शनिवार को गौतम गणधर स्मृति दिवस पर आज हम सब लोग भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य भगवान् गौतम गणधर का स्मृति दिवस मनाने को एकत्र हुए हैं। दिव्यध्वनि तब खिरती है, जब संसार से भयभीत होकर प्राणी हित का रास्ता ढूँढ़ना चाहते हैं। भव्य लोगों का जब संसार छूटने का समय निकट आता है, तब पूज्य पुरुषों का समागम होता है, दिव्य ध्वनि खिरती है। लोगों का कल्याण होता है। कहा भी है
भवि भागन वश जोगे वशाय,
तुम धुनि ह्वे सुनिविभ्रम नाशाय ॥
भगवान् महावीर ने सोचा कि अपना कल्याण तो हो गया, भावी पीढ़ी का भी कल्याण हो, इसीलिए उनकी दिव्यध्वनि गौतम गणधर के होने पर खिरी। गौतम गणधर का स्थान उत्कृष्ट है। मंगल में भी उनको गिना है, उन्हें माना है। कहा भी - मंगलम् भगवान वीरो, मंगलम् गौतमो गणी।
मंगल का अर्थ मंगं पूज्यं लातीति मंगलम्। वे गणधर परमेष्ठी मल गलाने वाले और पुण्य का संचार करने वाले थे। उन्होंने हम लोगों के लिए मार्ग प्रशस्त किया। कहा भी है
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागू पांय।
बलिहारी गुरु देव की, गोविन्द दियो बताय॥
आज हमें महावीर को बताने वाले गौतम गणधर ही हैं, इसलिए महावीर को Direct याद न कर गौतम गणधर को याद किया है। कॉलेज में लेक्चरार Speech देकर चला जाता है, उससे बीच-बीच में आप प्रश्न नहीं पूछ सकते हैं लेकिन Higher Secondary तथा Primary स्कूल के मास्टरों से बार-बार प्रश्न तथा अर्थ पूछ सकते हैं। अत: Lecturer का इतना महत्व नहीं है जितना मास्टरों का। इसी प्रकार गणधर ने महावीर वाणी का विश्लेषण किया है, अनेकों प्रश्नों द्वारा दिव्य ध्वनि खिराई। उन्होंने बहुत प्रयास किया। यह उनकी देन है कि हम उस अमूर्त के बारे में जान सके हैं। आत्मा का स्वभाव क्या है ? किस प्रकार बंध, निर्जरा होती है ? उन्होंने दिव्य ध्वनि को ग्रन्थ का रूप दिया। जितने लेख लिखे जा रहे हैं, वे सब उनकी ही देन है। उन्होंने हमारे सामने जो रहस्य को खोला है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। उसके अध्ययन के लिए भी महान् तपस्या और ज्ञान की जरूरत है। गौतम गणधर में बहुत विशेषण थे। वे विशेषण उनके साथ-साथ हमारे पीछे भी लग जाय, उसके लिए उपाय करना है। क्या हरदम पूजन ही पूजन करते रहेंगे, जयजयकार बोलते रहेंगे, भगवान् के सामने नाक रगड़ते ही रहेंगे, अन्दर ही अन्दर पीड़ा रहेगी ? अगर चाहें तो एक अंतर्मुहूर्त में भगवान् के समान दिव्य ज्योति आलोकित हो सकती है। देर है अंधेर नहीं।अब २५०० वर्ष भगवान् महावीर के निर्वाण को हो गये। अब तो विचारो कि हमारी मांग क्यों नहीं पूर्ण हो रही है, अब तक देर भले ही हो गई पर अब अंधेर नहीं होना चाहिए। आपको आशा तो है, पर विश्वास नहीं है, यह कैसे होगा। स्तुतियों पाठों को पढ़ते हुए उनके अनुरूप बनने का आज तक प्रयास नहीं किया। आप भगवान् नहीं बनना चाह रहे हैं, सिर्फ भत रहना चाह रहे हैं। आप भत ही नहीं, मुक्त बनने की कोशिश करो। आप सोचते हैं कि काल अनन्त है तो हम भी अनन्त हैं। पर अनन्त तक संसार में रहने पर भी अनन्त का अनुभव नहीं होगा। दिव्य शक्ति का अवलोकन करना चाहते हो तो जीवन में एक बार एक शब्द का ही अनुसरण कर लो। जिस प्रकार खिचड़ी को पकी हुई जानने के लिए एक दाना देखना ही काफी है, पूरी खिचड़ी नहीं, उसी प्रकार अनन्त का अनुभव करने के लिए बहुत पढ़ने जानने की जरूरत नहीं। साध्य अनन्त है, साधना अनन्त नहीं। एक अक्षर का अनुपालन करने से ही धन्य बन जाओगे। कहा है-
स्वाधीनता,सरलता,समता,स्वभाव
तो क्रूरता, कुटिलता, ममता, विभाव।
जो भी विभाव धरता, तजता स्वभाव,
तो डूबती उपलनाव, नहीं बचाव ॥
निर्वाण महोत्सव मनाते जाओ और क्रूरता, कुटिलता को अपनाते रहोगे तो आपकी नैया अवश्य डूबेगी, उसे कोई भी नहीं बचा सकता। हां! इतना जरूर है कि भगवान् डुबायेंगे नहीं तो बचाएँगे भी नहीं। हम चाह नहीं रहे हैं, मात्र बात कर रहे हैं। हम भगवान् महावीर, गौतम गणधर की बातें ही कर रहे हैं, बनना नहीं चाह रहे हैं। हमारी अवस्था अपूर्ण क्यों है ? हमारी अवस्था उस बर्फ के टुकड़े के समान है। समुद्र में लहरें उठ रही हैं, बर्फ का टुकड़ा भी पानी का अंश है, पर पानी तरल है, उसमें दूसरों को चोट पहुँचाने की शक्ति नहीं है पर बर्फ में दूसरों को चोट पहुँचाने की क्षमता है क्योंकि वह सघन है इसीलिए नाविक उससे भय खाते हैं, उसे देखकर दूर से ही निकल जाते हैं। वह बर्फ का टुकड़ा समुद्र से कह रहा है कि मैं तुमसे ऊपर हूँ। पानी का आदर सब करते हैं, नाविक पानी से भय नहीं खाते उन्हें बर्फ से टकरा जाने का, नाव डूब जाने का भय है। बर्फ सोचता है कि मैं मिट न जाऊँ इस अपार समुद्र में मेरा पता न लगेगा, वह भूल करता है। भगवान् महावीर, गौतम गणधर महासमुद्र के समान हैं, हमें अपने को उनमें समर्पित करना है, इससे हम महासत्ता में मिल जाएँगे, पूज्य स्थान मिल जायेगा। इस वर्तमान अवस्था को वैकालिक बनाने की चेष्टा न करो, यह मूढ़ता है। नाम के पीछे दाम के पीछे और काम के पीछे सभी लोग आतमराम को भूले हुए हैं। कहा है-
देखो! नदी प्रथम है निज को मिटाती,
खोती तभी, अमित सागर रूप पाती।
व्यक्तित्व को, अहम् को, मद को मिटावे,
तू भी स्व को सहज में, प्रभु में मिलादे ॥
वह नदी शिखर से निकलती, गिरी, कन्दराओं में बहती हुई मिट्टी में से, पत्थर में से होती हुई आती है, उसका लक्ष्य एक है सागर में मिलना, तभी उसकी उपयोगिता है। स्वयं को मिटाकर उसकी दृष्टि अपार की ओर रहती है, तभी वह समुद्र में अनन्त सुख की भागिनी बन जाती है। आप लोग भगवान् के सामने जाकर अपने अहं को सुरक्षित रखने की चेष्टा कर रहे हैं। अपार समुद्र के सामने नदी की कीमत नहीं है। भगवान् महावीर के पूर्ण ज्ञान के सामने अपने अपूर्ण ज्ञान को लेकर दंभ कर रहे हैं। हमने भगवान के सामने अपनी आलोचना की ही नहीं। वैकालिक सत्ता को हमने आज तक देखा ही नहीं, इसीलिए अनन्त के धनी आज तक बने ही नहीं। आज हम अपने भौतिक सुख में वृद्धि करना चाह रहे हैं। आप Quality सुख को नहीं बढ़ाना चाहते, बल्कि सुख की Quantity बढ़ाना चाह रहे हैं, यही भूल है। कुछ मिट जाये, कोई परवाह नहीं। वर्तमान पर्याय भले ही मिट जाये तो क्या बात है? वर्तमान को सुरक्षित रखना ही गलती है। उस सत्ता का दर्शन करो, उस छवि को, महिमा को सामने लाओ। वर्तमान की लहर अमृत की लहर नहीं जहर की लहर है। जब हम निश्चल, निडर, निभीक हो जाये, तब ज्यादा समय नहीं लगता। संसार को बढ़ाने के लिए युग आपेक्षित है, पर विच्छेद के लिए युग की जरूरत नहीं। असंख्यातवें भाग भी सत्ता का अवलोकन हो जाये तो बस ज्योति जग जायेगी। कहा है -
ज्योत्सना जगे, तम टले, नव चेतना है,
विज्ञान-सूरज-छटा तब देखना है।
देखे जहाँ परम पावन है प्रकाश,
उल्लास, हृास, सहसा लसता विलास ॥
तब यह एक रमणीय वातावरण होगा, एक मात्र अनुभूति विज्ञान की पूजा, प्रकाशमय वातावरण बन जायेगा और तीन लोक के पदार्थ ज्ञेय के रूप में, प्रतिबिम्बित हो जाएँगे। जिस दिन भगवान् महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ उसी दिन दिव्य ज्ञान को लिए गौतम गणधर को भी केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। इन परमेष्ठी का कितना भी गुणगान करें। हम अल्पबुद्धि वाले हैं,
ही से भी की ओर ही बढ़े सभी हम लोग।
छह के आगे तीन हो, विश्व शांति का योग ॥
मिट्टी की दीपमालिका
जला रही, बालक बालिका
आलोक के लिए
अज्ञात के ज्ञात के लिए
किन्तु अज्ञात का,
अननुभूत का अदूष्ट का
संवेदन अवलोकन
नहीं हवा, ये सजल लोचन
रह जाते, करते केवल जल विमोचन
उपासना के मिस से
वासना का राग रंगिणी का
उत्कर्षण हो! दिग्दर्शन
तीन काल में, तीन लोक में
नहीं, नहीं कभी नहीं
महावीर से साक्षात्कार
वे सुन्दरतम् दर्शन
आया जब स्वाति नक्षत्र
गोत्र पर पवित्र
चित्र विचित्र
पहन कर वस्त्र
सह कलत्र, पुत्र
सह मित्र
युगवीर के चरणों में
सबने किया मोदक समर्पण
किन्तु खेद!!
अच्छ, स्वच्छ
और अतुच्छ
नहीं बनाया मानस दर्पण
तमो-रजो गुण तजो
सतो-गुण युत हो जिन भजो
तर्भी मजो
जलाओ जन जन हृदय में दीप
ज्ञानमयी करुणामयी हो,
दृष्टिगत हो, ज्ञात हो
ओ सत्ता जो समीप ॥