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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 26 - त्याग धर्म

       (2 reviews)

    बहुत दिन की प्रतीक्षा के उपरांत भी, यह पर्वराज आकर बहुत जल्दी जा रहा है। पूरे ३६५ दिन के उपरांत मौका मिला था। इसके पूर्ण होने में दो-तीन ही दिन बाकी रहे है। हमें रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए शल्यत्रय का छोड़ना अनिवार्य है। आज भी आत्मा का स्वभाव है। त्याग क्या करना और क्या लेना है ? इसका विचार करना है। कहा भी है।

     

    यों अजीव अब आस्त्रव सुनिये, मन, वच, काय त्रियोगा।

    मिथ्या अविरति अरु कषाय, परमाद सहित उपयोगा।

    ये ही आतम को दुख कारण, तातें इनको तजिये ।

    सही मार्ग दर्शन [Right Direction] का अभाव होने से फल की प्राप्ति नहीं हो रही है। इन मिथ्या, अविरति, प्रमाद, कषाय के कारण ही यह जीव दुख पा रहा है। आगे और कहते हैं।

     

    ऐसे मिथ्या दूग ज्ञान चरण, वश भ्रमत भरत दुख जन्म मरण।

    तातें इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूँ बखान॥

    अनादिकाल से हम जिन को रत्न मान रहे हैं ऐसे ये मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी तीन रत्नों से ही हमारा जीवन बिगड़ रहा है। ये तीनों असली सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र रूपी रत्नों के अभाव से प्रादुभूत होते हैं। जब कभी भी हमें लेना होता है तब कुछ छोड़ना भी पड़ता है। छोड़ना और लेना गौण और मुख्य रूप से होता रहता है। आज तक हमने न छोड़ा है और न पाया है। त्याग आत्मिक स्वभाव है। इससे आत्मा में क्या-क्या लक्षण होंगे यह देखना है। त्याग में शांति, सुख है। यह भी एक माध्यम है जिसके द्वारा सुख शांति तक पहुँचा जा सकता है। त्याग में आकुलताएँ नहीं होनी चाहिए। अगर त्याग में आकुलताएँ हैं तो वह त्याग नहीं आग है। त्याग एक ऐसा सरोवर है कि जिसके पास जाने के बाद गर्म लू भी ठंडी बन जाती है। अपने पास आने का नाम ही त्याग है। हमें दुनियादारी को छोड़ना पड़ेगा। दूसरों को जो अपना रखा है, उसको छोड़ना ही त्याग है। कहा भी है-

     

    यह राग आग दहै सदा, तातें समामृत सेइये।

    चिर भजे विषय कषाय अब तो, त्याग निज-पद बेइये ॥

    यह रागरूपी आग चैतन्यरूपी शक्ति को अनादिकाल से जला रही है। हमें मालूम ही नहीं है कि यह चैतन्य शक्ति किस रूप में विद्यमान है। जिन वस्तुओं के द्वारा दुख का अनुभव हो रहा है उनको छोड़ना ही सुख की प्राप्ति है। धनाढ्य होकर भी, परिग्रही होकर भी आप निस्पृही के पास सुख का रास्ता पूछ रहे हैं। मैं सुख का रास्ता मात्र बता ही नहीं रहा हूँ, देने के लिए तैयार हूँ, पर आप लेना चाहते ही नहीं। आप कुछ छोड़ो फिर कुछ लेओ, आप यह मत सोचो कि किसी ने पकड़ रखा है। आपको किसी ने भी नहीं पकड़ा है, बल्कि आपने ही अन्य को पकड़ रखा है। आप त्याग कर रहे हैं, उसमें भी राग विद्यमान है। वस्तु का त्याग ही त्याग नहीं है, पर उसके साथ राग का भी त्याग करो। उसके उपरीत ज्ञान का भी प्रत्याख्यान आचार्यों ने बताया है। जिस ज्ञान को लेकर भी विकार पैदा हो रहा है, उनको भी छोड़ना है। घर छोड़ा, शरीर के प्रति ममता भी छोड़ी, पर मुक्ति को भी तृण के समान समझ कर भूलना है। ‘निष्पृहस्य शिवमपि तृणम्' तभी वास्तविक त्याग है। इसमें आगे कोई सुख ही नहीं है। सुख की लिप्सा का भी त्याग करना होगा। ज्ञान तो पर्याय को लेकर होता,पूर्णता को लेकर नहीं। क्षयोपशम ज्ञान को लक्ष्य मत रखो, वह भी मद ही होता है। उसका भी त्याग करने पर ही रास्ता प्रशस्त बन सकेगा। जीव का वास्तविक लक्षण तो केवल ज्ञान है। क्षयोपशमज्ञान, वास्तविक स्वभाव, लक्षण नहीं है। इच्छा को छोड़ देना ही वास्तविक त्याग है, वही रत्नत्रय को धारण करता है, योग को धारण करता है। रत्नत्रय धर्म वह है जिसमें किसी प्रकार का विकार न हो, चिन्ता न हो। कहा भी है -

     

    मानाभिभूत मुनि आतम को न जाने।

    तो वीतराग जिन को यह क्या पिछाने ॥

    मान से युक्त जो मुनि है, वह तीन काल में भी जिन को, सुख को नहीं प्राप्त करता है।

     

    जो ख्याति लाभ निज पूजन चाहता है।

    ओ ! पाप का वहन ही करता वृथा है।

    अनादि काल से ख्याति लाभ पूजन चाहता हुआ यह प्राणी दुख पा रहा है और धर्म से सरकता-सरकता दूर जा रहा है, पाप का भार ढो रहा है।

     

    ते सब मिथ्या चारित्र त्याग।

    अब आतम के हित पंथ लाग।

    जग जाल भ्रमण को देहु त्याग।

    अब दौलत निज आतम सुपाग ॥

    दौलतरामजी भी कह रहे है कि ऐसे मिथ्या चारित्र को छोड़कर अपनी आत्मा में लगी। सरलता स्वभाव की ओर और कठिनता बाहर की ओर ले जाती है। ग्रहण करने में समय लगता है, पर छोड़ने में नहीं, फिर प्राप्त होवे नहीं भी होवे। अपने आप पर अधिकार करने के लिए त्याग की जरूरत है। आपका त्याग वास्तविक नहीं है (Artificial) बनावटी है।


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    Samprada Jain

      

     

    अपने आप के पास आना ही त्याग है।

     

    अपने आप पर अधिकार करने के लिए त्याग की जरूरत है। 

     

    जिन वस्तुओं के द्वारा दुख का अनुभव हो रहा है उनको छोड़ना ही सुख की प्राप्ति है।

     

    आपको किसी ने भी नहीं पकड़ा है, बल्कि आपने ही अन्य को पकड़ रखा है। 

     

    त्याग में शांति, सुख है। यह भी एक माध्यम है जिसके द्वारा सुख शांति तक पहुँचा जा सकता है। त्याग में आकुलताएँ नहीं होनी चाहिए। अगर त्याग में आकुलताएँ हैं तो वह त्याग नहीं आग है। 

     

    वस्तु का त्याग ही त्याग नहीं है, पर उसके साथ राग का भी त्याग करो। उसके उपरीत ज्ञान का भी प्रत्याख्यान आचार्यों ने बताया है। जिस ज्ञान को लेकर भी विकार पैदा हो रहा है, उनको भी छोड़ना है।

     

    छोड़ा, शरीर के प्रति ममता भी छोड़ी, पर मुक्ति को भी तृण के समान समझ कर भूलना है। ‘निष्पृहस्य शिवमपि तृणम्' तभी वास्तविक त्याग है। इसमें आगे कोई सुख ही नहीं है। सुख की लिप्सा का भी त्याग करना होगा। ज्ञान तो पर्याय को लेकर होता, पूर्णता को लेकर नहीं। क्षयोपशम ज्ञान को लक्ष्य मत रखो, वह भी मद ही होता है। उसका भी त्याग करने पर ही रास्ता प्रशस्त बन सकेगा। जीव का वास्तविक लक्षण तो केवल ज्ञान है। क्षयोपशमज्ञान, वास्तविक स्वभाव, लक्षण नहीं है। इच्छा को छोड़ देना ही वास्तविक त्याग है, वही रत्नत्रय को धारण करता है, योग को धारण करता है (?)। रत्नत्रय धर्म वह है जिसमें किसी प्रकार का विकार न हो, चिन्ता न हो। 

     

    त्याग एक ऐसा सरोवर है कि जिसके पास जाने के बाद गर्म लू भी ठंडी बन जाती है। 

     

    ~~~ उत्तम त्याग धर्मांगाय नमो नमः।

    ~~~ णमो आइरियाणं।

     

    ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा!

    ~~~ जय भारत!

    2018 Sept. 21 Fri.: 18:33 @ J

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    सरलता स्वभाव की ओर और कठिनता बाहर की ओर ले जाती है। ग्रहण करने में समय लगता है, पर छोड़ने में नहीं, फिर प्राप्त होवे नहीं भी होवे। अपने आप पर अधिकार करने के लिए त्याग की जरूरत है। 

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