Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 57 - माँ जिनवाणी

       (1 review)

    हे शारदे! अब कृपा कर दे जरा तो,

    तेरा उपासक खड़ा, भव से डरा जो।

    माता! विलम्ब करना मत, मैं पुजारी,

    आशीष दो, बन सकूं बस निर्विकारी ॥

    आज यह मंगल बेला हमारे लिए बहुत पुण्योदय से प्राप्त हुई है। यहाँ पर यह बात करना उचित समझुंगा कि

     

    जहाँ न जाता रवि वहाँ जाता कवि।

    जहाँ न जाता कवि वहाँ, जाता स्वानुभवी।

    रवि सब जगह प्रवेश कर सबको जागृत करता है, कवि भी रहस्यों के पास जाकर विचारों को साकार बनाता है, किन्तु शारदा, सरस्वती की कृपा हो जाए तो उस स्थान तक पहुँच जाये जहाँ ये दोनों पहुँचने में असमर्थ हैं। इसके द्वारा अमूर्त से साक्षात्कार संवेदन कर सकता है। ज्ञान के द्वारा देख सकता है, कि वास्तविक आत्मा क्या है? देव का प्रत्यक्ष दर्शन न हुआ और गुरु हैं, वो जिनवाणी में लिखी बातें बताएँगे, मार्गदर्शन करेंगे। शब्द का ज्ञान तो अन्धा, लंगड़ा, कुरूप भी कर सकता है। भारत में अध्यात्म प्रणाली अक्षुण्ण चल रही है। आज मंगल कार्य प्रारम्भ हुआ है। महावीर की वाणी को मात्र कानों से सुनना ही नहीं बल्कि उस ओर चलना है, जिस ओर महावीर चले, जिस दृष्टि को लेकर चले। आत्म तत्व को शास्त्र के द्वारा देखा जा सकता है। आदित्य के बिना भी कोई काम चल सकता है, पर साहित्य के बिना नहीं।

     

    सरस्वती की आराधना से अन्दर तक पहुँच सकते हैं और उसका मनन, अध्ययन, चिंतन कर भाव श्रुत का अनुभव कर सकते हैं। मैं न कवि हूँ न रवि हूँ पर स्वानुभवि हूँ। उस चैतन्य जागृति की आवश्यकता है जो सरस्वती के माध्यम से सम्भव है। आप भी सरस्वती की आराधना, पूजा, उपासना कर आत्मा के मल को धो डाले। वाणी में इतनी शक्ति है कि सभी जीवन में साक्षात् सुन सकते हैं, देख सकते हैं, व उतार सकते हैं। सरस्वती के माध्यम से परोक्ष मूर्ति का प्रभाव आत्मा पर पड़ सकता है। साहित्य सुरक्षा के लिए बड़े परिश्रम की आवश्यकता है। हमारी दृष्टि हमारे शास्त्रों की ओर नहीं है, वे बिखरे पड़े हैं, दीमक लग रही है, उनकी सुरक्षा करनी है।

     

    जैन साहित्य क्या है ? अहिंसा धर्म क्या है ? उसे लिखकर Research कर जीवन में उतार सकते हैं। साहित्य के द्वारा ही जैन धर्म का प्रचार कर सकते हैं न कि बड़ी-बड़ी बिलिंडगों के द्वारा। साहित्य के द्वारा ही दूर-दूर बात हो सकती है, विचार दूर-दूर तक व्यक्त किए जा सकते हैं। साहित्य के प्रचार के लिए तन-मन-धन लगाना चाहिए। जिनवाणी को सामने लाना चाहिए। कई जैन साहित्य नष्ट भ्रष्ट भी हो गये हैं, फिर भी हमारा सौभाग्य रहा है कि अभी भी विपुल साहित्य है। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी कहा है कि जैन साहित्य कम नहीं है, सर्वोपरि है, बहुत विपुल है। पर पढ़ने वाले बहुत कम हैं। हमने उस साहित्य की कीमत ही नहीं आंकी।

     

    २५०० वाँ निर्वाणोत्सव जो एक साल तक मना रहे हैं उसके बाद भी साहित्य के क्षेत्र में ज्यादा प्रयास होना चाहिए। तभी जैन-जैनेतर समाज पर प्रभाव पड़ सकता है और मोक्ष का स्वरूप आत्मा का स्वरूप जिनवाणी के द्वारा बता सकते हैं। यह जिनवाणी नौका के समान है जो इस छोर से उस छोर तक पहुँचाने वाली है। आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज कहा करते थे कि मन्दिर की सुरक्षा मुनि नहीं कर सकते, श्रावक कर सकते हैं। पर जिनवाणी की सुरक्षा सेवा तो हम कर ही सकते हैं। और मुझे कहा की पूरी शक्ति लगाकर अन्तिम समय तक सेवा करना। बार-बार चिंतन, मनन, विश्लेषण करना, प्रचार व प्रसार करने से तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हो सकता है, जिससे अरबों जीवों का कल्याण होता है। मैं भी यही चाहता हूँ कि साहित्य की सेवा आप उस प्रकार करो कि जिससे अपना व दूसरों का उद्धार हो। अन्त में महावीर व सरस्वती को प्रणाम कर कहता हूँ कि -

     

    कर लो वीर, स्वीकार,

    मम नमस्कर

    होवे साकार 

    जो बार-बार विचार

    उठते मम मानव तल पर


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    या जिनवाणी के ज्ञान में सुझे लोकालोक

    सो वाणी मसलता चढ़े, सदा देते हूं धोक

    Link to review
    Share on other sites


×
×
  • Create New...