जीव विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- जीव उपाधि से रहित है। शरीर या पर्याय की अपेक्षा जो उपाधि है, उनमें यह जीव उसी रूप हो जाता है, यह अज्ञान है।
- जब अविनश्वर जीव की पहचान हो जाती है तब इसके संरक्षण की सारी दौड़-धूप समाप्त हो जाती है।
- शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से जीव आदि, मध्य और अंत से रहित है।
- जीव स्व-पर प्रकाशक है, आज तक हमने अपनी शक्ति को दूसरों को प्रकाशित करने में लगायी है। स्वयं को जो प्रकाशित करता है और जो दूसरों को प्रकाशित करने की योग्यता रखता है, वही सम्यकज्ञानी माना जाता है।
- अमूर्त जीव द्रव्य अवधिज्ञान का विषय नहीं बन सकता। परोक्षज्ञान में मात्र हमारे पास आगम ज्ञान है, जिसके माध्यम से हम जीव को जान सकते हैं, क्योंकि आँखों से अमूर्त जीव दिखता नहीं है।
- जब जीव अमूर्त है तो पंचेन्द्रिय के विषयों में घटन-बढ़न होने पर हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिए।
- निश्चयनय से आत्मा तो आत्मस्थ है पर संसार परावर्तन करने के कारण संसारस्थ है, यह जीव संसार में रहकर भी संसारातीत का श्रद्धान कर सकता है।
- एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव शुद्ध नय से ज्ञान-दर्शन रूप हैं।
- वर्तमान में जीव नारायण स्वरूप है, पर दरिद्र नारायण बना हुआ है।
- निश्चय से शुद्ध स्वरूप है जीव, पर अभी मोह के कारण कर्मों से जकड़ा हुआ है।
- अशुद्ध निश्चयनय से जीव राग-द्वेष रूपी भाव कर्म का कर्ता है, व्यवहारनय से पुद्गल कर्म आदि का कर्ता है, शुद्धनय से शुद्ध भावों का कर्ता है।
- जीव द्रव्य सक्रिय है। बिना शरीर के भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है। वह एक समय में सात राजू पार कर जाता है।
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