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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • गुण

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    गुण विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. गुण, गुणी के साथ रहते हैं गुण और गुणी का सम्बन्ध वैसा ही है जैसा कि फूल और महक का सम्बन्ध है। आप महक को चाहते हैं लेकिन फूल के बिना नहीं मिल सकती। सुगंधी की कीमत होती है फूल की नहीं। सुगंधी निकल जाने के बाद फूल को फेंक देते हैं।
    2. फूल को खरीदा जा सकता है उसके स्वामी बन सकते हो लेकिन खुशबू को नहीं खरीद सकते क्योंकि महक सभी के पास पहुँच जाती है।
    3. आप यदि अपने को विकासवान् मानते हो तो गुण भी आना चाहिए, गुणों का विकास होना चाहिए।
    4. जीवन जीने का ढंग खरीदा नहीं जाता बल्कि अंदर से उद्धाटित किया जाता है।
    5. किसी भी पदार्थ का मूल्यांकन उसके गुणों के आधार पर किया जाता है।
    6. भगवान् को इसलिए पूजते हैं क्योंकि उनमें अनंत गुण प्रकट हुए हैं, उन गुणों की प्राप्ति के लिए ही उन्हें नमस्कार करते हैं।
    7. कोई भी देश विकासशील तभी माना जाता हैं, जब उसके गुणों का विकास हो। धन वैभव का विकास, विकास नहीं माना जाता वह तो विनाश की ओर ले जाता है।
    8. भगवान् नाम से नहीं बल्कि गुणों से पूज्य होते हैं। व्यक्ति की पूजा नहीं बल्कि गुणवत्ता की पूजा होती है।
    9. जो गुणों को प्राणों से भी प्यारा मानता है, उसी के पास विजय लक्ष्मी पहुँच जाती है।
    10. मोक्षमार्ग में मात्र गुण ही पूज्य हैं, इस मार्ग में दोष सहनीय नहीं हैं।
    11. केवल भेष पूज्यता का प्रतीक नहीं है, बल्कि उस रूप गुण भी होना चाहिए।
    12. गुणों की क्षति होने पर सर्वत्र अनादर ही अनादर मिलता है कोई कीमत नहीं करता, जैसे शव पर ढके कफन की कोई कीमत नहीं करता।
    13. बहुत सारे गुण एक अवगुण के कारण निर्मूल्य हो जाते हैं।
    14. औचित्य गुण के अभाव में सभी गुण विष जैसे हो जाते हैं (प्रासंगिक गुण)जैसे दूसरे में दुख व्यक्त करना यह औचित्य गुण है।
    15. प्रसंगानुसार कार्य करना बहुत बड़ा गुण माना जाता है।
    16. बच्चों को कुछ देने से पहले पिता का कर्तव्य होता है, वे यह ध्यान रखें कि वह उसका किस रूप में उपयोग करता है।
    17. गुणों में पुरस्कार के साथ दोषों का समालोचन ही होना चाहिए।
    18. दोष गुणों का समीचीन आलोढ़न (अध्ययन) करना ही सही समीक्षा मानी जाती है।
    19. वह हमारा मित्र है जो हमारे मत को पुष्ट करने के लिए प्रशंसक शब्द नहीं बोलता। रोगी बनता मिठाई खाने से (प्रशंसा करने से) निरोगी बनता कड़वी दवाई से, इसलिए कड़वी दवाई पीना सीखो, तभी दोष से मुक्त हो सकते हो।
    20. गुणों का आदान और दोषों का परिहार करो।
    21. जिन साधनों के माध्यम से गुणों का विकास हो, ऐसे साधन अपनाना ही विद्वता मानी जाती है।
    22. दोषों का निष्कासन हो गया कि गुण उत्पन्न हो जाते हैं, गुणों को उत्पन्न करने का ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ता। जैसे कपड़े का गंदापन साफ किया जाता है, उसमें उज्वलता अपने आप आ जाती है। इससे सिद्ध होता है कि दोषों को हटाने के लिए पैसा और पुरुषार्थ लगता है, गुणों को पाने के लिए नहीं।
    23. गुणों को अपनाने से यश और सम्मान मिलता है, जब तक मुक्ति नहीं मिलती।
    24. मोह को हटाने का प्रयास किया जाता है, मोक्ष पाने के लिए नहीं वह तो अंदर ही है। जैसे मिट्टी को हटाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है, पानी के लिए नहीं। वह तो मिट्टी के हटते ही फूट पड़ता है।
    25. दोष दुर्गति का कारण है, गुण सद्गति का कारण है, यह जानकर अविरल रूप से उत्साह के साथ दोषों का उन्मूलन करिए।
    26. गुण ग्रहण में निमित्त कोई भी बन सकता है, जैसे अंजनचोर को प्रभु, गुरु निमित न बनकर जिनदत्त सेठ निमित्त बना।

    Edited by admin


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