Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 54 - नि:काक्षित अंग

       (1 review)

    कल आपने सम्यग्दर्शन के प्रथम अंग नि:शंकित के बारे में सुना। भगवान के द्वारा प्रणीत जो ग्रन्थ है, मोक्ष का जो मार्ग है तथा वीतरागता के बारे में शंका न करना निशंकित है। दूसरा अंग निकांक्षा व तीसरा निर्विचिकित्सा है। विचिकित्सा का अभाव तो निर्विचिकित्सा है। इच्छा का नहीं होना ही नि:कांक्षित है। संसारी जीव की परिणति अनादिकाल से उल्टी हो रही है। इन्द्रियों के द्वारा जो नजर आता है, उसे ही सुख मान रहा है, सुख का स्थान मान रहा है, यह विश्वास उसका हटता ही नहीं। उसकी मति से यह विकृति छूटती नहीं। उसकी दशा उस कुत्ते की भाँति है, जो पत्थर मारने वाले की बजाये पत्थर को काटने की चेष्टा करता है। वह यह नहीं सोचता कि पत्थर का कोई दोष नहीं, पत्थर फेंकने वाले का दोष है। सिंह गोली या पत्थर की तरफ नहीं दौड़ेगा, वह तो गोली चलाने वाले पर आक्रमण करेगा। संसारी प्राणी भी उस कुत्ते के समान दशा को प्रगट करता है और बाहर ही बाहर सुख का अनुभव करना चाहता है। वह नहीं सोचता कि सुख अपना गुण है। जब ऐसा विश्वास करेगा, तब दौड़ धूप में ब्रेक लग जायेगी। नियम के पीछे आस्था होनी चाहिए।

     

    कर्म जन्य सुख-शांति वास्तविक सुख-शांति नहीं है। वह तो तलवार की धार पर लिपटे मिठास को चाटने के समान है, जहाँ क्षणिक सुख के साथ अनन्त दुख भी हो रहा है। यह कर्म जन्य सुख अनन्त आपदाओं के साथ आता है। वह सहज स्वभाव ही नहीं है। यदि उदय में असाता हो तो पुण्य कर्म को व उसके रस को उपयोग में नहीं ला सकते। कर्म जब उदय में आएगा, तब भी द्रव्य, क्षेत्र, काल मिलने पर रस आएगा, नहीं तो सुख नहीं भोग सकते। साता का उदय भी बिना रस दिये चला जाता है। अत: इन्द्रिय जनित सुख में बहुत कठिनाइयाँ हैं। अन्दर साता हो और भोगान्तराय का उदय न हो, तब ही सुख भोग सकता है। इन्द्रिय सुख क्षणिक है, परतन्त्र है, इन पर हमारा अधिकार नहीं है। यह विश्वास जब हो जाता है, तब रोजाना जो भोगों के सुख की प्राप्ति के लिए आकांक्षा हो रही है, वह स्पर्धा कम हो जाती है और धर्म के क्षेत्र में स्पर्धा चालू हो जाती है।

     

    धर्म के क्षेत्र में स्पर्धा वास्तविक है, इस पर पूर्ण अधिकार है कर्म पर पूर्ण अधिकार है। कर्म पर पूर्ण अधिकार नहीं हालांकि कर्म हमने किया पर उनका उदय हमारे अधिकार में नहीं। जीवन भर आर्थिक क्षेत्र में स्पर्धा कर अर्थ समार्जन किया पर अमर बन कर भोग नहीं कर सकते। क्योंकि जिस प्रकार ढलते सूर्य की ललाई छाया क्षणिक है उसी प्रकार जीवन क्षणिक है, यौवन, धन चपल है। बिजली की तरह क्षणिक है। कर्मों का उदय व फल क्षणिक है। इनसे जो सुख मिलता है, वह वास्तविक सुख नहीं। कर्म के उदय को जो मान लेता है, वह वर्तमान की स्पर्धा से दूर हो जाता है। वह कमाएगा, पर कर्म के उदय को भी मानेगा। वह २४ घण्टे में से कुछ समय भगवान् के नाम स्मरण के लिए भी निकालेगा, धार्मिक क्षेत्र में समय खर्च करेगा। वह विश्वास करेगा, कि साता का उदय होगा तो प्राप्ति हो जाएगी। पाप का बीज है इन्द्रिय भोग। जिसे आप मुक्ति का बीज मान रहे है, वह पुण्य का बीज भी नहीं है। इनसे दूर रहना चाहिए।

     

    पाप का पलड़ा ऊपर उठना चाहिए यानि हल्का होना चाहिए और पुण्य का पलड़ा भारी होना चाहिए। किन्तु आज इसकी याद नहीं करते है और सम्यग्दर्शन को मानते हैं। जो २४ घण्टे विषयों में फैंसा है, वह तीन काल में भी सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं कर सकता है। जो सम्यग्दृष्टि है वह निरभिमानी होगा। वह रागी द्वेषी लोभी नहीं होगा। वह कर्म के द्वारा मिले सुख में रचता पचता नहीं वह भरत चक्रवर्ती के समान जीवन व्यतीत करने की चेष्टा करेगा। जो आत्मा के विकास के लिए कदम बढ़ाता है तत्व को जान लेता है, तब वह पीछे कदम नहीं रखता है। वह विश्वास कर कदम बढ़ाता है जहाँ सुख शांति है।

     

    कहते हैं कि पण्डित टोडरमलजी को उनकी माता ने छह माह तक भोजन में नमक नहीं दिया। लेकिन उनका इस ओर ध्यान ही नहीं था, उनका लक्ष्य तो कोई ग्रन्थ पूर्ण करने की ओर रहता था। जब ग्रन्थ पूर्ण हो गया और मंगलाचरण ही शेष था उस दिन भोजन करने पर उनको भोजन में नमक न होने का भान हुआ। आप लोग नमक को रसराज मानते हैं, नमक नहीं तो भोजन ही क्या ? किसी दिन नमक कम हो जाए तो आँखों में ललाई आ जाती है, गुस्सा हो जाते है और थाली तक भी उठाकर फेंक देते हैं। आज तक हार्दिक आस्था, अन्दर की आस्था नहीं हो पा रही है। कहते हैं ले लो अपनी शरण, पारस प्यारा, लेकिन यह सिर्फ शब्दों में है। शरण कोई आता ही नहीं, भगवान् तो शरण देने को तैयार बैठे है। पण्डित टोडरमलजी का लक्ष्य साहित्य सेवा का था। शास्त्र सभी को समझ में आ जाये, मोक्षमार्ग को समझे, विषयों से हटकर लोग वीतराग को अपनाएँ। विषयों से दूर रहने की चेष्टा विषयों के सामने बैठकर नहीं करना। मन को विषयों से दूर हटाकर गुरु भक्ति, शास्त्र सेवा में लगाना है। जिस प्रकार डॉक्टर के कहने पर त्याग होता है और वापस खाने के लिए दिन गिनते हैं कि कब वह दिन आए, जब खाऊँ। ऐसा त्याग नहीं करना है।

     

    त्याग के साथ ध्यान को दूसरी ओर लगाना। सुख त्याग में है, भोग में नहीं। यहाँ तक कि खाने में भी सुख नहीं। त्याग करने में ही सुख है। खाना चाहते हैं, हलवा जलेबी। जब तक खालैंखालू की लालसा, तब तक शांति नहीं, तृप्ति नहीं, आकुलता है। तृप्ति कब होती है ? जब बिल्कुल भी खाने की इच्छा न रहेगी। आकुलता के अभाव में सुख है, शांति है, तृप्ति है। इन्द्रिय सुख छोड़ने पर ही सुख मिल सकता है। विषयों की ओर से हटने पर भद्र परिणाम होते हैं, तभी आस्था होती है। आस्था होने पर ही नि:कांक्षा अंग संवेग गुण का पालन होता है। संवेग तब होता है, जब सांसारिक कार्यों को पाप का बीज और संसार वृद्धि का कारण माने, तभी आस्तिक्य प्रशम भाव होता है। अपने अंग बाहर से नहीं अन्दर से आता है। जो अंगी है, उसका नाम सम्यग्दर्शन है। पुरुषार्थ भी करें, पर एकांत रूप से उसी के भरोसे नहीं। करूं और भोगूँ, यह भावना नहीं। आप कितने परतन्त्र हैं। इन्द्रियों के ठीक-ठीक काम करने पर ही आप रस का ज्ञान कर सकते हैं। बुखार जिस व्यक्ति को आ रहा है उसे मीठी दवा भी कड़वी और सर्प के काटे व्यक्ति को निबोंली कड़वी नहीं लगती। अत: आप Direct भोग नहीं सकते, लाभ नहीं उठा सकते, जब तक कर्म उदय में न हो।

     

    सुख इन्द्रियों में नहीं, अपने में सुख है, बाहर में सुख नहीं। इस प्रकार आस्था बना लो। अपने आपके परिणामों के द्वारा सुखी-दुखी बनेंगे। अत: कुविचारों को छोड़ो और महावीर की वाणी में आस्था लाओ। कर्म के अनुसार जितना मिलेगा, उतना ही मिलेगा। भाग्य का उदय होता है तो जरूर फल मिलेगा। अर्थ की पगचम्पी न करो, वह अर्थ तो सेवा के लिए हाजिर हुआ है उसकी आप सेवा न करो। अपनी सेवा करो। भारत में यह अजीब बात है कि यहाँ अध्यात्म की पूजा भी है तो कहीं लक्ष्मी पूजा भी होती है। आप को लक्ष्मी की पूजा नहीं करनी चाहिए। आज कल द्रव्य के आश्रय से निर्गुणी भी गुणवान कहलाता है। अत: द्रव्य के पीछे इतना पड़ना ठीक नहीं, आप लोगों को दुख इसीलिए हो रहा है। गृहस्थाश्रम को चलाने के लिए धन की आवश्यकता है पर २४ घण्टे मात्र इसी का आराधन ठीक नहीं। लक्ष्य धन नहीं, धर्म है। यही नि:कांक्षित अंग है, धर्म की उपासना में जीवन व्यतीत करना। सुख आत्मा में है, यही आस्था नि:कॉक्षित अंग है।


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    गृहस्थाश्रम को चलाने के लिए धन की आवश्यकता है पर २४ घण्टे मात्र इसी का आराधन ठीक नहीं। लक्ष्य धन नहीं, धर्म है। यही नि:कांक्षित अंग है, धर्म की उपासना में जीवन व्यतीत करना। सुख आत्मा में है, यही आस्था नि:कॉक्षित अंग है।

    Link to review
    Share on other sites


×
×
  • Create New...