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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 55 - निर्विचिकित्सा अंग

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    सम्यक दर्शन के तीसरे अंग निर्विचिकित्सा के बारे में वर्णन करना है, यह अंग शरीर को लेकर चलता है। संसारी जीव की ममता, मोहभाव शरीर के साथ ही लगा है। शरीर के माध्यम से ही संसार का दिग्दर्शन, मोह चलता है। यह शरीर न होता तो मोक्ष कोई चीज न रहती। शरीर जो कारागार है, उससे मुक्त होना ही मोक्ष है। शरीर के प्रति यदि मोह नहीं रहता और साथ-साथ आत्मज्ञान हो जाता तो किसी प्रकार का आरम्भ परिग्रह करने की जरूरत नहीं। शरीर के लिए ही प्रात: से लेकर शाम तक प्रयास होते रहते हैं।

     

    यह तो सुन ही रक्खा है आप लोगों ने कि शरीर से आत्मा भिन्न है, लेकिन अन्दर से ऐसी आवाज नहीं आती। आत्मा शरीर में इतना मिला है कि उसे हाथों से अथवा रसायन से नहीं निकाल सकते, उसके लिए रसायन है निर्मोहता, निरीहता और निर्विचिकित्सा। शरीर से मोह न रखना ही निर्विचिकित्सा है, तभी पहचान है कि मैं शरीर रूप हूँ या आत्मरूप हूँ। आचार्यों ने मोक्ष मार्ग के लिए आराम, विषय वासना को नहीं, परीषह, उपसर्ग को बताया। संवर तत्व जिसके द्वारा मोक्ष का सम्पादन होता है, उसके लिए गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषह विजय भी चाहिए। परीषह २२ हैं, उनमें १९ परीषह एक साथ हो सकते हैं। वर्तमान में शीत परीषह आपको भी है और इधर भी है, पर आप विजयी नहीं, आप पर शीत विजयी हो रहा है। संघ में ऐलकजी महाराज सर्दी के बारे में कहा करते थे, कि वह कहती है -

     

    बच्चे को मैं छेडू नहीं, जवान मेरा भाई,

    बुड़े को मैं छोड़ें नहीं, चाहे ओढ़े चार रजाई।

    शरीर के साथ आपने इतना सम्बन्ध लगा रखा है कि क्या बताएँ ? शरीर की सुरक्षा के लिए, अनन्तकाल से परिश्रम कर रहे हो, फिर भी शरीर शरीफ नहीं, शरारती ही है। कहा है कि -

     

    हेमंत में हिममयी, हिम से मही है,

    दाहात्मिका किरण भास्कर की नहीं है।

    तो भी परीषहजयी ऋषिराज सारे,

    निग्रन्थ ही करत ध्यान नदी किनारे ॥

    हेमंत का समय आ चुका है, जिसमें हिमपात हुआ करता है, भूमि हिममय हो जाती है, वायु में शीत लहर चलती है। सूर्य की धूप भी गर्म नहीं लगती। लेकिन वस्तु तत्व को जानने वाले मुनिराज निग्रन्थ होकर, शरीर से निरीह होकर ध्यान करते हुए शीत को जीत लेते हैं। वे शीत को बुरा अच्छा न कहते हुए पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा करते हैं। पर आप ऐसे समय में नये कर्मों को बाँध लेते हैं। आप मुक्ति को चाहते हुए बंधन में फैंस जाते हैं।

     

    शरीर के आठ अंगों में जिसे उत्तमांग माना है उस मस्तक को, मुख को सर्दी में खुला रखते हैं। बीच में, गर्दन से लेकर पैर तक कपड़े आदि से जो आडंबर किया, उससे ही संसार का विकास हो गया। इस शरीर को आप सुरक्षित नहीं रख पायेंगे। वस्तु तत्व की पकड़ तभी करेंगे, जब प्रतिकूल वातावरण होगा। अनुकूल वातावरण होने पर शरीर प्रमत्त हो जाता है। परीषह न होने पर अपने को भी नहीं पहचान सकता है। शरीर में पीड़ा हो रही है, यह जान रहा है तथा शरीर मेरा नहीं, मैं इससे भिन्न, ऐसा विचार हो रहा है, तभी कुछ संतोष तसल्ली हो जाती है। आप यह भी तो सोची कि ऐसे व्यक्ति भी हैं, जिनके पास एक कपड़ा भी नहीं है, पर आप सोचते हैं कि ऐसे भी व्यक्ति हैं जिनके पास ५-६ कपड़े शरीर पर हैं। अत: ऐसा विचार न करना चाहिए। पुराने लोग अष्टमीचतुर्दशी, पर्व के दिनों में एकांत में जाकर श्मशान आदि में ध्यान लगाते, आत्म चिंतन करते थे। आज यह पता ही नहीं अष्टमी चतुर्दशी कब निकल गयी, तिथि याद नहीं रहती, परन्तु रविवार तो याद रहता है। उस दिन की छुट्टी रहती है, उसी दिन तत्व का चिन्तन करो, लेकिन उस दिन तो ९ बजे तक सोते रहते हैं। ढूँढ़-ढूँढ़ कर काम निकाल लेते हैं, ६ दिन के बकाया कार्य उस दिन पूरे करते हैं। छुट्टी इसीलिए नहीं हुई है। छुट्टी के दिन सब कामों की छुट्टी करके धर्म ध्यान व आत्म चिन्तन करना चाहिए।

     

    गृहस्थाश्रम उसी का नाम है, जो आगे मुनि बनने के लिए प्रयास करता है, पर आपका लक्ष्य तो जीवन जो मिला है, उसमें मात्र खाओ-पीओ-मौज करो। जीवन की सुरक्षा करते हुए विकास की ओर जीवन को ले जाना है। स्वाध्याय करते-करते विचारें कि आगे हमें भी मुनि बनना है, लेकिन आप कहेंगे कि फुरसत ही नहीं मिलती स्वाध्याय आदि के लिए। पर भैया! मनुष्य जीवन में तो फुरसत ही फुरसत है। अन्य गतियों में तो विकास ही नहीं है। यहाँ विकास के लिए तो फुरसत लेकर आया है, लेकिन आप कहेंगे कि यहाँ तो मरने की फुरसत नहीं है। लेकिन याद रखो होगा वहीं जो वर्तमान में चाह रहे हैं। वर्तमान में शरीर की सुरक्षा में रहेंगे तो भविष्य उसी रूप में होगा। अंतिम लक्ष्य उसी रूप में रहेगा जो वर्तमान में कर रहे हैं। धीरे-धीरे वीतरागता की ओर बढ़ते हुए शरीर के प्रति निरीहता आनी चाहिए, उसके लिए अभी से अभ्यास करना है।

     

    कष्ट में आत्मानुभूति हो सकती है, मात्र ‘भेद विज्ञान' शब्द रटना नहीं। भेद का मतलब भिन्न और उसका ज्ञान विज्ञान। यानि शरीर आत्मा से भिन्न, ऐसा ज्ञान भेद विज्ञान है। शरीर के प्रति मोह का अंत ही निर्विचिकित्सा है। जब अनन्त मोह का अभाव जीव कर लेता है, तब गृहस्थाश्रम में पूर्व में जो अनन्त सुरक्षा के लिए काम करता था, उसका अभाव हो जाता है। संज्ञा का मतलब शरीर से मोह, लगाव उसकी सुरक्षा है। चारों संज्ञाएँ आहार, भय, मैथुन और परिग्रह शरीर के लिए हैं। ये सब सम्यक दर्शन की प्राप्ति होने पर अनन्तता का अभाव हो जायेगा। शरीर के प्रति निरीहता ही निर्विचिकित्सा अंग है। इस बात को गाँधीजी ने अनुभव किया। जैसे-जैसे शरीर पर कपड़े ओढ़ें तैसे-तैसे सर्दी लगती जाती है, उसका अनुभव होता है तब क्यों ज्यादा कपड़े होने चाहिए। इसीलिए उन्होंने लंगोट, दुपट्टा रखा। उन पर यह प्रभाव साहित्य व दिगम्बरत्व को देखकर पड़ा। आप भेद विज्ञान को जानकर भी कपड़े पर कपड़े अपना रहे हैं। शरीर के प्रति निरीहता किसी न किसी रूप में होनी चाहिए।

     

    कल एक विशेष बात होने जा रही है, कल जीवन की मौलिक घड़ी है। पंचकल्याणक व दीक्षा हो रही है। पर जिसके द्वारा जीवन सुधर सकता है, क्रांति आ सकती है, कल सरस्वती भवन का उद्घघाटन हो रहा है। मुख्य आयोजन वह है जहाँ श्रुत की आराधना हो। कल द्रव्यश्रुत की स्थापना हो रही है जिससे भावश्रुत की तैयारी हो सकती है। इसके द्वारा लोग आत्मतत्व के बारे में जान सकते हैं, पहचान सकते हैं। दूध में मक्खन है, उसे हाथ से नहीं निकाल सकते, उसे मंथन करना पड़ेगा। उसके लिए रस्सी, पात्र, मथनी (घोटनी) आदि चाहिए, ये द्रव्यश्रुत के समान है। द्रव्यश्रुत के द्वारा आत्म तत्व रूपी नवनीत को आप निकाल सकते हैं। द्रव्यश्रुत उन स्थानों में है, जहाँ मंथन करते-करते अन्त में नवनीत पा सकते हैं। जहाँ पर Research कर सकते हैं और जैनाचार्यों के प्रयास को रख सकते हैं। श्रुत भवन का कल उद्घाटन हो रहा है। देव, शास्त्र और गुरु मोक्षमार्ग को प्राप्त करने में महानतम् कारण हैं। महावीर ने अहिंसा धर्म की पुष्टि की। भगवान कुन्दकुन्द, समंतभद्राचार्य, अकलंकदेव आदि ने क्या लिखा उसे शास्त्रों के द्वारा जान सकते हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि शास्त्र उपलब्ध हैं।

     

    जब हमें देव पर श्रद्धान है तब उनकी वाणी पर भी श्रद्धान है। शरीर को इतना आराम तलबी न बनाओ, कि आत्मा का अध:पतन हो जाये। इतनी ही शरीर की सुरक्षा करनी है कि आत्मा का काम होवे। शरीर सुदृढ़ हो, यह भी मोक्षमार्ग के लिए उपयुक्त है। इसका बल इधर-उधर न फेंको वरना ध्यान में कमर में दर्द, या नींद आने लगेगी शरीर को आत्म चिंतन में सहायक बनाओ उसकी शक्ति को आत्म चिंतन में लगाओ। शरीर बिगड़े भी नहीं, गाड़ी के पहिये में ज्यादा हवा भरकर पंक्चर न करना तथा कम भी हवा न भरना, नहीं तो गाड़ी रुक जाएगी। हवा नियम से भरो, ज्यादा भी नहीं तो कम भी नहीं। जिस प्रकार जच्चा (बच्चे की माँ) शरीर को चलाती है, कम खाती है, धीरे चलती है, उसी प्रकार सम्यक दृष्टि को शरीर से लगाव रखना चाहिए। वह जितनी पहले शरीर की सुरक्षा में रहता था, सम्यक दर्शन होने के बाद नहीं। आज अनाप शनाप खाकर शरीर बिगाड़ लेते हैं। कहा भी है -

     

    बहुत हवा भरने से फुटबाल फट जाये।

    बड़ी कृपा भगवान की, पेट नहीं फट जाये ॥

    शरीर को जो बिगाड़ता है, वह भी हिंसक है। शरीर का शोषण भी नहीं तो पोषण भी नहीं। उसे अपने अधिकार में रखी ताकि आत्मिक विकास के काम आ सके। शरीर के प्रति ज्यादा निरीहता व पोषण भी नहीं, यह निर्विचिकित्सा है।


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