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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 58 - पाप की जड़

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    आत्मा के परिणामों की बड़ी विचित्रता है। अनादिकाल से यह संसारी जीव भोगों का दास बना हुआ है। इन्द्रियों की इच्छा पूर्ण करने में लगा है। आज एक प्राणी ने भोगों को पाप का मूल समझा और उसके मन में त्याग के भाव जागे हैं। अब वह सबसे पहले आरम्भ परिग्रह का त्याग करेगी। आरम्भ को इस जीव ने अनादि से अच्छा मान रखा है पर इस महिला ने इसे पाप का मूल समझा। ८ वीं प्रतिमा आरम्भ त्याग प्रतिमा होती है। अब यह सांसारिक कार्यों, खाने-पीने के बारे में आरम्भ नहीं करेगी, धार्मिक कार्य कर सकती है। इसके बाद परिग्रह त्याग प्रतिमा है।

     

    महावीर का संदेश है कि सबसे बड़ा साहूकार, धनवान, अमीर, सुखी वह है, जिसके पास तिल मात्र भी परिग्रह नहीं है। आज रथयात्रा में उसी का दिग्दर्शन झाँकी के द्वारा किया गया। परिग्रह के प्रति इस महिला को घृणा हो गई है। अब इसके सांसारिक परिग्रह का त्याग है। जीवन के अन्तिम समय में मोह का विकास नहीं, मोह का अभाव होना चाहिए। दसवीं प्रतिमा वह है कि सांसारिक बातों के लिए अनुमति नहीं देगी। धार्मिक चर्चा के अलावा मुख से अन्य बातें न निकलेगी। यह अच्छा विचार किया है इस महिला ने। दसवीं प्रतिमा के भाव इसलिए किए कि अन्तिम समय में समाधि हो। इस महिला ने अपने जीवन के द्वारा धार्मिक विकास के लिए यहाँ सहयोग दिया है। अत: अन्त में कृतज्ञता प्रकट करने के लिए इनकी सेवा करना चाहिए। यह एक अच्छी शुरूआत है उदासीनाश्रम के लिए। वैयावृत्य करने से कराने वाले का तथा करने वाले का दोनों का जीवन सुधर जाता है।


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    आत्मा के परिणामों की बड़ी विचित्रता है। अनादिकाल से यह संसारी जीव भोगों का दास बना हुआ है। इन्द्रियों की इच्छा पूर्ण करने में लगा है। आज एक प्राणी ने भोगों को पाप का मूल समझा और उसके मन में त्याग के भाव जागे हैं। अब वह सबसे पहले आरम्भ परिग्रह का त्याग करेगी। आरम्भ को इस जीव ने अनादि से अच्छा मान रखा है पर इस महिला ने इसे पाप का मूल समझा। ८ वीं प्रतिमा आरम्भ त्याग प्रतिमा होती है। अब यह सांसारिक कार्यों, खाने-पीने के बारे में आरम्भ नहीं करेगी, धार्मिक कार्य कर सकती है। इसके बाद परिग्रह त्याग प्रतिमा है।

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