आत्मानुभूति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- रत्नत्रय की आराधना में लीन होने वाले को ही आत्मानुभूति होती है।
- आत्मानुभूति स्मरण और श्रवण का विषय नहीं है, मात्र आत्मरमण का विषय है।
- अक्षर ज्ञान के साथ आत्मसाक्षात्कार का सम्बन्ध है ही नहीं।
- पाँच इन्द्रियों के माध्यम से उपयोग बाहर आना बंद हो जायेगा तो उपयोग आत्मा की ओर आ जायेगा।
- अपनी ओर उपयोग को लाने के लिए यह देशावकाशिक व्रत लिया जाता है। इस प्रकार के संकल्प लेने से उपयोग अंतर्मुखी हो जाता है।
- विश्वास को जैसे दिखाया नहीं जा सकता, वैसे ही अनुभूति को दिखाया नहीं जा सकता।
- शुद्धात्म का संवेदन जिसे नहीं हुआ वह इससे विपरीत संसार दुख का संवेदन कर रहा है।
- शुद्ध तत्त्व का ध्यान किया जा सकता है, पर शुद्ध तत्त्व का ध्यान करने वाला अशुद्ध ही होगा।
- जो स्वसंवेदन में आ रहा है, वह दूसरे के ज्ञान का विषय नहीं बन सकता।
- अध्यात्म में संतोष रहता है क्योंकि वह पराश्रित नहीं होता।
- संवेदन का प्रदर्शन कला के माध्यम से नहीं किया जा सकता।
- बारहवें गुणस्थान तक विश्वास रखना होता है, उसके बाद आत्मा की अनुभूति होती है, मार्ग में अनुभूति नहीं होती।
- आत्म साक्षात्कार के बिना व्रत आदि का पालन करना कोल्हू के बैल जैसी यात्रा है।
- आत्म साक्षात्कार के बिना साधु जीवन व्यर्थ है।
- आत्म स्वरूप की ओर देखने से शक्ति जागृत हो जाती है और आत्म-संतुष्टि प्राप्त होती है। अध्यात्म कहता है दूसरे को दु:ख बताने से और बढ़ता है, इस बोझ को उतार दो, वर्तमान में जीना सीखो।
- मोही को अध्यात्म सुनाना काले रंग पर केशरिया रंग पोतने के समान है जो कभी दिख ही नहीं सकता। उस पर कोई असर ही नहीं पड़ता।
- अध्यात्म पालन करना बहुत सरल है, क्योंकि यह स्वाश्रित है एवं प्रयोग का विषय है।
- आत्म तत्व का परायण करने वाला पंचेन्द्रिय विषयों का रस छोड़ देता है, पंचेन्द्रिय के विषय खली के समान है और आत्म तत्व चिंतामणि रत्न के समान है।
- बाह्य बिम्ब, भेष प्रवेश द्वार है, अध्यात्म तो अंदर है।
- शरीर के साथ-साथ आत्मा का परिणमन ही सही परिणमन है।
- दिगम्बरत्व चश्मे के समान है, उसी से आत्म तत्व दिखेगा, लेकिन चश्मे में ही दृष्टि मत अटकाओ, दृष्टि को उससे पार ले जाओ।
- वस्तु स्वरूप ज्ञात होते ही सप्तभय से मुक्त हो जाता है। वह सोचता है जो होगा वह कर्म के अनुसार ही होगा कोई कुछ नहीं कर सकता।