जिसे आप अच्छा समझ रहे है, जिसे जानने के बाद बुरा समझने लग जाय, तभी महावीर का २५००वां निर्वाणोत्सव सफल होगा वह है 'अपरिग्रह।” इसके बारे में कहने के लिए ज्यादा समय की आवश्यकता नहीं है। वही प्राणी पापी है, जो परिग्रह को अच्छा समझता है। परिग्रही जितना ज्यादा व्यवहार में होगा उतना ही वह सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक क्षेत्रों में आदर प्राप्त कर लेगा, परन्तु भगवान् महावीर के अनुसार परमार्थी नहीं बन सकता। उनके अनुसार ऊँचे सिंहासन पर विराजमान कराने के लिए निस्पृही को ढूँढ़ना पड़ेगा। निस्पृही विरले ही मिलेंगे। उनका जीवन धन्य है, जिसने तिल-तुष मात्र भी परिग्रह नहीं रखा है। वह परिग्रह विष, विष्टा के समान है। हम खूब संग्रह करते जा रहे हैं और महावीर भगवान के निकट भी पहुँचना चाह रहे हैं। जो कुछ ग्रहण कर रखा है, पहन रखा है, उनका विमोचन करना पड़ेगा। संग्रह वृत्ति भगवान् महावीर के दिव्य संदेशों को कलंक लगाने वाली है। संग्रह में संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है। जहाँ झगड़ा है वहाँ ही संग्रह वृत्ति है। संग्रह वृत्ति में ही चिन्ता होती है। भगवान् महावीर ने बताया नहीं बल्कि दिखाया कि अकेले बन जाओ। जब भगवान् महावीर स्वयं अकेले बन गये, तभी महान् बन गये।
पूर्ण परित्याग न हो सके तो आवश्यक का संरक्षण कर अनावश्यक का त्याग तो करो। स्कूल में बच्चों को सिखाया जाता है कि आविष्कार करेंगे तो दुनियाँ में शांति होगी, लेकिन जब आप आवश्यकताएँ कम करेंगे, तभी वास्तविक शांति होगी। जहाँ याचना नहीं वहीं पर वास्तव में आर्थिक विकास है। जहाँ वित्त को जहर मान लिया वहीं सारे संघर्ष समाप्त हो जाते हैं। वित्त के पीछे चित्त आत्मा को भुला दिया है। लेकिन आत्मा को याद करने पर ही परमात्मा बन सकते हैं, नहीं तो वित्त के पीछे आत्मा का खात्मा हो जाएगा। जिनके पास कुछ भी नहीं है, वे आनन्द के साथ जीवन व्यतीत कर रहे हैं। जितना-जितना आरम्भ परिग्रह होगा, उतना-उतना आत्मिक बल कम हो जाएगा और यही एक प्रकार से आत्म हत्या की ओर अग्रसर होना है। त्याग के बिना भगवान् महावीर को विश्व के कोने-कोने में नहीं देख पायेंगे। उनके विचारों का प्रचार व प्रसार त्याग के द्वारा ही कर सकते हैं। आप को एक दो दिन की ही चिन्ता नहीं है बल्कि चाबी अपने पास रख पोते-परपोते तक की चिन्ता लगी रहती है इससे कल्याण नहीं होगा। भगवान् महावीर तो विश्वव्यापी है, उनके अनुरूप चल कर ही हम उनके सिद्धान्तों का प्रचार कर सकते हैं।
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