सम्यक दर्शन के चौथे अंग अमूढ़ दृष्टि के बारे में समन्तभद्राचार्य ने बताया कि अपने विचारों का उपयोग किए बिना एक मार्ग को अपना लेने से अनेक कठिनाइयां आती हैं, क्योंकि अपना विचार भी अपेक्षित है। जब तक विचारों से सामने वाली वस्तु को नहीं तौलते, तब तक नहीं अपनाते। तौलने के लिए समीचीनता चाहिए। इसके लिए कुछ तर्क, कुछ अनुमान, आगम, अपने से ज्यादा अनुभवी के विचार होना चाहिए। अमूढ़ दृष्टि सम्यक दर्शन का महत्वपूर्ण अंग है। कापुरुष का मतलब कायर से है। पथ के पीछे कापथ लग जाना ठीक नहीं, समीचीन नहीं। वह मंजिल तक पहुँचाने वाला नहीं है। कापथ पर विश्वास व उसकी उपासना जो करता है, वह मूढ़ दृष्टि कहलाएगा। कहा भी है कि :-
मिथ्या दिशा पकड़ के जब तू चलेगा,
गंतव्य स्थान तुझको न कभी मिलेगा।
कैसे मिले सुख भले दुख क्यों टलेगा,
रागाग्नि से जल रहा, चिर औ जलेगा ॥
वास्तविक बात यह है कि अमूढ़ दृष्टि को अपनाने पर राग गौण और वीतराग मुख्य हो जाएगा। तब आप रागी द्वेषी के वचनों पर विश्वास नहीं करेंगे, बल्कि वीतराग-विज्ञान पर विश्वास, श्रद्धा लाएँगे, क्योंकि इसमें छल नहीं है। सामने वाले की दृष्टि जब वीतरागता को लेकर है तो उसके विचारों को बिना संदेह के अपना लेंगे। वीतरागता की बातें आपको अच्छी लगेंगी। जो स्वयं भूखा है वह दूसरे को रोटी नहीं दे सकता, जो वीतरागी नहीं है, वह वीतरागता को नहीं बता सकता है। जो कोई पुरुष रागी, द्वेषी, कपटी, मोही, मायावी है, वह तीन काल में भी रास्ता नहीं बता सकता है। रास्ता तो वीतरागी, सजन, सत् पुरुष ही बता सकते हैं। उनके बताये रास्ते को अपनाएँगे तो अमूढ़ दृष्टि को अपनाएँगे। सजन पुरुष के वचनों में विश्वास रखना अन्धविश्वास नहीं है, बल्कि इससे समीचीनता आती है। ऐसा कौन-सा विद्वान् है जो परोक्ष में तत्व का विश्वास रख कर प्रत्यक्ष में हाथ में रख कर दिखा सके? वह तो विश्वास रखकर ही अनुभव कर सकते हैं।
शब्दों पर सर्वप्रथम विश्वास रखो। विदेह क्षेत्र में भी जो प्रवचन होता है, वही यहाँ पर भगवान् कुन्दकुन्द ने संकलन किया है। वहाँ जाकर ही आप सुनेंगे, पर पुरुषार्थ तो करना ही होगा। विश्वास सर्वप्रथम परोक्ष में होता है। प्रत्यक्ष में तो अनुभव होता है। अमूढ़दृष्टि का मतलब राग द्वेष, सांसारिक बातों पर विश्वास नहीं होना। सुख के लिए सरल रास्ता है। पर आपको विश्वास ही नहीं। विश्वास हो जाये तो अन्दर की लहर बाहर आ जाएगी। आप दर्शन के लिए बाहर की ओर झाँक रहे हैं, पर आप अन्दर की ओर झाँक लो। वास्तविक दिग्दर्शन बातों में नहीं होता, उसके लिए निडर होने की जरूरत है। जहाँ थोड़ा परीषह उपसर्ग आ जाये तो आप घबरा जाते हैं। यह परीक्षा की चीज है। तेरा माल तो तेरे पास है, पर उसका स्थान भूल गया है, वह कहाँ से आएगा, ये भी तुझे पता नहीं है। मृग कस्तूरी ढूँढ़ने के लिए जंगलों में दौड़ता है पर उसे पता नहीं कि वह तो अपनी नाभि में है। आपने आज तक उस वस्तु को देखा ही नहीं, वीतरागता पर विश्वास लाए नहीं। रागी-द्वेषी की अनुमोदना, सेवा, स्तुति, उपासना नहीं करने से सुख की प्राप्ति होगी। कापथ राग-द्वेष, संसार को बढ़ाने वाला सत्पुरुष नहीं, का पुरुष है, निंदक है। आप में अनादिकाल से अमूढ़दृष्टि आई ही नहीं।
वीतरागी के वचनों में विश्वास करने से राग गौण हो जायेगा। वीतरागता की उपासना चालू करने पर तो वीतरागी बनने में देर नहीं। मिथ्या दिशा को पकड़ने से मंजिल नहीं मिलेगी, चलते ही रहोगे। कर्मों के ईधन को लेकर अग्नि जला रहे हो। अग्नि बुझाने के लिए पानी डालना पड़ेगा तथा ईधन हटाना पड़ेगा। तप के द्वारा निर्जरा होती है, पर कथचित् संवर से भी निर्जरा होती है। तृण रहित स्थान पर आग गिरने पर बुझाने की जरूरत नहीं है। यदि वीतरागता में विश्वास रखेंगे तो राग-द्वेष, मोह-माया के कर्म धीरे-धीरे निकल जायेंगे। रागी, द्वेषी, संसारी का विश्वास मत रखी। वीतराग मुद्रा को धारण करने वाले मुनिराज विषय-कषायों, राग-द्वेषों, परिग्रहों से दूर रहते हैं, वे कुछ नहीं चाहते। मात्र समीचीन रास्ता बताएँगे, सुख का रास्ता बताएँगे।
वीतरागता में, न डर है, न डराने की जरूरत है। मुनिराज जब प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति में तल्लीन हैं, आत्म तत्व में चित्त है, तो सिंह से भी नहीं डरेंगे न डराएँगे। जब प्रवृत्ति करेंगे, विहार करेंगे तो मार्ग में सिंह जिधर से आ रहा है, उससे दूर होकर निकलेंगे। आप तो (मुनिराज तो) सिंह से नहीं डरते, पर आपकी मुद्रा से वह डर जाये। प्रवृत्ति के समय पास नहीं जायेंगे उस समीचीन रूप से मन, वचन, काय को रोक लेंगे तो भय प्रकृति की उदीरणा नहीं होगी और मृग/हिरण भी इसी कारण खाज खुजा लेते हैं। बनती कोशिश वीतरागता की उपासना कर प्रवृत्ति को रोक कर निवृत्ति अपनाकर डरना व डराना नहीं चाहिए।
मुनिराज चाहते हैं कि दुनियाँ का कल्याण हो, वे चाहते हैं कि अनन्तकाल से प्राणी दुख उठा रहे हैं। इसका कारण रागी, द्वेषी पर विश्वास है। यही इनकी मूढ़ दृष्टि है। प्रयोजनभूत तत्व अतींद्रिय सुख के बारे में वीतरागी पर विश्वास हो। संसार के कार्यों की बात अलग है। वीतराग देव शास्त्र गुरु पर विश्वास अमूढ़दृष्टि है। परमार्थिक क्षेत्र में रागी, द्वेषी पर विश्वास नहीं होना चाहिए। वे रागी द्वेषी तो स्वयं अधर है, उनके पैर धरती पर नहीं टिकते वे दूसरों को क्या उठाएँगे। जो खुद दुखी हैं वह दूसरों के दुख कैसे मिटायेगा, यह अन्धविश्वास नहीं है। ऐसा विचार होना चाहिए कि इस विषम स्थिति में भी अनादिकाल से राग द्वेष को हम नहीं छोड़ रहे हैं और ऐसे योगीराज भी है जो राग द्वेष छोड़कर आत्म तत्व में लीन हैं। ऐसा एक बार विचार ध्यान हो जाये, ऐसा विश्वास हो जाये तो वह भी कालांतर में वैसा वीतरागी बन जायेगा। जो दृष्टि में माया घुसी पड़ी है, उसे हटाकर उसमें समीचीनता लानी है, तभी आपका कल्याण हो सकता है।