सम्यक दर्शन के ८ अंगों में अंग अंगी का भाव अभेदपने को लेकर चलता है। सम्यक दर्शन ८ अंगों से मिला हुआ अंगी नहीं है, बल्कि ८ अंगों (गुणों) का समूह सम्यक दर्शन है। आप लोग गुणी बनना चाहते हैं, पर गुणों का समादर नहीं करते। सम्यक दर्शन को तो मोक्षमार्ग में कारण मानते हैं, पर उसके ८ अंगों की उपेक्षा करते हैं। इन अंगों के द्वारा अवगुणों को दूर कर गुणों के भण्डार बन सकते हैं। जीवन विकास दो पहलुओं को लेकर चलता है, एक दाता बने या पात्र बने। इसमें महत्ता कम ज्यादा हो, इस ओर दृष्टि न करें। हरेक में प्राथमिक और नि:सम्पन्न दशा दोनों होती हैं, दोनों का महत्व होता है। निर्विचिकित्सा अंग मुनिराज का नि:सम्पन्न दशा को लेकर पलता है, परन्तु गृहस्थ का प्रारम्भिक दशा को लेकर पलता है।
हमारा जीवन कब सुधरता है तथा भावों का अध:पतन कब हो जाता है? इसके उदाहरण हैं यशोधर मुनिराज, चेलना रानी और राजा श्रेणिक। यशोधर मुनिराज लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं, शरीर से निसंग हैं, आत्मध्यान में लीन हैं। जीवन की महत्ता जिसने न जानी, ऐसे श्रेणिक राजा ने उनके गले में मरा साँप डाल दिया और सातवें नरक की ३३ सागर की उत्कृष्ट आयु का बन्ध कर लिया, लेकिन इधर यशोधर मुनिराज ने असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा कर ली। राजा ने जब यह बात (सर्प गले में डालने की) रानी चेलना से कही, तो रानी पर तो जैसे वज़ गिर गया हो, ऐसी दुखी हुई क्योंकि वह निर्विचिकित्सा अंग को पालने वाली थी। वह राजा को वन में ले गई, उपसर्ग दूर किया और प्रणाम किया। महाराज ने दोनों को आशीर्वाद दिया। उस वातावरण को देखने पर श्रेणिक ने विचारा कि वास्तविक धर्म यही है, क्योंकि रानी को विशेष आशीष नहीं और मेरे लिए अभिशाप भी नहीं। उसने अपनी आत्मा को धिक्कारा, फिर विशेष परिवर्तन हुआ यही कि नरक की आयु कम हुई। आयु का अभाव नहीं होता। कहा है
निंदा करे, स्तुति करे, तलवार मरे ,
या आरती मणिमयी, सहसा उतारे।
साधू तथापि मन में समभाव धारे,
वैरी सहोदर जिन्हें इकसार सारे ॥
यह वीतराग दशा है, इसमें कौन बैरी, कौन मित्र? न कोई बन्धु, न कोई शत्रु। क्या अनुकूल क्या प्रतिकूल, क्या श्मशान क्या राजमहल ? सब समान है, कोई अन्तर नहीं। कोई आरती उतारे या तलवार मारे मुनिराज कोई फरक नहीं मानते, लेकिन करने वाले पर फरक जरूर पड़ेगा। दोनों में से एक का कार्य परमार्थ के रूप में तथा दूसरे का अनर्थ के रूप में होगा।
श्रेणिक राजा पर नास्तिकता के भाव हट गये और आस्तिकता के भाव जागे। आप लोग अगर किसी व्यक्ति को खून से भरा देखेंगे तो आपका हाथ नाक की तरफ जायेगा, लेकिन उसका खून बन्द नहीं करेंगे। चेलना रानी ने उपसर्ग दूर किया। गृहस्थ की दृष्टि मात्र शरीर पर ही नहीं बल्कि शरीर से हटनी भी चाहिए। शरीर में कुछ व्यवधान या बीमारी आ जाये तो उसे न छोड़ते हुए शरीर की सुरक्षा करें। धार्मिक क्षेत्र में किसी प्रकार का बन्धन नहीं, अगर है भी तो उसे समीचीन बनावें, तोड़े नहीं। किन्तु आज लाइफ इंश्योरेंस होता है जिससे कोई मर जाये, चला जाये चिन्ता नहीं, पैसा तो मिल ही जायेगा। निर्विचिकित्सा का मतलब मात्र शरीर की सेवा ही नहीं है, बल्कि यह देखना है कि शरीर से सम्यक दर्शन आदि पल रहे हैं या नहीं।
अष्टपाहुड में भगवान् कुन्दकुन्द ने बताया है ‘दंसण मूलो धम्मो'। दर्शन, धर्म का मूल है। जो दर्शन से विहीन है, वह धर्म नहीं, वन्दनीय नहीं है। उसका वन्दन हो जो दर्शन से युक्त हो। दर्शन दो प्रकार का है। एक बाह्य दर्शन और दूसरा अंतरंग। अंतरंग दर्शन का आधार बाह्य दर्शन है। जिस प्रकार तेल रखने के लिए पात्र (आधार) चाहिए यानि तेल आधेय, पात्र आधार है। सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र धर्म है, इसका मूल दर्शन है। दर्शन क्या है ? दर्शन है यथाजात रूप। २८ मूलगुण पालने योग्य जो लिंग है, वह यथाजात रूप है। वीतरागता का दर्शन करें और यथाजात रूप न हो, यह तीन काल में नहीं हो सकता है। रानी ने सोचा कि मुनि महाराज का शरीर ठीक चलेगा तो सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र ठीक पलेगा, इसीलिए रानी ने शरीर के उपसर्ग को दूर किया। सम्यक दर्शन ज्ञान-चारित्र का आधार यथाजात रूप है। सम्यक दर्शन वन्दनीय है, उसके साथ वीतरागता दिगम्बर मुद्रा है, तभी बहिरंग दर्शन है। उसके बाद अंतरंग दर्शन होगा।
गृहस्थ के निर्विचिकित्सा अंग में मात्र शरीर सेवा नहीं, धर्म की सुरक्षा हो, तभी वह पात्र बनने की क्षमता रखेगा, वह उस प्रकार बन्ध करेगा, ताकि मोक्ष मार्ग में उपयुक्त सामग्री प्राप्त हो जाये। अमूर्त आत्मा की उपासना, उसमें विश्वास कर सके, इसके लिए आचार्यों ने बहुत परिश्रम कर विशद विवेचन किया। वे तो कृतार्थ हो गये, जब उसको जीवन में उतारेंगे, तब हम भी कृतार्थ होंगे। जो चारित्र अपनाने का विचार रखता है तो चारित्रधारी के पास जायेगा, उनकी सेवा करेगा, उनके आदर्श को जीवन में उतारेगा, तभी सुख का अनुभव करेगा। उसका अपूर्ण जीवन पूर्णता में परिणत हो जायेगा।