चिन्तन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- चिंतन नहीं करें, पर मन कहीं और चला गया तो क्या होगा, यह चिंता होती है।
- नदी के तटों के ऊपर यदि चिन्तन करें तो चिन्ता अपने आप ही भंग हो जाती है और उस चिन्तन में चेतना लीन होती चली जाती है।
- चिंतन नहीं होता तो चिंता क्यों करते हो ? तुम तो चित् स्वरूपी हो।
- नरक के दु:खों से तो सभी भयभीत है, लेकिन स्वर्ग सुख अथवा विषयों की चाह है तो उससे कर्मों का ही बंध होगा।
- जिसको जिसमें सुख होता है, वह उसी को पाने का प्रयास करता है।
- परमात्म भावना से उत्पन्न सुधारस को पीने वाला संसार के सुख को नहीं चाहता।
- रस का और रसना का मूल्य क्या बिना चर्वण में।
- अव्यक्त सुख दुखानुभव स्वरूप कर्म चेतना है।
- इच्छापूर्वक राग–द्वेष रूप से जो परिणाम हो, वह कर्म चेतना है, जिससे कर्म का स्पष्ट रूप से बंध होता है।
- मुनिराज अपने उपयोग को बाहर न ले जाकर आत्मा की ओर ले जाते हैं, यह कर्म चेतना से हटने का प्रयास है।
- आत्मा का अनुभवन होना सो ज्ञान चेतना है, यह केवली भगवान् को हुआ करती है।
- आप आनंद का अनुभव करना चाहते हो तो वह आनंद का स्रोत चेतना में ही है, अन्य का सहारा मत लो।
- कर्मफल चेतना महत्वपूर्ण है। यह जीव यदि कर्मफल में हर्ष-विषाद नहीं करता तो बहुत बड़ा फल प्राप्त कर लेता है, निगोद से मनुष्य भव प्राप्त कर लेता है।
- चिन्ता और चिन्तन दोनों निश्चयनय से विकल्प के ही कारण हैं।
- संसार व शरीर के स्वभाव का चिन्तन करने से वैराग्य की उत्पत्ति होती है।
- आप भी संसार का चिंतन कर निर्मोही बनो। निद्रा पर विजय प्राप्त करने के लिए अपने किए गए अनर्थों पर चिन्तन करना चाहिए।