आयुकर्म विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- आयुकर्म किसी के साथ पक्षपात नहीं करता, भगवान् को भी उस भव में मरण करना पड़ता है, भले ही वह पंडित-पंडित मरण कहलाता है।
- मरण को कोई नहीं रोक सकता, इसलिए मरण की नहीं बल्कि रोग की चिकित्सा की जाती है।
- अकालमरण को औषधि के माध्यम से रोका जा सकता है।
- जैसे राहु, सूर्य और चन्द्रमा को ग्रास बना लेता है, वैसे ही यह मृत्यु सभी जीवों को ग्रास बना लेता है।
- जैसे वोट डालते समय यह जीव अकेला रहता है, वैसे ही कर्मोदय को यह जीव अकेला ही भोगता है।
- शरीर और आयु की स्थिरता कभी खत्म नहीं हो सकती, इसलिए हमें स्थिरता का प्रयास न करके, मिले हुए समय में आत्मा की साधना करनी चाहिए।
- शरीर को कितना भी खिलाओ-पिलाओ, लेकिन वह कभी भी आपका (आत्मा) साथ नहीं देगा, वह तो मात्र आयु का ही साथ देगा।
- आयुकर्म का संबंध काल से नहीं होता बल्कि कर्म के निषेकों से रहता है। आयुकर्म की जिससे उदीरणा हो, वैसे कार्य कभी नहीं करना चाहिए, यत्नाचार पूर्वक ही कार्य करना चाहिए।
- उदीरणा में आयुकर्म के निषेक ज्यादा खिरते हैं। सप्तम गुणस्थान में मुनि महाराज की आयुकर्म की उदीरणा रुक जाती है।
- वेदना कषाय समुद्धात के द्वारा आयु कर्म का अपव्यय होता है।
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