उपयोग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- आत्मा और उपयोग का सम्बन्ध स्वर्ण में पीलापन के समान है।
- आत्मा सोना है और उपयोग पीलापन है, जो एक दूसरे से पृथक् नहीं रह सकते।
- शुद्धोपयोग ध्यान की परिणति है और केवलज्ञान, ज्ञान की पर्याय या परिणति है, क्योंकि कुछ पर्यायें सादि अनंत होती है, केवलज्ञान सादि अनंत पर्याय है और शुद्धोपयोग सादि सान्त पर्याय है।
- आत्मा को विकल्प कराने वाला ज्ञानोपयोग है और आत्मा को समाधि की साधना में ले जाने वाला दर्शनोपयोग से ही आती है, ज्ञानोपयोग से नहीं।
- अशुभोपयोग से निवृत्ति होना रात्रि का समापन है और शुभोपयोग में प्रवृत्ति होना भोर होना है और शुद्धोपयोग दिन का प्रकाश है।
- शुभोपयोग में बैट घुमाओ और बॉल (गेंद) दूर गई तो अवसर मिलते ही शुद्धोपयोग रूपी रन बना लेना चाहिए। ध्यान रखना शुभोपयोग की रेखा से बाहर खेलने नहीं जाना, जिस खिलाड़ी का बैट हाथ से छूट जाता है, वह अच्छा खिलाड़ी नहीं माना जाता है।
- शुद्धोपयोग में प्रतिकार नहीं होता मात्र प्रतीति रह जाती है, इसलिए प्रतिकार नहीं करना। जो आया, उसे स्वीकार करो।
- हमारे उपयोग का विषय तत्वचिंतन बने, पंचपरमेष्ठी बनें, विषय/कषाय भूलकर भी न बने।
- गरम दूध में गिरा छोटा-सा तिनका जैसे चारों ओर घूमता है वैसे ही शरीर में कोई रोग हो जाये तो उपयोग तिनके की भाँति उसी की ओर जाता रहता है।
- शुभोपयोग साधन रूप एकदेश उपादेय है और शुद्धोपयोग केवलज्ञान का साधनरूप उपादेय है।
- उपयोग में जो विकार उत्पन्न होता है, वह आत्मतत्व को छोड़कर अन्य पदार्थों की ओर जाने से होता है।
- शुभोपयोग, शुद्धोपयोग का कारण है और शुद्धोपयोग केवलज्ञान का कारण है। ।
- शुभोपयोग का अभाव सो शुद्धोपयोग, ऐसा अर्थ नहीं लेना बल्कि शुद्धोपयोग में शुभोपयोग का अभाव होता है, ऐसा अर्थ लेना।
- जिसमें शुद्धोपयोग की भूमिका नहीं बनती उसे भूलकर भी शुभोपयोग नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि वह भी परम्परा से मोक्ष का कारण है।
- शुद्धोपयोग रूप गाड़ी बिना रुके मोक्ष ले जाती है और शुभोपयोग रूप गाड़ी कई स्टेशनों पर रुकती हुई जाती है, पर पहुँचती वहीं है।
- शुद्धोपयोग तो उपादेय है, क्योंकि वह आत्मानुभूति कराता है। लेकिन शुभोपयोग भी उपादेय है, क्योंकि वह शुद्धोपयोग में कारण है।
- ज्ञानोपयोग होने से भय होता है, दर्शनोपयोग होने पर भय नहीं होता।
- अशुभोपयोग से बचने का नाम शुभोपयोग है। भगवान् की भक्ति, दान, व्रत, स्वाध्याय, दया व अनुकम्पा आदि क्रियाएँ शुभोपयोग कहलाती हैं।
- वस्तु को विषय बनाने का जो आत्मा का प्रथम पुरुषार्थ है, उसका नाम दर्शनोपयोग है। उपयोग लगाकर सुनो जीव उपयोगमय है, जीव का उपयोग से तादात्म्य सम्बन्ध है, जीव से उपयोग पृथक् नहीं होता, जैसे स्वर्ण से पीलापन।
- उपयोग में उपयोग लगाओ तो समय का पता ही नहीं लगेगा।
- ज्ञानोपयोग को दर्शन के समान बनाने का अर्थ है, चलाकर चिंतन नहीं करना, अवग्रह तक ही सीमित रहना, ईहा आदि को ज्ञान की ओर नहीं ले जाना।
- दर्शनोपयोग में वस्तु का अस्तित्व मात्र होता है, भेद-उपभेद नहीं होते।
- ज्ञानोपयोग के पूर्व में होने वाली उपयोग की दशा का नाम दर्शनोपयोग है।
- सामान्य अवलोकन का नाम, निराकार, निर्विकल्प दशा का नाम दर्शनोपयोग है।
- शुद्धोपयोग को यथाख्यात चारित्र या शुक्लध्यान के रूप में स्वीकारा है, इसी को निर्विकल्प समाधि, अभेद रत्नत्रय व वीतराग भाव भी कहते हैं।
- उस शुद्धोपयोग का दर्शन तीन लोक में यदि कहीं होगा तो वह श्रमण (साधु) की चर्या में ही होगा।
- शुभोपयोग बना रहेगा तो शुद्धोपयोग मिलेगा नहीं तो अशुभोपयोग में चला जावेगा।
- शुद्धोपयोग सरल प्राकृतिक है, वह दबाव से पैदा नहीं होता।
- शुद्धोपयोगी किसी से प्रभावित नहीं होता।
- आत्म स्वरूप को प्राप्त करने का उपाय शुद्धोपयोग है।
- शुद्धोपयोग की तरंग में अन्य तरंगे नहीं आती, उस समय मात्र शुद्ध द्रव्य का अनुभव होता है।
- जिसके जीवन में शुद्धोपयोग की रुचि नहीं है, बहुमान नहीं है तो वह शुभोपयोग को भी अधिक समय तक नहीं रख सकता।
- आटे की लोई शुभोपयोग की भाँति है, जो कि कोई काम की नहीं यदि उसे शुद्धोपयोग (रोटी) के रूप में नहीं ढाला गया तो लोई की उम्र ज्यादा नहीं होती।
- योग और उपयोग आत्मा की दो ऐसी शक्तियाँ हैं, जिनके माध्यम से हम अच्छे-बुरे दोनों कार्य कर सकते हैं।
- स्पन्दन क्रिया के बंद हुए बिना अंतरंग में क्या है यह दिखाई नहीं दे सकता।
- योग सिद्धि के बिना कोई भी क्रिया सिद्ध नहीं हो सकती।
- अस्थिर मन वाला व्यक्ति कभी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।
- शुद्धोपयोग कभी भी प्रवृत्ति के समय नहीं हो सकता है।
- योग और उपयोग में कारण ही गुणस्थान बनते हैं।
- उस शुद्ध निश्चयनय की कृपा से ही सिद्ध बना जा सकता है।
- कुम्भकार के उपयोग में कुंभाकार आये बिना योग के कुंभ नहीं बन सकते।
- आत्मा के घर में विकल्प करने वाला एक ही है, वह है उपयोग। उपयोग चारों ओर दौड़ लगाता रहता है, इसलिए आत्मा की शक्ति समाप्त होती रहती है। अंतर्मुहुर्त के बाद ज्ञानोपयोग का अभाव होना अनिवार्य है और उस स्थान पर दर्शनोपयोग होना अनिवार्य है।
- अग्नि से जैसे उष्णता पृथक् नहीं है, उसी प्रकार आत्मा से उपयोग पृथक् नहीं है।
- अपने उपयोग के रेडियो में ज्ञान चेतना की ही स्टेशन लगाओ।
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