आशा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- जैसे आकाश में एक तारा है वैसे ही "आशा" रूपी गर्त में सारा विश्व उस तारे के समान है।
- आशा रूपी गडुा कभी नहीं भरता।
- किसी भी चीज की आशा न रहे, इस प्रकार की सभ्यता आना बहुत कठिन (दुर्लभ) है।
- बार-बार उपदेश सुनने के बाद भी यदि आपको वैराग्य नहीं आता है तो समझना चाहिए कि आपके ऊपर आशा-तृष्णा रूपी देवी की कृपा है।
- आशाओं की पूर्ति के लिए घर बस जाता है और मकड़ी की तरह यह जीव फँस जाता है।
- आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज कहते थे जो गृहस्थी में फँस गया वह उस हाथी की तरह है, जो बलवान होकर भी कीचड़ में फँस जाता है।
- बारहसिंगा घास की आशा के कारण झाड़ियों में फँसता जाता है, वैसे ही यह प्राणी सुख की आशा में गृहस्थी में फँसता जाता है।
- आशा-तृष्णा पर नियंत्रण धन से नहीं बल्कि धर्म से ही किया जा सकता है।
- चाह के रहते हुए संतोष प्राप्त नहीं हो सकता।
- साधु संसार में रहकर भी चाह रहित हैं, वे संसार में जल से हरे-भरे तालाब की भाँति हैं, जिसमें चाह की दाह प्रवेश नहीं कर सकती। कुछ नहीं चाहिए बस यही मोक्षमार्ग है।
- संसार रूपी जंगल में चाह रूपी दाह से प्राणी जल रहा है।
- आवश्यकता कभी समस्या नहीं बनती बल्कि अनावश्यकता ही समस्या की जननी है।
- विषयों की आकांक्षा हो जाने से सम्यकदर्शन का एक पैर टूट जाता है।
- मोक्षमार्ग सम्बन्धी अभिलाषा बढ़ना चाहिए, न कि विषयों सम्बन्धी।