं हमें उन कमियों को दूर करना है। हमें भी भगवान् महावीर की तरह कल्याण करना है। आज हमारी दशा उनसे भिन्न है, हीनावस्था को प्राप्त है। इसका कारण, महावीर की दिशा ' भी' की ओर तथा हमारी दिशा 'ही' की ओर। ६० साल ७० साल के हो जाने पर भी आप यही सोचते हैं कि मैं गद्दी का मालिक बना रहूँ, चाबी बाँधे रहूँ, बच्चों को नहीं दूँ। अगर चाबी दे दी तो घर वाले मुझे नहीं पूछेगे। मैं कहता हूँकि अगर घर वाले नहीं पूछेगे तो मैं पूछूँगा और आरती भी उतारी जाएगी। भौतिक चकाचौंध में कुछ नहीं है, आध्यात्मिक रस को अपना शेष जीवन अर्पित कर दी। भगवान् महावीर की पूजा घर में नहीं हुई, बाहर आकर ‘ही' हटाकर 'भी' को अपनाने पर हुई। आप लोग पड़ोसी को दुख हो, वह रोए, तो बहुत खुश होंगे, आप तो यहाँ तक सोचेंगे कि उसका चाहे सत्यानाश हो जाये, मेरी पूछ बढ़े। पर मैं कहता हूँ आपके पूछ है क्या ? आपकी दृष्टि हर दम क्रोध, मान, माया, लोभ की ओर लगी है, अत: अपनी दृष्टि को उपासना की, अनेकान्त की ओर करें, २५००वां निर्वाणोत्सव एक साल तक ही नहीं, बल्कि जीवन भर अपनाएँ। आज भारत सरकार ने भी आपको मदद नहीं दी है, बल्कि अनेकान्त अपरिग्रह की रक्षा के लिए, उसके संवर्धन के लिए मदद की है। लोक वैराग्य को अपनाएँ, घर से उदासीन हो, आगे के लिए अध्यात्म का रस ले सकें उसके लिए कार्य करो। संतृप्त से संतृप्त के लिए करुणा यही बनेगी। इसी में अनेकान्त का हित भी निहित है।
  3. मोक्ष (निर्वाण) का मतलब जीवन निर्माण है। विकास की ओर जाना, पूर्ण विकास होना ही निर्वाण है। जहाँ बन्धन का अभाव है, छोड़ने वाले को मुमुक्षु कहते है और खाने पीने की वांछा रखने वाले को बुभुक्षु कहते हैं। अधिक खाने पीने से रोग तथा मृत्यु हो जाती है। जन्म मृत्यु श्रृंखला ही है जिसे छोड़ना ठीक है। पूर्ण त्याग मोक्ष मार्ग की ओर ले जाता है। पढ़ पढ़ भए पण्डित, ज्ञान हुआ अपार। निज वस्तु की खबर नहीं, सब नकटी का श्रृंगार ॥ तेल लूण लकडी, जिसमे आप जकड़ी जैसे जाल मकड़ी। जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि जहाँ न पहुँचे कवि वहाँ पहुँचे स्वानुभवि। Death keeps no calendar. रोग का तो प्रतीकार है, पर मौत का प्रतीकार नहीं है।
  4. शनिवार को गौतम गणधर स्मृति दिवस पर आज हम सब लोग भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य भगवान् गौतम गणधर का स्मृति दिवस मनाने को एकत्र हुए हैं। दिव्यध्वनि तब खिरती है, जब संसार से भयभीत होकर प्राणी हित का रास्ता ढूँढ़ना चाहते हैं। भव्य लोगों का जब संसार छूटने का समय निकट आता है, तब पूज्य पुरुषों का समागम होता है, दिव्य ध्वनि खिरती है। लोगों का कल्याण होता है। कहा भी है भवि भागन वश जोगे वशाय, तुम धुनि ह्वे सुनिविभ्रम नाशाय ॥ भगवान् महावीर ने सोचा कि अपना कल्याण तो हो गया, भावी पीढ़ी का भी कल्याण हो, इसीलिए उनकी दिव्यध्वनि गौतम गणधर के होने पर खिरी। गौतम गणधर का स्थान उत्कृष्ट है। मंगल में भी उनको गिना है, उन्हें माना है। कहा भी - मंगलम् भगवान वीरो, मंगलम् गौतमो गणी। मंगल का अर्थ मंगं पूज्यं लातीति मंगलम्। वे गणधर परमेष्ठी मल गलाने वाले और पुण्य का संचार करने वाले थे। उन्होंने हम लोगों के लिए मार्ग प्रशस्त किया। कहा भी है गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागू पांय। बलिहारी गुरु देव की, गोविन्द दियो बताय॥ आज हमें महावीर को बताने वाले गौतम गणधर ही हैं, इसलिए महावीर को Direct याद न कर गौतम गणधर को याद किया है। कॉलेज में लेक्चरार Speech देकर चला जाता है, उससे बीच-बीच में आप प्रश्न नहीं पूछ सकते हैं लेकिन Higher Secondary तथा Primary स्कूल के मास्टरों से बार-बार प्रश्न तथा अर्थ पूछ सकते हैं। अत: Lecturer का इतना महत्व नहीं है जितना मास्टरों का। इसी प्रकार गणधर ने महावीर वाणी का विश्लेषण किया है, अनेकों प्रश्नों द्वारा दिव्य ध्वनि खिराई। उन्होंने बहुत प्रयास किया। यह उनकी देन है कि हम उस अमूर्त के बारे में जान सके हैं। आत्मा का स्वभाव क्या है ? किस प्रकार बंध, निर्जरा होती है ? उन्होंने दिव्य ध्वनि को ग्रन्थ का रूप दिया। जितने लेख लिखे जा रहे हैं, वे सब उनकी ही देन है। उन्होंने हमारे सामने जो रहस्य को खोला है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। उसके अध्ययन के लिए भी महान् तपस्या और ज्ञान की जरूरत है। गौतम गणधर में बहुत विशेषण थे। वे विशेषण उनके साथ-साथ हमारे पीछे भी लग जाय, उसके लिए उपाय करना है। क्या हरदम पूजन ही पूजन करते रहेंगे, जयजयकार बोलते रहेंगे, भगवान् के सामने नाक रगड़ते ही रहेंगे, अन्दर ही अन्दर पीड़ा रहेगी ? अगर चाहें तो एक अंतर्मुहूर्त में भगवान् के समान दिव्य ज्योति आलोकित हो सकती है। देर है अंधेर नहीं।अब २५०० वर्ष भगवान् महावीर के निर्वाण को हो गये। अब तो विचारो कि हमारी मांग क्यों नहीं पूर्ण हो रही है, अब तक देर भले ही हो गई पर अब अंधेर नहीं होना चाहिए। आपको आशा तो है, पर विश्वास नहीं है, यह कैसे होगा। स्तुतियों पाठों को पढ़ते हुए उनके अनुरूप बनने का आज तक प्रयास नहीं किया। आप भगवान् नहीं बनना चाह रहे हैं, सिर्फ भत रहना चाह रहे हैं। आप भत ही नहीं, मुक्त बनने की कोशिश करो। आप सोचते हैं कि काल अनन्त है तो हम भी अनन्त हैं। पर अनन्त तक संसार में रहने पर भी अनन्त का अनुभव नहीं होगा। दिव्य शक्ति का अवलोकन करना चाहते हो तो जीवन में एक बार एक शब्द का ही अनुसरण कर लो। जिस प्रकार खिचड़ी को पकी हुई जानने के लिए एक दाना देखना ही काफी है, पूरी खिचड़ी नहीं, उसी प्रकार अनन्त का अनुभव करने के लिए बहुत पढ़ने जानने की जरूरत नहीं। साध्य अनन्त है, साधना अनन्त नहीं। एक अक्षर का अनुपालन करने से ही धन्य बन जाओगे। कहा है- स्वाधीनता,सरलता,समता,स्वभाव तो क्रूरता, कुटिलता, ममता, विभाव। जो भी विभाव धरता, तजता स्वभाव, तो डूबती उपलनाव, नहीं बचाव ॥ निर्वाण महोत्सव मनाते जाओ और क्रूरता, कुटिलता को अपनाते रहोगे तो आपकी नैया अवश्य डूबेगी, उसे कोई भी नहीं बचा सकता। हां! इतना जरूर है कि भगवान् डुबायेंगे नहीं तो बचाएँगे भी नहीं। हम चाह नहीं रहे हैं, मात्र बात कर रहे हैं। हम भगवान् महावीर, गौतम गणधर की बातें ही कर रहे हैं, बनना नहीं चाह रहे हैं। हमारी अवस्था अपूर्ण क्यों है ? हमारी अवस्था उस बर्फ के टुकड़े के समान है। समुद्र में लहरें उठ रही हैं, बर्फ का टुकड़ा भी पानी का अंश है, पर पानी तरल है, उसमें दूसरों को चोट पहुँचाने की शक्ति नहीं है पर बर्फ में दूसरों को चोट पहुँचाने की क्षमता है क्योंकि वह सघन है इसीलिए नाविक उससे भय खाते हैं, उसे देखकर दूर से ही निकल जाते हैं। वह बर्फ का टुकड़ा समुद्र से कह रहा है कि मैं तुमसे ऊपर हूँ। पानी का आदर सब करते हैं, नाविक पानी से भय नहीं खाते उन्हें बर्फ से टकरा जाने का, नाव डूब जाने का भय है। बर्फ सोचता है कि मैं मिट न जाऊँ इस अपार समुद्र में मेरा पता न लगेगा, वह भूल करता है। भगवान् महावीर, गौतम गणधर महासमुद्र के समान हैं, हमें अपने को उनमें समर्पित करना है, इससे हम महासत्ता में मिल जाएँगे, पूज्य स्थान मिल जायेगा। इस वर्तमान अवस्था को वैकालिक बनाने की चेष्टा न करो, यह मूढ़ता है। नाम के पीछे दाम के पीछे और काम के पीछे सभी लोग आतमराम को भूले हुए हैं। कहा है- देखो! नदी प्रथम है निज को मिटाती, खोती तभी, अमित सागर रूप पाती। व्यक्तित्व को, अहम् को, मद को मिटावे, तू भी स्व को सहज में, प्रभु में मिलादे ॥ वह नदी शिखर से निकलती, गिरी, कन्दराओं में बहती हुई मिट्टी में से, पत्थर में से होती हुई आती है, उसका लक्ष्य एक है सागर में मिलना, तभी उसकी उपयोगिता है। स्वयं को मिटाकर उसकी दृष्टि अपार की ओर रहती है, तभी वह समुद्र में अनन्त सुख की भागिनी बन जाती है। आप लोग भगवान् के सामने जाकर अपने अहं को सुरक्षित रखने की चेष्टा कर रहे हैं। अपार समुद्र के सामने नदी की कीमत नहीं है। भगवान् महावीर के पूर्ण ज्ञान के सामने अपने अपूर्ण ज्ञान को लेकर दंभ कर रहे हैं। हमने भगवान के सामने अपनी आलोचना की ही नहीं। वैकालिक सत्ता को हमने आज तक देखा ही नहीं, इसीलिए अनन्त के धनी आज तक बने ही नहीं। आज हम अपने भौतिक सुख में वृद्धि करना चाह रहे हैं। आप Quality सुख को नहीं बढ़ाना चाहते, बल्कि सुख की Quantity बढ़ाना चाह रहे हैं, यही भूल है। कुछ मिट जाये, कोई परवाह नहीं। वर्तमान पर्याय भले ही मिट जाये तो क्या बात है? वर्तमान को सुरक्षित रखना ही गलती है। उस सत्ता का दर्शन करो, उस छवि को, महिमा को सामने लाओ। वर्तमान की लहर अमृत की लहर नहीं जहर की लहर है। जब हम निश्चल, निडर, निभीक हो जाये, तब ज्यादा समय नहीं लगता। संसार को बढ़ाने के लिए युग आपेक्षित है, पर विच्छेद के लिए युग की जरूरत नहीं। असंख्यातवें भाग भी सत्ता का अवलोकन हो जाये तो बस ज्योति जग जायेगी। कहा है - ज्योत्सना जगे, तम टले, नव चेतना है, विज्ञान-सूरज-छटा तब देखना है। देखे जहाँ परम पावन है प्रकाश, उल्लास, हृास, सहसा लसता विलास ॥ तब यह एक रमणीय वातावरण होगा, एक मात्र अनुभूति विज्ञान की पूजा, प्रकाशमय वातावरण बन जायेगा और तीन लोक के पदार्थ ज्ञेय के रूप में, प्रतिबिम्बित हो जाएँगे। जिस दिन भगवान् महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ उसी दिन दिव्य ज्ञान को लिए गौतम गणधर को भी केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। इन परमेष्ठी का कितना भी गुणगान करें। हम अल्पबुद्धि वाले हैं, ही से भी की ओर ही बढ़े सभी हम लोग। छह के आगे तीन हो, विश्व शांति का योग ॥ मिट्टी की दीपमालिका जला रही, बालक बालिका आलोक के लिए अज्ञात के ज्ञात के लिए किन्तु अज्ञात का, अननुभूत का अदूष्ट का संवेदन अवलोकन नहीं हवा, ये सजल लोचन रह जाते, करते केवल जल विमोचन उपासना के मिस से वासना का राग रंगिणी का उत्कर्षण हो! दिग्दर्शन तीन काल में, तीन लोक में नहीं, नहीं कभी नहीं महावीर से साक्षात्कार वे सुन्दरतम् दर्शन आया जब स्वाति नक्षत्र गोत्र पर पवित्र चित्र विचित्र पहन कर वस्त्र सह कलत्र, पुत्र सह मित्र युगवीर के चरणों में सबने किया मोदक समर्पण किन्तु खेद!! अच्छ, स्वच्छ और अतुच्छ नहीं बनाया मानस दर्पण तमो-रजो गुण तजो सतो-गुण युत हो जिन भजो तर्भी मजो जलाओ जन जन हृदय में दीप ज्ञानमयी करुणामयी हो, दृष्टिगत हो, ज्ञात हो ओ सत्ता जो समीप ॥
  5. भगवान महावीर के २५००वे निर्वात्सव के अंतर्गत श्रमण संस्कृति परिषद् की सभा में उद्बोधन संस्कृति और श्रमण दो शब्द हैं। सर्व प्रथम श्रमण का अर्थ क्या है? श्रमण अर्थात् ज्ञानी, यानि केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिए जो श्रम करे वही श्रमण है। कहा भी है: श्रमेण न लाभाष्य ज्ञान लाभाय य: अहर्निश प्रयत्नं करोति श्रमणः। वह साधना को आगे बढ़ाते हुए साध्य की ओर बढ़ सकता है। अभीष्ट की प्राप्ति बिना श्रम के नहीं। कर्म भूमि में ही श्रम होता है, वहाँ के रहने वालों को श्रमण कहते हैं, वे कर्म भूमिज कहलाते हैं, कर्म भूमिज कहो या श्रमण कही एक ही बात है। भोग भूमि में रहने वाले श्रमण नहीं कहलाते। उस व्यक्ति को श्रम का अनुभव होता है जो उसके फल से वंचित हो जाता है, जब फल मिल जाता है तब वह श्रम नहीं कहलाता है, वह कहेगा कि बहुत आनन्द आया वह विश्राम की आवश्यकता नहीं समझता। श्रम करने के उपरांत ज्ञान की प्राप्ति न हो , यह मुश्किल है। जो घड़ी की तरफ देखकर काम करने वाले हैं, उन्हें श्रम का फल तो इष्ट है पर श्रम इष्ट नहीं है। वे चाहते हैं कि पसीना तक नहीं आवे और बढ़िया-बढ़िया खाने को मिले, ऐसे लोग एक समय भी सुख का अनुभव नहीं कर सकते हैं। भारत भूमि में इस समय परिश्रम करके फल प्राप्त कर सकते हैं। ज्ञान के लिए जो प्रक्रिया है, वह श्रम है, और जो श्रम करता है, वह श्रमण है। महान् आत्मा का यही प्रयत्न रहा है कि केवल ज्ञान की प्राप्ति हो, इसी के लिए उन्होंने अनेक श्रम किए। आज श्रम को दूर रखने वाली महान्--महान् विभूतियाँ मिल जायेंगी, वे श्रम को दुख का कारण मानतीं हैं। श्रम के द्वारा जब केवल ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तो फिर भौतिक सुख की क्या बात है? श्रम मानसिक, शारीरिक भूख को भी दूर कर देता है। अगर आप खूब खाना खाएँ और श्रम न करें, हाथ पांव न हिलाएँ तो रुधिर की गति रुक जाएगी और मरघट तक भी पहुँचने की नौबत आ सकती है। खाने में परिश्रम करना पड़ता है। इसका द्योतक खाते वक्त पसीना आता है। आज हर सेठ, विद्वान् की दृष्टि में हरेक कार्य नौकरों के द्वारा हो जाये, वही अच्छा। यहाँ तक कि नौकर ही कपड़े पहना दे यह प्रमाद की ओर अग्रसर होना है, प्रमाद की पराकाष्ठा है, यह प्रमाद सबसे भयानक है। प्रमत्त को गाली कहा है, भुभुक्ष कहा है। श्रम से मत डरो बल्कि प्रमाद से डरो। वीरों के पास श्रम पलता है, कायरों के पास प्रमाद। श्रम वीरों का आभूषण है। समंतभद्राचार्य श्रमणपुंगव थे, उन्होंने श्रमणत्व की रक्षा की है। संसारी लोग स्वार्थ परायणता में डूबकर दिन भर अपने स्वार्थ के लिए मेहनत करते हैं और रात को थक कर सो जाते हैं, अपनी जीवन रक्षा के लिए दूसरों का नाश हो जाये तो कोई बात नहीं। दिन भर यूं समाप्त कर दिया और रात सोने में समाप्त कर दी, किन्तु आज तक उस श्रमण संस्कृति की रक्षा का आप लोगों ने उपाय नहीं किया। समंतभद्राचार्य ने स्वयं के साथ-साथ पर का भी कल्याण चाहा, उन्होंने आलस्य को, प्रमाद को पैर के नीचे दबा दिया। दिव्य शक्ति की धारक आत्मा में पहले जो मल चिपकाने में परिश्रम किया, वीरों का यह काम है कि श्रम करके उसे हटावें। आप चाहते हैं कि मैं किसी से नहीं घबराऊँ, पर सब मेरे से घबरावें। प्रमादी से सब घबराते हैं, पर अप्रमत्त से कोई नहीं। क्योंकि अप्रमत व्यक्ति भय संज्ञा से दूर रहता है, और वह विश्व के साथ अपना कल्याण चाहता है। जो पतित आत्मा को पावन बनाने की चेष्टा नहीं करता है और आत्मा पर मल ला-ला कर रखता है, उसके समान कोई पापी नहीं है। वह भले ही नर हो पर वानर बनने वाला है तथा अन्त में नरक चला जाएगा, क्योंकि उसने प्रमाद को अपना रखा है। ज्ञान की उपासना करने वाला व्यक्ति एक क्षण को भी प्रमाद को नहीं अपनाता है, क्योंकि इसको अपनाने पर वह अधोगति का कारण बन सकता है। Duty का मतलब भी श्रम है। आज देश में Duty के समय भी काम नहीं होता। इसी कारण सबसे ज्यादा पतन हो रहा है। ८ घण्टे की Duty में भी श्रम नहीं करना, पसीना तक न आवे, यह कायरता है। इससे देश डूबता है, वह खुद डूबता है और आने वाली संतान को भी डुबोता है, वह श्रमण नहीं कहलाएगा। एक घण्टा श्रम करके वह श्रमदान करे। आज श्रम न करके वेतन बढ़ाने की बात की जाती है, हड़तालें की जाती हैं, इसका कारण श्रमण संस्कृति को भुला रखा है। आज श्रमण तो बहुत दूर है पर रमण यानि विषय वासना की पुष्टि हो रही है। विद्या, ज्ञान की प्राप्ति चाहते हो तो सुख को ही आराम दे दो, उसे भूल जाओ। परिश्रम को फूलमाला के समान अपनालो तभी अपने जीवन में कुछ उद्धार कर सकते हो। ज्ञान तथा वित्त भी न हो तो भी परिश्रम के द्वारा ख्यातिवान को भी कुछ समय के लिए नीचे बिठा सकते हो। अगर हम ज्ञान के बिना भी भगवान् महावीर के पथ के अनुरूप चलने लग जाये तो अपना कल्याण कर सकते हैं। जीवन की मौलिकता को समझो। समय की Value (कीमत) करो और अपना उद्धार करो। जो पढ़ता है, लिखता है, बोलता है, उसके बजाय नहीं बोलने वाला भी ज्यादा उद्धार कर सकता है। ज्ञान को लेकर भी मद की प्रादुभूति हो जाती है। अत: समता, वीतरागता और ऋजुता को नहीं छोड़ना है। दूसरों के हित को ध्यान में रखना है। सिर्फ नाम से श्रमण नहीं काम से मतलब है। अत: ऐसे श्रम को अपनाओ जिससे स्व पर हित हो।
  6. (भगवान् महावीर के २५००वें निर्वाणोत्सव पर महावीर कार्नर (दौलत बाग) में प्रात: दिये गये प्रवचन से उद्धत।) आज का यह पुनीत अवसर बहुत ही काल की प्रतीक्षा के उपरांत प्राप्त हुआ है आज मेरा हृदय गद्गद होता जा रहा है, भगवान् महावीर की पुण्य तिथि के बारे में क्या बोलू? अपने से बड़ों की स्तुति करना आवश्यक है। आज के समान ही पावापुर की भूमि में चारों ओर से हरियाली छाई हुई थी, बसंत की बहार थी उपवन, बगीचा इसी प्रकार था, इन सबके बीच में भगवान् महावीर ने निर्वाण को प्राप्त किया। रागी विषयी व्यक्ति के लिए यही हरियाली, उपवन आदि विषय वृद्धि के कारण है, पर महावीर के लिए निर्वाण का कारण बने, इसे ज्ञान-अज्ञान का अन्तर कहना होगा। महावीर ने इस प्रकार के दृश्यों को देखकर भोगों को नहीं अपनाया, वे तो योग साधन में जुट गये, तभी उनको इस शरीर से आज के दिन मुक्ति मिली। यह शरीर कारागार, जेल व बन्धन है, इस को महावीर ने तोड़ दिया और सिद्ध अवस्था को प्राप्त किया। अनन्त प्रकार के जीव अनन्त भावों को लेकर जी रहे है, उन्हीं में से एक ने मोक्ष पद प्राप्त कर लिया, उसी प्रकार हमें भी प्राप्त करना है। महावीर का जीवन अनोखा रहा, जवानी में उन्होंने भोगों की ओर नहीं देखा। उन्होंने सोचा कि अगर मैं इन की ओर देखंगा तो करने योग्य कार्य कैसे करूंगा? उन्होंने अपने जीवन का सदुपयोग किया, निग्रन्थ अवस्था प्राप्त की एक क्षण मात्र भी विषयों की ओर न देखा। १२ साल तक इसी अवस्था में रहे, तब केवलज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने बताया कि यह लक्ष्मी अशुचि, विष्टा और अस्पृश्य है, छूने योग्य भी नहीं, जिसे आपने जेबों में सम्हाल कर रखा है। वे धन्य हैं, जिन्होंने अपने जीवन में आकिंचन्य को स्थान दिया और मुक्ति को प्राप्त हुए। समय को योग के निग्रह के काम में लाओ। आज मोक्ष का अभाव है, परन्तु मोक्ष मार्ग का अभाव नहीं है, इसलिए हम कह सकते हैं कि मोक्ष का अभाव भी नहीं है। निग्रन्थ परिषद की सभा में आचार्य श्री ने फरमाया कि निग्रन्थ शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। निर और ग्रन्थ। यानि जिन्होंने मन, वचन, काय से ग्रन्थों का विमोचन किया है। यहाँ ग्रन्थों से मतलब शास्त्र आदि नहीं है। ग्रन्थ का मतलब परिग्रह है। जो कुछ अपना रखा है, उसको छोड़ना। संग्रह करना एक प्रकार से निग्रन्थ की उपेक्षा है, उसकी अवहेलना करना है। ग्रन्थ अर्थात् गांठ, शूल की तरह तकलीफ देने वाली है। भाषण, महावीर की वाणी भी परिग्रह बन सकती है, यदि उसको लेकर ख्याति, लाभ पूजा आदि चाहने लग जाये। निग्रन्थ अवस्था में कोई बाधा की संभावना नहीं है। सर्वोतम यही है कि महावीर की जय-जयकार करते हुए निग्रन्थ हो जायें। ग्रन्थ की परिभाषा मूच्छ और परिग्रह है। ग्रन्थ के नाम से ही मोह की डोरी आती है; ग्रन्थ के साथ ही सुख-दुख का अनुभव होता है, स्वतन्त्रता से विमुख होना पड़ता है। शिव में सुख है, वह निग्रन्थ होने पर मिल सकता है। अनिष्ट पदार्थों का विमोचन आवश्यक है। आपको सुख चाहिए तो ग्रन्थ को छोड़ना पड़ेगा। जिन्होंने साधना में अपना चित लगाया है, उन्हें बाहरी साधन विचलित नहीं कर सकते हैं। लिप्सा में डूबा व्यक्ति रागी-द्वेषी और पक्षपाती होता है, वह तीन काल में भी उद्धार नहीं कर सकता है। एक बार और, एक बार, और.......यही लिप्सा, यही वासना, यही विकार है। आवश्यकता के उपरांत जो है, वही परिग्रह है, जो अधोगति का कारण है। परिग्रह और आवश्यक दोनों अलग है। निग्रन्थ का अर्थ यही है कि अनावश्यक को छोड़कर आवश्यक को रखें नहीं तो महान् ग्रन्थी बने रहोगे जिससे कल्याण होने वाला नहीं है। अत: एक बार निग्रन्थ महावीर की जय बोलकर बात समाप्त करता हूँ।
  7. उपदेश विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जिसका उद्देश्य मात्र उपदेश देना ही है, इसलिए शास्त्र स्वाध्याय करता है तो वह सब्जी में पड़ी चम्मच के समान है, जो स्वयं कुछ भी स्वाद नहीं ले पाती। उपदेश देने वाला चारित्रवान् होना चाहिए, वरन् उसका कोई असर नहीं पड़ता। उपदेशक कभी भी सामने वाले को न उलझाये और न ही कभी अपना प्रभुत्व दर्शाये। करुणा के बिना वक्ता का स्वभाव सही नहीं माना जाता, क्योंकि करुणा से भींगे शब्द ही असरकारक हुआ करते हैं। गरजने और बरसने वाले बादल बहुत होते हैं, लेकिन भीतर से आर्द्र पानी बरसाने वाले दुर्लभ होते हैं। वैसे ही उपदेश सभी लोग देते हैं, लेकिन कल्याण का उपदेश देने वाले दुर्लभ हैं। या यूँ कहो अनुभूति की कड़ाई में से तलकर आ रहे शब्दों में से उपदेश देने वाले कम होते हैं। एक बात हमेशा ध्यान रखना मानसूनी वर्षा ही लाभप्रद होती है, सामान्य वर्षा नहीं। जिन्हें अंर्तदृष्टि प्राप्त नहीं है, उन्हें बारह भावना का उपदेश अच्छा नहीं लगता, जवानी में बारहभावना अच्छी लगनी चाहिए, बुढ़ापे में अच्छी लगी तो क्या ? उपदेश उसे दिया जा सकता है, जिसकी धारणा कमजोर पड़ रही हो। जैसे उबलते हुए दूध में जामन डालने से दही नहीं जमता, दूध को ठण्डा होना चाहिए, वैसे ही चतुस्थानी में उदय में उपदेश काम नहीं करता। द्विस्थानी का उदय चाहिए, तभी उपदेश का असर पड़ेगा। तर्क के माध्यम से युक्ति पूर्वक समझाने से एवं स्वयं समझने से भगवान् की आज्ञा का पालन होता है। हेय-उपादेय दोनों की जानकारी के बिना उपादेयभूत तत्व को हम नहीं पा सकते। उपदेश सुनना बहुत सरल है, यदि कठिन है तो उस उपदेश को स्वयं अपने जीवन में उतारना । श्रमणत्व को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं इतना स्वाध्याय/उपदेश करने के उपरान्त भी, क्योंकि विशेष ज्ञान का उपयोग करने के लिए विशेष पुण्य की आवश्यकता होती है। स्वाध्याय को, उपदेश को व्यवसाय का कारण बनाने वालों को समयसार का स्वाद नहीं आ सकता, क्योंकि परमार्थ के साधन को अर्थ का साधन बना लिया है। देव, शास्त्र एवं गुरु के माध्यम से रत्नत्रय की उपलब्धि होती है, फिर रत्नों की इच्छा नहीं रखना चाहिए। भगवान् ने गृहस्थावस्था में उपदेश नहीं दिया और आज गृहस्थ उपदेश दे रहे हैं। सर्वप्रथम आचार-शास्त्र का ही उपदेश दिया है जिसमें दया, अनुकम्पा की बात कही है। इसी से धर्म की शुरुआत होती है। आज उच्चारण तो हो रहा है पर उच्च आचरण नहीं हो रहा। स्वार्थसिद्धि के लिए उपदेश नहीं होता, हितकारी होना चाहिए वही उपदेश की संज्ञा पाता है। दया से रहित उद्बोधन मात्र उच्चारण माना जाता है, उपदेश नहीं। धर्म का ज्ञान नहीं पान करिये। संकेत को समझकर अमल करना महत्वपूर्ण है, जो आत्म कल्याण के बारे में संकेत नहीं समझता उसे कोई मेंवलज्ञानी समझा नहीं सकते। जो अपने हित की इच्छा रखता है उसे उपदेश कार्यकारी हो सकता है। जैसे माँ गर्भस्थ शिशु को जो भोजन अनिवार्य हो, वही स्वयं भोजन करती है जिससे गर्भस्थ शिशु का पालन होता है। भोजन जल्दी जल्दी मत करो वरन् पचेगा नहीं। कम/अधिक खाने से कोई मतलब नहीं, पचाना महत्वपूर्ण है। पचाने का अर्थ जिनवाणी का मायना, अर्थ क्या है यह समझना और उसे समझकर चारित्र में लाना। अर्थ समझने का, प्रयोजन के अभाव में कोई अर्थ नहीं है। श्रुत का अर्थ समझने के लिए, प्रयोजन ज्ञात करने के लिए गुरु की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि प्रयोजन सिद्ध होता है तो तृप्ति का अनुभव होता है। रसोई बनाना अलग है उसको चखना/स्वाद लेना अलग है। चम्मच बनना चाहते हो तो स्वाद नहीं आवेगा। सुबह से शाम तक जिस चम्मच के माध्यम से दूसरे को खीर परोसी जा रही है, उस चम्मच को खीर का स्वाद तक नहीं आता। जिसको स्वाद आ रहा है सही मायने में वही सच्चा आराधक है (जिनवाणी का) बाकी सभी चम्मच के समान है। आज पुस्तक पर मूल्य और आ गया, अब पैसा ही दिख रहा है समयसार नहीं। पुस्तक में समयसार नहीं दिख सकता, क्योंकि जो रत्नत्रय से विभूषित आत्मा है वही जीवित समयसार है। भावश्रुत ही महत्वपूर्ण है वही आत्म स्वरूप का स्रोत है। चम्मच के बिना रसोई नहीं बनती। लेकिन बाद में स्वाद चम्मच से नहीं जीभ से आवेगा। यदि उपयोग और कहीं अटका है तो जीभ में स्वाद नहीं आवेगा। साकार उपयोग के साथ ही उसका भाव-भाषन होता है। मात्र द्रव्य श्रुत से कोई लाभ नहीं होगा। आत्मशुद्धि के लिए प्रयोजन शुद्ध होना चाहिए। तोता समझदार निकला संतों की वाणी सुनकर २४ घंटे में पिंजरे से मुक्त हो गया। बाहर से सोये बिना पिंजड़े के दरवाजे खुल नहीं सकते, ऐसा गुरु का उपदेश तोते ने आत्मसात् कर लिया था। कुछ समझदार होकर भी बोलते नहीं, क्योंकि बोलना न बोलना समझदारी का आधार नहीं है। उपदेश भी वही सही है जिससे बंधन मुक्त हो सकें। पूर्व संस्कार के अनुसार चलोगे तो उपदेश कोई प्रभाव नहीं करेगा। द्वादशांग श्रवण करने की अपेक्षा से है, इष्ट प्रयोजनभूत उपदेश तो थोड़ा-सा ही होता है। जिनवाणी का प्रकाश हमें अंधकार में बिजली की कौंध (चमक) जैसा मिल गया है, इतना पर्याप्त है। कई भव्य जीवों को वरदान सिद्ध हो गया। उपदेश से उसी का बेड़ा पार होता है जो सछिद्र नहीं होता। जो उपदेश देते हैं, उन्हें यहे अवश्य समझना चाहिए की उपदेश ग्रहण करना महेत्व पूर्ण हैं देना नहीं। देशना (लब्धि)का लाभ हो तो सम्यकदर्शन प्राप्त होता है। इससे सिद्ध होता है उपदेश देने से नहीं, लेने से कल्याण होता है। वस्तु तत्व को न समझने वाला ही संकल्प-विकल्पों में उलझता है इसलिए तत्व का परायण करने के लिए स्वाध्याय का नियम लें। सही धन आत्म तत्व है शास्त्र के माध्यम से उसी दिव्य तत्व का ज्ञान होता है। तत्व विज्ञान की पहचान कहीं अन्यत्र नहीं मिलती। स्वाध्याय से संघर्ष का समापन होना चाहिए। हम दूसरे को बुरा न कहकर अच्छा क्या है, यह और जानने का प्रयास करें। ज्ञान भावना का फल आलस्य का त्याग होना है। जो आलस्य का त्याग किये हैं, वह हमेशा स्वाध्याय कर रहा है। आलस्य का त्याग है तो स्वाध्याय जीवित है, ध्यान में है। आलस्य का त्याग नहीं हुआ तो स्वाध्याय का फल नहीं मिला, ऐसा समझना चाहिए। समयसार की एक गाथा जीवन में उतर जावे तो जीवन गाथा ही बदल जावेगी। स्वाध्याय का प्रयोजन ख्याति, लाभ प्राप्त करना मत रखो यह और ऐसा पाप बंध कराएगा, जो वज्रलेप के समान होगा हजार वर्ष तक उखड़ेगा नहीं। क्षणिक जीवन को चलाने के लिए कितने पाप करोगे ? इसके बारे में भी जरा सोच लो। अंधे को समझाया जा सकता है, लेकिन अज्ञान अंधकार में पड़े हुये को नहीं। जैसे बच्चे पानी में बुदबुदे उठाते हैं, स्वयं नली से निर्माण करते हैं। सत्य क्या है बच्चे जानते हैं लेकिन आनंद फूटने बनने में ही मानते हैं। स्व को शास्त्र बनाना चाहिए जिसे भाव श्रुत कहते हैं, जिसका अंतरंग शान्त होता चला जाता है, उसी को भावश्रुत प्राप्त होता है। दूसरे को उपदेश देना दुनियाँ में सबसे सरल कार्य है। जिनवाणी माँ बुलाती-बुलाती चली गयी अब खुरचन बची है, अब खरोंच कर खाओ। उपदेश अपने देश (आत्मा) में आने के लिए होता है। खोज पढ़ने और खोज करने में बहुत अंतर होता है। अभी तो नींव में है, कलशा चढ़ाना बहुत दूर है, लेकिन यह कार्य अपने द्वारा ही सम्पन्न होना है। स्वाध्याय धर्मोपदेश से प्रारम्भ नहीं करना चाहिए बल्कि वाचना से प्रारम्भ करना चाहिए। वाचना का अर्थ होता है प्रदान करना अर्थात् प्रदान करने का नाम वाचना है। शुद्ध शब्द, अर्थ एवं भाव प्रदान करना, तत्व निर्णय के बारे में बड़ों से पूछना। वाचना गुरु के सान्निध्य में ही होती है। एक बार उजाला मिल गया तो फिर अनंतकालीन अंधकार दूर हो जावेगा। मंजिल दूर नहीं है बस दिशाबोध मिल जावे, फिर कदम बढ़ाते ही मंजिल मिल जावेगी। आकाशवाणी को नहीं बल्कि चिर–आकाश से फूटने वाली दिव्य-ध्वनि को सुनो। जिनागम में माध्यम से ही धारणा बनानी चाहिए। गलत उद्देश्य बनाकर प्रवचन नहीं करना चाहिए। वरन् वह उपदेश अंधकार में ले जावेगा। निरीहता के साथ वस्तु तत्व का प्रतिपादन करोगे तो जिनधर्म की अच्छी प्रभावना हो सकती है। धर्मोपदेश से यदि किसी की दृष्टि बदल जाती है तो बहुत बड़ा काम हो जाता है। अपने जीवन को ही उपदेश मय बनाइए।
  8. जिसे आप अच्छा समझ रहे है, जिसे जानने के बाद बुरा समझने लग जाय, तभी महावीर का २५००वां निर्वाणोत्सव सफल होगा वह है 'अपरिग्रह।” इसके बारे में कहने के लिए ज्यादा समय की आवश्यकता नहीं है। वही प्राणी पापी है, जो परिग्रह को अच्छा समझता है। परिग्रही जितना ज्यादा व्यवहार में होगा उतना ही वह सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक क्षेत्रों में आदर प्राप्त कर लेगा, परन्तु भगवान् महावीर के अनुसार परमार्थी नहीं बन सकता। उनके अनुसार ऊँचे सिंहासन पर विराजमान कराने के लिए निस्पृही को ढूँढ़ना पड़ेगा। निस्पृही विरले ही मिलेंगे। उनका जीवन धन्य है, जिसने तिल-तुष मात्र भी परिग्रह नहीं रखा है। वह परिग्रह विष, विष्टा के समान है। हम खूब संग्रह करते जा रहे हैं और महावीर भगवान के निकट भी पहुँचना चाह रहे हैं। जो कुछ ग्रहण कर रखा है, पहन रखा है, उनका विमोचन करना पड़ेगा। संग्रह वृत्ति भगवान् महावीर के दिव्य संदेशों को कलंक लगाने वाली है। संग्रह में संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है। जहाँ झगड़ा है वहाँ ही संग्रह वृत्ति है। संग्रह वृत्ति में ही चिन्ता होती है। भगवान् महावीर ने बताया नहीं बल्कि दिखाया कि अकेले बन जाओ। जब भगवान् महावीर स्वयं अकेले बन गये, तभी महान् बन गये। पूर्ण परित्याग न हो सके तो आवश्यक का संरक्षण कर अनावश्यक का त्याग तो करो। स्कूल में बच्चों को सिखाया जाता है कि आविष्कार करेंगे तो दुनियाँ में शांति होगी, लेकिन जब आप आवश्यकताएँ कम करेंगे, तभी वास्तविक शांति होगी। जहाँ याचना नहीं वहीं पर वास्तव में आर्थिक विकास है। जहाँ वित्त को जहर मान लिया वहीं सारे संघर्ष समाप्त हो जाते हैं। वित्त के पीछे चित्त आत्मा को भुला दिया है। लेकिन आत्मा को याद करने पर ही परमात्मा बन सकते हैं, नहीं तो वित्त के पीछे आत्मा का खात्मा हो जाएगा। जिनके पास कुछ भी नहीं है, वे आनन्द के साथ जीवन व्यतीत कर रहे हैं। जितना-जितना आरम्भ परिग्रह होगा, उतना-उतना आत्मिक बल कम हो जाएगा और यही एक प्रकार से आत्म हत्या की ओर अग्रसर होना है। त्याग के बिना भगवान् महावीर को विश्व के कोने-कोने में नहीं देख पायेंगे। उनके विचारों का प्रचार व प्रसार त्याग के द्वारा ही कर सकते हैं। आप को एक दो दिन की ही चिन्ता नहीं है बल्कि चाबी अपने पास रख पोते-परपोते तक की चिन्ता लगी रहती है इससे कल्याण नहीं होगा। भगवान् महावीर तो विश्वव्यापी है, उनके अनुरूप चल कर ही हम उनके सिद्धान्तों का प्रचार कर सकते हैं।
  9. ओसवाल जैन विद्यालय में भगवान् श्री महावीर के २५०० वे निर्वाणोत्सव के संदर्भ में उद्बोधन सभा में दिये प्रवचन। भगवान् महावीर के २५००वें निर्वाणोत्सव के अन्तर्गत आज शिक्षकों, छात्रों व अन्य बंधुओं को यह ज्ञात करना है कि भगवान् महावीर का जीवन किस रूप में था? उनके द्वारा समाज को क्या लाभ मिला? वर्तमान में क्या स्थिति है? लोगों की यह धारणा हो सकती है कि दिगम्बर भेष को धारण करने वाले महावीर से हमें क्या लाभ होगा? क्योंकि उनके विचार में जिसके पास कुछ होता है, वही दे सकता है। हम अपनी आवश्यकता की पूर्ति बाहरी द्रव्यों से करना चाह रहे हैं, लेकिन महावीर ने आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही ऐसा भेष धारण किया था। हम अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए परमार्थ को भूल जाते हैं भले ही इसमें अपनी हानि भी हो, कोई चिंता नहीं, लेकिन महावीर का चिंतन दूसरी प्रकार का था, वे चाहते थे कि सब प्रजा सुखी रहे, दुर्भिक्ष अकाल ना पड़े। १२ साल के बाद उनको स्व और पर का कल्याण करने वाला फल मिला। उन्होंने यही बताया कि इस जीव के द्वारा जब तक उपसर्ग और परीषह सहन नहीं होगा तब तक इस जीव को स्वर्ग व अपवर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति नहीं हो सकती, उनसे न डरकर उनका सामना करना है। मोक्षमार्ग (सत्पथ) पर अनेक कठिनाइयाँ तो आती ही हैं कहा भी है- उस पथिक की क्या परीक्षा, जिस के पथ में शूल न हो ॥ उस नाविक की क्या परीक्षा, जब नदी का प्रवाह प्रतिकूल न हो ॥ कठिनाइयों में, प्रतिकूल अवस्था में हम सत् को देख सकते हैं। आज के विद्यार्थी प्रतिकूलता से डरते हैं, वे अनुकूलता चाहते हैं। वे चाहते हैं कि जैसा हम चाहे वैसा ही हो। अगर विद्यार्थी खूब परीषह और उपसर्ग सहन करने में तैयार हो जाये तो वह तीन लोक को मात कर सकता है, उसका स्वामी बन सकता है, मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। शिक्षा का मतलब मात्र भौतिक सुख समृद्धि ही नहीं है। किसान खेती करता है, धान के लिए, न कि मात्र घास के लिए। धान के साथ घास तो मिलेगा ही। भोजन करवाने वाला व्यक्ति भोजन को करवाएगा पर साथ में पानी भी पिलाएगा। आप घास के पीछे पड़कर धान को भूल जाते हैं। घास से पेट नहीं भरेगा उससे तो दुखी ही बनोगे। दुख फल के अभाव में होता है। विद्यार्थियों को शिक्षण में फल नहीं मिल पा रहा है, उनको यह नहीं बताया जाता कि शिक्षा के द्वारा तीन लोक की उपाधि मिल सकती है। आज तो बाप दादाओं की सीख होती है कि शिक्षा के बाद मात्र कमाना है, पर आज तो कमाना भी रुक गया क्योंकि यही चिन्ता है कि जो धन है उस पर छापा न पड़ जाये, यही माला जप रहे हैं कि इसकी सुरक्षा कैसे हो। जिस शिक्षण के द्वारा जीवन में सुख शांति नहीं, वह किस काम का। हम साधन को बाधक समझ रहे हैं, यही भूल है, यही महान् अन्तर है। भगवान् महावीर के समान उज्ज्वल जीवन बनाने के लिए उस प्रकार का बनना चाहिए। पीछे नहीं हटना है। मात्र खाना, पीना, सोना ही नहीं। शिक्षा जीवन चलाने के लिए नहीं किन्तु वह जीवन का विकास करने, उसे सुधारने के लिए ही साधन है। और त्याग तपस्या के द्वारा ही जीवन सुधरता है। कहा भी है:- जन्म सफल जब जानिये, विनय करत दे दान। श्वभ्र भरण आयु पूरण, सुत उपजावत श्वान ॥ जीवन में सुधार मनुष्य ही ला सकता है, अन्य नहीं। तिर्यञ्च भी तो सिर्फ जीवन चलाता है, सुधारता नहीं। मनुष्य पुरुषार्थ कर जीवन चलाते हुए उसमें सुधार कर सकता है। उसके लिए समीचीन परिश्रम विवेक के साथ जो करता है, उनके लिए महावीर का वरदहस्त रहता है, उनका मार्ग ज्ञान चक्षुओं के द्वारा देख सकते हो। विद्यार्थी, समय का सदुपयोग करते हुए समीचीन पथ पर आरूढ़ होकर स्व पर कल्याण की ओर अग्रसर हो। जवानी के जोश को होश के साथ काम में ले।
  10. “पढ़ते-पढ़ते शास्त्र को, फाड़ दिये बहु शास्त्र। फिर भी सत्य नहीं मिला, भव का मिटा न त्रास ।“ प्राय: करके हमें उपसंहार में कुछ मिला ही नहीं। इतने (दस दिनों) दिनों में धर्म चर्चाएँ हुई, शास्त्र-पढ़े, व्रतादि किए, लेकिन यह विचार नहीं किया कि ये नसियाँ छूट रही हैं। ये आनन्द सुख छूट रहा है। ये नसियाँ धर्मायतन हैं, अनायतन नहीं। जिन स्थानों में कष्ट का अनुभव हो, वह है अनायतन। ये धार्मिक स्थान आयतन है। आयतन वह है, जहाँ सुख सुविधा हो, जहाँ विश्राम ले सकें। इन आयतन में आत्मरंजन होता है, मनोरंजन नहीं। आपने कल क्षमावाणी पर्व मनाया, आप सिर्फ क्षमा चाहते ही है, पर क्षमा करते भी हैं या नहीं? सिर्फ क्षमा चाहना, क्षमा की अधूरी परिभाषा है। सर्वप्रथम क्षमा करना, इसका मतलब दुनियाँ में कोई वैरी नहीं। क्षमा चाहने में बहुत से छूट जाते हैं। क्षमा करोगे तभी वास्तविक क्षमाधारी, समताधारी बनोगे। जहाँ चैत्य, तीर्थ, मन्दिर आदि शास्त्र स्वाध्याय है, वहाँ वास करना। अभी आपने ५ रोज पूर्व से रत्नत्रय जी के व्रत किए। घर से चले मन्दिर की ओर, तब विचार किया कि मुझे ५ दिन बाद घर आना है, इसकी बजाये यह विचार करना कि मुझे ५ दिन नसियाँ में रहना है। जाने के पहले ही आने का विचार नहीं होना चाहिए। सभी का परिणमन भिन्न-भिन्न है, कोई भी व्यक्ति सत्ता के द्वारा किसी प्रकार का कार्य नहीं करा सकता। 'मैं' कर रहा हूँ, यह गलत है, अहंकार को लिए है। कुत्ता छाया के कारण गाड़ी के नीचे चलता हुआ यह विचार करे कि गाड़ी मेरे कारण ही चल रही है, यह उसकी भूल है। क्षमा करने में अहिंसा महाव्रत अपने आप आ जाता है। लेकिन पैर तो आपके दूसरों की गर्दन पर है। क्षमा करने से आत्मा संतुष्ट होगा, चाहने से नहीं, हमारा बिगाड़ तब है, जब हम क्षमा नहीं करें। क्रोध दूसरा नहीं दिलाता, वह बाहर से नहीं आता है। वह कुछ देर के लिए विश्राम ले के बैठा था, अवसर आते ही प्रकट हो गया। कोई किसी को न दबा सकता है न प्रोत्साहित कर सकता है। क्रोध करने वाले को उत्साहित किया जा सकता है, पर क्रोध दिया नहीं जा सकता है। गाली तो ज्यादा से ज्यादा कान में घुस सकती है, पर वीतराग भावों में नहीं घुस सकती है। गाली को लेकर जो छुपा हुआ गुस्सा था, उसको प्रकट कर दिया फिर वह कषायों का ढेर लगा देता है। अगर आत्मा जागरुक है तो गाली (असभ्य वचन), क्रोध रूपी कीचड़ को नहीं उछाल सकती। तूने किया विगत में कुछ पुण्य पाप, जो आ रहा उदय में स्वयमेव आप। होगा न बंध तब लों, जब लों न राग, चिंता नहीं उदय से बन वीतराग । जब ये विचार हम कर लेते हैं कि गाली मुझे नहीं है, तो आनन्द होता है, वरना तो बहुत वेदना होती है। क्षमा करने से आत्मा का उत्थान होता है, क्षमा मांगने से वैरी बच जाता है। वैरियों के प्रति वात्सल्य बढ़ाने के लिए क्षमा करो। जब दृष्टि शरीर पर आ जाती है, तब क्रोध जागृत होता है। उदय से उपसर्गों से क्रोध कोई दिलाता है, तो उससे दूर रहो और क्षमा का ही एक मात्र चिंतन करो। जीवन भर भगवान् की उपासना करके जो अन्त में सल्लेखना धारण करता है तब पूरा फल मिलता है। सल्लेखना एक प्रकार से परीक्षा है। क्षमा करना गुणस्थान को बढ़ाना है और क्षमा मांगना गुण स्थान को सुरक्षित रखना है।
  11. उपकार विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार इस काल में दूसरे को संभालना तूफान में दूसरे का हाथ पकड़ना है, वह तो जावेगा ही तुम भी चले जाओगे। आज उपकार करना बड़ा कठिन कार्य है। यदि हमारे उपादान में नहीं है तो देव भी कुछ भी उपकार नहीं कर सकते। देव तो मात्र निमित बन सकते हैं, आपके उपादान के अनुरूप निमित्त के रूप में काम कर सकते हैं। धर्म में उल्लास होने से रक्त प्रवाह बढ़ता है और हतोत्साहित होने से घटता है।
  12. आज क्षमावाणी का दिन है। क्षमा की सीमा अपरम्पार है। किसी के साथ वैर-भाव, मात्सर्य भाव न रहे, किसी को भी हीन दृष्टि से, नीच दृष्टि से न देखना, अपने बराबर समझना, यह वास्तविक क्षमा है। शरीर जब शिथिल हो जाता है, तब ज्ञान में शिथिलता आ जाती है, क्षायोपशम ज्ञान में परिवर्तन हो जाता है। मन की भी ऐसी ही स्थिति हो जाती है, कषायों की बाढ़ चालू हो जाती है, परन्तु सम्यक्त्व, क्षमा, विवेक अगर साथ है, तो कषायों का वेग शांत हो जाता है। प्रतिकूल वातावरण में भी अनुकूल वातावरण का अनुभव करना, क्षमा के बिना सम्भव नहीं है। वीतराग मुद्रा को तालों में बन्द रखने से दुनिया के लोगों को शंकाएँ होती हैं, उसे ताले में बन्द नहीं रखना। मुनि लोग यही भावना करते हैं सर्वत्र कुशलता हो, किसी भी प्राणी को तकलीफ न हो। वे क्षमा, मार्दव आदि गुणों के धारक होते हैं। हमारा प्रेम पुद्गल के साथ नहीं होना चाहिए। सभी जीव सुखी रहें, दुनियाँ का कल्याण हो, यह क्षमा मूर्ति मुनि महाराज ही विचारते हैं। क्षमा के बल पर तीर्थकर प्रकृति का बंध हो सकता है। अनंत के साथ क्षमा की प्रादुभूति हो जाती है तब तीर्थकर प्रकृति का बंध हो जाता है। तीर्थकर प्रकृति का बंध करने वाला व्यक्ति चाहे मुनि हो या श्रावक। जो अनंत की सेवा (वैयावृत्य) करना चाहता है, वह अनन्तानुबन्धी को कम करता है वह यह नहीं सोचता कि सत्ता को मिटा दूँ, मैं बना रहूँ। वह सोचता है सभी का क्षेम हो, सभी को ज्ञान प्राप्त हो, सबका दुख मिट जाये। जब अनन्तानुबन्धी मिट जाती है, तब अनंत दुख मिट जाता है, आत्मा सामने खड़ा हो जाता है, अन्य पदार्थ गौण हो जाते हैं। मिथ्यात्व के अभाव में ही आत्मा की प्रादुभूति होती है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए ही क्षमा को धारण करना पड़ेगा। चारित्र तो फिर भी पकड़ में आ सकता है पर सम्यग्दर्शन पकड़ में नहीं आता। जब अंतरंग अनन्तानुबन्धी चली जाती है, तब सम्यग्दर्शन धारण हो सकता है, तभी चारित्र भी प्राप्त कर लेता है। अनन्तानुबन्धी के अभाव में जो राग होगा, वह धर्मानुराग होगा, विषयानुराग नहीं। जब अनन्तानुबन्धी खत्म हो जाती है, तभी क्षमा को यह प्राणी धारण कर सकता है। दूसरे की वैयावृत्य करते समय अपनी वेदना मालूम नहीं पड़ती वह अपने कष्ट की ओर नहीं देखकर सामने वाले को आराम देना चाहता है। यह आकांक्षा सम्यग्दर्शन वाले को होती है। वह सोचता है कि सामने वाला किसी प्रकार से बच जाये और धर्म धारण करे। आप क्षमावाणी मनाते हैं पर उनके साथ क्षमा मनाओ जिनके साथ वैर (द्वेष) है, मन की गाठों को खोलो। क्षमा वहीं है जहाँ वैरी भी आ जाए तो माध्यस्थ भाव रहे। प्रतिकूल बात हो तो दूर रहें, उनकी निंदा करते हुए क्षमावाणी नहीं मना सकते। अनंत कषाय जहां चली गयी वहाँ अनंत क्षमा आ जाती है। आपको तो मात्र शरीर, पोशाक रूपी विकार याद आता है, निर्विकार याद नहीं आता है। अपने अस्तित्व के साथ-साथ अनंत जीवों का अस्तित्व स्वीकार करना ही क्षमा है। जिस प्रकार सर्कस में पैर नहीं टिकते डावांडोल स्थिति रहती है, उसी प्रकार दुख के प्रसंग आने पर भी पांव नहीं टिकते, ऐसा दुख का प्रसंग किसी को न आवे, वह क्षमा की चरम सीमा है, यह, अनुकम्पा है। मिथ्यात्व के अभाव में दर्शन व ज्ञान समीचीन बन सकता है, पर समीचीन चारित्र तो कषाय के अभाव में ही हो सकता है, माया की ओट में सब छिप जाता है। मुँह में राम बगल में छुरी को क्षमा नहीं कहा है। दबने वाला व्यक्ति दबता नहीं है, वह तैयारी में है, लड़ाई रुक जाती है। इसका मतलब समाप्त नहीं हुई पर तैयारी हो रही है, दबना-दबाना अनन्तानुबन्धी के पीछे चलता आ रहा है। सम्यग्दर्शन को क्षमा को धारण करने वाला अस्तित्व के गुण को, उपयोग को दूसरों में भी देखता है। वह गुण की तरफ लक्ष्य रखता है, अवगुण की तरफ नहीं। वह विकार का सत्यानाश करना चाहता है, सत् का नाश नहीं चाहता। जहाँ पूर्ण क्षमा है, वहाँ गति नहीं, जहाँ गति नहीं वहाँ विश्राम है। विसंवाद छोड़ो, संवाद पर आ जावो। संवाद भी समीचीन रूप हो। मोक्ष मार्ग की चर्चा हो। दूसरों के उद्धार के साथ मेरा भी उद्धार कैसे हो यही प्रश्न दिमाग में हो। विषय कषाय को दबाओ। मोहरूपी डाट को हटाओ और वास्तविक क्षमा को धारण करो। मेरी भावना है, यही वीर प्रभु से प्रार्थना है। यही वीर से प्रार्थना, अनुनय से कर जोर। हरी भरी दिखती रहे, धरती चारों ओर ॥
  13. ईर्ष्या विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जहाँ पर ईर्ष्या है, वहाँ पर मान अवश्य रहता है, भाव हिंसा भी होती है, वहाँ असत्य भी रहता है और मूर्च्छा भी। ईर्ष्या, स्पर्धा आदि कषाय के ही अंश हैं, क्योंकि इनसे मान को धक्का लगता है।
  14. इच्छा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार भोगों की इच्छा रखने से आगे मिलने वाले भोग भी नहीं मिलते। इच्छाएँ अनंत हैं और पदार्थ सीमित हैं, अत: इच्छाएँ कभी पूर्ण नहीं हो सकती। तप रूपी अग्नि के माध्यम से ही इच्छाओं को जलाया जा सकता है। इच्छा का परिमाण ही परिग्रह का परिमाण है। संसारी प्राणी इच्छा का विकास तो कर सकता है लेकिन इच्छा का निरोध भव्य पुरुष ही कर सकता है। दृष्टि का समयक् हुए बिना इच्छाओं का निरोध नहीं हो सकता। जो इच्छा/चाह को छोड़ता है, उसके चरणों में दुनियाँ आना चाहती है।
  15. अनादिकाल से जो यह जीव दुख उठा रहा है, वह सुख का मार्ग अपना सके, दुख को छोड़ सके, इसके लिए गुरु करुणा करके सीख देते हैं। यह वह सीख नहीं है जो विदाई के समय बरातियों को देते हैं। दुनियादारी के प्राणी को सुख प्राप्त कराना, यही गुरुओं का कार्य होता है। सीख देने में साक्षात् प्रसिद्ध भगवान् महावीर हुए, तदनन्तर गणधर आदि हुए। उन्होंने मोक्ष मार्ग का संपादन किया। मोक्ष का संपादन अलग है और मोक्ष मार्ग का संपादन अलग। पंचम काल के अंत तक, जब तक तीर्थ चलता रहेगा, तब-तक यह भगवान् महावीर का बताया हुआ मोक्ष मार्ग चलता रहेगा। जब मोक्ष मार्ग ही छूट जायेगा, तब मोक्ष कभी नहीं मिलेगा। इसलिए इस मार्ग को अपनाने के लिए जल्दी-जल्दी करो। यह हमारे ऊपर भगवान् महावीर की असीम कृपा रही है कि उन्होंने अपने साथ ही मोक्ष मार्ग को समेटा नहीं, बल्कि खुला रखा। यह मार्ग सिर्फ जैनियों के लिए ही नहीं है, सारे विश्व के लिए है। आर्य पाँच प्रकार के बताये गये हैं -१. क्षेत्र आर्य, २. जाति आर्य, ३. कर्म आर्य, ४. चारित्र आर्य और ५. दर्शन आर्य बताये हैं। जो क्षेत्र के द्वारा पहचाना जाये वह क्षेत्र आर्य, जाति के द्वारा पहचाना जाये वह जाति आर्य, कर्म के द्वारा पहचाना जाये वह कर्म आर्य, जो कुल परम्परा से चारित्र का वहन कर रहे हो वह चारित्र आर्य हैं और ये तो Artificial है बाहरी चीजों को लेकर हैं। पर अन्तिम है दर्शन आर्य, इसका अर्थ भगवान् महावीर का जो दर्शन है कि सभी को मुक्ति मिले, जो उनके मार्ग का अवलम्बन करे तथा चले, वे सब दर्शन आर्य हैं। आप लोगों को भावों को सुरक्षित रखना है। आप दर्शन आर्य बनने की चेष्टा करो। आप तो अन्य चारों आर्यों को पकड़ने की चेष्टा कर रहे हो। दर्शन आर्य वह है जो सम्यक दर्शन से अभिभूत है। सम्यक दृष्टि यह चाहता है कि हरेक व्यक्ति आर्य बने, अहिंसक बने हिंसक नहीं। जिस प्रकार भगवान् महावीर की उदार दृष्टि थी वैसी हमारी दृष्टि हो। सभी जीव मेरे जैसे बने यही महावीर भगवान् का लक्ष्य था, उसी प्रकार उनके अनुयायियों की दृष्टि हो। इसके लिए सतत प्रयत्न होना चाहिए यही पयुर्षण पर्व का उपसंहार है। कोई महान् विद्वान् भी बन जाये तो भी हम नहीं कह सकते कि यह दर्शन आर्य है। दर्शन आर्य मिलना बहुत मुश्किल है। अन्य चारों प्रकार के आर्य तो बहुत मिल जायेंगे। भगवान् महावीर का दिव्य संदेश बाहरी पदार्थों के लिए हुए ही नहीं है। दर्शन आर्य का मतलब भाव निक्षेप है। सम्यक दर्शन को प्राप्त किया हुआ जो है, वह दर्शन आर्य है। चाहे वह म्लेच्छ ही हो। दर्शन आर्य की पूजा देव लोग भी करते हैं क्योंकि वह दर्शन आर्य सबको अपने जैसा दर्शन आर्य बनाना चाहेगा। सम्यक दर्शन की भूमिका तभी बनती है जब वह दर्शन आर्य के सम्मुख आ जाता है। सम्यक दर्शन के लिए देशना लब्धि भी आवश्यक है। वह जिनेन्द्र भगवान् की सीख को चलाने वाला होता है, देशना लब्धि देने वाला होता है। गुरु करुणा को धार कर कहते है। करुणा सदाचार के साथ होती है, बनावटी नहीं। दर्शन आर्य शरीर की ओर, पोशाक की ओर नहीं झुकेगा। वह तो सुख का अनुभव करने के लिए आत्मा की ओर झुकेगा, वह किसी बात को लेकर विस्मय भी नहीं करेगा, वह सोचेगा कि यह तो पुद्गल की चीज है। वह भगवान् की मूर्ति में जरूर विचारेगा, गुणों का चिंतन करेगा, अपनी स्थिति को पिछानेगा। वह कहीं जाएगा तो भी दर्शन आर्य बनाने के लिए ही जाएगा। आप नाम से ही जैनी बने हुए हैं, पर दर्शन की अपेक्षा से बहुत कम है। धर्म को प्राप्त करना है, तो सबसे पहले दर्शन आर्य बनना पड़ेगा। जाति माध्यम बन सकती है, पर धर्म नहीं है। मत कोई जाति या रूढ़िवाद नहीं हो सकता, मत का मतलब अभिप्राय से होता है। मात्र विषय वासना को लेकर साथीपन नहीं है। रत्नत्रय का पालन दर्शन आर्य बनने के लिए करना है। अनादि से मिथ्या दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी छत्र त्रय की आपने सेवा की है। आज तक आपका जीवन रूढ़िवाद को अपनाए है, इसे भूलने की चेष्टा करो और दर्शन आर्य, बनो। यही पर्व का सार है।
  16. आज का दिन बड़ा महत्वपूर्ण दिन है। प्रारम्भ में जो रस आता है, उससे भी बहुत गुणा रस अन्तिम समय, उपसंहार होते समय भी आता है। आज का यह ब्रह्मचर्य धर्म आत्मा के साथ सम्बन्ध को लिए हुए है। ब्रह्मचर्य का मतलब सिर्फ यही नहीं कि चार संज्ञाओं में से मैथुन संज्ञा पर कंट्रोल करना। कथचित् मैथुन संज्ञा पर कंट्रोल को भी ब्रह्मचर्य का अंग कह सकते हैं। अपने रूप में उस प्रकार लवलीन होना जहाँ पर किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहता। अपने आप में लीन होना कहो या ब्रह्मचर्य कही एक ही बात है। आत्मा की टेढ़ी चाल होने के कारण बाहर के द्रव्यों की याचना करता हुआ भ्रमण कर रहा है, दुख का अनुभव कर रहा है। जिस प्रकार कस्तूरी नाभि से निकलती है, फिर भी मृग इधर-उधर भटकता है। उसी प्रकार इस जीव की स्थिति है। जो हम चाहते हैं, वह हमारे ही पास है, पर हम दूसरे द्रव्यों में खोज रहे हैं, फिर भी उस स्थिति को प्राप्त नहीं कर सके और प्राप्त करेंगे भी कैसे ? जो कुछ हमारे पास है, उसका हमें ज्ञान ही नहीं होता, हम उसकी कीमत ही नहीं समझते, उसका अनादर करते हैं, वह हमें देखने में भी नहीं आता। यह उसी प्रकार है जिस प्रकार हम आँखों के द्वारा दूसरे पदार्थ को तो देख सकते हैं, पर अपनी आँख को नहीं देख सकते। उसमें पड़ी हुई चीज भी नहीं देख सकते। हमें बाहरी पदार्थों में इसलिए रस आता है, क्योंकि वे अनेक है, अनन्त हैं, हम एक को छोड़ दूसरे में रम जाते हैं, दौड़ते रहते हैं। ब्रह्मचारी वह जो दूसरों को पकड़ने की चेष्टा न कर अपने आपमें रमण करने की चेष्टा करे। वह मन पर काबू करेगा। मन पर काबू करना दु:साध्य है, असाध्य नहीं। आप बाहर की अपेक्षा से आकिंचन्य धर्म से मुक्त हो सकते हैं, पर अन्दर की अपेक्षा नहीं। कल आप 'आकिंचन्य' से दूसरे के त्यागी हो गये थे। एकांत रूप से विवाह नहीं करना ब्रह्मचर्य नहीं है, किन्तु अनादि से जो भूला है उसे भी पकड़ना है। आपके पास जो निजी चीज है, उसे प्राप्त करना। शरीर के प्रति जब तक लिप्सा, सेवा सुश्रुषा है, तब तक ब्रह्मा को प्राप्त नहीं कर सकते। शरीर एक मात्र नौकर है, उसे हुकुम देने वाला ज्ञान है, उसे माध्यम मानते हुए अपने आपको प्राप्त कर सकते हैं। जिस प्रकार (सन्निकट) गोद के बच्चे को कभी माता भूल कर अन्यत्र ढूँढ़ती है उसी प्रकार हमने बाहर को पकड़ रखा है। हम अपनी आत्मा को गिनते ही नहीं, इसलिए दुख का अनुभव करते हैं। आत्मा एक अकेला है। हम बाहर इसलिए ढूँढ रहे हैं, क्योंकि बाहर अनेक चीजें हैं। जब बाहर एक ही चीज दिखेगी, तब अन्दर अपने पास आ जाएगा। जिसे बाहर अनेक चीजें दिख रही हैं, वह अन्दर नहीं देख सकता है। ब्रह्मचर्य के अनुपालक अनेक सत्ता में एक ही सत्ता का अनुभव करते हैं, वह एक मात्र प्रेम का (ज्ञान का) सम्बन्ध रखते हैं। इसे आचार्यों ने संग्रह कहा है। सबके पास जो पाई जाये उसे सत्ता कहते हैं, इसलिए सबको तीन लोक में बाँध दिया। जब महा सत्ता की ओर दृष्टि हो जाती है, वह तब ही असली ब्रह्मचारी कहलाता है। ब्रह्मचर्य प्राप्त होने के बाद वह बाहर अनेक होने पर भी वह अन्दर एक को ही प्राप्त करता है। उसमें मात्र निरीहता की आवश्यकता है। जब मानव तत्व की ओर देखता है, तब वहाँ उपासना जन्म लेती है, और वासना खत्म हो जाती है। योगी निरीह तन से रहता तथा है। पता पका फिर गिरा तरू से यथा है ॥ औ! ब्रह्म को यतन से जिसने लखा है। तू क्यों सुदूर उससे रहता सदा है ॥ पते में जब तक स्निग्धता (चिकनाहट) है, बन्धन है, तब तक ही पेड़ उसे नहीं छोड़ता। जब पक जाता है, चिकनाहट खतम हो जाती है, तब पेड़ से अलग हो जाता है, फिर वह उड़ता रहता है। उसी प्रकार मुनि भी शरीर से निस्पृही ही रहते हैं। ब्रह्मचर्य में शरीर ही घातक है तथा माध्यम भी है। जो आत्मा का दास है, वह तकलीफ नहीं देता। जो आत्मा को दास बनाता है, फिर तो उसका दुर्भाग्य ही है। वास्तविक आराम शरीर को नहीं आत्मा को मिलना चाहिए। व्याख्यान सुनकर ज्ञान के माध्यम से आत्मा को ही आनन्द आता है, शरीर को नहीं। ज्ञान [आनन्द] का नाम ही ब्रह्मा है। विवाह के बाद स्वदारसंतोषी व्रत का पालन होता है जो महासता का अवलोकन करने के लिए भी साधन है। वह ब्रह्मा के सन्निकट पहुँच सकता है। हाँ! ब्रह्मा में नहीं। ब्रह्मचारी आत्मा की ओर देखता है और विषयी शरीर की ओर देखता है। वह विषयी शरीर के कृश होने पर दुखी होने लगता है। ब्रह्मचारी चैतन्य ज्योति को देखता है, जीव के साथ सम्बन्ध रखता है। प्रेम में और मोह में बड़ा अन्तर है। मोह में विषय वासना मुख्य हो जाती है, पर प्रेम में गौण रहती है। राम ने सीता की सुरक्षा के लिए नहीं, प्रेम की सुरक्षा के लिए लड़ाई की। प्रेम में जीव की तरफ लक्ष्य रहता है, मोह की तरफ नहीं। मोही अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता, प्रेमी अन्दर प्रवेश कर सकता है। प्रेम का नाम धर्म है। मोही खिड़की को (शरीर को) ही देखता है, पर वह तो इन्द्रिय गम्य है। ज्ञान का सम्बन्ध चैतन्य के द्वारा होता है, मोह के द्वारा नहीं। रावण ने मोह के साथ लड़ाई की। प्रेम दूसरों को मिटाने के लिए नहीं जबकि मोह दूसरों को मिटाने की चेष्टा करता है। जो संतोष धारण करता है, वही अन्दर की ओर दृष्टि करता है। आप ने तो विवाह को भी विवाद समझ लिया है। प्रेम का मतलब हरेक व्यक्ति सुखी रहे, मोही कहता है मैं ही जीवित रहूँ चाहे दूसरों का सत्यानाश हो जाये। संतोष वहाँ है, जहाँ प्रेम है और जहाँ प्रेम नहीं वहाँ तो फिर प्रेत है। विश्वासघात प्रेम पर आघात है। जो कुछ बाहर से प्राप्त करने की चेष्टा है, उसे भूलकर ब्रह्मा के पास जाने की चेष्टा करो। ब्रह्मचर्य की महिमा बहुत अनोखी है, उसे अपनाओ। जो ब्रह्मा में रमण कर रहा है, उसको शत-शत प्रणाम।
  17. इन्द्रिय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार व्यापार इन्द्रियाँ नहीं करती आत्मा व्यापार करती है। इन्द्रियाँ व्यावृत होती हैं, इन्द्रियों का व्यापार बुद्धिपूर्वक होता है। आँखों की पलक का झपकना, नाड़ी का फड़कना, श्वसन क्रिया, रक्त संचार का होना अबुद्धिपूर्वक है। नेत्र और कर्णन्द्रिय बहिर्मुखी होने के लिए सरल साधन है। इन्द्रियाँ नियत स्थान और नियत विषयी ही होगीं, किन्तु मन का कोई नियत स्थान और विषय नहीं। संपूर्ण शरीर में नहीं बल्कि शरीर की सतह पर स्पर्शन्द्रिय है। मन और इन्द्रिय का व्यापार आकुलता का प्रतीक है। पंचेन्द्रियों के विषयों में रस लेने वालों को स्वानुभव प्रत्यक्ष नहीं होता। स्वानुभव प्रत्यक्ष का अनुभव करने के लिए इन्द्रिय विषय कषायों से ऊपर उठना अनिवार्य है। सौधर्म इन्द्र इन्द्रिय के विषयों से ऊपर नहीं उठ पाता, इसलिए उसे जौंक की उपमा दी है। जिस प्रकार जौंक गाय के स्तन के पास रहकर भी दूध न पीकर खून ही पीती है। पंचेन्द्रिय जीवों में जो देखने में आती है वह आनपान कहलाती है। जो एकेन्द्रिय एवं त्रस विकलेन्द्रिय हैं, उनकी श्वसन क्रिया देखने में नहीं आती, वह श्वासोच्छवास कहलाती है। अपने स्वरूप को छोड़कर जब आत्मा बाहर आती है तो इन्द्रिय व्यापार होता है। पंचेन्द्रिय में विषय आकर्षण के विषय इसलिए बने हैं क्योंकि ये संसारी प्राणी के लिए स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष हैं। संसार का पंचेन्द्रिय सुख श्वान की हड़ी चबाने जैसा ही है। पंचेन्द्रिय विषयों की ओर जो रास्ता जाता है वह बड़ा खतरनाक है। वह नरक रूपी गड्डे में गिरा देता है। इन्द्रिय सुख को सुख मानना महान् अपराध है। अंधों में भी महान् अंधा वह है जो इन्द्रिय विषयों में आसक्त रहता है। विषयाशत की इन्द्रियाँ और मन वस्तु के स्वरूप को नहीं जान पाती। इन्द्रिय के विषयों में सुख ढूंढना रेत को पेलकर तेल निकालने जैसा है। जीवन की इच्छा रखकर विष का पान करना है। ये सब मोह के कारण हुआ करते हैं। जो पंचेन्द्रियों के विषयों में लगा है, वह समझना ततूरी (गर्मी से संतप्त भूमि) में भटक रहा है, उसे कभी भी शांति नहीं मिल सकती। पंचेन्द्रियों का व्यापार आपकी मानसिकता का परिचायक है। यह जीव स्वयं इन्द्रिय और मन का दास बनकर उनकी पूर्ति करता रहता है, इसलिए दु:खी बना रहता है। आप इन्द्रियों के दास बने हुए हैं, इसलिए बरसात में आप वाटरप्रूफ पहनते हो, सर्दी में एयरटाइट पहनते हो और गर्मी में एयर कंडीशनर। इसलिए आपके जीवन में पापों का ही विकास हो रहा है। आप इन्द्रिय और मन के नौकर मत बनो, गर पाप से बचना चाहते हो तो इनको वश में करो। रूप को देखने वाली, आँखें महत्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि जो स्वरूप को दिखावें, वे ही आँखे महत्वपूर्ण हैं। इन्द्रिय व्यापार करने से पाप का बंध होता है। पंचेन्द्रिय में विषय हमेशा अपकारक ही होते हैं। यदि स्त्री आपका एक बार अपकार कर दे तो आप उसे छोड़ देते हो, लेकिन इन पंचेन्द्रिय के विषयों को क्यों नहीं छोड़ देते ? जबकि ये हमेशा ही अपकार करते रहते हैं। जीव के पास इन्द्रिय रूपी पाँच खिड़कियाँ हैं, जिनमें से विषय चोर आते रहते हैं और मन सिंहद्वार के समान है, विषय रूपी चोरों को रास्ता दिखाता रहता है। पंचेन्द्रिय रूपी विषयों से यदि यह वैराग्य सम्पदा लुट जाती हो तो उन्हें वश में करो, वरन् स्वयं की एवं धर्म की बदनामी होगी। पंचेन्द्रिय निग्रह किये बिना जो ध्यान करना चाहता है वह सिर से पहाड़ तोड़ना चाहता है, लेकिन पहाड़ नहीं फूटेगा, बल्कि सिर ही फूट जायेगा। साधु को, ज्ञानी को इन्द्रिय रूपी चोरों से हमेशा बचकर रहना चाहिए, क्योंकि उनके पास सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यकचारित्र रूपी रत्न हैं। इन्द्रिय चोर चारों ओर घूम रहे हैं और मन इनका मुखिया है, जो इन्हें रास्ता बताता है। पंचेन्द्रिय सुख से आत्मा कभी तृप्त नहीं होती बल्कि संतप्त होती है। संसार में पंचेन्द्रिय और मन में विषयों के अलावा और है ही क्या ? जिसके इस काल में ये विषय और नाम की कामना छूट गई समझो वह इस काल में केवली से कम नहीं। जो पंचेन्द्रिय विषयों से ऊब जाता है, ऊपर उठ जाता है वह सम्यकद्रष्टि हो जाता है। पंचेन्द्रिय विषयों के त्याग बिना अमूर्त आत्मतत्व का ध्यान नहीं किया जा सकता। इन्द्रिय विषयों को छोड़े बिना जो व्यक्ति आत्मा के ध्यान की बात करता है, लगता है उसे वात का रोग हो गया है। इन्द्रिय सुख-भोग और मोक्ष का उपाय-योग दोनों एक साथ नहीं हो सकते। पंचेन्द्रिय विषयों से नफरत मत करो, बल्कि उनसे बचकर युक्तिपूर्वक कर्म की निर्जरा करो। इन्द्रिय सुख को तुच्छ कहा है, तुच्छ का अर्थ महत्वहीन और इसी महत्वहीन सुख के लिए संसार में घोर संघर्ष चलता रहता है क्योंकि भोग्य सामग्री सीमित है और एक-एक व्यक्ति की इच्छाएँ असीमित हैं। जो इन्द्रिय सुख में आनंद लेता है वही एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों का घात करता है और मरण कर स्वयं एकेन्द्रिय आदि पर्यायों में जन्म ले लेता है। स्पर्शन्द्रिय में हाथी, रसना इन्द्रिय में मछली, घ्राणेन्द्रिय में भौंरा और चक्षु इन्द्रिय में पतंगा एवं कर्णन्द्रिय में हरिण अपने प्राण गंवा देते हैं। जब एक-एक इन्द्रिय के विषय सुख में फँसकर ये प्राणी अपने प्राण गँवा देते हैं तो यह पंचेन्द्रियों के विषयों में जो आसक्त है उसकी क्या दशा होगी संसार में किसी भी गति में खोजो पंचेन्द्रिय के विषय वे ही मिलेंगे, क्योंकि प्रत्येक इन्द्रिय के विषय नियत हैं। पंचेन्द्रिय विषयों को बार-बार भोगा है, लेकिन फिर भी अज्ञानी को यह विश्वास नहीं होता कि मैंने इन विषयों को बार-बार भोगा है, इसलिए उन्हें छोड़ नहीं पाता। जिन्होंने इन्द्रियों को नहीं जीता उनके जप, तप निष्फल हैं। यदि इन्द्रिय और मन वश में हो गया फिर मुक्ति दूर नहीं।
  18. आज का यह पर्व का नवमा दिन है, जैसे जैसे पर्व के अन्तिम चरण तक चले जाएँगे, वैसे वैसे आप लोग बहुत सूक्ष्म तत्व का अवलोकन करते जाएँगे। आकिंचन्य धर्म यह कह रहा है कि जिस आत्मा के पास कुछ नहीं है, वह जगत पूज्य है, जो कुछ वह कर रहा है, वह सब समीचीन कहलायेगा जो कुछ आस्वाद वह ले रहा है, वह निजी आस्वाद ले रहा है। अगर आप इसे अपना लेंगे तो कहेंगे कि बहुत कुछ सुख आ गया। कहा भी है कि- "अकिंचनस्य भावो आकिंचन्यम्" अर्थात् कुछ भी नहीं है, उसका भाव सो ही आकिंचन्य है। अकिंचन का भाव सो ही आकिंचन्य है। जो आत्मा अपने आपको प्राप्त करना चाहता है, उसके लिए यह विचार कि मैं अरूप, अमूर्त हूँ, दर्शनमय ज्ञानमय हूँ, मेरे पास कुछ नहीं है, मेरा कोई भी अन्य द्रव्य नहीं है। आज जैन धर्म का अध्ययन करके अनेक ला Ph.d. (खोज) भी कर रहे हैं, पर वे कंचन की लिप्सा वाले आकिंचन्य धर्म को प्राप्त नहीं कर सकते वे तो मात्र आकिंचन्य का विज्ञापन करने वाले हैं। धन वैभव या उपाधियों की लिप्सा से आकिंचन्य धर्म सुनेगा वा सुनाएगा, वह इसे प्राप्त नहीं कर सकता है। जैसे-जैसे दूसरे द्रव्य हटते जाते हैं, आकिंचन्य को अपनाते जाते है। कदर तभी है, जब किंचित् भी नहीं हो पर आप उल्टा सोचते हैं। आप चाहते हैं कि कुछ न कुछ तो होना चाहिए, नहीं तो बुखार चढ़ने लगता है। आकिंचन्य बनने के प्रयास से ही सुख का अनुभव होगा जहाँ सम्बन्ध का अभाव है, वहीं सुख है। जिसके पास कुछ भी नहीं है वह अपने आप को पहचान लेता है, वह उस स्वभाव को प्राप्त करने की चेष्टा करेगा। आपको लगता है कि पर्व के दिन कब समाप्त होंगे ताकि मैं दुकान खोलें, पर को पकड़ लू। यह धारणा गलत है। क्योंकि बटोरने की चेष्टा कर रहे हो जबकि तेरा कुछ भी नहीं है। यह आकिंचन्य ही सुख प्रदायक है। धन पर तो चोरों की दृष्टि है, उसमें दुख भी है। जहाँ कुछ भी नहीं है, वहाँ सुख ही सुख है। पुद्गलों के परिवर्तन, द्रव्यों में अन्तर देखकर जीवों में अन्तर पटकना, दूसरों की ओर झुकना ही मूढ़ का काम है, मूढ़ता है। जिसको यह ज्ञान हो जाता है, वह इन द्रव्यों से कोई मतलब नहीं रखता और रत्नत्रय रूपी धन को सम्भालता है। वह बाहरी धन को पर द्रव्य समझता है, वह उसे छोड़ देता है। वह कंचन की भावना को छोड़कर बारह भावना का चिंतन करता है, वह विचारता है भाव का अवगाह आकाश नहीं है। द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भव तेरे हाथ नहीं है तो क्या भाव तो तेरे आधीन है, अपने पास है। फिर वेदना का चिंतन क्यों? बारह भावना का चिंतन क्यों नहीं ? जहाँ दूसरों को पकड़ने रूप भाव है, वहाँ आकिंचन्य रूप भाव नहीं है। दान से बढ़कर त्याग बताया है। आकिंचन्य में अपने विकार के अस्तित्व को मिटाने की आवश्यकता है। 'मैं' का अस्तित्व मिटा है। ‘है' का अस्तित्व नहीं मिटेगा। 'मैं' विकार है, यह तुलनात्मक है। जब तक तेरामेरा लगा है तब तक आकिंचन्य को नहीं अपना सकता है। जो इनको छोड़कर अपने आप में तल्लीन होता है, वह आकिंचन्य धर्म को अपनाता है। मैं कर्म से भिन्न हूँ, उसके फल से भिन्न हूँ, दर्शन-ज्ञान चारित्र से भिन्न हूँ क्योंकि मैं दर्शन ज्ञान चारित्र रूप हूँ, भेद नहीं करना है। भेद करना ही आकिंचन्य धर्म से दूर होना है। जो शरीर व धन आदि की सुरक्षा चाहता है, वह ऊँच-नीच को भी नहीं देखता है। कुशीलता तथा दुर्जनों के साथ सम्बन्ध रखने से ऐसी परिस्थिति आ जाएगी कि आप अपनी स्थिति (स्वभाव) से च्युत हो जाएँगे। दूसरे के साथ जो सम्बन्ध रखते हैं, वह कभी भी स्वाधीन नहीं बन सकते, वह पराधीन ही रहेंगे। कहा है- "पराधीन सपने सुख नाहिं" पराधीन होश में हो तो सुख नहीं है पर यहाँ तो स्वप्न में भी सुख नहीं बताया है। मुनि जीवन एक Practical है, यह दुनियाँ के लिए प्रदर्शन है कि सुख का अनुभव कहाँ होता है ? फिर भी यह प्रमादी जीव, अज्ञानी प्राणी कहाँ विचारता है! बाहरी त्याग से ही आप अन्दर (आत्मा में) प्रवेश नहीं कर सकते, आपको विचारों में भी अन्तर लाना पड़ेगा। 'मैं' को भूलना पड़ेगा, धन, वैभव, शरीर छोड़ने के बाद। सिद्धों में मिलने के बाद आप भी महान् कहलाएँगे, वहाँ छोटा बड़ा कोई कल्पना नहीं है। यह शरीर, आठ कर्म तथा राग-द्वेष कोई भी अपना नहीं है। जल से दूध जिस प्रकार भिन्न है, उसी प्रकार शरीर भित्र है। आत्मा में जो राग-द्वेष है,'मैं' रूपी भाव है, उनको ही भाव कर्म कहते हैं, उनको भी छोड़ना पड़ेगा। कहा भी है :- हूँ बाल मंद मति हूँ, लघू हूँ यमी हूँ, मैं राग की कर रहा क्रम से कमी हूँ। हे शारदे सुखद शांति सुधा पिलादे। माता मुझे कर कृपा मुझमें मिलादे ॥ भगवान् के पास, निरभिमानी के पास निरभिमानी बन कर जाना चाहिए और विचार कर कहना चाहिए कि मैं बालक हूँ, मंद बुद्धि हूँ, छोटा हूँ, राग को अपना रहा हूँ। हे भगवान्! मुझे मुझमें मिला कर सुखद शांति दिला दे। ये चैतन्य शक्ति जो आत्मा के पास है, वह ज्ञान दर्शनात्मक है, वह शक्ति सच्चेतन बन जाये, अपने आप में मिल जाये। चेतन आपके पास भी है, पर वह तो कर्म चेतना है, अपने स्वभाव को भूल कर रस ढूँढ़ रही है। बाहर की ओर चेतना नहीं जाने देना यही आकिंचन्य धर्म है, बाकी तो मात्र अभिनय है।
  19. आराध्यदेव विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार हमेशा हमारे चित्त का विषय हमारे आराध्यदेव ही होना चाहिए। करो सो काम, भजो सो राम, सुनो आत्माराम।
  20. आयुकर्म विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आयुकर्म किसी के साथ पक्षपात नहीं करता, भगवान् को भी उस भव में मरण करना पड़ता है, भले ही वह पंडित-पंडित मरण कहलाता है। मरण को कोई नहीं रोक सकता, इसलिए मरण की नहीं बल्कि रोग की चिकित्सा की जाती है। अकालमरण को औषधि के माध्यम से रोका जा सकता है। जैसे राहु, सूर्य और चन्द्रमा को ग्रास बना लेता है, वैसे ही यह मृत्यु सभी जीवों को ग्रास बना लेता है। जैसे वोट डालते समय यह जीव अकेला रहता है, वैसे ही कर्मोदय को यह जीव अकेला ही भोगता है। शरीर और आयु की स्थिरता कभी खत्म नहीं हो सकती, इसलिए हमें स्थिरता का प्रयास न करके, मिले हुए समय में आत्मा की साधना करनी चाहिए। शरीर को कितना भी खिलाओ-पिलाओ, लेकिन वह कभी भी आपका (आत्मा) साथ नहीं देगा, वह तो मात्र आयु का ही साथ देगा। आयुकर्म का संबंध काल से नहीं होता बल्कि कर्म के निषेकों से रहता है। आयुकर्म की जिससे उदीरणा हो, वैसे कार्य कभी नहीं करना चाहिए, यत्नाचार पूर्वक ही कार्य करना चाहिए। उदीरणा में आयुकर्म के निषेक ज्यादा खिरते हैं। सप्तम गुणस्थान में मुनि महाराज की आयुकर्म की उदीरणा रुक जाती है। वेदना कषाय समुद्धात के द्वारा आयु कर्म का अपव्यय होता है।
  21. बहुत दिन की प्रतीक्षा के उपरांत भी, यह पर्वराज आकर बहुत जल्दी जा रहा है। पूरे ३६५ दिन के उपरांत मौका मिला था। इसके पूर्ण होने में दो-तीन ही दिन बाकी रहे है। हमें रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए शल्यत्रय का छोड़ना अनिवार्य है। आज भी आत्मा का स्वभाव है। त्याग क्या करना और क्या लेना है ? इसका विचार करना है। कहा भी है। यों अजीव अब आस्त्रव सुनिये, मन, वच, काय त्रियोगा। मिथ्या अविरति अरु कषाय, परमाद सहित उपयोगा। ये ही आतम को दुख कारण, तातें इनको तजिये । सही मार्ग दर्शन [Right Direction] का अभाव होने से फल की प्राप्ति नहीं हो रही है। इन मिथ्या, अविरति, प्रमाद, कषाय के कारण ही यह जीव दुख पा रहा है। आगे और कहते हैं। ऐसे मिथ्या दूग ज्ञान चरण, वश भ्रमत भरत दुख जन्म मरण। तातें इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूँ बखान॥ अनादिकाल से हम जिन को रत्न मान रहे हैं ऐसे ये मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी तीन रत्नों से ही हमारा जीवन बिगड़ रहा है। ये तीनों असली सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र रूपी रत्नों के अभाव से प्रादुभूत होते हैं। जब कभी भी हमें लेना होता है तब कुछ छोड़ना भी पड़ता है। छोड़ना और लेना गौण और मुख्य रूप से होता रहता है। आज तक हमने न छोड़ा है और न पाया है। त्याग आत्मिक स्वभाव है। इससे आत्मा में क्या-क्या लक्षण होंगे यह देखना है। त्याग में शांति, सुख है। यह भी एक माध्यम है जिसके द्वारा सुख शांति तक पहुँचा जा सकता है। त्याग में आकुलताएँ नहीं होनी चाहिए। अगर त्याग में आकुलताएँ हैं तो वह त्याग नहीं आग है। त्याग एक ऐसा सरोवर है कि जिसके पास जाने के बाद गर्म लू भी ठंडी बन जाती है। अपने पास आने का नाम ही त्याग है। हमें दुनियादारी को छोड़ना पड़ेगा। दूसरों को जो अपना रखा है, उसको छोड़ना ही त्याग है। कहा भी है- यह राग आग दहै सदा, तातें समामृत सेइये। चिर भजे विषय कषाय अब तो, त्याग निज-पद बेइये ॥ यह रागरूपी आग चैतन्यरूपी शक्ति को अनादिकाल से जला रही है। हमें मालूम ही नहीं है कि यह चैतन्य शक्ति किस रूप में विद्यमान है। जिन वस्तुओं के द्वारा दुख का अनुभव हो रहा है उनको छोड़ना ही सुख की प्राप्ति है। धनाढ्य होकर भी, परिग्रही होकर भी आप निस्पृही के पास सुख का रास्ता पूछ रहे हैं। मैं सुख का रास्ता मात्र बता ही नहीं रहा हूँ, देने के लिए तैयार हूँ, पर आप लेना चाहते ही नहीं। आप कुछ छोड़ो फिर कुछ लेओ, आप यह मत सोचो कि किसी ने पकड़ रखा है। आपको किसी ने भी नहीं पकड़ा है, बल्कि आपने ही अन्य को पकड़ रखा है। आप त्याग कर रहे हैं, उसमें भी राग विद्यमान है। वस्तु का त्याग ही त्याग नहीं है, पर उसके साथ राग का भी त्याग करो। उसके उपरीत ज्ञान का भी प्रत्याख्यान आचार्यों ने बताया है। जिस ज्ञान को लेकर भी विकार पैदा हो रहा है, उनको भी छोड़ना है। घर छोड़ा, शरीर के प्रति ममता भी छोड़ी, पर मुक्ति को भी तृण के समान समझ कर भूलना है। ‘निष्पृहस्य शिवमपि तृणम्' तभी वास्तविक त्याग है। इसमें आगे कोई सुख ही नहीं है। सुख की लिप्सा का भी त्याग करना होगा। ज्ञान तो पर्याय को लेकर होता,पूर्णता को लेकर नहीं। क्षयोपशम ज्ञान को लक्ष्य मत रखो, वह भी मद ही होता है। उसका भी त्याग करने पर ही रास्ता प्रशस्त बन सकेगा। जीव का वास्तविक लक्षण तो केवल ज्ञान है। क्षयोपशमज्ञान, वास्तविक स्वभाव, लक्षण नहीं है। इच्छा को छोड़ देना ही वास्तविक त्याग है, वही रत्नत्रय को धारण करता है, योग को धारण करता है। रत्नत्रय धर्म वह है जिसमें किसी प्रकार का विकार न हो, चिन्ता न हो। कहा भी है - मानाभिभूत मुनि आतम को न जाने। तो वीतराग जिन को यह क्या पिछाने ॥ मान से युक्त जो मुनि है, वह तीन काल में भी जिन को, सुख को नहीं प्राप्त करता है। जो ख्याति लाभ निज पूजन चाहता है। ओ ! पाप का वहन ही करता वृथा है। अनादि काल से ख्याति लाभ पूजन चाहता हुआ यह प्राणी दुख पा रहा है और धर्म से सरकता-सरकता दूर जा रहा है, पाप का भार ढो रहा है। ते सब मिथ्या चारित्र त्याग। अब आतम के हित पंथ लाग। जग जाल भ्रमण को देहु त्याग। अब दौलत निज आतम सुपाग ॥ दौलतरामजी भी कह रहे है कि ऐसे मिथ्या चारित्र को छोड़कर अपनी आत्मा में लगी। सरलता स्वभाव की ओर और कठिनता बाहर की ओर ले जाती है। ग्रहण करने में समय लगता है, पर छोड़ने में नहीं, फिर प्राप्त होवे नहीं भी होवे। अपने आप पर अधिकार करने के लिए त्याग की जरूरत है। आपका त्याग वास्तविक नहीं है (Artificial) बनावटी है।
  22. आशा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जैसे आकाश में एक तारा है वैसे ही "आशा" रूपी गर्त में सारा विश्व उस तारे के समान है। आशा रूपी गडुा कभी नहीं भरता। किसी भी चीज की आशा न रहे, इस प्रकार की सभ्यता आना बहुत कठिन (दुर्लभ) है। बार-बार उपदेश सुनने के बाद भी यदि आपको वैराग्य नहीं आता है तो समझना चाहिए कि आपके ऊपर आशा-तृष्णा रूपी देवी की कृपा है। आशाओं की पूर्ति के लिए घर बस जाता है और मकड़ी की तरह यह जीव फँस जाता है। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज कहते थे जो गृहस्थी में फँस गया वह उस हाथी की तरह है, जो बलवान होकर भी कीचड़ में फँस जाता है। बारहसिंगा घास की आशा के कारण झाड़ियों में फँसता जाता है, वैसे ही यह प्राणी सुख की आशा में गृहस्थी में फँसता जाता है। आशा-तृष्णा पर नियंत्रण धन से नहीं बल्कि धर्म से ही किया जा सकता है। चाह के रहते हुए संतोष प्राप्त नहीं हो सकता। साधु संसार में रहकर भी चाह रहित हैं, वे संसार में जल से हरे-भरे तालाब की भाँति हैं, जिसमें चाह की दाह प्रवेश नहीं कर सकती। कुछ नहीं चाहिए बस यही मोक्षमार्ग है। संसार रूपी जंगल में चाह रूपी दाह से प्राणी जल रहा है। आवश्यकता कभी समस्या नहीं बनती बल्कि अनावश्यकता ही समस्या की जननी है। विषयों की आकांक्षा हो जाने से सम्यकदर्शन का एक पैर टूट जाता है। मोक्षमार्ग सम्बन्धी अभिलाषा बढ़ना चाहिए, न कि विषयों सम्बन्धी।
  23. आज्ञा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आज्ञा देना आज्ञा पालने से भी कठिनतम कार्य है। गणधर परमेष्ठी भी आज्ञा सम्यक्त्वी होते हैं।
  24. आत्मानुशासन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार पर वस्तुएँ कभी भी राग-द्वेष प्रदान नहीं करती, ऐसा अगाढ़ श्रद्धान रखना ही "आत्मानुशासन" है। दूसरे की आलोचना, प्रशंसा की ओर ध्यान ही नहीं देना, यह संसार बाजार है, इसमें मत लुटना। आत्मा के स्वभाव के अनुरूप चलना ही "आत्मानुशासन" कहलाता है। "आत्मानुशासन" से रहित व्यक्ति शासन-प्रशासन को शासित नहीं कर सकता है। यह तात्कालिक कटु है, लेकिन इसका विपाक (फल) अति मधुर है। आगम को अच्छे ढंग से जानने वाला ही व्यवहार कुशल हो सकता है। इन्द्रिय और मन को पुष्ट न होने देना ही "आत्मानुशासन" है। डॉट के बिना शिष्य और शीशी का भविष्य ही क्या ? डॉट अर्थात् ढक्कन न हो तो शीशी की सामग्री फैल सकती है और शिष्य को डॉटा न जाए तो बिगड़ सकता है।
  25. आत्मानुभूति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार रत्नत्रय की आराधना में लीन होने वाले को ही आत्मानुभूति होती है। आत्मानुभूति स्मरण और श्रवण का विषय नहीं है, मात्र आत्मरमण का विषय है। अक्षर ज्ञान के साथ आत्मसाक्षात्कार का सम्बन्ध है ही नहीं। पाँच इन्द्रियों के माध्यम से उपयोग बाहर आना बंद हो जायेगा तो उपयोग आत्मा की ओर आ जायेगा। अपनी ओर उपयोग को लाने के लिए यह देशावकाशिक व्रत लिया जाता है। इस प्रकार के संकल्प लेने से उपयोग अंतर्मुखी हो जाता है। विश्वास को जैसे दिखाया नहीं जा सकता, वैसे ही अनुभूति को दिखाया नहीं जा सकता। शुद्धात्म का संवेदन जिसे नहीं हुआ वह इससे विपरीत संसार दुख का संवेदन कर रहा है। शुद्ध तत्त्व का ध्यान किया जा सकता है, पर शुद्ध तत्त्व का ध्यान करने वाला अशुद्ध ही होगा। जो स्वसंवेदन में आ रहा है, वह दूसरे के ज्ञान का विषय नहीं बन सकता। अध्यात्म में संतोष रहता है क्योंकि वह पराश्रित नहीं होता। संवेदन का प्रदर्शन कला के माध्यम से नहीं किया जा सकता। बारहवें गुणस्थान तक विश्वास रखना होता है, उसके बाद आत्मा की अनुभूति होती है, मार्ग में अनुभूति नहीं होती। आत्म साक्षात्कार के बिना व्रत आदि का पालन करना कोल्हू के बैल जैसी यात्रा है। आत्म साक्षात्कार के बिना साधु जीवन व्यर्थ है। आत्म स्वरूप की ओर देखने से शक्ति जागृत हो जाती है और आत्म-संतुष्टि प्राप्त होती है। अध्यात्म कहता है दूसरे को दु:ख बताने से और बढ़ता है, इस बोझ को उतार दो, वर्तमान में जीना सीखो। मोही को अध्यात्म सुनाना काले रंग पर केशरिया रंग पोतने के समान है जो कभी दिख ही नहीं सकता। उस पर कोई असर ही नहीं पड़ता। अध्यात्म पालन करना बहुत सरल है, क्योंकि यह स्वाश्रित है एवं प्रयोग का विषय है। आत्म तत्व का परायण करने वाला पंचेन्द्रिय विषयों का रस छोड़ देता है, पंचेन्द्रिय के विषय खली के समान है और आत्म तत्व चिंतामणि रत्न के समान है। बाह्य बिम्ब, भेष प्रवेश द्वार है, अध्यात्म तो अंदर है। शरीर के साथ-साथ आत्मा का परिणमन ही सही परिणमन है। दिगम्बरत्व चश्मे के समान है, उसी से आत्म तत्व दिखेगा, लेकिन चश्मे में ही दृष्टि मत अटकाओ, दृष्टि को उससे पार ले जाओ। वस्तु स्वरूप ज्ञात होते ही सप्तभय से मुक्त हो जाता है। वह सोचता है जो होगा वह कर्म के अनुसार ही होगा कोई कुछ नहीं कर सकता।
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