ओसवाल जैन विद्यालय में भगवान् श्री महावीर के २५०० वे निर्वाणोत्सव के संदर्भ में उद्बोधन सभा में दिये प्रवचन।
भगवान् महावीर के २५००वें निर्वाणोत्सव के अन्तर्गत आज शिक्षकों, छात्रों व अन्य बंधुओं को यह ज्ञात करना है कि भगवान् महावीर का जीवन किस रूप में था? उनके द्वारा समाज को क्या लाभ मिला? वर्तमान में क्या स्थिति है? लोगों की यह धारणा हो सकती है कि दिगम्बर भेष को धारण करने वाले महावीर से हमें क्या लाभ होगा? क्योंकि उनके विचार में जिसके पास कुछ होता है, वही दे सकता है। हम अपनी आवश्यकता की पूर्ति बाहरी द्रव्यों से करना चाह रहे हैं, लेकिन महावीर ने आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही ऐसा भेष धारण किया था। हम अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए परमार्थ को भूल जाते हैं भले ही इसमें अपनी हानि भी हो, कोई चिंता नहीं, लेकिन महावीर का चिंतन दूसरी प्रकार का था, वे चाहते थे कि सब प्रजा सुखी रहे, दुर्भिक्ष अकाल ना पड़े। १२ साल के बाद उनको स्व और पर का कल्याण करने वाला फल मिला। उन्होंने यही बताया कि इस जीव के द्वारा जब तक उपसर्ग और परीषह सहन नहीं होगा तब तक इस जीव को स्वर्ग व अपवर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति नहीं हो सकती, उनसे न डरकर उनका सामना करना है। मोक्षमार्ग (सत्पथ) पर अनेक कठिनाइयाँ तो आती ही हैं कहा भी है-
उस पथिक की क्या परीक्षा, जिस के पथ में शूल न हो ॥
उस नाविक की क्या परीक्षा, जब नदी का प्रवाह प्रतिकूल न हो ॥
कठिनाइयों में, प्रतिकूल अवस्था में हम सत् को देख सकते हैं। आज के विद्यार्थी प्रतिकूलता से डरते हैं, वे अनुकूलता चाहते हैं। वे चाहते हैं कि जैसा हम चाहे वैसा ही हो। अगर विद्यार्थी खूब परीषह और उपसर्ग सहन करने में तैयार हो जाये तो वह तीन लोक को मात कर सकता है, उसका स्वामी बन सकता है, मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
शिक्षा का मतलब मात्र भौतिक सुख समृद्धि ही नहीं है। किसान खेती करता है, धान के लिए, न कि मात्र घास के लिए। धान के साथ घास तो मिलेगा ही। भोजन करवाने वाला व्यक्ति भोजन को करवाएगा पर साथ में पानी भी पिलाएगा। आप घास के पीछे पड़कर धान को भूल जाते हैं। घास से पेट नहीं भरेगा उससे तो दुखी ही बनोगे।
दुख फल के अभाव में होता है। विद्यार्थियों को शिक्षण में फल नहीं मिल पा रहा है, उनको यह नहीं बताया जाता कि शिक्षा के द्वारा तीन लोक की उपाधि मिल सकती है। आज तो बाप दादाओं की सीख होती है कि शिक्षा के बाद मात्र कमाना है, पर आज तो कमाना भी रुक गया क्योंकि यही चिन्ता है कि जो धन है उस पर छापा न पड़ जाये, यही माला जप रहे हैं कि इसकी सुरक्षा कैसे हो।
जिस शिक्षण के द्वारा जीवन में सुख शांति नहीं, वह किस काम का। हम साधन को बाधक समझ रहे हैं, यही भूल है, यही महान् अन्तर है। भगवान् महावीर के समान उज्ज्वल जीवन बनाने के लिए उस प्रकार का बनना चाहिए। पीछे नहीं हटना है। मात्र खाना, पीना, सोना ही नहीं। शिक्षा जीवन चलाने के लिए नहीं किन्तु वह जीवन का विकास करने, उसे सुधारने के लिए ही साधन है। और त्याग तपस्या के द्वारा ही जीवन सुधरता है। कहा भी है:-
जन्म सफल जब जानिये, विनय करत दे दान।
श्वभ्र भरण आयु पूरण, सुत उपजावत श्वान ॥
जीवन में सुधार मनुष्य ही ला सकता है, अन्य नहीं। तिर्यञ्च भी तो सिर्फ जीवन चलाता है, सुधारता नहीं। मनुष्य पुरुषार्थ कर जीवन चलाते हुए उसमें सुधार कर सकता है। उसके लिए समीचीन परिश्रम विवेक के साथ जो करता है, उनके लिए महावीर का वरदहस्त रहता है, उनका मार्ग ज्ञान चक्षुओं के द्वारा देख सकते हो। विद्यार्थी, समय का सदुपयोग करते हुए समीचीन पथ पर आरूढ़ होकर स्व पर कल्याण की ओर अग्रसर हो। जवानी के जोश को होश के साथ काम में ले।