(भगवान् महावीर के २५००वें निर्वाणोत्सव पर महावीर कार्नर (दौलत बाग) में प्रात: दिये गये प्रवचन से उद्धत।)
आज का यह पुनीत अवसर बहुत ही काल की प्रतीक्षा के उपरांत प्राप्त हुआ है आज मेरा हृदय गद्गद होता जा रहा है, भगवान् महावीर की पुण्य तिथि के बारे में क्या बोलू? अपने से बड़ों की स्तुति करना आवश्यक है। आज के समान ही पावापुर की भूमि में चारों ओर से हरियाली छाई हुई थी, बसंत की बहार थी उपवन, बगीचा इसी प्रकार था, इन सबके बीच में भगवान् महावीर ने निर्वाण को प्राप्त किया। रागी विषयी व्यक्ति के लिए यही हरियाली, उपवन आदि विषय वृद्धि के कारण है, पर महावीर के लिए निर्वाण का कारण बने, इसे ज्ञान-अज्ञान का अन्तर कहना होगा। महावीर ने इस प्रकार के दृश्यों को देखकर भोगों को नहीं अपनाया, वे तो योग साधन में जुट गये, तभी उनको इस शरीर से आज के दिन मुक्ति मिली। यह शरीर कारागार, जेल व बन्धन है, इस को महावीर ने तोड़ दिया और सिद्ध अवस्था को प्राप्त किया।
अनन्त प्रकार के जीव अनन्त भावों को लेकर जी रहे है, उन्हीं में से एक ने मोक्ष पद प्राप्त कर लिया, उसी प्रकार हमें भी प्राप्त करना है। महावीर का जीवन अनोखा रहा, जवानी में उन्होंने भोगों की ओर नहीं देखा। उन्होंने सोचा कि अगर मैं इन की ओर देखंगा तो करने योग्य कार्य कैसे करूंगा? उन्होंने अपने जीवन का सदुपयोग किया, निग्रन्थ अवस्था प्राप्त की एक क्षण मात्र भी विषयों की ओर न देखा। १२ साल तक इसी अवस्था में रहे, तब केवलज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने बताया कि यह लक्ष्मी अशुचि, विष्टा और अस्पृश्य है, छूने योग्य भी नहीं, जिसे आपने जेबों में सम्हाल कर रखा है।
वे धन्य हैं, जिन्होंने अपने जीवन में आकिंचन्य को स्थान दिया और मुक्ति को प्राप्त हुए। समय को योग के निग्रह के काम में लाओ। आज मोक्ष का अभाव है, परन्तु मोक्ष मार्ग का अभाव नहीं है, इसलिए हम कह सकते हैं कि मोक्ष का अभाव भी नहीं है। निग्रन्थ परिषद की सभा में आचार्य श्री ने फरमाया कि निग्रन्थ शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। निर और ग्रन्थ। यानि जिन्होंने मन, वचन, काय से ग्रन्थों का विमोचन किया है। यहाँ ग्रन्थों से मतलब शास्त्र आदि नहीं है। ग्रन्थ का मतलब परिग्रह है। जो कुछ अपना रखा है, उसको छोड़ना। संग्रह करना एक प्रकार से निग्रन्थ की उपेक्षा है, उसकी अवहेलना करना है। ग्रन्थ अर्थात् गांठ, शूल की तरह तकलीफ देने वाली है। भाषण, महावीर की वाणी भी परिग्रह बन सकती है, यदि उसको लेकर ख्याति, लाभ पूजा आदि चाहने लग जाये। निग्रन्थ अवस्था में कोई बाधा की संभावना नहीं है। सर्वोतम यही है कि महावीर की जय-जयकार करते हुए निग्रन्थ हो जायें। ग्रन्थ की परिभाषा मूच्छ और परिग्रह है। ग्रन्थ के नाम से ही मोह की डोरी आती है; ग्रन्थ के साथ ही सुख-दुख का अनुभव होता है, स्वतन्त्रता से विमुख होना पड़ता है। शिव में सुख है, वह निग्रन्थ होने पर मिल सकता है। अनिष्ट पदार्थों का विमोचन आवश्यक है। आपको सुख चाहिए तो ग्रन्थ को छोड़ना पड़ेगा। जिन्होंने साधना में अपना चित लगाया है, उन्हें बाहरी साधन विचलित नहीं कर सकते हैं। लिप्सा में डूबा व्यक्ति रागी-द्वेषी और पक्षपाती होता है, वह तीन काल में भी उद्धार नहीं कर सकता है। एक बार और, एक बार, और.......यही लिप्सा, यही वासना, यही विकार है।
आवश्यकता के उपरांत जो है, वही परिग्रह है, जो अधोगति का कारण है। परिग्रह और आवश्यक दोनों अलग है। निग्रन्थ का अर्थ यही है कि अनावश्यक को छोड़कर आवश्यक को रखें नहीं तो महान् ग्रन्थी बने रहोगे जिससे कल्याण होने वाला नहीं है। अत: एक बार निग्रन्थ महावीर की जय बोलकर बात समाप्त करता हूँ।