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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 53 - नि:शांकित अंग

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    आचार्य महोदय उस बात को स्पष्ट कर रहे हैं, जिस बात की बड़ी आवश्यकता है। जिस चीज को हम अहितकर समझते हैं, उसको उन्होंने महान् बताया है। जब तक किसी पदार्थ को उचित स्थान नहीं, तब तक उसकी महत्ता, उसकी गरिमा नहीं आँक सकते। एक हाथ में पाँच उगलियाँ हैं, जो समान नहीं हैं, अगर समान हो जाती तो मुश्किल हो जाती। छोटी जगह छोटी व बड़ी की जगह बड़ी ही काम आती है। सुई की जगह तलवार और तलवार की जगह सुई ले ले तो काम नहीं होगा। इन पाँचों उगलियों में से एक कोई भी उगली कट जाये तो कार्य करने में व्यवधान हो जायेगा। आचार्य महोदय यहाँ अंग अंगी भाव को लेकर कह रहे हैं। अंगी वह है जो अंग की सुरक्षा करता है। वृक्ष के सभी अंग को पृथक् -पृथक् कर दिया जाये तो वृक्ष वृक्ष नहीं रहेगा। डाली, टहनियाँ, पते, फूल आदि सभी मिलकर वृक्ष कहलाता है। वृक्ष अलग कोई चीज नहीं है। अत: अंगों की समष्टि सो अंगी की शोभा है। अंग की अवहेलना जहाँ करते हैं वहाँ पूर्ण को लेकर जो अंगी है उसकी सुरक्षा नहीं कर सकते। महावीर की एकाकार प्ररूपणा अंग के रूप में है, अंगी के रूप में नहीं। प्रमाण अंगी है और नय अंग है।

     

    आचार्य श्री ने यहाँ कहा कि अंग है तो अंगी भी है। शरीर में आठ अंग हैं, उन्हें पृथक् कर दिया जाये तो मनुष्य की पहचान नहीं हो सकती। एक अंग का भी अभाव होने पर विकलांगी कहलाता है, उसकी महत्ता कम हो जाती है। अत: सिद्ध है कि एकता की बड़ी आवश्यकता है। स्थान-स्थान पर सब अंग काम करते रहें तो अंगी की सुरक्षा है। जिस प्रकार शरीर में ८ अंग हैं, उसी प्रकार सम्यक दर्शन के भी ८ अंग हैं। उनमें से एक का भी पालन न हो तो सम्यक दर्शन सुरक्षित नहीं रह सकता। नमस्कार मंत्र में एक अक्षर का अभाव हो तो पूर्ण फल नहीं मिलता। उसी प्रकार सम्यक दर्शन में एक अंग का भी अभाव होने पर वास्तविक मोक्षफल नहीं मिल सकता है।

     

    सम्यक दर्शन के ८ अंगों में सर्व प्रथम नि:शंक है, जिसका अर्थ शंका रहित ही नहीं, बल्कि भय का अभाव भी है। पूर्ण अंग को निकाल दे, तो सम्यक दर्शन नहीं रहेगा। एक आधा अंग कम भी हो तो सम्यक दर्शन का काम चल जायेगा। प्रयोजन भूत तत्व, मोक्ष मार्ग में तत्व की प्ररूपणा में है, उसमें संदेह नहीं होना चाहिए। डर दिखाने पर भी न डरे और जिनवाणी में जो वर्णन है उस पर विश्वास रखे, इधर उधर अर्थ न ले। शरीर पर चाहे प्रहार हो जाये पर विश्वास को न छोड़े और इसे समीचीन ही बतावे। यही सच्चा मार्ग है, ऐसा कहे तथा माने! शाब्दिक ज्ञान अलग चीज है और मान्यता अलग चीज है। मानने में अन्दर से स्वच्छता आती है पर सिर्फ जानने में शब्दों में स्वच्छता आती है। मानना भी अभीष्ट है, जानना ही अभीष्ट नहीं है।

     

    महावीर के पास बहिरंग की द्रव्य की मुख्यता नहीं बल्कि अन्तरंग की, भावों की मुख्यता है। बहिरंग का विमोचन तो करना ही है, पर वास्तविक आत्मा के पास जो मलिन भाव है, उनका भी विमोचन करना है, यही तत्व है। महावीर ने जो प्रयास किया, ऊपर के भाव को निकाला, अन्दर के तत्व को सुरक्षित रखने के लिए। दया का अनुपालन अलग और इन्द्रिय दमन अलग है। महावीर ने प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम दोनों का पालन किया। महावीर ने दम, दया, त्याग, संयम को बताया। जो इन्द्रियों के दास बने हैं, उन्हें यह बात खटकती है। महावीर का लक्ष्य सर्वप्रथम इन्द्रिय दमन रहा, क्योंकि उसके बिना समाधि नहीं। समाधि का मतलब अध्यात्मवाद (अधिगम) ज्ञान के पास रहना सो अधिगम कहलाता है।

     

    महावीर ने समाधि प्राप्त की और जितेन्द्रिय बने। सब कुछ छोड़ देने के बाद भी इन्द्रिय दमन जरूरी है। इन्द्रिय अर्थात् ज्ञान। ज्ञान धारा जो बाहर जा रही है, उसे रोकना। इन्द्रियाँ जब विषयों की ओर जाती हैं, तभी राग द्वेष होता है। इन्द्रिय दमन दिगम्बरत्व में ही है। दिनांक ८ को जो महावीर का तप कल्याणक आ रहा है, उसमें दया का पालन ही नहीं, दया तो घर छोड़ने पर पालन हो गई। जहाँ आरम्भ, परिग्रह को बुरा माना, वहीं दया का पालन हो गया, फिर दम, जितेन्द्रियता का पालन किया। परीषह, उपसर्ग जब तक नहीं, तब तक मोक्षमार्ग की पृष्ठ भूमि प्रारम्भ नहीं होती। उन्होंने विषयों के विस्तार को रोका, कपड़े आदि को फेंक दिगम्बर हो गये। आपको भी ऐसा विश्वास करना चाहिए और दिग्दर्शन भी करना चाहिए। किसी फल की आशा में नहीं, उत्साह के साथ, डर से नहीं, निर्भय होकर आत्म साधना करनी है। उसे मुक्ति मान कर चलना है, तब आनंद का अनुभव होगा।

     

    त्याग के बारे में बताया जो अपने लिए अनिष्ट व शरीर के लिए अनुपयुक्त है उसे नहीं लेना। शरीर की सुरक्षा मात्र हलवा खाने से ही नहीं बल्कि समीचीन आहार से होती है। समीचीन आहार वह जो तप के लिए कारण हो। गरिष्ठ आहार तप में बाधक है। अतिरेक करने पर फल में कमी आती है। इन्द्रिय विजेता होना परमावश्यक है। अनेकों की गति दया तक हो सकती है, पर दम जहाँ आता है, वहाँ दम घुटने लगता है। महावीर ने दम को भी अपनाया है। दम का मतलब आँखें फोड़ लेना या कान में कीलें ठोकना नहीं है। इन्द्रियों के द्वारा जो विषय हो रहे हैं, उन्हें रोकना, पैर स्खलित न होने देना। महावीर ने दम को अपनाया था, उसका दिग्दर्शन भी करना है, यह दिगम्बरत्व में निहित है। हमें दम के बारे में डर है, शंका है, यहीं सम्यक दर्शन में कमी आएगी। अगर दम नहीं करेंगे तो अहिंसा का पालन नहीं हो सकेगा। वही अहिंसा है, जो दम के लिए कारण है। ज्ञान पर कंट्रोल, इन्द्रियों पर कंट्रोल जहाँ नहीं है, वहाँ दया नहीं है।

     

    जहाँ इन्द्रियों पर दमन है, वहाँ सभी के लिए क्षमा का हाथ दिखाया है। आप जीने लग जाओ अपने आप में रमने लग जाओ तो सब अपने आप जीने लग जाएँगे। दूसरे की तरफ न देखो।दूसरे की तरफ देखने पर दूसरे डरते हैं। महावीर ने प्रथम ‘जिओ और जीने दो' कहा। आज तक आप अपने आपको जिलाने में, सुरक्षा में असमर्थ रहे। प्राणी संयम इन्द्रिय संयम को लेकर है। दम है तो अहिंसा है नहीं तो हिंसा है। अत: दम के लिए कोशिश करना चाहिए। महावीर ने अहिंसा का पालन इन्द्रिय दमन को लेकर किया है। द्रव्य हिंसा के साथ भाव हिंसा से मुक्त होना-महान् कार्य है। आज से ३ दिन बाद सहज विचरण होने का काल रहा है, तप कल्याणक के दिन मात्र झाँकियों के द्वारा दिग्दर्शन न होकर वास्तविक दिग्दर्शन होना चाहिए। दया व दम महावीर के मुख्य लक्ष्य थे, इसे वे पा चुके, इसीलिए मुक्त हो गये।


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    सम्यक दर्शन के ८ अंगों में सर्व प्रथम नि:शंक है, जिसका अर्थ शंका रहित ही नहीं, बल्कि भय का अभाव भी है। पूर्ण अंग को निकाल दे, तो सम्यक दर्शन नहीं रहेगा। एक आधा अंग कम भी हो तो सम्यक दर्शन का काम चल जायेगा। प्रयोजन भूत तत्व, मोक्ष मार्ग में तत्व की प्ररूपणा में है, उसमें संदेह नहीं होना चाहिए।

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