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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. कुलरूवजादिबुद्धिसु तवसुदसीलेसु गारवं किंचि। जो ण वि कुव्वदि समणो मद्वधम्मं हवे तस्स ॥ जो मनस्वी पुरुष कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, शास्त्र और शीलादि के विषय में थोड़ा सा भी घमण्ड नहीं करता, उसके मार्दव धर्म होता है। आज पर्व का दूसरा दिन है। कल उत्तम क्षमा के बारे में आपने सुना, सोचा, समझा और क्षमा भाव धारण भी किया है। वैसे देखा जाए तो ये सब दस धर्म एक में ही गर्भित हो जाते हैं। एक के आने से सभी आ जाते हैं। आचार्यों ने सभी को अलग-अलग व्याख्यायित करके हमें किसी न किसी रूप में धर्म धारण करने की प्रेरणा दी है। जैसे-रोगी के रोग को दूर करने के लिए विभिन्न प्रकार से चिकित्सा की जाती है। दवा अलग-अलग अनुपात के साथ सेवन करायी जाती है। कभी दवा पिलाते हैं, कभी खिलाते हैं और कभी इंजेक्शन के माध्यम से देते हैं। बाह्य उपचार भी करते हैं। वर्तमान में तो सुना है कि रंगों के माध्यम से भी चिकित्सा पद्धति का विकास किया जा रहा है। कुछ दवाएँ सुंघाकर भी इलाज करते हैं। इतना ही नहीं, जब लाभ होता नहीं दिखता तो रोगी के मन को सान्त्वना देने के लिए समझाते हैं कि तुम जल्दी ठीक हो जाओगे। तुम रोगी नहीं हो। तुम तो हमेशा से स्वस्थ हो अजर-अमर हो। रोग आ ही गया है तो चला जायेगा, घबराने की कोई बात नहीं है। ऐसे ही आचार्यों ने अनुग्रह करके विभिन्न धर्मों के माध्यम से आत्म-कल्याण की बात समझायी है। प्रत्येक धर्म के साथ उत्तम विशेषण भी लगाया है। सामान्य क्षमा या मार्दव धर्म की बात नहीं है, जो लौकिक रूप से सभी धारण कर सकते हैं। बल्कि विशिष्ट क्षमा भाव जो संवर और निर्जरा के लिए कारण है, उसकी बात कही गयी है। जिसमें दिखावा नहीं है, जिसमें किसी सांसारिक ख्याति, पूजा, लाभ की आकांक्षा नहीं है। यही उत्तम विशेषण का महत्व है। दूसरी बात यह है कि क्षमा, मार्दव आदि तो हमारा निजी स्वभाव है, इसलिए भी उत्तम धर्म है। इनके प्रकट हुए बिना हमें मुक्ति नहीं मिल सकती। आज विचार इस बात पर भी करना है कि जब मार्दव हमारा स्वभाव है तो वह हमारे जीवन में प्रकट क्यों नहीं है? तो विचार करने पर ज्ञात होगा कि जब तक मार्दव धर्म के विपरीत मान विद्यमान है तब तक वह मार्दव धर्म को प्रकट नहीं होने देगा। केवल मृदुता लाओ, ऐसा कहने से काम नहीं चलेगा किन्तु इसके विपरीत जो मान कषाय है उसे भी हटाना पड़ेगा। जैसे हाथी के ऊपर बंदी का बैठना शोभा नहीं देता, ऐसे ही हमारी आत्मा पर मान का होना शोभा नहीं देता। यह मान कहाँ से आया? यह भी जानना आवश्यक है। जब ऐसा विचार करेंगे तो मालूम पड़ेगा कि अनन्त काल से यह जीव के साथ है और एक तरह से जीव का धर्म जैसा बन बैठा है। इससे छुटकारा पाने के दो ही उपाय है या कहो अपने वास्तविक स्वरूप को पाने के दो ही उपाय हैं। एक विधि रूप है तो दूसरा निषेध रूप है। जैसे रोग होने पर कहा जाए कि आरोग्य लाओ, तो आरोग्य तो रोग के अभाव में ही आयेगा। रोग के अभाव का नाम ही आरोग्य है। इसी प्रकार मृदुता को पाना हो तो यह जो कठोरता आकर छिपकर बैठी है उसे हटाना होगा। जानना होगा कि इसके आने का मार्ग कौन सा है, उसे बुलाने वाला और इसकी व्यवस्था करने वाला कौन है? तो आचार्य कहते हैं कि हम ही सब कुछ कर रहे हैं। जैसे अग्नि राख से दबी हो तो अपना प्रभाव नहीं दिखा पाती, ऐसे ही मार्दव धर्म का मालिक यह आत्मा कर्मों से दबी हुई है और अपने स्वभाव को भूलकर कठोरता को अपनाती जा रही है। विचार करें, कि कठोरता को लाने वाला प्रमुख कौन है? अभी आप सबकी अपेक्षा ले लें। तो संज्ञी पंचेन्द्रिय के पाँचों इन्द्रियों में से कौन सी इन्द्रिय कठोरता लाने का काम करती है? क्या स्पर्शन इन्द्रिय से कठोरता आती है, या रसना इन्द्रिय से आती है, या घ्राण या चक्षु या श्रोत्र, किस इन्द्रिय से कठोरता आती है? तो कोई भी कह देगा कि इन्द्रियों से कठोरता नहीं आती। यह कठोरता मन की उपज है। एक इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक कोई भी जीव ऐसे अभिमानी नहीं मिलेंगे जैसे कि मन वाले और विशेषकर मनुष्य होते हैं। थोड़ा सा भी वित्त-वैभव बढ़ जाए तो चाल में अन्तर आने लगती है। मनमाना तो यह मन ही है। मन के भीतर से ही माँग पैदा हेाती है। वैसे मन बहुत कमजोर है, वह इस अपेक्षा से कि उसका कोई अंग नहीं है लेकिन यह अंग-अंग को हिला देता है। विचलित कर देता है। जीवन का ढाँचा परिवर्तित कर देता है और सभी पाँचों इन्द्रियाँ भी मन की पूर्ति में लगी रहती हैं। मन सबका नियन्ता बनकर बैठ जाता है। आत्मा भी इसकी चपेट में आ जाती है और अपने स्वभाव को भूल जाती है। तब मृदुता के स्थान पर मान और मद आ जाता है। इन्द्रियों को खुराक मिले या न मिले चल जाता है लेकिन मन को खुराक मिलनी चाहिए। ऐसा यह मन है। और इसे खुराक मिल जाये, इसके अनुकूल काम हो जाए तो यह फूला नहीं समाता और नित नयी माँगें पूरी करवाने में चेतना को लगाये रखता है। जैसे आज कल कोई विद्यार्थी College (महाविद्यालय) जाता है। प्रथम वर्ष का ही अभी विद्यार्थी है अभी-अभी College (महाविद्यालय) का मुख देखा है। वह कहता है-पिताजी! हम कल से College (महाविद्यालय) नहीं जायेंगे। तो पिताजी क्या कहें? सोचने लगते हैं कि अभी एक दिन तो हुआ है और नहीं जाने की बात कहाँ से आ गयी? क्या हो गया? तो विद्यार्थी कहता है कि पिताजी आप नहीं समझेंगे नयी पढ़ाई है। College (महाविद्यालय) जाने के योग्य सब सामग्री चाहिए। कपड़े अच्छे चाहिए।Pocket (जेब) में पैसे भी चाहिए और University (विश्वविद्यालय) बहुत दूर है, रास्ता बड़ा चढ़ाव वाला है इसलिए स्कूटर भी चाहिए। उस पर बैठकर जायेंगे इसके बिना पढ़ाई सम्भव नहीं है। यह कौन करवा रहा है? यह सब मन की ही करामात है। यदि इसके अनुरूप मिल जाए तो ठीक अन्यथा गड़बड़ हो जायेगी। जैसे सारा जीवन ही व्यर्थ हो गया, ऐसा लगने लगता है। कपड़े चाहिए ऐसे कि बिल्कुल टिनोपाल में तले हुए हों, हाँ जैसे पूरियाँ तलती है। यह सब मन के भीतर से आया हुआ मान-कषाय का भाव है। सब लोग क्या कहेंगे कि College (महाविद्यालय) का छात्र होकर ठीक कपड़े पहनकर नहीं आता। एक छात्र ने हमसे पूछा था कि सचमुच ऐसी स्थिति आ जाती है तब हमें क्या करना चाहिए? तो हमने कहा कि ऐसा करो टोपी पहन लेना और धोती कुर्ता पहनकर जाना, वह हँसने लगा। बोला यह तो बड़ा कठिन है। टोपी पहनना तो फिर भी सम्भव है लेकिन धोती वगैरह पहनूँगा तो सब गड़बड़ हो जायेगी। सब से अलग हो जाऊँगा। लोग क्या कहेंगे? हमने कहा कि ऐसा मन में विचार ही क्यों लाते हो कि लोग क्या कहेंगे? अपने को प्रतिभा सम्पन्न होकर पढ़ना है। विद्यार्थी को तो विद्या से ही प्रयोजन होना चाहिए। आज यही हो रहा है कि व्यक्ति बाहरी चमक-दमक में ऐसा झूम जाता है कि सारी की सारी शक्ति उसी में व्यर्थ ही व्यय होती चली जाती है और वह लक्ष्य से चूक जाता है। यह सब मन का खेल है। मान कषाय है। मान-सम्मान की आकांक्षा काठिन्य लाती है और सबसे पहले मन में कठोरता आती है, फिर बाद में वचनों में और तदुपरान्त शरीर में भी कठोरता आने लगती है। इस कठोरता का विस्तार अनादिकाल से इसी तरह हो रहा है और आत्मा अपने मार्दव-धर्म को खोता जा रहा है। इस कठोरता का, मान कषाय का परित्याग करना ही मार्दव धर्म के लिए अनिवार्य है। आठ मदों में एक मद ज्ञान का भी है। आचार्यों ने इसी कारण लिख दिया है कि -ज्ञानस्य फल क? उपेक्षा, अज्ञाननाशी वा' उपेक्षा भाव आना और अज्ञान का नाश होना ही ज्ञान का फल है। उपेक्षा का अर्थ है रागद्वेष की हानि होना और गुणों का आदान (ग्रहण) होना। यदि ऐसा नहीं होता तो वह ज्ञान कार्यकारी नहीं है। ‘ले दीपक कुएँ पड़े' वाली कहावत आती है कि उस दीपक के प्रकाश की क्या उपयोगिता जिसे हाथ में लेकर भी यदि कोई कूप में गिर जाता है। स्व-पर का विवेक होना ही ज्ञानी की सार्थकता है। पर को हेय जानकर भी यदि पर के विमोचन का भाव जागृत नहीं होता और ज्ञान का मद आ जाता है कि मैं तो ज्ञानी हूँ, तो हमारा यह ज्ञान एकमात्र बौद्धिक व्यायाम ही कहलायेगा। ज्ञान का अभिमान व्यर्थ है। ज्ञान का प्रयोजन तो मान की हानि करना है, पर अब तो मान की हानि होने पर मानहानि का कोर्ट में दावा होता है। मार्दव धर्म तो ऐसा है कि जिसमें मान की हानि होना आवश्यक है। यदि मान की हानि हो जाती है तो मार्दव धर्म प्रकट होने में देर नहीं लगती। आप शान्तिनाथ भगवान् के चरणों में श्रीफल चढ़ाते हैं तो भगवान् श्रीफल के रूप में आपसे कोई सम्मान नहीं चाहते न ही हर्षित होते हैं, बल्कि वे तो अपनी वीतराग मुद्रा से उपदेश देते हैं कि जो भी मान कषाय है वह सब यहाँ लाकर विसर्जित कर दो। यह जो मन, मान कषाय का Store (भण्डार) बना हुआ है, उसे खाली कर दो। जिसका मन, मान कषाय से खाली है वही वास्तविक ज्ञानी है। उसी के लिए केवलज्ञान रूप प्रमाण-ज्ञान की प्राप्ति हुआ करती है। वही तीनों लोकों में सम्मान पाता है। हम पूछते हैं कि आपको केवलज्ञान चाहिए या मात्र मान-कषाय चाहिए? तो कोई भी कह देगा कि हमें केवलज्ञान चाहिए। लेकिन केवलज्ञान की प्राप्ति तो अपने स्वरूप की ओर, अपने मार्दव धर्म की ओर प्रयाण करने से होगी। अभी तो हम स्वरूप से विपरीत की प्राप्ति होने में ही अभिमान कर रहे हैं। वास्तव में देखा जाए तो इन्द्रिय ज्ञान, ज्ञान नहीं है। इन्द्रिय-ज्ञान तो पराश्रित ज्ञान है। स्वाश्रित ज्ञान तो आत्म-ज्ञान या केवलज्ञान है। जो इन्द्रिय ज्ञान और इन्द्रिय के विषयों में आसक्त नहीं होता, वह नियम से अतीन्द्रिय ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, सर्वज्ञ दशा को प्राप्त कर लेता है। 'मनोरपत्यं पुमान्निति मानवः' कहा गया है कि मनु की संतान मानव है। मनु को अपने यहाँ कुलकर माना गया है। जो मानवों को एक कुल की भाँति एक साथ इकट्ठे रहने का उपदेश देता है, वही कुलकर है। सभी समान भाव से रहें। छोटे-बड़े का भेदभाव न आवे तभी मानव होने की सार्थकता है। अपने मन को वश में करने वाले ही महात्मा माने गये हैं। मन को वश में करने का अर्थ मन को दबाना नहीं है, बल्कि मन को समझाना है। मन को दबाने और समझाने में बड़ा अन्तर है। दबाने से तो मन और अधिक तनाव-ग्रस्त हो जाता है, विक्षिप्त हो जाता है। किन्तु मन को यदि समझाया जाये तो वह शान्त होने लगता है। मन को समझाना, उसे प्रशिक्षित करना, तत्व के वास्तविक स्वरूप की ओर ले जाना ही वास्तव में, मन को अपने वश में करना है। जिसका मन संवेग और वैराग्य से भरा है वही इस संसार से पार हो पाता है। जैसे घोड़े पर लगाम हो तो वह सीधा अपने गन्तव्य पर पहुँच जाता है। ऐसे ही मन पर यदि वैराग्य की लगाम हो तो वह सीधा अपने गन्तव्य, मोक्ष तक ले जाने में सहायक होता है। सभी दश धर्म आपस में इतने जुड़े हुए हैं कि अलग-अलग होकर भी संबंधित हैं। मार्दव धर्म के अभाव में क्षमा धर्म रह पाना संभव नहीं है और क्षमा धर्म के अभाव में मार्दव धर्म टिकता नहीं है। मान-सम्मान की आकांक्षा पूरी नहीं होने पर ही तो क्रोध उत्पन्न हो जाता है। मृदुता के अभाव में छोटी सी बात से मन को ठेस पहुँच जाती है और मान जागृत हो जाता है। जब मान जागृत होता है तो क्रोध की अग्नि भड़कने में देर नहीं लगती। द्वीपायन मुनि रत्नत्रय को धारण किये हुए थे। वर्षों की तपस्या साथ थी। उस तपस्या का फल, चाहते तो मीठा भी हो सकता था किन्तु वे द्वारिका को जलाने में निमित्त बन गये। दिव्यध्वनि के माध्यम से जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मेरे निमित्त से बारह वर्ष के बाद द्वारिका जलेगी तो यह सोचकर वे द्वारिका से दूर चले गये कि कम से कम बारह वर्ष तक अपने को द्वारिका की ओर जाना ही नहीं है। समय बीतता गया और बारह वर्ष बीत गये होंगे- ऐसा सोचकर वे विहार करते हुए द्वारिका के समीप एक बगीचे में आकर ध्यानमग्न हो गये। वहीं यादव लोग आये और द्वारिका के बाहर फेंकी गई शराब को पानी समझकर पीने लगे। मदिरापान का परिणाम यह हुआ कि यादव लोग नशे में पागल होकर द्वीपायन मुनि को देखकर गालियाँ देने लगे, पत्थर फेंकने लगे। जब बहुत देर तक यह प्रक्रिया चलती रही और द्वीपायन मुनि को सहन नहीं हुआ तो तैजस ऋद्धि के प्रभाव से द्वारिका जलकर राख हो गयी। तन तो सहन कर सकता था लेकिन मन सहन नहीं कर सका और क्रोध जागृत हो गया। महाराज जी (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी) ने एक बार उदाहरण दिया था। वही आपको सुनाता हूँ। एक गाँव का मुखिया था। सरपंच था। उसी का यह प्रपञ्च है। आप हँसिये मत। उसका प्रपञ्च दिशाबोध देने वाला है। हुआ यह कि एक बार उससे कोई गल्ती हो गयी और उन्हें दंड सुनाया गया। समाज गल्ती सहन नहीं कर सकती ऐसा कह दिया गया और लोगों ने इकट्ठे होकर उसके घर आकर सारी बात कह दो। घर के भीतर उसने भी स्वीकार कर लिया कि गल्ती हो गयी, मजबूरी थी। पर इतने से काम नहीं चलेगा। लोगों ने कहा कि यही बात मञ्च पर आकर सभी के सामने कहना होगी कि मेरी गलती हो गयी और मैं इसके लिए क्षमा चाहता हूँ। फिर दण्ड के रूप में एक रुपया देना होगा। एक रुपया कोई मायने नहीं रखता। वह व्यक्ति करोड़ रुपया देने के लिए तैयार हो गया लेकिन कहने लगा कि मञ्च पर आकर क्षमा मांगना तो सम्भव नहीं हो सकेगा। मान खण्डित हो जायेगा। प्रतिष्ठा में बट्टा लग जाएगा। आज तक जो सम्मान मिलता आया है वह चला जायेगा। सभी संसारी जीवों की यही स्थिति है। पाप हो जाने पर, गलती हो जाने पर कोई अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है। असल में भीतर मान कषाय बैठा है वह झुकने नहीं देता। पर हम चाहें तो उसकी शक्ति को कम कर सकते हैं और चाहें तो अपने परिणामों से उसे संक्रमित (Transfer) भी कर सकते हैं। उसे अगर पूरी तरह हटाना चाहें तो आचार्य कहते हैं कि एक ही मार्ग है- समता भाव का आश्रय लेना होगा। अपने शांत और मृदु स्वभाव का चिन्तन करना होगा। यही पुरुषार्थ मान-कषाय पर विजय पाने के लिए अनिवार्य है। आत्मा की शक्ति और कर्म की शक्ति इन दोनों के बीच देखा जाये तो आत्मा अपने पुरुषार्थ के बल से आत्म-स्वरूप के चिन्तन से मान कषाय के उदय में होने वाले परिणामों पर विजय प्राप्त कर सकता है। मान को जीत सकता है। इतना संयम तो कषायों को जीतने के लिए आवश्यक ही है। सम्यग्दर्शन तो जीव जन्म से ही लेकर आ सकता है लेकिन मुक्ति पाने के लिए सम्यग्दर्शन के साथ जो विशुद्धि चाहिए वह चारित्र के द्वारा ही आयेगी। वह अपने आप आयेगी, ऐसा भी नहीं समझना चाहिए। आचार्यों ने कहा है कि आठ साल की उम्र होने के उपरान्त कोई चाहे तो सम्यग्दर्शन के साथ चारित्र को अंगीकार कर सकता है। लेकिन चारित्र अंगीकार करना होगा, तभी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा और मुक्ति मिलेगी। कषायों पर विजय पाने रूप परिणाम, चरित्र को अंगीकार किये बिना आना/होना संभव नहीं है। आत्मा की अनन्त शक्ति भी सम्यक्रचारित्र धारण करने पर ही प्रकट होती है। एक बात और कहूँ कि सभी कषायें परस्पर एक दूसरे के लिए कारण भी बन सकती है। जैसे मान को ठेस पहुँचती है तो क्रोध आ जाता है। मायाचारी आ जाती है। अपने मान की सुरक्षा का लोभ भी आ जाता है। एक समय की बात है कि एक व्यक्ति एक सन्त के पास पहुँचा। उसने सुन रक्खा था कि सन्त बहुत पहुँचे हुए हैं। उसने पहुँचते ही पहले उन्हें प्रणाम किया और विनयपूर्वक बैठ गया। चर्चा वार्तालाप के बाद उसने कहा कि आप हमारे यहाँ कल का आतिथ्य स्वीकार करिये। अपने यहाँ हम आपको कल के भोजन के लिए निमन्त्रित करते हैं। सन्त जी निमन्त्रण पाने वाले रहे होंगे, इसलिए निमन्त्रण मान लिया। देखो निमन्त्रण 'मान' लिया, इसमें भी 'मान' लगा है। दूसरे दिन ठीक समय पर वह व्यक्ति आदर के साथ उन्हें घर ले गया, अच्छा आतिथ्य हुआ। मान-सम्मान भी दिया। अन्त में जब सन्त जी लौटने लगे तो उस व्यक्ति ने पूछ लिया कि आपका शुभ नाम मालूम नहीं पड़ सका। आपका शुभ नाम मालूम पड़ जाता तो बडी कृपा होगी। सन्त जी ने बड़े उत्साह से बताया कि हमारा नाम शान्तिप्रसाद है। वह व्यक्ति बोला बहुत अच्छा नाम है। मैं तो सुनकर धन्य हो गया, आज मानों शान्ति मिल गयी। वह उनको भेजने कुछ दूर दस बीस कदम साथ गया और उसने फिर से पूछ लिया कि क्षमा कीजिये, मेरी स्मरण शक्ति कमजोर है। मैं भूल गया आपने क्या नाम बताया था? सन्त जी ने उसकी ओर गौर से देखा और कहा कि शान्तिप्रसाद, अभी तो मैंने बताया था। वह व्यक्ति बोला हाँ ठीक-ठीक ध्यान आ गया आपका नाम शान्तिप्रसाद है। अभी जरा दूर और पहुँचे थे कि पुन: वह व्यक्ति बोला कि क्या करूं? कैसा मेरा कर्म का तीव्र उदय है कि मैं बार-बार भूल जाता हूँ। आपने क्या नाम बताया था? अब की बार सन्त जी ने घूर कर उसे देखा और बोले शान्तिप्रसाद, शान्तिप्रसाद- मैंने कहा ना। वह व्यक्ति चुप हो गया और आश्रम पहुँचते-पहुँचते जब उसने तीसरी बार कहा कि एक बार और बता दीजिये आपका शुभ नाम। उसे तो जितनी बार सुना जाए उतना ही अच्छा है। अब सन्त जी की स्थिति बिगड़ गयी, गुस्से में आ गये। बोले क्या कहता है तू। कितनी बार तुझे बताया कि शान्तिप्रसाद, शान्तिप्रसाद! वह व्यक्ति मन ही मन मुस्कराया और बोला, मालूम पड़ गया है कि नाम आपका शान्तिप्रसाद है, पर आप तो ज्वालाप्रसाद हैं। अपने मान को अभी जीत नहीं पाये क्योंकि मान को जरा सी ठेस लगी और क्रोध की ज्वाला भड़क उठी। बंधुओ! ध्यान रखो जो मान को जीतने का पुरुषार्थ करता है वही मार्दव धर्म को अपने भीतर प्रकट करने में समर्थ होता है। पुरुषार्थ यही है कि ऐसी परिस्थिति आने पर हम यह सोचकर चुप रह जायें कि यह अज्ञानी है। मुझसे हँसी कर रहा है या फिर सम्भव है कि मेरी सहनशीलता की परीक्षा कर रहा है। उसके साथ तो हमारा व्यवहार, माध्यस्थ भाव धारण करने का होना चाहिए। कोई वचन व्यवहार अनिवार्य नहीं है। जो विनयवान हो, ग्रहण करने की योग्यता रखता हो, हमारी बात समझने की पात्रता जिसमें हो, उससे ही वचन व्यवहार करना चाहिए। ऐसा आचार्यों ने कहा है। अन्यथा 'मौन सर्वत्र साधनम्'। मौन सर्वत्र/सदैव अच्छा साधन है। द्वीपायन मुनि के साथ यही तो हुआ कि वे मौन नहीं रह पाये और यादव लोग भी शराब के नशे में आकर मौन धारण नहीं कर सके।'मदिरापानादिभिः मनस: पराभवो दृश्यते'- मदिरा पान से मन का पराभव होते देखा जाता है। पराभव से तात्पर्य है पतन की ओर चले जाना। अपने सही स्वभाव को भूलकर गलत रास्ते पर मुड़ जाना। गाली के शब्द तो किसी के भी कानों में पड़ सकते हैं लेकिन ठेस सभी को नहीं पहुँचती। ठेस तो उसी के मन को पहुँचती है जिसे लक्ष्य करके गाली दी जा रही है। या जो ऐसा समझ लेता है कि गाली मुझे दी जा रही है। मेरा अपमान किया जा रहा है। द्वीपायन मुनि को भीतर तो यही श्रद्धान था कि मैं मुनि हूँ। मेरा वैभव समयसार है। समता परिणाम ही मेरी निधि है। मार्दव मेरा धर्म है। मैं मानी नहीं हूँ, लोभी नहीं हूँ। मेरा यह स्वभाव नहीं है। रत्नत्रय धर्म उनके पास था, उसी के फलस्वरूप तो उन्हें ऋद्धि प्राप्त हुई थी। लेकिन मन में पर्याय बुद्धि जागृत हो गयी कि गाली मुझे दी जा रही है। आचार्य कहते हैं कि ‘पञ्जयमूढ़ा हि परसमया' जो पर्याय में मुग्ध हैं, मूढ़ है वह पर-समय है। पर्याय का ज्ञान होना बाधक नहीं है परन्तु पर्याय में मूढ़ता आ जाना बाधक है। पर्याय बुद्धि ही मान को पैदा करने वाली है। पर्याय बुद्धि के कारण उनके मन में आ गया कि वे मेरे ऊपर पत्थर बरसा रहे हैं, मुझे गाली दी जा रही है और उपयोग की धारा बदल गयी। उपयोग में उपयोग को स्थिर करना था, पर स्थिर नहीं रख पाये। उपयोग आत्म-स्वभाव के चिन्तन से हटकर बाहर पर्याय में लग गया और मान जागृत हो गया। जो अपने आप में स्थित है, स्वस्थ है उसे मान-सम्मान सब बराबर है। उसे कोई गाली भी दे तो वह सोचता है कि अच्छा हुआ अपनी परख करने का अवसर मिल गया। मालूम पड़ जायेगा कि कितना मान कषाय अभी भीतर शेष है। यदि ठेस नहीं पहुँचती तो समझना कि उपयोग, उपयोग में है। ज्ञानी की यही पहचान है कि वह अपने स्वभाव में अविचल रहता है। वह विचार करता है कि दूसरे के निमित्त से मैं अपने परिणाम क्यों बिगाड़ें? अगर अपने परिणाम बिगाड़ेंगा तो मेरा ही अहित होगा। कषाय दुख का कारण है। पाप-भाव दुख ही है। आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र में कहा है 'दुखमेव वा', आनन्द तो तब है जब दुख भी ‘मेवा' हो जाये। सुख और दुख दोनों में साम्य भाव आ जाये। मान कषाय का विमोचन करके ही हम अपने सही स्वास्थ्य का अनुभव कर सकते हैं, साम्य भाव ला सकते हैं। जैसे दूध उबल रहा है अब उसको अधिक नहीं तपाना है तब या तो उसे सिगडी से नीचे उतार कर रख दिया जाता है या फिर अग्नि को कम कर देते हैं। तब अपने आप वह धीरेधीरे अपने स्वभाव में आ जाता है, स्वस्थ हो जाता है अर्थात् शान्त हो जाता है और पीने योग्य हो जाता है। ऐसे ही मान कषाय के उबाल से अपने को बचाकर हम अपने स्वास्थ्य को प्राप्त कर सकते हैं। मान का उबाल शान्त होने पर ही मार्दव धर्म प्राप्त होता है। मान को अपने से अलग कर दें या कि अपने को ही मान कषाय से अलग कर लें, तभी मार्दव धर्म प्रकट होगा। अन्त में इतना ही ध्यान रखिये कि अपने को शान्तिप्रसाद जैसा नहीं करना है। हाँ, यदि कोई गाली दे, कोई प्रतिकूल वातावरण उपस्थित करें तो अपने को शान्तिनाथ भगवान् को नहीं भूलना है। अपने परिणामों को संभालना अपने आत्म-परिणामों की सँभाल करना ही धर्म है। यही करने योग्य कार्य है। जिन्होंने इस करने योग्य कार्य को सम्पन्न कर लिया वे ही कृतकृत्य कहलाते हैं। वही सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं, जिनकी मृदुता को अब कोई खण्डित नहीं कर सकता। हम भी मृदुता के पिण्ड बनें और जीवन को सार्थक करें।
  2. रक्षाबंधन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार मर्यादा का बंधन बंधन नहीं रक्षाबंधन है। यही सुखद अनुबंधन भी है। रक्षाबंधन के वास्तविक रहस्य के समझे बिना प्रतिवर्ष रूढ़ि की तरह इसे मनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं, यह ठीक नहीं। क्यों? वात्सल्य के वशीभूत होकर, धर्म की प्रभावना हेतु, यह है सच्चा रक्षाबंधन। रक्षा हेतु जहाँ बन्धन को अपना लिया जाये। रक्षा के लिए जो बंधन है वह सभी के लिए मुक्ति का कारण है। रक्षा बंधन को सच्चे अर्थों में मनाना है, अपने भीतर करुणा को जागृत करें। अनुकम्पा, दया,वात्सल्य का आलम्बन लें। उदाहरण-आषाढ़ और सावन के काले बादलों की करुणा ही है? कोई नहीं, हमें भी जल-भरे बादल बनना है, रीते बादल नहीं। रक्षाबंधन पर्व का अर्थ है हममें जो करुणाभाव है वह तन-मन-धन से अभिव्यक्त हो। एक दिन नहीं, सदैव वह हमारा स्वभाव बन जाये ऐसी चेष्टा करनी चाहिए। ' सत्त्वेषु मैत्री' इसका नाम है रक्षाबंधन। रक्षा बंधन पर्व एक दिन के लिए ही नहीं है। हमारे वात्सल्य करुणा एवं रक्षा के भाव जीवन भर बने रहे इन शुभ संकल्पों को दोहराने का यह स्मृति-दिवस है। ‘मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे' प्रतिदिन यह पाठ उच्चारित करते हैं। पर इस 'मेरी भावना' को व्यवहार में नहीं लाते। व्यवहार में लाने वाले महान् बन जाते हैं। उदाहरण-गाँधी जी की महानता का भी यही कारण है। वे परम कारुणिक थे। एक बार की घटना है-गाँधी जी सर्दी में अपने कमरे में रजाई ओढ़े अंगीठी ताप रहे थे। थोड़ी रात होने पर उन्हें कहीं बच्चों का रोना सुनाई दिया। बाहर आने पर उन्होंने कुछ पिल्लों को सर्दी के मारे रोता देखा। उनका हृदय रो दिया। वे उन पिल्लों को उठाकर अपने कमरे में ले आये और उन्हें रजाई ओढ़ा दी। थोड़ी गर्मी पाकर पिल्ले आनन्द से सो गये। यह थी गाँधी जी की करुणा पर आज उनके अनुयायी "स्व" से आगे बढ़ ही नहीं पाते।
  3. मोक्षमार्ग, तप विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार मोक्षमार्ग में उन्हीं से मोह रखो जो गुणों में श्रेष्ठ हों। जब तक श्रावक अवस्था में हो तब तक इस बात पर विश्वास तो रखो कि जब कभी भी मोक्षमार्ग मिलेगा उस समय आपको अकेले ही होना पड़ेगा। जिस प्रकार आप लोग कोई भी हार आभूषण पहन लेते हैं तो उसकी सुरक्षा के साथ चलते हैं। उसी प्रकार रत्नत्रय का हार पहनने वाला व्यक्ति इस प्रकार की सुरक्षा के साथ चलता है। मोक्षमार्ग बहुत सरल मार्ग है बस वैराग्य दृढ़ होना चाहिए और समता, सहनशीलता होना चाहिए। मोक्षमार्ग टेढ़ा नहीं है। मार्ग हमेशा सीधा ही रहता है। रास्ता सीधा ही होता है, लेकिन चलने वाला सीधा नहीं हो पाता। आशा का विसर्जन हो इतना सरल मोक्षमार्ग है। लेकिन मोह के कारण वह विष की भाँति कठिन है। समयसार क्या है? समय माने आत्मा और सार माने रत्नत्रय। अर्थात् रत्नत्रय समन्वित आत्मा ही वास्तविक समयसार है। उत्तम क्षमा वृतिपरिसंख्यान तप द्वारा ही चरमसीमा को उपलब्ध होती है। वृतिपरिसंख्यान तप में भोजन मिले अथवा न मिले किन्तु गालियों का पेय तो मिलता ही है आ गया नंगा इत्यादि साधु उन गालियों को सान्त्वना पूर्वक स्वीकार कर अनेक कर्मों की निर्जरा कर डालता है। वास्तविक रस परित्याग तप उस समय हैं जब रसों में रस ही न आये। कायक्लेश तप ओवरड्यूटी की तरह है। ओवरड्यूटी करने में आनंद आता है क्योंकि अधिक लाभ की आशा है वहाँ इसी प्रकार समयसार को भी इस तप में आनंद का अनुभव होता है क्योंकि समय से पूर्व ही अनेक कर्मों को जाना पड़ता है आत्मा को छोड़कर। मोक्षमार्ग में कहा है-कषाय से बचो भगवान् को देखो। मोक्षमार्ग में अधिक पढ़ाई की आवश्यकता नहीं है भेदविज्ञान की आवश्यकता है। यदि भेदविज्ञान के रहस्य को अच्छे से समझता है तो वह मोक्षमार्ग में अच्छे से आगे बढ़ गया। मोक्षमार्ग में अंजनचोर जैसी दृढ़ता की आवश्यकता है। जिन्होंने इन्द्रियों का निग्रह नहीं किया और रत्नत्रय की बात करता है तो वो व्यक्ति ऐसा है जैसे अपने माथे से पर्वत को फोड़ने की बात करता है वो कुछ भी नहीं कर पाता है।
  4. मोक्षमार्ग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार पैर पड़ रहे हैं वह मोक्षमार्ग नहीं है जो पैरों को एक एक अन्तर पूर्वक सावधानी से रख रहा है वह मोक्षमार्ग है उसकी ईर्यापथ शुद्धि चल रही है। मन में कोमलता के साथ जो प्रवृत्ति चल रही है वही मूलत: मोक्षमार्ग है। कोई काँटों को बचा रहा है कोई जीव को बचा रहा है काँटे को बचाने का अर्थ है अपने पैरों को बचा रहा है जो काँटे को बचा रहा है वह परीषह से डर रहा है इसलिए मोक्षमार्ग बाहर नहीं भीतर है। भगवान् को देखकर नकल करना है मोक्षमार्ग में दुनिया में बहुत सारी परीक्षाएँ होती हैं, उसमें हम अध्ययन करके पास होते हैं, वहाँ नकल नहीं करने देते, लेकिन हमारे ही भगवान् तो कहते हैं कि मोक्षमार्ग में नकल करके पास हो जाओ। कोई कागज पेन की आवश्यकता नहीं सौ में से सौ नंबर प्राप्त करो नकल करके। मोक्षमार्ग में इधर-उधर की बातें नहीं, आत्मा की बातें, आत्मा का हित पूछा जाता है। मोक्षमार्ग बहुत सरल मार्ग है बस वैराग्य दृढ़ होना चाहिए समता और सहनशीलता होना चाहिए। आकुलता नहीं करना यही मोक्षमार्ग है। जिसका संवेग, वैराग्य दृढ़ है उसे कुछ भी नहीं लगता है सब बातें गौण करके शांत बैठ जाना है जिसके पास वैरागय की कमी है उसे आकुलता सताती है। अनुकूलता मिलने के उपरांत फूलना नहीं, प्रतिकूलता में उदासीन नहीं होना ये है मोक्षमार्ग। प्रतिकूलता-अनुकूलता से गुजरता हुआ मोक्षमार्ग है। वही मोक्ष में पहुँचता है जो इस पर चलता है। प्रभु ने कहा है-मोक्षमार्ग में समान रूप से सहन किया जाता है तभी मुक्ति मिलती है। जो परीषहों और उपसर्गों से जूझता है उसके लिए मोक्षमार्ग है इसलिए तो फिर परीषहों और आप लोगों को उपसर्गों का खड़े होकर स्वागत करना चाहिए। आस्था और संयम की कृपा से मंजिल पाते हैं। स्वयं को लघु समझने वाला ही बड़ों का गुणानुवाद कर सकता है। भक्ति करके गुणानुवाद करके उसी रूप बनना चाहता है यही एक मात्र मोक्षमार्ग है। विकल्प को छोड़ने की साधना ही मोक्षमार्ग की साधना है। विकल्प संसार जाल में फंसाने वाले हैं। विकल्प भारी शरीर की तरह है जो हमेशा पराधीन हो जाता है। अपमान का अर्थ है अपना नहीं, अपनी मान कषाय का अपमान हो रहा है, इसे सहना भी महान् तपस्या है। मान का ही अपमान हो रहा है और मान का ही सम्मान होता है न अपना अपमान होता है न सम्मान होता है अपना तो ज्ञातादृष्टा आतमराम है। जिसको यह समझना आ गया तो समझो मोक्षमार्ग आ गया। पंचेन्द्रिय एवं मन के विषयों का नाम संसार है तथा इन दोनों से ऊपर उठने का नाम ही मोक्षमार्ग है। मोक्षमार्ग में इन विषयों की उपेक्षा करना है। जो व्यक्ति पंचेन्द्रिय विषयों को नहीं छोड़ सकता वह मोक्षमार्ग पर कदम भी नहीं बढ़ा सकता। विषयों का आदर होगा तो मोक्षमार्ग का निश्चित अनादर होगा। मोक्षमार्ग को खरीदा नहीं जा सकता, साधा जा सकता है लेकिन साधने के लिए श्रद्धान की बड़ी आवश्यकता होती है। प्राथमिक दशा में मोक्षमार्ग बाहर कम भीतर अधिक है। सम्पन्न दशा में बाहर मोक्षमार्ग है ही नहीं। मोक्षमार्ग स्व व्यवस्थित व्यवस्था है पर की अपेक्षा रहित। मोक्षमार्ग में थ्योरी कम है प्रेक्टिकल अधिक है। ज्ञान की नहीं, निष्ठा और विशुद्धि की आवश्यकता है मोक्षमार्ग में। मोक्षमार्ग में आत्म संतुष्टि ही मुख्य मानी जाती है यही प्रयोजन रखना चाहिए व्रत स्वयं के लिए लिए हैं दूसरे को संतुष्ट करने के लिए नहीं लिए। जो संकल्प लिया है उसी पर समर्पित होना अन्य की ओर दृष्टि नहीं रखना मोक्षमार्ग में आत्म विश्वास ही काम करता है। प्रशासन नहीं आत्मानुशासन की बात होती है मोक्षमार्ग में। यदि परीषह और उपसर्ग नहीं आ रहे हैं तो समझना मोक्षमार्ग में अभी कमी है। अपने शरीर के माध्यम से जो बिना बोले मोक्षमार्ग का कथन कर रहें हैं ऐसे वीतरागी मुनिराज होते हैं। मोक्षमार्ग में तत्व श्रद्धान के बल पर ही आगे बढ़ सकते हैं। मोक्षमार्ग में पुण्यबंध तब तक काम का नहीं जब तक श्रद्धान नहीं। मोक्षमार्गी अपने दोषों को पहले नोट करता है फिर स्वयं ही उनके भगाने के लिए चौकीदारी करता है। मोक्षमार्ग में सावधान का अर्थ है सार और असार का ज्ञान होना, किन्तु संसारी प्राणी सावधान है संसारमार्ग में। संसार महत्वपूर्ण नहीं किन्तु संसार में रहकर सावधानी महत्वपूर्ण हैं। मोक्षमार्ग विवेक के साथ ही प्रारम्भ होता है। संसारी प्राणी को भले ही दिव्य ज्ञान नहीं है परन्तु उसके पास विवेक है उसे रखना चाहिए उसी विवेक से दिव्यज्ञान की प्राप्ति होगी। रत्नत्रय की उन्नति सौ ज्ञान का विकास है वही आत्मा का विकास है। पथ एक है मार्ग एक ही है जो सामने चलता है वह मुक्ति का पथ चाहता है और जो रिवर्स में चलता है वह संसार का पथ चाहता है। मार्ग पर चलते समय यदि कोई बोलने वाला साथी मिल जाता है तो मार्ग तय करना सरल हो जाता है। गुरु निग्रंथ साधु हमारे मोक्षमार्ग के बोलने के साथी हैं। इनके साथ चलने से हमारा मोक्षमार्ग सरल हो जाता है। मोक्षमार्ग में गुरु ही सहायक सिद्ध होते हैं। गुरु हमारे लिए अदृश्य प्रभु तक पहुँचाने के लिए मार्ग दर्शाते हैं। मोक्षमार्ग में प्रत्येक क्रिया दूसरे के लिए नहीं अपने लिए की जाती है। आत्मसाधना करते हुए मोक्षमार्ग पर जिन्होंने अपने कदम बढ़ाए हैं, वह संतुष्ट प्रमुदित और अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। रत्नत्रय वह अमूल्य निधि है जिसकी तुलना संसार की समस्त सम्पदा से भी नहीं की जा सकती। मोह को समाप्त करना ही मोक्षमार्ग है। मोक्षमार्ग बहुत सुकुमार है और बहुत कठिन भी। मोक्षमार्ग अपने लिए कठोर और दूसरों के लिए सुकुमार होना चाहिए। कषायों की वजह से हम दूसरों को मोक्षमार्ग कठोर बना देते हैं और अपने लिए नरम बना लेना चाहते हैं लेकिन मोक्षमार्ग तो मोक्षमार्ग है आप की इच्छा के अनुसार नहीं बनने वाला। मोक्षमार्ग में कोई मिल करके नहीं जाता है। मिलन सारे के सारे छूट जाते हैं उसी का नाम मोक्षमार्ग है। एक बार जो सोच समझकर मोक्षमार्ग में कदम रखते हैं उन्हें दूसरों के संकेत की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। मोक्षमार्ग में लाड़ प्यार नहीं होता तो क्रोध भी नहीं होता। राग के द्वारा संसार के बन्धन का विकास होता है तो वीतराग भावों के द्वारा संसार से मुक्त होने के मार्ग का विकास होता है। मोक्षमार्ग में बिल पावर तब काम करता है जब सेल्फ कॉन्फीडेंस हो। मोक्षमार्ग में युक्ति बहुत अच्छा काम करती है लेकिन वह युक्ति तर्क के साथ नहीं चलती है बल्कि वह युक्ति सम्यग्ज्ञान के साथ चलती है। जो अपनी आत्मा की निंदा करता है, गर्हा करता है, आलोचना करता है, अपने आपको धिक्कारता है यही मोक्षमार्ग में कार्य कारी है। जो गुणवान है उनका गुणगान करता है, उनकी सेवा करता है, सत्कार करता है, उनका कीर्तन करता है और उनको धन्यवाद देता है कि आपके गुण हमारी दृष्टि में आ गये यह बड़ा सौभाग्य का उदय है। इस प्रकार कह करके वह मन और इन्द्रियों को जीत लेता है। दु:ख का विचार करो, पर सुख के मार्ग को मत छोड़ो। कंकड़ के साथ गेहूँ को भी मत फेंको, वरना रोटी नहीं मिलेगी। ऊँचे सिंहासन पर बैठने में पूज्यता प्राप्त नहीं होती बल्कि पूज्यता पवित्रता पावनता मात्र गुणों के विकास में, रत्नत्रय को धारण करने में है। विद्यार्थी, समय का सदुपयोग करते हुए समीचीन पथ पर आरूढ़ होकर स्व पर कल्याण की ओर अग्रसर हो। जवानी के जोश को होश के साथ काम में ले। जिस प्रकार कठिन प्रश्न होने पर ही विद्यार्थियों की कुशलता मानी जाती है, उसी प्रकार रास्ता कठिन ही होना चाहिए। मोक्षमार्ग कहता है कि जो पास है, उसका नाश हो, ह्रास हो और जो पास नहीं है, उसका विकास हो। मोक्षमार्ग की शिक्षा चाहते हो तो पहले संयमाचरण सम्यक्त्वाचरण चारित्र की दीक्षा लो तब शिक्षा मिलेगी। जब मटकी या नारियल बजा-बजा कर लेते हैं तो मोक्षमार्ग भी बजा-बजा कर लेना। टटोलो, परीक्षा करो फिर लेओ। आज तक दूसरों को टटोला, खुद को नहीं। जिनवाणी की आज्ञा और गुरु की आज्ञा को मानकर चलना ही सही मोक्षमार्ग है। रूढ़िवाद एक ऐसा जहर है जो मोक्षमार्ग रूपी अमृत में भी जहर फैला देता है। इस संसार से जाते वक्त दिगम्बर ही जाते हैं, घर वाले सब छीन लेते हैं। आप स्वयं जीवन में अगर दिगम्बर नहीं बनोगे तो अन्त में बना दिए जाओगे। रत्नत्रय ही हमारी अमूल्य निधि है। इसे ही बचाना है। इसको लूटने के लिए कर्म चोर सर्वत्र घूम रहे हैं। जाग जाओ, सो जाओगे तो तुम्हारी निधि ही लुट जायेगी। सम्यक दर्शन से जिसने अपने आप को शुद्ध बनाया है वह संसार शरीर भोग से निवृत्त है तभी मोक्ष की सीढ़ी है अन्यथा मोह की। मोक्षमार्ग पर सब एक साथ चलते हैं ये व्यवहार से है निश्चय से तो अकेला ही चलता है। मोक्षमार्गी को अप्रशस्त प्रकृतियों को संवर और निर्जरा के रूप में परिवर्तित करना होता है फिर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना। इस धरती पर आज तक मोक्षमार्ग का प्रवाह रुका नहीं यह भी अनादि अनिधन प्रवाह है। मोक्षमार्ग परीषह और उपसर्ग के बिना बनता ही नहीं। मार्ग में कठिनाइयाँ भी होती हैं पर उसको याद नहीं रखना चाहिए ये तो होता ही रहता है। कठिनाइयों को पार करते चलो कठिनाइयाँ बाहर से नहीं आती हैं, कठिनाई न तो महाराष्ट्र में है, न कर्नाटक में, कठिनाई तो हमने अपने कर्म से बांधी हैं। कष्ट बाहर से नहीं आते ये कष्ट हमें शिष्टता और परिशिष्टता बताते हैं और सहने पर मिष्टता अपने आप आ जाती है। मोक्षमार्ग में दायित्व का निर्वाह स्वयं को करना होता है। तीर्थंकर भगवन्तों ने कठिन से कठिनतम मार्ग अपनाया, साधना की। अपने को तो कितना सरल बताया है। अपने ही परिणाम अपने लिए घातक हैं ये सिद्धान्त जिसके पास नहीं वह व्यक्ति मोक्षमार्ग में एक कदम भी नहीं रह सकता। ये पक्की बात है। रत्नत्रय लुट गया तो सब गया, अब कुछ भी नहीं बचा। ये मोक्षमार्ग है यहाँ हम अकेले नहीं चल रहे हैं समझे आप जाइये लेकिन एरो तीर के निशान को कम से कम बना के जाओ ताकि पीछे वाले भी पार कर सकें ये उपकार अनुकंपा के भाव वे भी कर सके। वो कौन हैं क्या पता? कोई मेरे वैरी हुए तो? अरे मोक्षमार्ग में कोई वैरी नहीं होता सब साथी हैं सब साथ हैं क्या समझे? सम्यक दृष्टि के भाव होना चाहिए यदि ये नहीं होता तो उसकी विशालता में अभी बहुत कमी है। जैसे विद्यार्थी कई हो सकते हैं, वे अपने को ही देख सकते लेकिन क्लास टीचर तो एक ही है ना, उनको तो पूरी-पूरी क्लास की ओर देखना चाहिए। क्लास यानि समूह है तो आप समूह को संबोधित करने जा रहे हो तो पूरे को ही संबोधित करो, लेकिन जो मोड़ पर हैं उनको पहले ले लो। संकीर्ण बुद्धि मोक्षमार्ग में किसी काम की नहीं। जो काम की नहीं उसे फेंक दो। मोह का इतना जबर्दस्त प्रभाव है कि मोक्ष जाने वालो को भी गाफिल बना देता है। उन्मार्ग पर चल रही है परिस्थति-मोह। सन्मार्ग पर चल रही है परिस्थति–निर्मोह। पंचमकाल में सही रास्ता बताने वाले जुगनू की तरह होते हैं। सही पुष्टि संतुष्टि तो उसे ही होती है जो आत्मा को मोक्षमार्ग में लगाता है। मोक्षमार्ग में हमेशा-हमेशा उत्साह युक्त होना चाहिए। वीतराग मार्ग है उसकी प्रभावना में हमेशा-हमेशा तैयार रहना उसमें प्रमाद नहीं करना। एक माँ जिस प्रकार २४ घंटे परिवार की रक्षा में तैयार रहती है उसी प्रकार सम्यक दृष्टि भी अपने रत्नत्रय के माध्यम से २४ घंटा उत्साही रहे तैयार रहे। अपने मन की चंचलता को ठण्डे बस्ते में रखना ही मोक्षमार्ग है मन को वश में रखने वाला पुरुषार्थी होता है। दूसरे को दोष देना नहीं। यह हमारे कर्म का उदय है यह नहीं सोचेंगे तो मोक्षमार्गी नहीं बन सकते। हमारे कर्म का उदय है ऐसा सोचने वाला मुमुक्षु है।
  5. कोहुप्पत्तिस्स पुणो बहिरंग जदि हवेदि सक्खादं। ण कुणदि किंचिवि कोहो तस्स खमा होदि धम्मोति॥ (बारसाणुवेक्खा ७१) क्रोध के उत्पन्न होने के साक्षात् बाहरी कारण मिलने पर भी थोड़ा भी क्रोध नहीं करता, उसे क्षमा धर्म होता है। अभी कार्तिकेयानुप्रेक्षा का स्वाध्याय चल रहा है, उसमें एक गाथा आती है | धम्मो वत्थुसहावो,खमादिभावो स दसविहो धम्मो। रयणात्तयं च धम्मो, जीवाणां रक्खणं धम्मो॥ अर्थात् वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। दस प्रकार के क्षमादि भावों को धर्म कहते हैं। रत्नत्रय को धर्म कहते हैं और जीवों की रक्षा करने को धर्म कहते हैं। यहाँ आचार्य महाराज ने धर्म के विविध स्वरूपों को बताया है। वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है और यह भलीभाँति ज्ञात है कि वस्तु की अपेक्षा देखा जाए तो जीव भी वस्तु है। पुद्गल भी वस्तु है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल भी वस्तु है। सभी का अपना-अपना स्वभाव ही उनका धर्म है। अधर्म द्रव्य का भी कोई न कोई धर्म है। (हँसी) तो आज हम कौन से धर्म का पालन करें, कि जिसके द्वारा कम से कम दस दिन के लिए हमारा कल्याण हो। तब आचार्य कहते हैं कि स्वभाव तो हमेशा धर्म रहेगा ही, लेकिन इस स्वभाव की प्राप्ति के लिए जो किया जाने वाला धर्म है वह है- 'खमादिभावो या दसविहो धम्मो'- क्षमादि भाव रूप दस प्रकार का धर्म वह आज से प्रारम्भ होने जा रहा है। ध्यान रखना आप लोगों की अपेक्षा, विशेष अनुष्ठान की दृष्टि से आज से प्रारम्भ हुआ माना जा रहा है, साधुओं के तो वह हमेशा ही है। यह दस प्रकार का धर्म रत्नत्रय के धारी मुनिराज ही पालन करते हैं। इसलिए गाथा में आगे कहा गया कि ‘रयणतयं च धम्मो'- रत्नत्रय भी धर्म है। सम्यकदर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप आत्मा की जो परिणति है उसका नाम भी धर्म है। लेकिन इतना कहकर ही बात पूरी नहीं की। इस रत्नत्रय की सुरक्षा किस तरह, किस माध्यम से होगी, यह भी बताना आवश्यक है। इसलिए कहा कि 'जीवाण रक्खण धम्मो'- जीवों की रक्षा करना धर्म है। जीव का परम धर्म यही अहिंसा है। जो उसे अपने आत्मस्वभाव-रूप धर्म तक पहुँचायेगा। इस अहिंसा धर्म के बिना कोई भी जीवात्मा अपने आत्म-स्वरूप की उपलब्ध नहीं कर सकता। इस अहिंसा धर्म की व्याख्या आचार्यों ने विभिन्न प्रकार से की है। जो अहिंसा से विमुख हो जाता है उसके भीतर क्षोभ उत्पन्न होता है। जैसे कोई सरोवर शान्त हो और उसमें एक छोटा सा भी कंकर फेंक दिया जाये तो कंकर गिरते ही पानी में लहरें उत्पन्न होने लगती हैं। क्षोभ पैदा हो जाता है, सारा सरोवर क्षुब्ध हो जाता है और अगर कंकर फेंकने का सिलसिला अक्षुण्ण बना रहे तो एक बार भी वह सरोवर शान्त, स्वच्छ और उज्ज्वल रूप में देखने को नहीं मिल पाता। अनेक प्रकार की मलिनताओं में उसका शान्त स्वरूप खो जाता है। क्षोभ भी एक प्रकार की मलिनता ही है। मोहराग-द्वेष रूप भाव भी एक मलिनता है। जैसे सरोवर का धर्म शान्त और निर्मल रहना है, लहरदार होना नहीं है, ऐसा ही आत्मा का स्वभाव समता परिणाम है जो लहर रूपी क्षोभ और मोह रूपी मलिनता से रहित है, जो निष्कम्प और निर्मल है। सरोवर में कंकर फेंकने के उपरान्त उसमें हम जब जाकर देखेंगे तो अपना मुख देखने में नहीं आयेगा और न ही सरोवर के भीतर पड़ी निधि/वस्तु का अवलोकन कर सकेंगे। मान लीजिये सरोवर शान्त है तथा कंकर भी नहीं फेंका गया किन्तु कीचड़ उसमें बहुत है तो भी उस सरोवर के जल में मुख दिखने में नहीं आयेगा। आज मुझे यही कहना है आप लोगों से कि ऐसे ही हमारी आत्मा का सरोवर जब तक शान्त और मलिनता से रहित नहीं होगा तब तक हमें अपना उज्ज्वल स्वरूप दिखाई नहीं देगा। क्रोध के अभाव में ही क्षमा धर्म जीवन में प्रकट होगा। एक बार यदि यह क्षमा धर्म अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाये और आत्मा से क्रोधादि कषायों का सर्वथा अभाव हो जाए तो लोक में होने वाला कोई भी विप्लव उसे प्रभावित नहीं कर सकता, उसे स्वभाव से च्युत नहीं कर सकता, नीचे नहीं गिरा सकता। 'काले कल्पशतैपि च गते शिवानां न विक्रिया लक्ष्या' अर्थात् सैकडों कल्पकाल भी बीत जायें तो भी सिद्धत्व की प्राप्ति के उपरान्त किसी भी तरह की विकृति आना सम्भव नहीं है। सरोवर का जल स्वच्छ होकर बर्फ बनकर जम जाये, उसमें सघनता आ जाये तो कंकर के फेंकने से कोई क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकता, ऐसा ही आत्मा के स्वभाव के बारे में समझना चाहिए। हमें आत्मा की शक्ति को पहचानकर उसे ऐसा ही सघन बनाना चाहिए कि क्षोभ उत्पन्न न हो सके। आत्मा को ज्ञान-घन रूप कहा गया है। हमारा ज्ञान, घन-रूप हो जाना चाहिए। अभी वह पिघला हुआ होने से छोटी-छोटी-सी बातों को लेकर भी क्षुब्ध हो जाता है। हमारे अंदर छोटी सी बात भी क्रोधकषाय उत्पन्न कर देती है और हम क्षमा धर्म से विमुख हो जाते हैं। अनन्त काल हो गया तब से हम इस क्रोध का साथ देते जा रहे हैं। क्षमा धर्म का साथ हमने कभी ग्रहण नहीं किया। एक बार ऐसा करो जैसा कि पाण्डवों ने किया था। पाण्डव जब तक महलों में पाण्डव के रूप में रहे तब तक कौरवों को देखकर मन में विचार आ जाता था कि ये भाई होकर भी हमारे साथ वैरी जैसा व्यवहार करते हैं अत: इनसे हमें युद्ध करना ही होगा। इन्हें धर्म-युद्ध के माध्यम से मार्ग पर लाना होगा। इस तरह कई प्रकार की बातें चलती थीं, संघर्ष चलता था। किन्तु जब वे ही पाण्डव गृहत्याग कर निरीह होकर ध्यान में बैठ गये तो यह विचार आया कि 'जीवाणां रक्खण धम्मो' जीवों की रक्षा करना, उनके प्रति क्षमा भाव धारण करना ही हमारा धर्म है। कौरव भी जीव हैं, अब उनके प्रति क्षमा भाव धारण करना ही हमारा कर्तव्य है। इसी क्षमा धर्म का पालन करते हुए जब उन पर उपसर्ग आया तो लोहे के गरम-गरम आभूषण पहनाने पर भी वे शान्त रहे, क्षुब्ध नहीं हुए, न ही मन में शरीर के प्रति राग-भाव आने दिया और न ही उपसर्ग करने वालों के प्रति द्वेष भाव को आने दिया। तप से तो तप ही रहे थे, ऊपर से तपे हुए आभूषण पहनाये जाने पर और अधिक तपने लगे। क्षमा-धर्म के साथ किये गये इस तप के द्वारा कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा होने लगी। जैसे प्रोषधोपवास या पर्व के दिनों में आप लोग उपवास करते हैं या एकाशन करते हैं और भीषण गर्मी ज्येष्ठ मास की कड़ी धूप पड़ जाये तो कैसा लगता है? दोहरी तपन हो गयी। पर व्रत का संकल्प पहले से होने के कारण परीषह सहते हैं। ऐसे ही पाण्डव भी लोहे के आभूषण पहनाये जाने पर भी शान्त भाव से परीषह-जय में लगे रहे। कौरवों पर क्रोध नहीं आया क्योंकि जीवन में क्षमा-धर्म आ गया था।'जीवाण रक्खण धम्मो"यह मन्त्र भीतर ही भीतर चल रहा था। वे सोच रहे थे कि अब तो कोई भी जीव आकर हमारे लिए कुछ भी करे- उपसर्ग करे, शरीर को जला भी दे तो भी हम अपने मन में उसके प्रति हिंसा का भाव नहीं लायेंगे, क्रोध नहीं करेंगे और विरोध भी नहीं करेंगे। अब चाहे कोई प्रशंसा करने आये तो उसमें राजी भी नहीं होंगे और न ही किसी से नाराज होंगे क्योंकि अब हम महाराज हो गये हैं। महाराज हैं तो नाराज नहीं और नाराज हैं तो महाराज नहीं। लेकिन बात ऐसी है ध्यान रखना कि कभी-कभी लोगों के मन में बात आ जाती है कि महाराज जी तो नाराज हैं और आहार देते समय कह भी देते हैं कि महाराज तो हमसे आहार ही नहीं लेते, नाराज हैं। हमारी तरफ देखते तक नहीं हैं। अब उस समय हम कुछ जवाब तो दे नहीं सकते और ऐसा कहने वाले बाद में सामने आते भी नहीं हैं। कभी आ जायें तो हम फौरन कह देते हैं कि भइया, हम नाराज नहीं हुए और अगर आपकी दृष्टि में राजी नहीं होने का नाम ही नाराज होना कहलाता है तो आप अपनी जानी। आप तो इसी में राजी होंगे कि महाराज आप हमारे यहाँ रोज आओ। संसारी प्राणी राग को बहुत अच्छा मानता है और द्वेष को अच्छा नहीं मानता। लेकिन देखा जाये तो द्वेष पहले छूट जाता है फिर बाद में राग का अभाव होता है। दसवें गुणस्थान तक सूक्ष्म लोभ चलता है। मुनि महाराज तो प्रशंसा में राजी नहीं होते और न ही निन्दा से नाराज होते हैं, अपितु वे तो दोनों दशा में साम्य रखते हैं। राग और द्वेष दोनों में साम्य भाव रखना ही अहिंसा धर्म हैं, क्षमा धर्म है। रागादीणमणुप्पा अहसगत्तं ति देसिदं समये। तेस चे उप्पत्ती हसेति जिणहि णिद्दिट्टा॥ यह आचार्यों की वाणी है। रागद्वेष की उत्पत्ति होना हिंसा है और रागद्वेष का अभाव ही अहिंसा है। जीवत्व के ऊपर सच्चा श्रद्धान तो तभी कहलायेगा जब अपने स्वभाव के विपरीत हम परिणमन न करें अर्थात् रागद्वेष से मुक्त हों। क्रोधादि कषायों के आ जाने पर जीव का शुद्ध स्वभाव अनुभव में नहीं आता। संसारी दशा में स्वभाव का विलोम परिणमन हो जाता है। यही तो वैभाविक परिणति है, जो संसार में भटकाती है। पाँचों पाण्डव ध्यान में लीन थे। सिद्ध परमेष्ठी के ध्यान में लीन थे। शरीर में रहकर शरीरातीत आत्मा का अनुभव कर रहे थे। वास्तव में यही तो उनकी अग्नि परीक्षा की घड़ी थी। जह कणायमग्गितवियं पि कणयसहावं ण तं परिच्चयदि । तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णणी दु णाणिक्तं॥ (समयसार - १९१ ) जिस प्रकार स्वर्ण को तपा दिये जाने पर भी स्वर्ण अपनी स्वर्णता को नहीं छोड़ता बल्कि जितना आप तपाओगे उतनी ही कीमत बढ़ती जायेगी, उतने ही उसके गुणधर्म उभरकर सामने आयेंगे। स्वर्ण को जितना आप कसौटी पर कसोगे उतना ही उसमें निखार आयेगा, उसकी सही परख होगी। आचार्यों ने उदाहरण दिया है कि जिस प्रकार अग्नि में तपाये जाने पर स्वर्ण, स्वर्णपने को नहीं छोड़ता उसी प्रकार ज्ञानी भी उपसर्ग और परीषह के द्वारा खूब तपा दिये जाने पर भी अपने ज्ञानीपने को नहीं छोड़ता, 'पाण्डवादिवत्।' यानि पाण्डवों के समान। पाण्डवों का उदाहरण दिया, सौ कौरवों के साथ युद्ध करते समय के पाण्डवों का या राज्य सुख भोगते हुए पाण्डवों का उदाहरण नहीं दिया। बल्कि उन पाण्डवों का उदाहरण दिया जो राजपाट छोड़कर वीतरागी होकर ध्यान में लीन हैं और उपसर्ग आने पर भी 'जीवाणां रक्खण धम्मो, रयणतयं च धम्मो'- जीवों की रक्षा की धर्म मानकर, रत्नत्रय को धर्म मानकर उसी की सुरक्षा में लगे हुए हैं। वे क्षमाभाव धारण करते हुए विचार कर रहे हैं कि जानना-देखना ही हमारा स्वभाव है। जो कोई इस आत्मा के स्वभाव को नहीं जानता और अज्ञानी होता हुआ यदि बाधा उत्पन्न करता है, तो वह भी दया और क्षमा का पात्र है। कोई यदि स्वर्ण की वास्तविकता के बारे में संदेह कर रहा हो तो यही उपाय है कि उसको तपाकर दिखा दिया जाए या कसौटी के पाषाण पर कस दिया जाए ताकि विश्वास प्रादुभूत हो जाए। पाण्डव ऐसी ही अग्नि परीक्षा दे रहे थे। आप भी यदि दूसरे के अंदर स्वभाव के प्रति श्रद्धान पैदा कराना चाहते हैं या स्वयं के ज्ञानीपने की परीक्षा करना चाहते हैं तो आपको भी ऐसी अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ेगा। अपने जीवत्व की रक्षा के लिए सभी जीवों की रक्षा का संकल्प पहले करना होगा। तुलसी दया न छोड़िये, जबलों घट में प्राण-जब तक घट में अर्थात् शरीर में प्राण हैं तब तक हम जीव दया अर्थात् जीवों की रक्षा करने रूप धर्म को नहीं छोड़ेंगे, ऐसा संकल्प होना चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने बोधपाहुड में कहा है कि 'धम्मो दया विसुद्धो।' धर्म, दया करके विशुद्ध होता है। इस दया-धर्म के अभाव में मात्र धर्म की चर्चा करने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि रत्नत्रय में निष्ठा के बिना नहीं होती और रत्नत्रय में निष्ठा दया धर्म के माध्यम से, क्षमादि धर्मों के माध्यम से ही जानी जाती है। जहाँ रत्नत्रय के प्रति निष्ठा होगी वहाँ नियम से क्षमादि धर्म उत्पन्न होंगे। तभी आत्मा के शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति होगी। दस प्राणों से अतीत (मुक्त) आत्मा ही अपनी वास्तविक ज्ञान-चेतना का अनुभव करती है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि- सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्जजुदं। पाणित्तमदिक्कंता ।णाणं विंदंति ते जीवा। सभी स्थावर जीव शुभाशुभ कर्मफल के अनुभवन रूप कर्मफल चेतना का अनुभव करते हैं किन्तु त्रस-जीव उसी कर्मफल के अनुभव में विशेष रागद्वेष रूप कर्मचेतना का भी अनुभव करते हैं। यह कर्मचेतना तेरहवें गुणस्थान तक चलती है क्योंकि रागद्वेष का अभाव होने के बावजूद भी वहाँ अभी योग की प्रणाली चल रही है, कर्मों का सम्पादन हो रहा है। भले ही एक समय के लिए हो लेकिन कर्मबंध चल ही रहा है। चौदहवें गुणस्थान में यद्यपि अभी स्वभाव की पूर्णत: अभिव्यक्ति अर्थात् गुणस्थानातीत दशा की प्राप्ति नहीं हुई है तथापि तेरहवें गुणस्थान की अपेक्षा वह श्रेष्ठ है। वहाँ योग के अभाव में कर्म का सम्पादन नहीं हो रहा अपितु मात्र कर्मफल की अनुभूति अभी शेष है। इसके उपरान्त दस प्रकार के द्रव्य प्राणों से रहित सिद्ध भगवान् ही शुद्ध ज्ञान चेतना का अनुभव करते हैं। ऐसे सिद्ध भगवान् के स्वरूप के समान हमारा भी स्वरूप है। 'शुद्धोऽहं, बुद्धोऽहं, निरज्जनोऽहं, निर्विकार स्वरूपोऽहं' आदि-आदि भावों के साथ पर्यायबुद्धि को छोड़कर पाण्डव ध्यान में लीन हैं। लेकिन प्रत्येक की क्षमता एक सी नहीं होती। क्षमा-भाव सभी धारण किये हैं, पर देखो कैसा सूक्ष्म धर्म है कि अपने बारे में नहीं, अपने से बड़े भाईयों के बारे में जरा सा विचार आया कि मुक्ति में बाधा आ गयी। वे नकुल और सहदेव सोचने लगे कि 'हम तो अभी युवा हैं, यह परीषह सह लेंगे। लेकिन बड़े भाई तो वृद्ध होने को हैं, वे कैसे सहन कर पायेंगे। अरे! कौरवों ने अभी भी वैर नहीं छोड़ा' -ऐसा मन में विकल्प आ गया। कोई विरोध नहीं किया, मात्र विचार आया। क्षमा धर्म में थोड़ी कमी आ गयी और उस विकल्प का परिणाम ये हुआ कि उन्हें सर्वार्थसिद्धि की आयु बँध गयी, मुक्ति पद नहीं मिल पाया। मान लीजिये, कोई अरबपति बनना चाहता है तो कब कहलायेगा वह अरबपति? तभी कहलायेगा जब उसके पास पूरे अरब रुपये हों। लेकिन ध्यान रखना यदि एक रुपया भी कम है तो भी अरबपति होने में कमी मानी जायेगी। एक पैसे की कमी भी कमी ही कहलायेगी। यही स्थिति उन अंतिम पाण्डवों की हुई। 'जीवाण रक्खण धम्मो' जीवों की रक्षा तो की लेकिन अपने आत्म परिणामों की संभाल पूरी तरह नहीं कर पाये। शेष तीन पाण्डव निर्विकल्प समाधि में लीन होकर अभेद रत्नत्रय को प्राप्त करके साक्षात् मुक्ति को प्राप्त करने में सफल हुए। भइया! क्रोध पर विजय पाने के लिए ऐसा ही प्रयास हमें भी करना चाहिए। आज तो सर्वार्थसिद्धि भी नहीं जा सकते, तो कम से कम सोलह स्वर्ग तक तो जा ही सकते हैं। सोलहवें स्वर्ग तक जाने के लिए सम्यकदर्शन सहित श्रावक के योग्य अणुव्रत तो धारण करना ही चाहिए। आप श्रावक हैं तो इतनी क्षमा का अनुपालन तो कर ही सकते हैं कि कोई भी प्रतिकूल प्रसंग आ जाये तो भी हम क्रोधित नहीं होंगे। क्षमाभाव धारण करेंगे। रत्नत्रय हमारी सहज शोभा है और क्षमादि धर्म हमारे अलंकार हैं, इसी के माध्यम से हमारा जीवत्व निखरेगा। अनन्तकाल से जो जीवन संसार में बिखरा पड़ा है, उस बिखराव के साथ जीना, वास्तविक जीना नहीं है। अपने भावों की सम्भाल करते हुए जीना ही जीवन की सार्थकता है। किसी कवि ने लिखा है कि "असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। और मृत्यो र्मा अमृतोगमय।" जो असत् है या जो सत्य नहीं है, जो झूठ है, जो अपना नहीं है, जो सपना है, उससे मेरी बुद्धि हट जाये। मैं मोह की वजह से उस असत् को सत् मान रहा हूँ और अपने वास्तविक सत् स्वरूप को विस्मृत कर रहा हूँ। हे भगवन्! मुझे अज्ञान के अंधकार से बचा लें और जल्दी-जल्दी केवल ज्ञान रूप ज्योतिपुञ्ज तक पहुँचा दें। मेरा अज्ञानरूपी अंधकार मिट जाये और मैं केवलज्ञान में लीन हो जाऊँ। हे भगवन्! यह जन्म, यह जरा, यह मृत्यु और मेरे कषाय भाव- यही हमारे वास्तविक जीवन की मृत्यु के कारण हैं। अमृत वहीं है जहाँ मृत्यु नहीं है। अमृत वहीं है जहाँ क्षुधा-तृषा की वेदना नहीं है। अमृत वहीं है जहाँ क्रोध रूपी विष नहीं है। इस तरह हम निरन्तर अपने भावों की सम्भाल करें। रत्नत्रय धर्म, क्षमा धर्म या कहो अहिंसा धर्म यही हमें अमृतमय हैं। क्षमा हमारा स्वाभाविक धर्म है। क्रोध तो विभाव है। उस विभाव-भाव से बचने के लिए स्वभाव भाव की ओर रुचि जागृत करें। जो व्यक्ति प्रतिदिन धीरे-धीरे अपने भीतर क्षमा-भाव धारण करने का प्रयास करता है उसी का जीवन अमृतमय है। हम भगवान् से यही प्रार्थना करते हैं कि हे भगवन्! क्षमा धर्म के माध्यम से हम सभी का पूरा का पूरा कल्याण हो। जीवन की सार्थकता इसी में है।
  6. यदि धर्म का सेवन हम विषयों का विमोचन किये बिना करेंगे तो स्वाद नहीं आयेगा, शान्ति और तृप्ति नहीं मिलेगी। कम से कम धर्म को अंगीकार करने से पहले विषयों के प्रति रागभाव तो गौण होना ही चाहिए। उनके प्रति आसक्ति तो कम करनी ही चाहिए। कल पर्वराज आ रहा है और आत्मा के धर्म अर्थात् स्वभाव के बारे में वह हमसे कुछ कहेगा। दस दिनों में आप तरह-तरह से आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति के लिये प्रयास करेंगे। कोई बार-बार भोजन की आकांक्षा छोड़कर एक बार भोजन करेगा। कोई एकाशन करने वाला कभी-कभी उपवास करने का अभ्यास करेगा और किसी दिन जो जोड़ रखा है उसे छोड़ने का भाव लायेगा। कोई भी कार्य किया जाता है तो भूमिका बनाना आवश्यक होता है। नींव यदि कमजोर है तो उसके ऊपर महाप्रासाद निर्मित करना सम्भव नहीं होता। इसी प्रकार आगामी दस दिनों में आप जो भी अपने आत्म-विकास के लिये करना चाहें, उसकी आज से ही भूमिका मजबूत कर लेनी चाहिए। एक रोगी व्यक्ति वैद्य के पास गया कि कुछ इलाज बताइये ताकि कमजोरी दूर हो और शान्ति मिले। तब वैद्य जी ने रोग का निदान करके औषधियाँ बना दीं और कह दिया कि इन सभी का हलुवा बनाकर सेवन करना। कुछ दिनों के उपरान्त इसके सेवन से शक्ति और शान्ति मिल जायेगी। सभी चीजों का अनुपात और बनाने की विधि भी बता दी। उस व्यक्ति ने ठीक वैसा ही किया लेकिन उससे वह पौष्टिकता देने वाला हलुवा ठीक से खाया नहीं गया। दो-तीन दिन तक प्रयास करने के उपरान्त जब उससे वह हलुवा नहीं खाया गया तो वह वैद्य जी के पास पहुँचा और कहा कि रोग में कोई लाभ नहीं हुआ। वह हलुवा जैसे तैसे खाया तो, लेकिन ठीक-ठाक खाया नहीं गया। आपने जैसा बताया था, वैसा ही किया। उसमें किसी बात की कमी नहीं रखी लेकिन उसके सेवन के उपरान्त मुझे जरा भी सुख, शान्ति या तृप्ति नहीं मिली। जैसा आस्वादन मिलना चाहिए वह भी नहीं मिला। वैद्य जी ने कहा यह सम्भव ही नहीं है। बताओ क्या क्या मिलाया था? सभी चीजें मंगाई गयीं। कहीं कोई कमी नहीं थी। सभी चीजें नपी-तुली थीं, अनुपात भी ठीक था, बनाने की विधि भी ठीक थी पर केशर की डिब्बी जब वैद्य जी ने उठाई तो समझ गये कि बात क्या है। पूछा कि यही केशर डाली थी। उस व्यक्ति ने कहा कि हाँ यही डाली थी। केशर तो असली है, उसमें गड़बड़ कैसे हो सकती है? वैद्य जी मुस्कराये कहा कि केशर तो असली है पर केशर रखने की डिबिया में पहले क्या था? तो मालूम पड़ा कि डिबिया में पहले हींग रखी थी। उस हींग के संस्कार के कारण पूरा का पूरा हलुवा बेस्वाद हो गया। यही गलती हो गयी। इसलिए शान्ति नहीं मिली और तृप्ति भी नहीं मिली। बात आपके समझ में आ गई होगी। यदि धर्म का सेवन हम विषयों का विमोचन किये बिना करेंगे तो स्वाद नहीं आयेगा, शान्ति और तृप्ति नहीं मिलेगी। कम से कम धर्म को अंगीकार करने से पहले विषयों के प्रति रागभाव तो गौण होना ही चाहिए। हमारा धर्म महान् है जिसमें भगवान् आदिनाथ से लेकर महावीर स्वामी पर्यन्त चौबीस तीर्थकर हुए। भरत जैसे चक्रवर्ती और बाहुबली जैसे कामदेव हुए। बाहुबली भगवान् का कोई चिह्न भले ही नहीं है लेकिन उनकी तपस्या से हर कोई उन्हें पहचान लेता है। वे तप की मूर्ति हैं। त्याग की मूर्ति हैं। वे संयम की मूर्ति हैं। विदेशी पर्यटक भी श्रवणबेलगोल (हासन-कर्नाटक) में जाकर गोम्मटेश बाहुबली स्वामी की मूर्ति देखकर ताज्जुब करते हैं कि यह कैसी विशाल, भव्य और मनोज्ञ प्रतिमा है, जो बिना बोले ही शान्ति का उपदेश दे रही है। हमें कहने की आवश्यकता न पड़े और हमारा जीवन स्वयं ही उपदेश देने लगे, यही हमारा धर्म है। यही धर्म का माहात्म्य भी है। विषय भोगों में उलझते रहने की वजह से ही हमारे उपयोग की धारा आज तक भटकती आ रही है। बँटती चली आ रही है और सागर तक नहीं पहुँच पाती, मरुभूमि में ही विलीन हो रही है। पञ्चेन्द्रिय के विषयों के बीच आसक्त रहकर आज तक किसी को धर्मामृत की प्यास नहीं जगी। आज तक आत्मा का दर्शन नहीं हुआ। दशलक्षण धर्म के माध्यम से हमें दुनियाँ की और कोई वस्तु प्राप्त नहीं करना है किन्तु जो पञ्चेन्द्रिय के विषय हैं, उनको छोड़ते जाना है। जिस रुचि के साथ ग्रहण किया है उसी के अनुरूप उसका विमोचन करना भी आवश्यक है। जिस प्रकार कचरे को व्यर्थ मानकर फेंक देते हैं उसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय के विषयों को व्यर्थ मानकर उनका त्याग करना होगा। उनके प्रति आसक्ति कम करना होगी। धर्म की व्याख्या तो आप कल से सुनेंगे, लेकिन आज कम से कम धर्म की केशर की सुगन्ध लेने से पहले अपनी डिब्बी का पुराना संस्कार अवश्य हटा दें। तो बात यह है कि वीतराग-धर्म सुनने से पूर्व उसके योग्य पात्रता बनाना भी आवश्यक है। जैसे सिंहनी का दूध स्वर्ण पात्र में ही रुकता है उसी प्रकार वीतराग धर्म का श्रवण करके उसे धारण करने की क्षमता भी सभी में नहीं होती। उसके लिये भावों की भूमि में थोड़ा भीगापन होना चाहिए तथा आद्रता होनी चाहिए, जिससे वीतरागता के प्रति आस्था और उत्साह जागृत हो सके। चारों ओर भोगोपभोग की सामग्री होते हुए भी इस काया के द्वारा उस माया को गौण करके भीतरी आत्मा को पहचानने और शरीर से पृथक् अवलोकन करने के लिये दश-लक्षण धर्म को सुनना मात्र ही पर्याप्त नहीं है, उसे प्राप्त करना भी अनिवार्य है। जीवन का एक-एक क्षण उत्तम-क्षमा के साथ निकले। एक-एक क्षण मार्दव के साथ, विनय के साथ निकले। एक-एक श्वाँस हमारी वक्रता के अभाव में चले। ऋजुता और शुचिता के साथ चले। पूरा जीवन ही दश-धर्म मय हो जाये। दश धर्म की व्याख्या तो कोई भी सुना सकता है, लेकिन धर्म का वास्तविक दर्शन और अनुभव तो दिगम्बर वेश में ही सम्भव है। उसके प्रतिफल रूप मुक्ति भी इसी दिगम्बरत्व के साथ सम्भव है। जो व्यक्ति दश धर्म के श्रवण और दर्शन के माध्यम से एक समय के लिये भी जीवन में धर्म के प्रति संकल्पित होता है, उत्तम क्षमा धारण करने का भाव जागृत करता है, मैं समझता हूँ उसका यह भाव ही उसके लिए भूमिका का काम करेगा। एक बार गुरु और शिष्य यात्रा के लिये निकले। छोटी सी कथा पढ़ी थी। आप लोगों को याद हो तो ठीक है अन्यथा पुन: याद ताजा कर लें। कैसा है संगी साथी का प्रभाव? गुरु और शिष्य दोनों चले जा रहे थे। चलते-चलते शाम हो गई। सामायिक ध्यान का काल हो गया। एक पेड़ के नीचे बैठ गये। आगे भयानक जंगल था। वह ध्यान में बैठे ही थे कि शिष्य की दृष्टि जंगल की ओर से आते हुए सिंह पर पड़ी। शिष्य घबरा गया कि अब बचना सम्भव नहीं है। गुरु जी को पुकारा पर गुरु जी तो भगवान् के ध्यान में तल्लीन थे। शिष्य चुपचाप उठा और धीरे से पेड़ पर चढ़कर ऊँचाई पर बैठ गया। वहीं से बैठे-बैठे उसने देखा कि सिंह गुरु जी के पास आया और सूंघ कर परिक्रमा लगाकर सब ओर से देखकर लौट गया। शिष्य तो थर-थर कांपने लगा कि पता नहीं क्या होने वाला है। जब सिंह चला गया तब दीर्घ श्वाँस लेकर वह नीचे उतरा और गुरु जी के चरणों में प्रणाम करके बैठ गया। थोडी देर बाद जब गुरु जी ध्यान से बाहर आये और कहा कि चलो तब शिष्य को बड़ा आश्चर्य हुआ। शिष्य ने कहा कि गुरुजी आज तो बड़ा भाग्योदय था। बच गये। एक सिंह आया था और बिल्कुल आपके पास तक आया था। आपको सुंघा भी था। क्या आपको मालूम नहीं है? गुरुजी ने कहा कि नहीं मुझे नहीं मालूम। अब तो शिष्य और भी अचम्भे में पड़ा और श्रद्धा से पैरों पर गिर पड़ा कि अद्भुत है आपका धैर्य और आपकी दृढ़ता। गुरुजी ने अपनी प्रशंसा सुनकर अनसुनी कर दी और कहा कि चलो अभी और यात्रा करना है। दोनों फिर आगे यात्रा पर बढ़ गये। थोड़ी दूर चलने के उपरान्त एक घाटी में से गुजरते समय कुछ मधुमक्खियाँ आने लगीं और गुरुजी को एक-दो स्थान पर काट लिया। गुरुजी पीड़ा से कराहने लगे और वहीं बैठ गये। कहने लगे कि अब चलना सम्भव नहीं है। शिष्य बड़ी दुविधा में पड़ गया कि आखिर बात क्या है? उसने पूछ ही लिया कि गुरुजी अभी अभी तो सिंह के आ जाने पर आप बिल्कुल विचलित नहीं हुए थे और अब इतनी छोटी-सी मधुमक्खियों से विचलित हो गये। कुछ समझ में नहीं आया? गुरुजी मुस्कराये और बोले उस समय जब सिंह आया था तब मेरे साथ भगवान थे, मैं उन्हीं में लीन था। विचलित या भयभीत होने की बात ही नहीं थी लेकिन अब तो तू मेरे साथ है। भयभीत होना स्वाभाविक है। यह है संगति का असर | आज चतुर्थ काल तो है नहीं। उत्तम संहनन का भी अभाव है। क्षायिक सम्यकदर्शन भी होना सम्भव नहीं है। ऐसे विषम समय में विषयों की संगति में पड़ कर अपने स्वभाव को भूल करके कर्तव्य से च्युत होने की सम्भावना अधिक है। इसलिए समय-समय पर वर्ष भर में बीच-बीच में ऐसे पर्व रखे गये हैं, जिनसे श्रावकों के लिये तीन सौ पैंसठ दिन में कुछ दिन विषय-कषायों के सम्पर्क से बचने का और धर्म के निकट आने का अवसर मिलता है। दश-लक्षण पर्व इसीलिए महत्वपूर्ण पर्व हैं कि इनमें लगातार दस दिन तक विभिन्न प्रकार से धर्म का आचरण करके अपनी आत्मा के विकास का अवसर मिलता है, जो कि श्रावकों के लिये अनिवार्य है। मुनि महाराजों का तो जीवन ही दशलक्षण धर्ममय होता है। धर्म के प्रति संकल्पित होता है। रावण ने एक बार मुनि महाराज के मुख से धर्म श्रवण किया। उसके साथी भी साथ में थे। जब अंत में सभी ने एक-एक करके मुनि महाराज से कुछ न कुछ व्रत लिये तब चारण-ऋद्धधारी उन मुनिराज ने रावण को कहा कि हे अर्द्धचक्री रावण! तुम तो बलशाली हो। कौन सा व्रत लेते हो? ले लो। तब रावण ने कहा कि महाराज! आज मुझे अपने से बढ़कर कोई कमजोर नहीं लग रहा है। मैं आपसे अपनी कमजोरी कैसे कहूँ? एक छोटा-सा व्रत भी मेरे लिये पालन करना कठिन लगता है। इतना ही कर सकता हूँ कि जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी उसके साथ सम्बन्ध के लिये में जबरदस्ती उसे बाध्य नहीं करूंगा, यही मेरा व्रत रहा। रावण ने सोचा था कि ऐसी कोई स्त्री नहीं होगी जो उसे नहीं चाहेगी। पर आपको ज्ञात ही है कि इस एक व्रत ने भी उसे बहुत अच्छी शिक्षा दी। सीता का हरण तो कर लिया लेकिन सीता को बाध्य नहीं कर सका। उसने जीवन को थोड़ा बहुत संस्कारित तो अवश्य किया। वैसे ही हमें भी व्रतों को अंगीकार करके स्वयं को संस्कारित करना चाहिए और व्रतियों को देखकर व्रतों के प्रति आकृष्ट होना चाहिए। सभी को व्रत, नियम, संयम के प्रति प्रोत्साहित भी करना चाहिए। बन्धुओ! यदि एक बार शान्ति के साथ आप विषयों को गौण करके थोड़ा विचार करें, तो अपने आप ज्ञान होने लग जायेगा कि हमारा धर्म क्या है ? हमारा स्वभाव क्या है ? हमें विषयकषायों की संगति नहीं करनी चाहिए। वीतरागी की संगति करनी चाहिए ताकि धर्म का वास्तविक स्वरूप समझ में आ सके। आज विलासिता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। आज तीर्थ-क्षेत्रों पर भी सुख-सुविधा के प्रबन्ध किये जा रहे हैं। पर ध्यान रखना, सुख-सुविधा से राग ही पुष्ट होता है, वीतरागता नहीं आती। वीतरागता प्राप्त करने के लिए, धर्म धारण करने के लिये थोड़ा कष्ट तो सहन करने की क्षमता लाना ही चाहिए। स्वयं को संयत बनाने का भाव तो आना ही चाहिए। हिंसा से दूर रहकर अहिंसा का पालन करते हुए जो व्यक्ति इन दश धर्मों का श्रवण-चिन्तन-मनन करता है, उन्हें प्राप्त करने का भाव रखता है, वह अवश्य ही अपने जीवन में आत्म-स्वभाव का अनुभव करने की योग्यता पा लेता है और जीवन को धर्ममय बना लेता है।
  7. मान/ परिणाम विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार भावों में मलिनता का कारण शरीर के प्रति बहुत आसक्त होना ही है। अवसर्पिणी काल में युग को ढलान में ही जाना है, ह्रास की ओर ही जाना है इसलिए भावों में निर्मलता बनाये रखो। पैसा हर जगह महत्वपूर्ण नहीं है यदि भावपूर्वक भगवान् को ज्वार चढ़ाई जाती है तो वह भी किसी सेठ के मोती चढ़ाने से ज्यादा महत्वपूर्ण है। वर्तमान में हम कोई बड़ी साधना नहीं कर सकते किन्तु भावों की विशुद्धि तो रख सकते हो। अत: कहीं भी रहो धर्ममय एवं विशुद्ध भावों को तो बनाये रखो। आचार्य कहते हैं - वर्तमान में बड़ी-बड़ी साधना नहीं कर सकते कोई बात नहीं किन्तु भावों की विशुद्धि तो रख सकते हो। धर्ममय विशुद्ध भावों से कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा होती है अत: वर्तमान में इसी पुरुषार्थ को करते रहें लेकिन इसमें भी अभिमान न रखें। हमारे लिए बुरे परिणाम घातक होते हैं इसलिए हमें अपने बुरे परिणामों को सुधार लेना चाहिए। भावों के फल सरस और नीरस होते हैं। जो व्यक्ति स्वर्ग की कामना नहीं करता वह नरक से नहीं डरता, नरक भेजने वाले भावों से डरता है। जब प्रतिकूल दशा आ जाती है तो उस समय अपने भावों को सुरक्षित रखने वाला महान् साधक माना जाता है। वस्तु का नाम सुख-दु:ख नहीं है किन्तु हमारे मन में जो परिणाम है उसका नाम सुख-दु:ख है। हम तत्वज्ञान के माध्यम से इस अनंत संसार को अंतर्मुहूर्त में चुल्लू भर कर सकते हैं ऐसे परिणामों के खेल हैं लेकिन आज परिणामों के खेल कषायों के द्वारा तो हो रहे हैं लेकिन तत्वाभिमुख माध्यम से परिणामों के खेल नहीं हो पाते हैं। चेतन का उत्थान भावों की सीढ़ियों पर चढ़ने से ही ज्ञात होता है। जैसे योग्य खाद और पानी देना भी पौधे के लिए अनिवार्य है अकेले सहारे या बंधन से काम नहीं चलेगा, वैसे ही संयम के साथ शुद्ध भाव करना भी अनिवार्य है। देह सूख जाये तो सूखने दो, पर आप तो ताजा बनो, भाव निक्षेप से जैन बनो। त्याग, तपस्या, ज्ञान मद आदि के कारण छूने लायक नहीं रहते, संकरे हो जाते हैं, रत्नत्रय को इन आठ मदों से बचायें फिर उसकी सुगंध पाने सभी आवेंगे। दुर्लभ रत्नत्रय है ख्याति, लाभ, पूजादि नहीं। यदि ज्ञान ही मद का कारण बने तो फिर और कौन साधन है जो मद को मिटा सके? ज्ञान का सदुपयोग न करने से मद उत्पन्न होता है। मद विवेक का गला घोंट देता है। मद न करते हुए जीवन को व्यतीत करना महापुरुषों का, वीरों का काम है। हमें दुनिया को नहीं जीतना, अपने द्वारा पाले गये मद को जीतना है। मान के दास होना सबसे बड़ी कमजोरी है। वर्धमान ने मन को जीता है इसलिए वर्धमान नाम है। मान की भूख को छोड़ना महान् व्रत है। मदों के कारण आत्म धर्म ही समाप्त हो जाता है। जाति मद के कारण उपगृहन, वात्सल्य, निर्विचिकित्सा, स्थितिकरण सभी भाव समाप्त हो जाते हैं। जिसके पास मद आ जाता है उसका दम निकल जाता है। मद आने पर व्यक्ति झुक नहीं सकता चाहे सब कुछ लुट जावे। जब मान जागृत होता है तो क्रोध की अग्नि भड़कने में देर नहीं लगती। जो मान को जीतने का पुरुषार्थ करता है वहीं मार्दव धर्म को अपने भीतर प्रकट करने में समर्थ होता है। मान कषाय का विमोचन करके ही हम अपने सही स्वस्थ का अनुभव कर सकते हैं, साम्य भाव ला सकते हैं। जिस प्रकार टाइफाइड के उपरांत भूख खुलती है धीरे-धीरे उसी प्रकार ख्याति, पूजा, लाभ की चाह की भूख प्राय: करके सब लोगों की खुलती है। यदि ख्याति चाहते हो तो मुक्ति नहीं चाहते हो। ख्याति के द्वारा मुक्ति मिलती हो तो चाहो, अन्यथा क्यों? ये विश्वास है कि मुक्ति रत्नत्रय के द्वारा मिलती है तो ख्याति की खाई क्यों बीच में आती है? यूँ कहना चाहिए खाई बीच में रखी है तो मुक्ति उस ओर है ये निश्चित है, खाई को पार किये बिना मुक्ति नहीं मिलती। ख्याति की खाई को पूर दो, पहले फिर तो मुक्ति के द्वार पर खड़े हैं। मद हो जाता है तो अंधा हो जाता है और यदि मद नहीं है तो अंधा भी ज्ञानी हो जाता है। मान को बाँध करके रखने का जिसने प्रयत्न नहीं किया समझ लो मोक्षमार्ग में वह कभी भी आगे कदम उठा ही नहीं सकता। मान की निर्जरा माँ की बहुत अच्छी होती है नटखट बच्चों के माध्यम से इससे बढ़कर करके और कोई है ही नहीं। मानव ही महात्मा तथा महामानव बनने की पात्रता रखता है। मान मिटते ही मानव महात्मा बन जाता है। पाँचों इन्द्रियों भिन्न-भिन्न विषय हैं यह मान प्रतिष्ठा कौन-सी इन्द्रिय का विषय है? खुराक है? एक मात्र मन ही इसकी भूख रखता है। सबसे ज्यादा अनर्थ होते हैं, तो मान-प्रतिष्ठा के कारण होते हैं। इसी के कारण आज बड़े बड़े राष्ट्रों के बीच में संघर्ष छिड़ा हुआ है। दीन दरिद्र को देखने से अपना मान कम हो सकता है और स्वभाव की ओर देख लें तो मान समाप्त ही हो सकता है हो जाता है। मान प्रतिष्ठा के कारण हमने बहुत सारे गुणों का अनादर किया। मानी व्यक्ति के सामने सब कुछ डूब जाता है। जब मान खड़ा हो जाता है, तब यह महान् अनर्थ का कार्य भी कर सकता है। महाभारत कब हुआ और क्यों हुआ? इसकी जड़ क्या है? क्या खाने के लिए नहीं था या रहने के लिए जगह नहीं थी? केवल मान ही इसका कारण था। मानी व्यक्ति अपनी पत्नि, अपनी प्रजा, अपने भ्राता को छोड़ सकता है लेकिन अपने मान को नहीं छोड़ सकता। जैसे रावण ने नहीं छोड़ा। नरक जाना मंजूर है, लेकिन मान को कभी भी, किसी के सामने बेचेंगा नहीं। यही क्षत्रियता के लिए कलंक है। मान के कारण मोक्षमार्ग में दूषण लगते हैं। यदि आप मान की प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहते हो, तो मान कषाय की प्रतिष्ठा मत बढ़ाओ। प्रमाण की प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहिए। मान एक ऐसी गर्मी है, जिसके द्वारा ठंड के दिनों में भी पसीना आ जाता है। जब तक यह गर्मी रहेगी, तब तक तो अंदर हीटर जल रहा है। जब तक मान के शिखर से उतरेगा नहीं, तब तक उन पर ठण्ड की कोई अनुगति नहीं, न चादर की, न कमरे की, न चटाई की, किसी की भी आवश्यकता नहीं। मान के कारण ठंड में भी बाहर बैठ जाता है क्योंकि हमें बुलाया नहीं गया।
  8. मन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार यह मन दूसरे का स्वामी बनना चाहता है तो इस मन के कान पकड़ लेना चाहिए। स्वामी बनना है तो अपने स्वामी बनो इस प्रकार कह करके मन को समझा देना चाहिए। सबसे ज्यादा खराब यह मन है। इस मन के कारण ही इन्द्रियाँ विषयों की ओर चली जाती हैं। लेकिन ये मन कभी नहीं पिटता है इन्द्रियाँ पिट जाती हैं। मन सबका नियन्ता है। इस मन को नियंत्रण में रख लो तो सारी इंद्रियों को नियंत्रण में रख सकता है। इस मन को वश में रखने के लिए अंधे बन जाओ बहरे बन जाओ, गूंगे बन जाओ, बस इस प्रकार जो करना जानता है वो व्यक्ति साधना कर जाता है। धर्मध्यान सरल है तो बहुत कठिन भी है। ये सब मानसिकता का खेल है। जो मन को जीत लेता है तो वो ४ प्रकार के धर्मध्यान, चार शुक्ल ध्यान को ही करता है। जिसने मन को जीत लिया उसका हर समय धर्मध्यानमय रहता है। मन अपने निर्णय से दूसरे को समझाने का सदा प्रयास करता है लेकिन मोक्षमार्ग में पहले अपने आपको समझाना चाहिए फिर दूसरे को समझाना चाहिए। मन अनुकूलता पसंद करता है प्रतिकूलता नहीं। अपने मन को वश में करने वाले ही महात्मा माने गये हैं। मन को वश में करने का अर्थ मन को दबाना नहीं है, बल्कि मन को समझाना है। मन को समझाना, उसे प्रशिक्षित करना, तत्व के वास्तिविक स्वरूप की ओर जाना ही वास्तव में, मन को अपने वश में करना है। जिसका मन संवेग और वैराग्य से भरा है वही इस संसार से पार हो सकता है। जैसे घोड़े पर लगाम हो तो वह सीधा अपने गन्तव्य पर पहुँच जाता है। ऐसे ही मन पर यदि वैराग्य की लगाम हो तो वह सीधा अपने गन्तव्य मोक्ष तक ले जाने में सहायक होता है। जो मन पर लगाम लगाने का आत्म पुरुषार्थ करता है वही संयमी हो पाता है और वही कर्म के उदय को, उसके आवेग को झेल पाता है। इन्द्रियों को जीतना सेमीफाइनल है। और मन पर विजय पाना फाइनल है। इन्द्रियों को जीतने वाला सेमीफाइनल जीतता है और मन पर विजय पाने वाला फाइनल जीतता है। फाइनल जीतने पर पुरस्कार मिलता है। मन अदृश्य है किन्तु सबको अधीन में रखता है, संसार में नचा रहा है। मन और इन्द्रियों पर अपना अधिकार है तो मोक्षमार्ग पर जा सकते हैं। और इनके अधिकार में हम हैं तो मोह मार्ग पर चल रहे हैं। यह निर्णय स्वयं का है कि हमें अधिपति होना है या दास बने रहना है इनका। मन की आराधना छोड़कर हमें मन को आत्मा की आराधना की ओर लगाना है। धारणा बनाते ही धारण करने की क्रिया आरंभ हो जाती है। इन्द्रियाँ बूढ़ी होने पर भी मन जवान है वह काम कराता रहता है। इन्द्रियाँ और कषाय, ध्यान और गुप्ति से डरती हैं। मन का साथ देने से अविवेक काम करता है विवेक नहीं। मन की प्रतिकूल सोच सारे भावों को प्रतिकूल बनाती है। अत: मन को समझने की बात है, मन को समझाया जाता है। यह व्यवस्था विवेक के ऊपर आधारित है। मन में आई अनुभूति, उद्वेगों को अगर संयम के साथ विवेक से वश में कर लें तो क्रोध रूपी अग्नि मन में नहीं जल सकती और क्षमा भाव का उदय हो सकता है। मन को सन्तुलित करके रखा जाये तो उस पर काबू पाना आसान है। मन के ऊपर नियंत्रण असंयम से नहीं संयम से होता है। मन को वर्तमान की तरफ नहीं, वर्धमान की तरफ ले जाने की आवश्यकता है। जिनके जीवन में घृणा, ईर्ष्या, कलह-क्लेश, दुर्भावनाएँ रहती हैं वह व्यक्ति उतना ही अधिक मन से रुग्ण रोगी होता है। मन को चिकित्सा हेतु आवश्यक है कि आप अपने मन को दुर्भावनाओं से दूर रखें एवं सभी के प्रति मैत्री , प्रमोद, करुणा की भावना से मन को भरना होगा। जिस व्यक्ति का मन जितना अधिक चंचल होता है, उसका मन उतना ही अधिक अस्वस्थ रहता है। बारह सौ भावना भाने से मन नहीं लगता, बारह भावना भाना चालू कर दो अभी मन लग जायेगा। बाहर की ओर यदि मन जा रहा है तो निश्चित रूप से वह मन दूसरों का चाकर बनेगा और आपको वह बार-बार बाध्य करेगा। मन का विषय गौण रूप से बहुत कुछ है लेकिन मुख्य रूप से मन का विषय मान है। दुनिया में संघर्ष मन के माध्यम से हुआ करते हैं और हर्ष भी प्राय: करके मन के माध्यम से हुआ करते हैं। मन कभी भी समझना नहीं चाहता, मन तो हमेशा समझाना चाहता है उसी का नाम मान है। आत्मा समझना चाहती है तो आत्मा को कह दो कि मन की बात मत सुनो। फिर भी वह मन आत्मा को अपने घेराव में ले लेता है। मन आत्मा को अपने घेराव में लाता है और उससे नौकरी-चाकरी कराता रहता है। यदि सुख को प्राप्त करना चाहते हो तो मन को वशीभूत कर लो। मन स्वस्थ है तो सब कुछ स्वस्थ है और मन यदि अस्वस्थ है तो फिर कोई भी स्वस्थ हो ही नहीं सकता। कहते हैं, मन नहीं लग रहा है, ये बड़ी बीमारी है। सब कुछ लग रहा है और मन नहीं लग रहा ये क्या है? राजरोग बोलना चाहिए इसको। आत्मा तो मान लेती है लेकिन मन नहीं मानता है। मन कहाँ पर मानता है बताओ? मान मिलता है तो वह मान लेता है। मन नहीं माना बताओ कितनी मात्रा में चाहिए किलो में या टन में? मन का स्वभाव भूलना है उस भूल-भुलैया के साथ हम रहना नहीं चाहते हैं। जिस व्यक्ति को हम सारी बातें सुना दें, बता दें और वह भूल जाता है तो उस व्यक्ति के साथ रहना नहीं चाहिए। भूलने का स्वभाव मन का है आत्मा का नहीं। सबके ऊपर विश्वास करियो मन के ऊपर कभी भी विश्वास नहीं करियो, क्योंकि आँखों को धूल से बचा लो वो निर्मल रहेंगी, कानों को शब्दों से बचा लो वो निर्मल रहेंगे लेकिन मन को किससे-किससे बचाएँ? कोई न कोई आ जाता है और भूल भी जाता है। मन को काम में ले लेंगे तो वह शांत बैठ जायेगा लेकिन यह होता ही नहीं है। यह साहस की बात है। मन में जितना बल है, वचनों के बल से वह बहुत असीम है। वचनों में जितना बल है तन के बल से वह भी असीम है। तन का बल, धन के बल से असीम है। इसलिए धन से जो काम होता है वह बहुत कमजोर होता है। एक ही नियंत्रित मन चाहे तो वह सब कुछ काम कर सकता है। तन के मल को दूर किया जा सकता है। वाणी के मल को दूर किया जा सकता है, लेकिन मानसिक मल भी है, जिसे दूर करना बहुत कठिन हुआ करता है। उसके लिए साबुन सोड़ा कहाँ से लायें? एक मात्र अध्यात्म ऐसा साधन है जिसके द्वारा चित्तगत सारा का सारा मल दूर हो जाता है। वैज्ञानिकों न इस बात को स्वीकार कर लिया है, कि मन की चिकित्सा पहले अनिवार्य है, तन की चिकित्सा करें न भी करें तो चल सकता है | हमारी जो दूषित मानसिकता है उसको सत्साहित्य के माध्यम से परिमार्जित किया जा सकता है। मन की बात मानोगे तो हमेशा-हमेशा मन आपको नचायेगा। मन की बात मानने वाला महामना नहीं बन सकता। वैसे मन बहुत कमजोर है, वह इस अपेक्षा से कि उसका कोई अंग नहीं है लेकिन वह अंगअंग को हिला देता है। विचलित कर देता है। मन सबका नियन्ता बनकर बैठ जाता है। आत्मा भी इसकी चपेट में आ जाती है और अपने स्वभाव को भूल जाती है। इन्द्रियों को खुराक मिले या न मिले चल जाता है लेकिन मन को खुराक मिलनी चाहिए ऐसा यह मन है। मन भी बहुत कठोर होता है। ये ध्यान रखो मन के ऊपर भी घन पटकने वाले हम ही हैं। आत्मा को तो बचायेंगे लेकिन मन के ऊपर तो घन पटकना होगा हमें क्योंकि मन हिंसक होता है। स्वयं ही मर जाता है तथा दूसरे के लिए मरवा देता है। मन को आप काबू में रखो, आपकी शिक्षा बहुत कीमती होगी यदि मन को अधीन कर लिया तो। ध्यान रखो सबसे ज्यादा कमजोर और अनिष्टकारी कार्य हो सकता है तो वो मन के माध्यम से यहीं शिक्षा सभी ग्रन्थों में दी है। हमें ये चाहिए वो चाहिए इसमें कुछ नहीं रखा, रात दिन लग जाओ, मन को बचाओ, सुरक्षित रखो तथा साथ ही शरीर को भी ये बहुत बड़ा मौलिक धन है, संयमलब्धि स्थान को प्राप्त किया है तो इसी के माध्यम से। हमारा मन किसी न किसी के वशीभूत तो है तभी तो हमें ये चाहिए, ये चाहिए, इस प्रकार ये चाहता ही रहता है। इस चाह को पूर्ण करने की क्षमता किसी के पास नहीं इसे समझना चाहिए।
  9. भाषा माध्यम विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार किसी पात्र में धार नहीं होती धार तो जलधारा में होती है। धार का माध्यम पिलाने वालों और पीने वालों के ध्यान में रहना चाहिए। माध्यम मध्य शब्द से आया है यदि माध्यम शिक्षा का रखते हो तो सही है, सरल हो, सार्वजनिक हो। रुचि, उत्साह, प्रीति यदि नहीं है तो प्रतीति में आने वाली वस्तु नहीं होती। रुचि के बिना वह पचेगा नहीं। रुचि, लगन, इच्छा शक्ति दृढ़ है, तो सफलता अवश्य मिलेगी। हर क्षेत्र में समय और समझ दोनों आवश्यक है। भाषा का आग्रह माध्यम के खिलाफ है। १२वीं कक्षा तक माध्यम सरल होनी चाहिए। माध्यम मध्यम है हम जब तक सुनते हैं उसमें मध्यम नहीं रहता तो सुनने की प्रक्रिया सही नहीं होती। वीणा के तारों को ज्यादा कसोगे तो भी नहीं और ढीला छोड़ोगे तो वह आवाज नहीं देगा जब हम मध्यम न ज्यादा न कम रखेंगे तभी हम उसका आनंद ले सकते हैं। शोध में यदि हम कहते हैं कि हम जो माध्यम देंगे उसी में लिखना होगा ये असमझदारी है, आग्रह है। आज आगाह पर माध्यम उतर गया। पृष्ठों की बात पीठ पर लादे फिरो। पुस्तिका में मात्र संकेत है। आनंद का अनुभव पुस्तिका को नहीं। समझदार समझ को अच्छे ढंग से प्रस्तुत करता है। समझने वाला बालक और समझाने वाला वृद्ध था लेकिन माध्यम से अनूठा काम हो गया। रुचि सम्यक दर्शन का सूचक है। अरुचि पूर्वक किसी को बाध्य नहीं। रुचि के साथ बैठता है तो मेल होता है। माध्यम का संकेत यदि रुचि के साथ जुड़ते चले जाते हैं तो अपने आप सब कुछ समझ में आ जाता है। माध्यम विवेकशील होना चाहिए। माध्यम बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द है।
  10. भाषा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार संस्कृत भाषा का मस्तिष्क के विकास में बहुत योगदान है अंग्रेजी का ऐसा नहीं। संस्कृत भाषा सभी भाषाओं का केन्द्र है। जिस भाषा में हम बोलते हैं उसी भाषा के शब्दों का प्रयोग करें इससे भाषा की निर्दोषता मानी जाती है ये ध्यान का विषय है। संस्कृत भाषा में प्रत्येक शब्द विभक्ति के साथ होता है इसलिए उसमें कोई परिवर्तन संभव नहीं होता और उसको कहीं भी रखा जाये वह अर्थ पूर्ण होती है इसलिए संस्कृत भाषा व्यापक है, अमर है। यदि हम भाव समझना सीख लें तो भाषा समझने की आवश्यकता नहीं होती। आज भाषा के भाव प्राय: समाप्त हो रहे हैं, हमने दूसरों की आँखों के भाव पढ़ना ही बंद कर दिये हैं। संवेदनाएँ समाप्त सी हो रही हैं और अकारण प्रतिस्पर्धा का अंतहीन सिलसिला चल रहा है। कोई अपनों से प्रतिस्पर्धा नहीं करता यदि आगे बढ़ना है तो अतीत से प्रतिस्पर्धा करना जरूरी है। अपने से बड़ों से और ज्ञानी से प्रतिस्पर्धा करना अविवेकपूर्ण है जबकि लोग इसे ही विवेक समझ रहे हैं। आचार्य जो उपदेश देते हैं उसमें भाषा नहीं भावों का महत्व होता है। वे सदैव श्रेष्ठ कर्म की शिक्षा देते हैं चाहे भाषा कोई भी हो। ये हम तभी समझ सकते हैं जब एकाग्रता से भावों को समझें। सबसे ज्यादा एकाग्रता से पढ़ने और लिखने वाले विद्यार्थी (अव्वल) प्रथम आते हैं। इसी तरह एकाग्रता से धर्म, ज्ञान, शिक्षा, संयम, उचित व्यवहार, परोपकार, दान करने वाले भी जीवन में अव्वल होते हैं। अपनी आंतरिक शक्ति को उद्घाटित करना ही सफलता की कुंजी है। भाषा व साहित्य के आधार पर ही आचरण सुरक्षित रह सकता है यह भाषा ही काम में आती है आगे बढ़ने में, लिखने से नहीं, बोलने से ही भाषा का प्रभाव पड़ता है। जीवन में भाषा का क्या प्रयोजन है? अच्छाई के रूप में यदि प्रयोजन चाहते हो तो उसके गुणधर्म अवश्य देखें। व्यक्ति की पहचान उसकी बोल-चाल सोच विचार आदि के ऊपर आधारित है। मात्र पढ़े लिखें है इससे नहीं किन्तु उसका विचार क्या है? उसका प्रभाव कितना है? बहुत व्यक्तियों के लिए उसे क्या प्रयोजन सिद्ध हो रहा है? चार-पाँच व्यक्तियों पर प्रभाव बता दो तो मैं इसको कभी स्वीकार नहीं करूंगा क्योंकि पाँच व्यक्तियों का नाम विश्व नहीं है। अपने यहाँ मार्गणा का कथन आता है। आपका जो विपुल साहित्य है जिसे आचार्यों ने प्राकृत व संस्कृत में लिपिबद्ध किया है वह विदेशी भाषा का प्रभाव पढ़ने से यदि उपयोग नहीं किया गया तो उसको पढ़ेंगे, लिखेंगे, सोचेंगे, बोलेंगे नहीं तो वह रद्दी के बराबर हो जायेगा। ज्ञान का प्रवाह तभी तक रहता है जब तक उसका अध्ययन, अध्यापन प्रयोग होता है यदि ये नहीं है तो भविष्य अंधकारमय होने वाला है। विषय मुख्य रखो तथा भाषा गौण रखो। हमें पदार्थ नहीं भटका रहा है किन्तु ज्ञान भटका रहा है। भगवान और गुरु तो कभी कभी मिलेंगे पर ये सूत्र जिन वचन तो जहाँ बैठे वहीं साथ हैं।
  11. भारतीय चिकित्सा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार भारत को छोड़कर जितनी भी चिकित्सा पद्धति है उनमें रिएक्शन होता है। भारतीय चिकित्सा पद्धति में कोई भी रिएक्शन नहीं। विदेशी दवाइयाँ तो मरती भी हैं एक्सपायरडेट होती हैं लेकिन रोगी तो बना रहता है। भारत का इतिहास सब जगह काम कर जाता है क्योंकि सब के काम का है। इसलिए भारतीय इतिहास पढ़कर वस्तु स्थिति समझिए तथा विदेशी संस्कृति का समर्थन न करिये। शिक्षा के साथ-साथ चिकित्सा भी प्रयोग के ऊपर निर्भर है। रोगों का निष्कासन करने के लिए औषध का प्रयोग किया जाता है। आज न तो रोग ठीक हो रहा है न उपयोग ठीक हो रहा है क्योंकि प्रयोग नहीं हो रहा है। पहले वैद्य वगैरह दवाई का प्रयोग करके देखते थे फिर दवाई दूसरों को देते थे। स्वयं अपने हाथों से औषधि निर्माण कर अनुभव करते थे फिर अपने हाथ से कितना, कब, किसके साथ औषध देना यह ध्यान रखते थे। औषध पथ्य के साथ रस संयोजन के साथ, परहेज को ध्यान में रखकर सेवन करता है तो वह औषध रोग को ठीक कर सकती है। आज का विज्ञान वर्षों लग जायें तो भी व्यक्ति को स्वस्थ नहीं कर सकता और जिसको मंत्र सिद्ध हो गया वह एक बार में ही ठीक कर सकता है इसको बोलते हैं संस्कारित शिक्षा। आज शिक्षा, चिकित्सा, कृषि, शिल्पकला, हस्तकला आदि-आदि सभी क्षेत्रों में आप लोग पिटते/पिछड़ते चले जा रहे हैं इन सबका कारण है शिक्षा का आधार सही नहीं होना। हम जैसा पढ़ते, सोचते, सुनते हैं वैसा जीवन बनता जाता है। शिक्षा व चिकित्सा क्षेत्र की विकृतियाँ संस्कार के माध्यम से ही निकल सकती हैं। औषधि रखने के पात्र कैसे होना चाहिए इसका भी महत्व है। आज तो सब प्लास्टिक में रखते हैं। आयुर्वेदिक में सोना, तांबा, पीतल, लोहा आदिक पात्रों में घिसकर दवाइयाँ बनती थी। आज तो दवाई रखने के पात्र ऐसे हैं कि उसमें जीवों की उत्पति अवश्य होती है। प्रदूषण से बचा ही नहीं सकते। आज पोटेंसी बढ़ाकर दवाई देते हैं जैसे चार दिन की दवाई डोज दो दिन में देते हैं लेकिन रोगी के पास वह डोज सहने की क्षमता नहीं होने से रिएक्शन हो जाते हैं, रोगी कभी-कभी तो बच ही नहीं पाता है। दवाइयों की पोटेंसी गुणवत्ता का अनुपात होना चाहिए। आज केमिकल्स रसायन से दवाई बनती हैं। पहले धातु से, जड़ी-बूटियों से दवाइयाँ औषध तैयार की जाती थी। एलोपैथी दवाइयों में एक्सपायरडेट होती है लेकिन आयुर्वेदिक में ऐसा नहीं है। आयुर्वेदिक में तो जितनी पुरानी उतनी अच्छी व गुणकारक वस्तु मानी जाती है। एलोपैथी दवाइयों से रिएक्शन होता है किन्तु आयुर्वेद औषध से रिएक्शन नहीं, प्रतिक्रिया नहीं होती। हाँ परहेज जो बताया वह जरूरी है। जैसे पारे की भस्म के साथ खटाई का योग हो जाये तो पुन: पारा बन जाता है। अत: खटाई से परहेज आवश्यक है यदि परहेज नहीं किया जो प्रतिक्रिया होगी। होम्योपैथी में वात,पित्त, कफ की कोई चर्चा नहीं है, आयुर्वेदिक में भारतीय चिकित्सा पद्धति से वात, पित्त, कफ को लेकर चिकित्सा होती है। उसमें स्कोप होना चाहिए। आयुर्वेदिक शास्त्र वात,पित्त, कफ पर आधारित हैं। पहले देखकर भी चिकित्सा होती थी, रोगी के अभाव में भी चिकित्सा होती थी। वात,पित्त, कफ इससे शरीर चलता है। जैसे वात है तो पेट का, मस्तिष्क का आदि ८४ प्रकार के वात का वर्णन कल्याण कारक ग्रन्थ में है। रक्त में भी वात होता है वह दूषित हो जाता है तो कैंसर आदि होते हैं। यह रक्त शोधक दवाइयों से दूर हो सकता है।
  12. भारत का इतिहास विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार पहले के लोग पढ़े-लिखे कम थे लेकिन विवेक के साथ कार्य करते थे। भारतीय इतिहास पढ़ने से ज्ञात होता है कि भारत में सब तरह का अनाज, कपास आदि सबका उत्पादन होता था तथा वह सब जगह अन्य देशों में निर्यात हो जाता था और बदले में क्या लेते थे? वे बदले में सोना, चाँदी, हीरा-मोती, माणिक आदि लेते थे। निराश्रित होकर अर्थात स्वावलम्बी जीवन पहले के लोग जीते थे यह महत्वपूर्ण बिंदु हैं। आज तो धन ज्यादा खर्च करने पर भी अच्छा ही माल मिले इसके बारे में कुछ कह नहीं सकते। महँगी वस्तुएँ एक से एक बाहर से मंगाते हैं और अपने आपको सेठ साहूकार कहते हैं। आज कितने पराश्रित हो गये हैं आप लोग आज फसल प्राप्त करने के बाद बीज रूप नहीं रख सकते अनाज को क्योंकि वह काम की नहीं है। बीज राख फल भोगवे ज्यों किसान जग मांही यह पंक्तियाँ समाप्त हो गई | गाय एक चरने वाला प्राणी है उन्हें रोटी खाने की आवश्यकता नहीं पड़ती चारे की आवश्यकता है। चारा आज नहीं मिलने से गाय भी बेचारी हो गई है। घी-मूत्र में गुणवत्ता है जब गाय जंगल-जंगल में चरती है तब आती है। घूम-घूम करके झरनों,नदियों का जल पीकर आती है, तभी गुणवत्ता युक्त मूत्र उपलब्ध होता है। धीरे-धीरे गायों का जंगलों में चरना बंद हो गया रोटी आदि खिलाने लगे अब तो तेल पिला कर घी प्राप्त करना चाहते हैं जो संभव नहीं। आप केवलज्ञान ज्योति की जय बोलते हैं और अपनी ज्योति मिथ्या रखे हुए हैं। घी और मूत्र दोनों का उपयोग नेत्रादि में लगाने से ज्योति आदि बढ़ती है। भारतीय चिकित्सा गाय के घी और मूत्र पर आधारित है। आज औषध को ज्यों का त्यों बनाये रखने के लिए अल्कोहल का प्रयोग होता है। उसी से दवाइयाँ भी बनाई जाती हैं। आयुर्वेद ग्रन्थों में अल्कोहल का प्रयोग नहीं बताया है। वहाँ तो गौमूत्र का उपयोग बताया है वे कहते हैं कि इसके बिना औषध की क्षमता, गुणवत्ता सुरक्षित नहीं रह सकती। गुणधर्मों को लेकर औषध का निर्माण होता था।
  13. भावना विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार भावना भाई जाती है पहले, बाद में ध्यान होता है। तीर्थंकर जैसे भी बारह भावना भाते हैं,उसके बिना वे भी घर से बाहर नहीं निकलते। वैराग्य भावना भी माँ के समान है, जो बच्चे को घर से बाहर निकालती है प्रेम से चलो बेटा अब घर से बाहर चलो। अच्छी-अच्छी भावनाओं को भाना। सात्विक भाव से साधना द्वारा कर्म निर्जरा करते रहना। अहंकार के साथ संवेदन की धारा टूटती है लेकिन भावना के साथ संवेदन की धारा जुड़ती है। सबसे महान् भावना है अपने को भूल जाना। आपकी बुद्धि की स्थिरता जितनी होगी, एकत्व भावना उतनी ही अच्छी चलेगी। इसके लिए बड़ी धीरता की गंभीरता की आवश्यकता है। अस्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति एकत्व और अन्यत्व भावनाओं को नहीं भा सकता है उसकी यह कमजोरी है। भावना के माध्यम से जो अपना आत्मतत्व दूषित है, एक प्रकार से धूमिल है, हम उसे उज्ज्वलता/निर्मलता दे सकते हैं।
  14. भाव विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार योग्यता को बढ़ाने के लिए भाव प्रधान होना चाहिए। देश की रक्षा, उन्नति, समृद्धि चाहते हो, देश की आदर्श बनाना चाहते हो तो आदर्श भाव का संग्रह आवश्यक है। धन सफेद होता है लेकिन आप लोगों ने धन को भी काला बना दिया। भाव काले होते हैं तो धन को भी आरोपित किया जाता है कि काला धन है। गुरुजी (आचार्य ज्ञानसागर महाराज) ने कहा था-एक भाव रखो इससे दूर-दूर से ग्राहक आते हैं। विज्ञापन मत दो। विज्ञापन में करोड़ों खर्च क्यों करते हो एक भाव रक्खोगे तो ग्राहक आते रहेंगे चारों तरफ से। एक भाव रखों तो दिन अच्छे आयेंगे यदि एक भाव रखना कठिन है तो अच्छे दिन कहाँ से आयेंगे। सामने वाले के परिणाम भी खराब न हों, अपने भी न हों और काम हो जाये ऐसा ही कार्य करते जाओ। यह व्रत, संयम, त्यागमय जीवन सौभाग्य से मिला है, इस प्रकार सोचते हुए प्रतिक्षण आह्वाद का भाव आना चाहिए।
  15. बुद्धि, मन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आप बुद्धि चलाओ तो समय बचाकर कुछ कर सकते हो। हमारी बुद्धि यदि हमारा साथ नहीं दे रही तो दूसरे की बुद्धि भी साथ नहीं देगी। मन का अर्थ बचपन है। जब बड़े हो जायेंगे तो मन काबू में आ जायेगा। यदि मन काबू में नहीं होता तो पचपन में भी बचपन ही रहता है। बच्चों जैसे ही हो जाते हैं। मन दिखता नहीं उसका नाम अंतरंग है वह भीतर रहता है लेकिन जो बहार दिखता है उस सबको वह वशीभूत कर लेता है। मन को जो वशीभूत कर लेते हैं वही हमारे आराध्य होते हैं। ऐसे आराध्य की आराधना करने वाले भक्त हो जाते हैं इस लिए मन को जिन्होंने जीत लिया है उनके पास जाया करो, गाड़ी मोटर नहीं है तो पैदल ही आया जाया करो। बुद्धि के माध्यम से समझे और पैरों से आचरण की ओर जायें। पैरों से यदि आचरण की ओर कदम नहीं बढ़ेगा तो मात्र बुद्धि से कुछ नहीं होने वाला।
  16. पुरुषार्थ/श्रम विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार विद्या, ज्ञान की प्राप्ति चाहते हो तो सुख को ही आराम दे दो, उसे भूल जाओ। परिश्रम को फूलमाला के समान अपनालो तभी अपने जीवन में कुछ उद्धार कर सकते हो। ज्ञान तथा वित्त भी न हो तो भी परिश्रम के द्वारा ख्यातिवान को भी कुछ समय के लिए नीचे बिठा सकते हो। ऐसे श्रम अपनाओ जिससे स्व पर हित हो। श्रम वीरों का आभूषण है। अभीष्ट की प्राप्ति बिना श्रम के नहीं। केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए श्रम करे, वही श्रमण है। जो घड़ी की तरफ देखकर काम करने वाले हैं, उन्हें श्रम का फल तो इष्ट है, पर श्रम इष्ट नहीं है। वे चाहते हैं कि पसीना तक नहीं आवे और बढ़िया-बढ़िया खाने को मिले, ऐसे लोग एक समय भी सुख का अनुभव नहीं कर सकते हैं। जो व्यक्ति केवल श्रद्धान करते हुए बैठा है और पुरुषार्थ की ओर अपने कदम नहीं उठा रहा है वह अपने कर्म निर्जरा की ओर ध्यान नहीं दे रहा है। मोक्षमार्गी को हमेशा-हमेशा द्रव्यगत नहीं भावगत पुरुषार्थ करना चाहिए। आप अपने प्रत्येक समय परिणामों को टटोलो, चलते फिरते, उठते बैठते हमेशा विपाक विचय धर्मध्यान करो। गिरते हुए कोई व्यक्ति उठ जाता है तो हमें उसके पुरुषार्थ को देख करके सीख लेना चाहिए, उसके देखने से हम गिरने से बच जाते हैं। दूसरों को देखकर भी हम संभल जाते हैं। कर्मों के वेग को कमजोर करने का नाम पुरुषार्थ है। आत्मा की शक्ति को उभारना आत्म पुरुषार्थ है। कर्मोदय में होने वाले भावों के ज्ञाता-दृष्टा बस रहो, उसे देखते रहो। यही पुरुषार्थ करो तो मैं शत-प्रतिशत नम्बर दे दूँगा। जो व्यक्ति सौ प्रतिशत नम्बर लेना चाहता है वो हमेशा मेहनत भी सौ प्रतिशत ही करता है। आत्म शोधन ही दीक्षा की उपलब्धि है, उसे निरंतर बनाये रखना ही पुरुषार्थ है, सच्ची साधना है।
  17. पुरुषार्थ विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार हमारी यात्रा पूर्ण नहीं हो ऐसा नहीं है, सही दिशा में पुरुषार्थ और उचित संपर्क सूत्र स्थापित करना यात्रा पूर्ण करने के लिए आवश्यक है। कर्मों की बाढ़ में यदि हम अपने आपको सम्भाल लेते हैं, तो यह हमारा सम्यक पुरुषार्थ माना जायेगा। परिश्रमी के लिए रात्रि भी दिन के भाँति प्रकाशवान होती है। पुरुषार्थहीन के लिए दिन भी रात्रि के अंधकार के समान हो जाता है | रागी चिंता में रात बिताता है, वीतरागी रात्रि में भी चिंतन करते हैं। प्रतीक्षा हमेशा सिर दर्द की सम्पादिका है, अत: हर क्षण को कार्य में पुरुषार्थ के साथ उपयोग करें। प्रतीक्षा की ओर चले जाओगे तो पुरुषार्थ कम हो जायेगा। आप लोग बातों बातों के लिए हिल जाते हैं किन्तु कार्य करने के लिए नहीं हिलते। योजनाएँ बहुत बनाते हैं परन्तु सरकार भगवान् भरोसे होती है। आदर्श को सामने रखने मात्र से काम नहीं होता किन्तु आदर्श को सामने रखकर तदनुरूप पुरुषार्थ करने से काम होता है। जैसे आप अपने जीवन में वित्त के लिए पुरुषार्थ करते हो वैसा आत्मोत्थान के लिए भी धर्म पुरुषार्थ करो। यदि कल के दिन को उज्ज्वल देखना चाहते हो तो आज के दिन पुरुषार्थ करो। दुनिया के उद्यम नहीं, कर्म निर्जरा का भी एक उद्यम है। इस प्रकार का उद्यम करेंगे तो निश्चित रूप से कर्म निर्जरा होगी। बुराई के लिए पुरुषार्थ नहीं, अच्छाई के लिए पुरुषार्थ आवश्यक है। अर्थ पुरुषार्थ और काम पुरुषार्थ का फल तो हमने अनन्त बार भोग लिए, पर धर्म पुरुषार्थ का फल प्राप्त नहीं किया। अर्थ तथा काम पुरुषार्थ जब हावी हो जाते हैं, तब अधोगति की ओर मुख हो जाता है। इनको मुख्य नहीं बनाना। आज अर्थ पुरुषार्थ मुख्य हो गया है। इसमें परिग्रह संज्ञा २४ घंटे उद्दीप्त रहती है। पुरुषार्थ दिमाग के साथ करो। दिमाग को निरावाध रखो, आबाद रहोगे । हम लोग उद्यम करते हैं पर राग-द्वेष के माध्यम से। वीतराग के माध्यम से भी उद्यम करो आप सफल होंगे। संसारी प्राणी रात दिन उद्यम करता है पर धार्मिक क्षेत्र में पगडंडी ढूँढ़ लेता है। हमें रास्ता वही चलना चाहिए जो मंजिल तब पहुँचा दे। काल के भरोसे कोई कार्य नहीं होता। काल के निमित्त से कार्य पूरा हो सकता है। प्रत्येक समय अपने को अपनी तरफ से अपने मन, वचन, काय से उद्यम करना चाहिए। कर्म के प्रति लगाव से काल लब्धि होती है। मन में कार्य की पवित्रता का ध्यान रखकर उद्यम करो, अवश्य सफलता मिलेगी। मोक्ष तो होने वाला है पर पुरुषार्थ करना होगा। कोई भी कार्य हो उसे विधि पूर्वक करने से सफल होते हैं। विधि पूर्वक करने का अर्थ यह है कि जो क्रिया पहले करने योग्य है, उसे पहले ही करना, जो बाद में करने योग्य हो उसे बाद में करना और जो बीच में करने योग्य है उसे बीच में ही करना। यह विधि है अपनी आत्मा पर भी विधिपूर्वक संस्कार के साथ समय पर विधि पूर्वक कार्य करो। अच्छा फल चाहते हो तो योग्य संस्कारों के साथ समय पर विधिपूर्वक कार्य करो। समय पर मितव्ययिता के साथ जो विधिवत् कार्य करता है उसी की दीपावली सफल होती है। यदि विपरीत विधि से कार्य होता है तो दिवालिया भी हो सकता है। मोक्ष पुरुषार्थ कर्म है और मोक्ष उसका फल है। मोक्ष पुरुषार्थ उस मोक्ष फल को प्राप्त करने की साधना है। अर्थ का अर्जन तो सभी देशों में होता है, परन्तु अर्थ पुरुषार्थ भारत देश में होता है। पुरुषार्थ का अर्थ है करने योग्य कार्य को करना और न करने योग्य कार्य से विराम ले लेना। अर्थ पुरुषार्थ करने वाले भारतवासियों! इस बात का जरूर ध्यान रखना कि-‘जीवन के लिए धन है न कि धन के लिए जीवन।' प्रत्येक बूंद में क्षमता है विराटता की किन्तु पुरुषार्थ नहीं करने पर सागर बनना संभव नहीं। विराटता की कोई दरार नहीं, विराटता में कोई दीवार नहीं।
  18. प्रसन्नता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार कोई कुछ भी करे उसके प्रति वैरभाव नहीं आना ये सबसे ज्यादा प्रसन्नता की दवाई है और वैर रखना सबसे बड़ी बीमारी है। वैर नहीं रखना सबसे उत्तम बात है वैर रखना नील लेश्या का परिणाम है। अपनी दुकान है अपनी आमदनी ज्यादा बढ़ाना चाहिए। आमदनी बढ़ गई तो हमें प्रसन्नता होगी। प्रसन्न व्यक्ति को देखकर हमें प्रसन्नता होती है। सज्जनों की प्रशंसा नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं पर दुर्जनों की निंदा मत करो। प्रशंसा और ख्याति की चाहत रखना खाई में कूदना है। जीव को पाप से वैर से और धर्म से प्रीति रखना चाहिए। अपनी प्रशंसा में नहीं अपनी आत्मा की स्तुति करने में लगो। सबसे उत्तम स्तुति करने वाले यदि संसार में हैं तो सिद्धपरमेष्ठी हैं जो अपनी आत्मा की स्तुति में लीन रहते हैं। देवों को सुख तो मिलता है लेकिन वह दु:ख का कारण है इसलिए है क्योंकि वह विषयों के माध्यम से सुख मिलता है वह वस्तुत: सुख नहीं है। प्रशंसा करने से विकास रुक जाता है। हमारे वैरी बाहर में और कोई भी नहीं हुआ करते हैं, पाप ही हमारा वैरी है। वैश्य-वृत्ति जब तक हम नहीं अपनायेंगे तब तक हमारी दुकान चलने वाली नहीं। हानि-लाभ पहले सोचना चाहिए। जब भी उत्साह बढ़ता है कार्य में लगना चाहिए। जैसे रेस दौड़ छोड़ने के बाद इधर-उधर नहीं देखते और बढ़ते जाते हैं ऐसे ही उत्साह बढ़ने पर और ही बढ़ते जाना चाहिए। आलस्य के साथ कोई भी आवश्यक नहीं करना चाहिए सभी आवश्यक प्रसन्नता पूर्वक प्रमोद भाव के साथ हमें करना चाहिए। पथ पर प्रयोग के बिना उत्साह नहीं रहता।
  19. प्रमाद विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार समस्त प्रमादों में यह निद्रा नामक प्रमाद प्रबल है। यह निद्रा प्रमाद समस्त पाप को उत्पन्न करने वाला अनेक अनर्थों का सागर है। निद्रा को लज्जा हीन कहा जाता है। एक दिन का प्रमाद शेष पूरा जीवन खा जायेगा इसलिए उससे बचो। प्रमाद बहुत बड़ा है वह हमेशा हर जगह टांग अडाता है उससे बचो। जिसमें उपयोग बुद्धि लग जाती है वही प्रमाद है। कषाय का उदय रहना प्रमाद नहीं है जबकि कषाय करना प्रमाद है। प्रमाद के कारण संयमी भी असंयमी हो जाता है। यह प्राणी धर्म तो करना चाहता है, प्रमाद छोड़ना नहीं चाहता। पुरुषार्थ के माध्यम से प्रमाद पर नियंत्रण लाया जा सकता है। पुरुषार्थ में कमी होने ये व्यक्ति प्रमाद में आता है। जो वस्तु जहाँ से उठाई, वहीं रखना प्रमाद रहितता का प्रतीक है। कुशा की नोंक पर स्थित ओस की बूंद की तरह मानव जीवन क्षणभंगुर है इसलिए हे प्राणी क्षणभर के लिए भी प्रमाद न करो। प्रमाद में रहना जीवन का महत्व नहीं है। अत: जितने समय प्रमाद में रहते हैं वह मेरी उम्र में शामिल नहीं है। प्रमाद ठीक नहीं माना जाता है मोक्षमार्ग में। ज्यादा प्रमाद हो जाये तो निश्चित रूप से वह व्यक्ति पदच्युत ही होता है, पथच्युत भी हो जाता है। श्रम से मत डरों बल्कि प्रमाद से डरो । वीरों के पास श्रम पलता है, कायरों के पास प्रमाद। प्रमादी से सब घबराते हैं, पर अप्रमत्त से कोई नहीं। बिना प्रमाद के मोक्षमार्ग को अपनाने पर मंजिल पास होती जायेगी। प्रमाद-अप्रमाद होना ये सहज व्यापार है इसमें राग-द्वेष की ओर नहीं जाना चाहिए। हमें प्रमाद से दूर रहकर धर्मध्यान में मन लगाना चाहिए। पर के आहार करके, प्रमादी बनकर पर की बात करता है यह तो ठीक नहीं है। विकथा सम्बन्धी प्रमाद हमें नहीं करना चाहिए। जो मोक्ष चाहते हैं उन्हें निष्प्रमाद होकर रहना चाहिए। प्रमाद तो महाशत्रु है और ये प्रमाद असंयम की ओर ले जाता है। दुकान को खोल करके व्यक्ति यदि सोता है तो, वो दुकान कभी भी विकसित नहीं हो पाती है। वैसे ही आप लोगों ने अच्छी दुकान खोली है, अब इसको चलाने में आलस्य/प्रमाद नहीं करो अच्छे से इसको चलाने से आय अच्छी होती है।
  20. प्रतिक्रमण विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार कलह को पूर्ण विराम देने के लिए अतिक्रमण का परित्याग कर प्रतिक्रमण अंगीकृत किया जाता है। अतिक्रमण उल्लंघन का प्रतीक है। उल्लंघित सीमा से वापस अपनी सीमा में आना ही प्रतिक्रमण है। अतिक्रमण से संघर्ष छिड़ जाता है, कलह व्याप्त हो जाती है, किंतु प्रतिक्रमण से संघर्ष विराम हो जाता है शांति छा जाती है। पर को देखना भी अतिक्रमण की क्रिया है। प्रतिक्रमण करते समय आँखों में पानी आ जाना चाहिए कि हमने ऐसी गलती कर दी। जिस समय से प्राणी अपनी आलोचना करता है, वहीं समय उसके लिए चतुर्थ काल है। आज तक हमने जब कभी आलोचना की तो अपनी नहीं दूसरों की। भगवान ने अपनी निंदा आलोचना के लिए कहा। आक्रमण दूसरों पर और प्रतिक्रमण अपने पर होता है। आक्रमण आत्मा को दु:ख में डालने वाला, आत्मा की निधि खोने वाला होता है। प्रतिक्रमण इससे उलटा होता है। प्रतिक्रमण जहाँ है, वहाँ दया, अनुकंपा विद्यमान है। ग्रहण में आक्रमण है और प्रतिक्रमण में वह जो ग्रहण किया उसका विमोचन। यहीं से धर्म की रूप रेखा बनती है | दोषों का आह्वान सो आक्रमण और दोषों को छोड़ना सो प्रतिक्रमण है। अत: किसे अपनाना है उसे आपको देखना है। प्रायश्चित में भावों की गहराई होनी चाहिए। पश्चाताप के बिना प्रायश्चित कोई मायना नहीं रखता। पहले मन से स्वीकार करो कि मैंने गलती की है, अपराध किया है। अकेले में आँखों से आँसू आना चाहिए। दोषों की पुनरावृत्ति हो उनके लिए प्रायश्चित नहीं। किये की फीलिंग (अनुभव) होना चाहिए वह भी प्रायश्चित का अंग है। मात्र उपवास से प्रायश्चित नहीं होता मन की सफाई करने को सर्वप्रथम कहा है। प्रतिक्रमण और आलोचना करने से समस्त व्रतों का समूह समस्त गुणों के साथ-साथ चंद्रमा की चाँदनी के समान अत्यंत निर्मल होता है।
  21. प्रभावना विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार प्रभावना की ओर मत देखो, अप्रभावना से बचने की कोशिश करो। मन की अस्थिरता, आज्ञा का उल्लंघन, असंयम का समर्थन इन तीनों के कारण संघ संचालन या प्रभावना कभी नहीं हो सकती। निरीहता के साथ वस्तु तत्व का प्रतिपादन करोगे तो जिनधर्म की अच्छी प्रभावना हो सकती है। प्रतिफल की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए, इसकी कमी होने से धर्म की क्षति होती जा रही है। धार्मिक अनुष्ठान का उद्देश्य मात्र कर्म की निर्जरा और धर्म की प्रभावना होना चाहिए। धर्म का जितना उपयोग करोगे उतनी प्रभावना होगी। धर्म की सेवा यही है। यदि कुंए को सुरक्षित रखना चाहते हो तो उसमें से पानी निकालते रहना, उपयोग करते रहना चाहिए। आप कहीं भी रहें प्रभावना कर सकते हैं अपनी चर्या के माध्यम से। पुराने लोग बड़े-बड़े मंदिर बना गये और नाम तक नहीं, ये है प्रभावना। शील, दान, तप के द्वारा भी प्रभावना होती है। भावना पूर्वक प्रभावना होती है, बिना भावना के प्रभावना नहीं हो सकती। निरीहता के बिना त्यागी का समाज पर प्रभाव नहीं पड़ सकता। व्रतों का प्रभाव पड़ता है सादगी होना चाहिए, ज्ञान मात्र प्रभावी नहीं होता। निरीहता के अभाव में आचार्य का भी प्रभाव नहीं पड़ सकता। ज्यादा प्रभावना की ओर जाओगे तो भावना बिगड़ जायेगी। भगवान महावीर के उपदेशों के अनुरूप अपना जीवन बनाओ। यही सबसे बड़ी प्रभावना है। मात्र नारेबाजी से प्रभावना होना सम्भव नहीं है। हमारे अंदर यह विवेक हमेशा जागृत रहना चाहिए कि मेरे द्वारा ऐसे कोई कार्य तो नहीं हो रहे जिनसे दूसरों को आघात पहुंचे। यही सही प्रभावना का प्रतीक है। केवल लम्बी चौड़ी भीड़ के समक्ष प्रवचन देने से ही प्रभावना होने वाली नहीं है। प्रभावना उसके ऊपर होने वाली है जो अपने मन के ऊपर नियंत्रण करता है और सम्यक ज्ञान के ऊपर आरूढ़ होकर अपनी यात्रा करता है। सम्यक ज्ञान के ऊपर आरूढ़ होकर जो यात्रा करता है वही व्यक्ति जिनेन्द्र भगवान् के शासन की प्रभावना करने वाला है। निर्दोष व्रत का पालन ही मार्ग प्रभावना में कारण है। संसार में जो अज्ञानरूपी अंधकार फैला है उसे यथाशक्ति दूर करके जिनशासन के महात्म्य को प्रकाशित करना प्रभावना है। जैसे हम उत्साह के साथ घर के महत्वपूर्ण कार्य करते हैं उसी प्रकार तन-मन-धन को लगाकर उत्साहपूर्वक धर्म की प्रभावना करो। तन से, धन से, और वचन से प्रत्यक्ष धर्म प्रभावना कर सकते हैं और परोक्ष रूप से एक स्थान पर बैठकर ‘सुखी रहें सब जीव जगत के, कोई कभी न घबरावे' ऐसी भावनाओं से कर सकते हैं। विधान/अनुष्ठान के माध्यम से जो धर्म प्रभावना होती है उससे परस्पर में वात्सल्य भाव बढ़ता है और धर्म से विमुख होने वाला धर्म के मार्ग में लग जाता है। जिस व्यक्ति के जीवन में जिनशासन के प्रति प्रेम नहीं, शासन के प्रति गौरव नहीं, उसके जीवन में प्रभावना होना तीन काल में सम्भव नहीं। परमार्थ की प्रभावना ही प्रभावना है। परमार्थ के लिए कोई धन का विमोचन करे, वह प्रभावना है। मात्र जड़ धन पैसे से धर्म प्रभावना होने वाली नहीं है। प्रभावना तो वस्तुत: अन्तरंग की बात है। वीतरागता की ही प्रभावना है, राग-द्वेष की प्रभावना नहीं है।
  22. पात्रता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार पात्र को ही पढ़ाना चाहिए। यदि योग्यता नहीं है तो नहीं पढ़ाना चाहिए। पात्र बनाकर पढ़ाना चाहिए। शुद्धि और विशुद्धि दोनों के साथ हमेशा जिनवाणी का, बृहद् ग्रन्थों का, आर्ष प्रणीत ग्रन्थों का, अध्ययन कराना चाहिए। दिन में भोजन, रात को जुगाली। ऐसे ही दिन में अध्ययन और रात में जुगाली के रूप में अध्ययन चिंतन होना चाहिए। जो अध्ययन ज्यादा करते हैं, वे चिंतन के क्षेत्र में प्राय: प्रमादी होते हैं। जो व्यक्ति सप्त व्यसन का त्याग नहीं करता उसको स्वाध्याय नहीं सुनाना चाहिए। जिनवाणी के लिए तर्क-युक्ति की आवश्यकता नहीं, जिनवाणी के लिए आस्था की आवश्यकता है। सम्यक दृष्टि जीव विद्या का दुरुपयोग नहीं करता है, इसीलिए पात्र को देखकर विद्या दी जाती है। योग्य व्यक्तियों को तैयार करना चाहिए और उन्हीं को समय देना चाहिए। सप्त व्यसन के त्याग बिना जिनवाणी सुनने की पात्रता ही नहीं आ सकती। उपदेश उसे दिया जाता है जो सुनकर अंगीकार कर सके। जब तक उपदेश सुनकर अंगीकार करने वाले नहीं होते तब तक उपदेश नहीं दिया जाता इस दृष्टि से मनुष्य ही उसके पात्र हैं। पाप के फल के रूप में जो सम्पदा आती है उसको पुण्य के रूप में ढालने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर देता है वह धन्यवाद का पात्र है। जो विनयवान हो, ग्रहण करने की योग्यता रखता हो, हमारी बात समझने की पात्रता जिसमें हो, उससे ही वचन व्यवहार करना चाहिए। अन्यथा मौन सदैव/सर्वत्र अच्छा साधन है। वीतराग धर्म सुनने से पूर्व उसके योग्य पात्रता बनाना भी आवश्यक है। जैसे सिंहनी का दूध स्वर्ण पात्र में ही रुकता है उसी प्रकार वीतराग धर्म का श्रवण करके उसे धारण करने की क्षमता भी सभी में नहीं होती। जो व्यक्ति जितनी पात्रता रखता है हमें उसे उतना ही पढ़ाना चाहिए। हम उसे सीधे अध्यात्म आदि की बात कहेंगे तो ठीक नहीं है।
  23. कहीं बाहर से प्रकाश को लाने की आवश्यकता नहीं, मात्र अंधकार मिटाना है। जैसे जैसे अंधकार मिटता जाएगा वैसे-वैसे प्रकाश उद्धत होता जाएगा। जो आत्मा का वास्तविक आधार है, जिसके माध्यम से जीवन में क्रान्ति आती है और सुख की प्राप्ति होती है वह है वीतरागता। उसी वीतरागता की प्राप्ति के लिए यह सारे के सारे प्रयास चल रहे हैं। किसी के ऊपर यदि आप उपकार नहीं कर पा रहे हैं तो कोई बात नहीं, किन्तु यदि आप दूसरों के पैरों में हुए घावों पर नमक नहीं छिड़कते तो भी समझो आप उसके ऊपर महान् उपकार कर रहे हैं। आज की पावन बेला में भगवान् महावीर को उस अलौकिक पद की प्राप्ति हुई है,जिस पद के लिए उन्होंने वर्षों तक अथक परिश्रम किया और वह परिश्रम तन से, मन से और वचन से किया था। उनकी वह साधना दुनिया के समस्त प्राणियों से भिन्न थी। दुनिया का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है किन्तु सुख के साधनों के प्रति वह इतना चिंतनशील, मननशील नहीं होता जितना होना आवश्यक है। साध्य की प्राप्ति के लिए साधन भी हुआ करते हैं, मोक्ष सुख एक साध्य वस्तु है जो कि प्राप्तव्य है, उसके लिए साधन के साथ-साथ साधना भी अनिवार्य है। ऐसी स्थिति में जो दुख से छुटकारा चाहता है उसके लिए यह अनिवार्य होता है कि वह समीचीन साधना की खोज करे । आज भी मोक्ष सुख को प्रत्येक प्राणी चाहता है किन्तु उसे प्राप्त न कर पाने का यही एकमात्र कारण है कि वे उसकी उस साधना में कहीं न कहीं अवश्य Fai| (असफल) हैं और जब तक उनकी साधना सही-सही नहीं चलेगी तब तक उन्हें उस अभीष्ट सुख से वंचित रहना ही पड़ेगा। अनंत सुख एक ऐसी चीज है जिसे हम महादुर्लभ कह सकते हैं, जो कि आत्मा का आनन्द एवं सबसे निकटतम गुण है। उसकी अनुभूति तभी हो सकती है जब रागद्वेष आशा तृष्णा को हम समाप्त करेंगे। भगवान महावीर का कहना यही था कि - यह सुख की परिभाषा। ना रहे मन में आशा। ईदृश हो प्रति भाषा। परितः पूर्ण प्रकाशा॥ (मुक्तक शतक) उजाला अपने पास है, प्रात:काल की बात है। हमने पहले ही विचार किया कि दस साल का अनुभव अपने को जाग्रत था, भीड़-भाड़ अवश्य होगी। इसलिए बड़े बाबा के मन्दिर में ना रहकर हमने छोटे बाबा का मन्दिर ही पसन्द किया और वहीं पर सामायिक, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि कार्य निर्विध्न सम्पन्न किए। आज वैसे ही नींद, रात्रि बारह बजे से खुल गई क्योंकि बीच-बीच में आप लोगों की भीड़ जा रही थी। मैंने सोचा एक-एक करके भर्ती हो रही है, गाड़ियाँ आने लगी हैं। क्षेत्र कमेटी वाले यदि आपको १२ बजे ही छुट्टी दे देते तो आप बारह बजे से ही आ जाते पर वह दी नहीं गई। एक व्यक्ति ने हाथ में Torch ले रखी है। उसके माध्यम से वह प्रकाश प्राप्त कर रहा था। उस प्रकाश के माध्यम से जो वस्तु खो गई है, वह प्राप्त हो जाती है लेकिन उस समय Torch का मुँह किधर था वह उन्हें मालूम नहीं था, उन्होंने Button दबाया तो प्रकाश उनके मुँह पर पड़ा फलत: वह वस्तु जिसे, खोजना चाहते थे वह उन्हें प्राप्त नहीं हो सकी। वह देख रहा है सुख को किन्तु वह सुख अंदर है; बाहर नहीं, अपने पास है। ज्ञान का उपयोग हम बाहरी पदार्थों की ओर कर रहे हैं। ज्ञान तो अपना कार्य कर रहा है। ज्ञेयभूत पदार्थों को लाकर के आपके सामने रखेगा इसमें कोई संदेह नहीं, किन्तु हम उस ज्ञान का दुरुपयोग कर रहे हैं, इसलिए अनादिकाल से वह सुख हमारे पास होते हुए भी अज्ञात ही रहा है। हम बाहरी पदार्थों के ऊपर ही Torch मार रहे हैं और Torch का मारना ज्ञान का ही काम है। Torch का काम है दिखाना, वह तो पक्षपात नहीं रखता कि मैं-इसे दिखाऊँ और इसे ना दिखाऊँ। उसका काम है मात्र दिखाना। यही कारण है कि आप दूसरे पदार्थ से ही परिचित हो गए और स्वयं से अनभिज्ञ रहे क्योंकि कभी भी आपने अपने ऊपर उस Torch का प्रयोग नहीं किया। दीपावली मनाते हैं आप लोग। मराठी भाषा से विचार करने पर यह विदित होता है कि दिवाली आई. मैं उस भाषा की दृष्टि से यह कहना चाहूँगा कि दिवा अर्थात् दिन और अ का अर्थ है आई. क्या आई? दिवाली आई। भाषा ऐसी है कि वहाँ पर क्रियापद आली है। और दिवा अर्थात् दिन, उजाला। उस व्यक्ति के Torch मारने से मुझे चिंतन के लिए विषय मिला, उन सज्जन के लिए क्या मिला यह तो वे ही जानें उनको शायद आकुलता हो गई होगी कि अरे! महाराजजी ने देख लिया होगा और वे Torch बंद करके जल्दीजल्दी चले गये। आप लोग कहते हैं कि दीपावली आ गई. ३६५ दिन के लिए विराग। क्या कहूँ भैया! जिसके बीच रात, उसकी क्या बात तो ३६५ दिन और रात की कौन कहे? तो वह Torch वाला व्यक्ति भूलकर भी अपने आपको देखना नहीं चाहता था। यही एकमात्र हमारे पुरुषार्थ की कमी है। आपके पास साधन होने पर भी आप उसका समुचित रूप से प्रयोग करना नहीं चाहते और इस ही कमी ने आपको ऐसा धोखा दिया है अनादिकाल से कि आपके पास अनंत-सुख होते हुए भी उससे वंचित रहना पड़ा है। यह वैकालिक सत्य है, जब तक हम अपने ऊपर Torch नहीं मारेंगे तब तक हमें बाहरी पदाथों का अवलोकन ही मिलेगा अंदर का नहीं। यह उस केवलज्ञान की भूमिका का ज्ञान है- चेत चेतन चकित हो। स्वचिंतन बस मुदित हो। यों कहता मैं भूला। अब तक पर मैं फूला। (मुक्तक शतक) जिस समय वह वैराग्यमयी ज्ञान किरण अपनी आत्मा में उद्धृत होती है उस समय की यह बात है, जब हम समस्त विश्व को भूल जाते हैं और अपने उपादेय भूत आत्म तत्व की आरती उतारना प्रारंभ कर देते हैं, वह पावन घड़ी आज तक आप लोगों को उपलब्ध नहीं हुई और ऐसा भी नहीं है कि वह घड़ी दूसरों को मिल जाए तो आपको भी मिल जाए। दूसरे का जीवन भिन्न रहेगा। चूँकि इसका दृष्टिकोण भिन्न है, उसका आचार-विचार, उसका लक्ष्य, उसका केन्द्र बिन्दु सब कुछ पृथक् है। आप लोगों से मैं यही कहूँगा कि दूसरे की विशुद्धि, दूसरे का पुण्य आपके काम नहीं आने वाला है। भगवान महावीर स्वामी ने जिस समय अपने ध्यान-चिंतन के फलस्वरूप अपने आत्मा को पाया, उस समय कई व्यक्ति वहाँ पर बैठे होंगे, कई व्यक्ति देखते होंगे लेकिन प्रत्येक के लिए उसका लाभ नहीं होता क्योंकि उसको आप खरीद नहीं सकते। दूसरे को प्राप्त हुई सुखद घड़ियों के ऊपर आपका कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने प्रयास किया। फलस्वरूप उन्हें आत्मा की उपलब्धि हुई ऐसी स्थिति में हमें सोचना चाहिए कि हमारी साधना में कहाँ पर कमी है? और है तो क्यों? और इसके उपरांत उस कमी की पूर्ति कैसे होगी? ये तीन प्रश्न आपके मन में हर बार उठना चाहिए, उठने के उपरांत आपको तदनुकूल प्रयास भी करना आवश्यक हो जाता है। भगवान महावीर ने प्रयास किया था | वैराग्य से तुम सुखी, भज के अहिंसा। होता दुखी जगत है, कर राग हिंसा। जहाँ पर प्रभु विराजमान हैं वहीं पर सारा का सारा संसार विद्यमान है किन्तु वहाँ पर सुख यहाँ पर दुख है। वहाँ पर मुक्ति, यहाँ पर बंधन। दुख और सुख में कितना अंतर है ? बोलो. महाराज दु: और सु का तो अंतर है। दु: और सु का तो अंतर है लेकिन यही अंतर जमीन आसमान का है। जमीन से आप आसमान को नापना चाहो तो कभी आकाश में विराम नहीं पा सकोगे, आकाश को नाप नहीं सकोगे। ठीक उसी प्रकार दुख की सुख के साथ तुलना नहीं कर सकते। क्योंकि वह संभव ही नहीं। प्रभु महावीर का जीवन सुखमय था और संसारी जीवों का जीवन दुखमय है। हमारी साधनायें विपरीत चल रही हैं। उनकी साधना अहिंसा की थी और आपकी हिंसा की। उनकी साधना वीतरागता की है और आपकी सरागता की है। संसार सकल त्रस्त है पीड़ित व्याकुल विकल इसमें है एक कारण हृदय से नहीं हटाया राग को हृदय में नहीं बिठाया वीतराग को जो है शरण, तारण-तरण। (नर्मदा का नरम कंकर) एक व्यक्ति की दस खण्ड की बिलिंडग खड़ी है आपके पड़ोस में और आपकी भी वहीं पर Building (भवन) है पर जो उस दस खण्ड के मालिक को आनन्द आ रहा है, वह आपके लिए नहीं आ रहा है और दूसरी बात है उसी दस खण्ड के मकान में वह बीस घंटा गुजारता है। उसके मकान को देखकर आपका मन कहता है कि कब इस प्रकार की Building का निर्माण करूं । निर्माण करके क्या करेंगे? उसकी छाया में रहेंगे ये ही तो है। उसी प्रकार आप महावीर भगवान् का निर्वाण महोत्सव मना करके भी उनके सुख को छीन नहीं सकते। उस सुख का आप एक कण भर भी अनुभव नहीं कर सकते। जिन्होंने अपने जीवन में साधना की है, उन्होंने ही इस प्रकार की सिद्धि प्राप्त की है। ऐसे आज तक अनन्तों सिद्ध परमात्मा हो चुके हैं, हो रहे हैं और आगे भी होंगे। यह वैकालिक सत्य है, कि साधना करने वाले ही हुए हैं और हो रहे हैं आगे होंगे। हमारी साधना विपरीत चल रही है बंधुओ! वैराग्य से तुम सुखी, भज के अहिंसा। होता दुखी जगत है, कर राग हिंसा। सत् साधना सहज, साध्य सदा दिलाती। दु:साधना दुखमयी विष ही पिलाती॥ (निरंजन शतक/२८) यह विपरीत साधना ही आप लोगों के दुखों का Foundation (नींव) है और इसको छोड़े बिना सुख मिलना असंभव है। तीन काल में भी आपके मन के विचार साकार नहीं हो पायेंगे, क्योंकि! साधना के बल पर ही हम साध्य को प्राप्त कर सकते हैं। साधना आप लोगों की दुख की है। आप राग-द्वेष को, विषय-कषाय को हटाना नहीं चाह रहे हैं और वीतरागता की उपासना आप करना चाहते हैं। वह वीतरागता की उपासना फालतू है आपकी। वह उपासना नहीं कहलाती, वह एकमात्र अभिनय है। नाटक आप खेलते रही-खेलते रहो, आपको आनंद नहीं आएगा। आप इन शब्दों के पास जाकर के कुछ अपना काम करना चाहो तो होने वाला नहीं है। शब्द एक मात्र उस व्यक्ति को भाव तक पहुँचाने में सीढ़ी का काम करते हैं। लेकिन आप भाषा में ही अटक जाते हैं और प्राय: अपने ध्रुव बिन्दु को भूल जाते हैं। इस दुनियाँ का स्वभाव ध्रुव बिन्दु को भूल जाना ही बन चुका है। आप लोगों का लक्ष्य एक दिन तक ही चलता है दूसरे दिन लक्ष्य छूट जाता है। भौतिक विषयों की चमक-दमक में उसका जो कोई भी लक्ष्य है वह छूट जाता है और भटक जाता है और ऐसा भटक जाता है कि वर्षों तक मालूम नहीं पड़ता। इसलिए सच्चा साधक कभी भी बाधक कारणों को नहीं भूलता, सर्वप्रथम याद रखता है कि इसका फल क्या निकलेगा? दूसरी बात है कि जिसकी प्रत्येक श्वास में लक्ष्य सामने रहता है वही व्यक्ति वास्तविक साधक माना जाता है किन्तु जो उदयागत कर्मों की चपेट में आकर लक्ष्य को भूल जाता है वह कभी भी लक्ष्य को नहीं पा सकता | भगवान् महावीर की उम्र उस समय ३० वर्ष की थी जिस समय उन्होंने दीक्षा धारण की थी। उन्होंने ऐसा कौन सा लक्ष्य बनाया जिससे बारह वर्ष के अथक परिश्रम के उपरान्त उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। आज भी तीस-तीस साल के नौजवान कई हैं तो तीस मिनट क्या तीस सैकेंड में उनका मन डायवर्ट हो जाता है। कुछ तो मन उछाल लेता है कि मैं भी ऐसा करूं ! करूं कि नहीं? उसके पीछे-पीछे और भी संकल्प विकल्प जो भटकाने वाले हैं, वे सारे के सारे मिलकर उसे विचलित कर देते हैं। साधक की यह परिभाषा ध्यान रखने योग्य है उस पथिक! की क्या परीक्षा, पथ में शूल न हो| उस नाविक! की क्या परीक्षा, धारा प्रतिकूल न हो || हम तट पर रह करके कुछ काम करना चाहते हैं और फल यह निकलता है कि थोड़ी सी भी कठिनाई आने पर कार्य करना बन्द कर देते हैं। फिर कार्य कैसे हो सकता है? जिस समय धारा प्रतिकूल रहती है उस समय वह नाविक अपनी चतुराई के साथ इस छोर से उस छोर तक चला जाए, यही एकमात्र उसकी परीक्षा है, परख है। कई युवक आए मेरे पास उनमें कोई B.A. था, तो कोई M.A., कोई LL.B. आदि आदि। लेकिन जब उनके मुख से हड़तालों की आवाज सुनता हूँ तो दंग रह जाता हूँ कि ये संस्कार इनमें कैसे और कहाँ पड़े। जिस समय उनके Exam (परीक्षा) आती है, उस समय उनकी माँग होती है कि परीक्षा की तिथि बढ़ा दी जाये, नहीं तो हम हड़ताल करेंगे, अनशन करेंगे। भैया ३६५ दिन तो दिये हैं और फिर भी एक माह के लिए माँग, एक माह की कोई बात नहीं है वह पूरी हुई नहीं कि दूसरी माँग और अनेक माँगे साथ-साथ आ जाती हैं। इससे अच्छा तो यही है कि University में कोई ऐसी मशीन तैयार की जाए जो उन युवकों के लिए प्रमाण-पत्र वितरित कर दे। सीधीसीधी बात तो यह है कि परीक्षा की भी क्या आवश्यकता है और अध्ययन की भी क्या आवश्यकता है अब जो चाहो वही कर लो। हम परिश्रम से डरते हैं, फल यह निकलता है यह अनायास की नीति हमें रसातल की ओर ले जाती है। विकास चाहते हुए भी उसका विनाश हो जाता है और वह विनाश इसलिए हो जाता है कि इसकी कोई साधना नहीं रहती। भगवान महावीर ने सर्वप्रथम यह कहा है कि सत् साधना अनिवार्य है। उसमें देर भले ही लग जाये पर अन्धेर नहीं होना चाहिए और आप Readymade जीवन व्यतीत करने वाले हैं। सुबह का शाम को नहीं.नहीं बहुत देर हो गई इतना अंतराल तो ठीक नहीं है। आप डॉक्टर के पास जाकर के कहते हैं कि दवाई लिख दो और बस! लिखते ही रोग दूर होना चाहिए, दवाई पीना तो दूर रहा। इसी कारण एक रोग के जाते ही दस और नये पैदा हो जाते हैं और आप यह जान नहीं पाते । विपरीत दिशा की ओर आप बहुत तेज गति से बढ़ते जा रहे हैं। इसका ध्यान ही नहीं रहा कि मील के पत्थर के ऊपर क्या लिखा है ? इससे क्या मतलब है बस ! अपने की जाना है। उसके साथ-साथ ये भी तो विचार करो की मुझे कहाँ जाना हैं ? एक व्यक्ति ने बड़े विश्वास के साथ कलकत्ता से बॉम्बे जाने का टिकट खरीदा और वह मद्रास से आया था, सफर के कारण बहुत थका हुआ था। वह टिकट खरीद करके देहली वाली गाड़ी में बैठ गया कि अब तो सुबह जा करके उठना है और वह निश्चित होकर सो गया। गाड़ी जा रही है देहली की ओर उसे जाना था बॉम्बे, कोई भी व्यवधान नहीं है। ज्यों ही वह देहली के स्टेशन पर उतरता है, तो क्या बॉम्बे आ गया ? जब साईन बोर्ड पर देहली देखता है तो कहता है कि अरे! यह तो देहली आ गई। अब तो मुश्किल हो गई क्योंकि उसके सारे के सारे रुपये खत्म हो गये थे, अब निर्वाह कैसे हो और दूसरी बात यह है कि वह चोर साबित हो गया। टिकट Checker ने कहा कि तुम्हारा टिकट कहाँ है ? वह टिकट देता है पर वह टिकट तो बॉम्बे का था, अत: वह टिकट Checker कहता है कि तुमने बदमाशी की है। वह व्यक्ति कहता है कि नहीं.नहीं मैंने बदमाशी नहीं की है। ठीक है यदि बदमाशी नहीं कि तो हजार मील की यात्रा की है, फिर भी आपको इतना ख्याल तो रखना चाहिए कि यह गाड़ी कहाँ तक जायेगी कम से कम पूछना तो चाहिए था वह कहता है मैंने टिकट तो खरीदा है? तो मात्र टिकट खरीदने से क्या मतलब है? यात्री का स्टेशन पर आते ही कर्तव्य अनिवार्य हो जाता है कि यह गाड़ी किधर से आई है और किधर तक जाएगी और मुझे कहाँ जाना है और मैं कहाँ से आ रहा हूँ। हम यही तो भूल जाते हैं, सोचते हैं कि टिकट खरीद लिया है तो इसी के माध्यम से सब कुछ हो जायेगा किन्तु ऐसा नहीं है, जब तक कार्य सम्पन्न नहीं होता, तब तक साधक को परम सावधानी बरतना चाहिए यदि किसी प्रकार की वह असावधानी करता है तो वह बहुत जल्दी लक्ष्य से च्युत हो जाता है। भगवान् महावीर ने यह ध्यान रखा था कि साधनों के क्षेत्र में अहिंसा ही एकमात्र पाथेय का काम कर सकती है और इसके विपरीत हिंसा, राग, द्वेष, मोह, मत्सर इसके लिए प्रतिकूल है। इनके माध्यम से यदि मैं चलेंगा तो तीन काल में काम नहीं होगा। दूसरी बात यह है, उन्होंने ये भी विशेषता बताई है कि साधना अपनाने से पहले बाधक कारणों को पहले हटाओ। बाधक कारणों को हटायेंगे तो साधक कारण अपने आप आ जायेंगे। साधक कारण अपने आप आ गये हैं लेकिन बाधक कारणों का अभाव नहीं हुआ है तो भी ध्यान रखना, वह संसार से पार नहीं हो सकता है। जीवन में भगवान् महावीर का एक उद्देश्य रहा है कि उन्होंने अहिंसा को अपनाया इतना ही नहीं हिंसा का कोई काम भी नहीं किया बल्कि हिंसा का निषेध ही किया। हिंसा का जैसे-जैसे निषेध किया वैसे-वैसे अहिंसा उभरती गई उनके अंदर, कहीं बाहर से लाने की आवश्यकता नहीं पड़ी। बाहर से प्रकाश को लाने की आवश्यकता नहीं, मात्र अंधकार मिटाना है। जैसे-जैसे अंधकार मिटता जाएगा वैसे वैसे प्रकाश उद्धृत होता जायेगा। कुछ साधन आपने रखे हैं लेकिन उनका समुचित प्रयोग करना आप नहीं जानते और जब तक समुचित रूप से प्रयोग नहीं होगा तब तक आप अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सकेंगे। जब तक माइक बोलता रहता है तब तक आप कानों को इधर-उधर रखकर सभा में हल्ला-गुल्ला करते हैं, और जब वह बंद हो जाता है तब आप कान लगा करके सुनते हैं। आपने अपने जीवन को बहुत व्यस्त बना रखा है कि उसमें बहुत समय अनावश्यक चला जाता है। जीवन बहुत छोटा है और उस छोटे से जीवन में भी हमने इतना समय निकाल रखा है फालतू कामों के लिये कि उनकी कोई गिनती नहीं है। भगवान महावीर ने कहा कि अपव्यय इस जीव को बहुत सताता है, व्यय नहीं सताता किंतु अपव्यय जीवन में आकुलता पैदा कर देता है। समय का अपव्यय, धन का अपव्यय, शारीरिक शक्ति का अपव्यय। अपव्यय बहुत प्रकार के होते हैं। आप लोगों को यह मालूम ही नहीं पड़ता कि हमारा सारा का सारा जीवन अपव्यय की कोटि में जा रहा है। इसलिये अंतिम समय में जाकर के वे पश्चाताप का अनुभव करते हैं और अंत में पश्चाताप करने से कुछ नहीं होता। आधे दिन पाछे गए हरि से किया न हेत। अब पछतावे होत क्या चिड़िया चुग गई खेत॥ एक महिला दूध तपा रही है। उसने ध्यान नहीं दिया कि दूध तप रहा है, करीब आधा घंटा हो गया। अग्नि के तेज होने से वह ऊपर आ रहा है, उस महिला ने यह नहीं देखा कि उसमें क्या प्रक्रिया हो रही है। जैसे ही पानी सूखा वैसे ही दूध पात्र से बाहर आ गया। उस समय वह महिला उसको फूंकने लग जाती है फिर भी फ्रैंकते-फूंकते वह दूध ऊपर आ जाता हे वह रुकता नहीं है क्योंकि उसको जितनी ऊष्मा चाहिए थी उससे ज्यादा हो गई उसका अपव्यय हो गया। ऐसी स्थिति में हानि ही होगी। फूंकने से वह रुकेगा नहीं, वह नीचे नहीं जाएगा, बल्कि थोड़ी सी धारा छोड़ दो पानी की। घाटा पड़ जाता है, घाटा तो पड़ेगा ही, अपव्यय में घाटा नियम से पड़ता है। हमारा सारा का सारा जीवन आदि से अंत तक अपव्यय की कोटि में जा रहा है। जिस व्यक्ति ने बाधक कारणों को नहीं हटाया और साधक कारणों के बारे में प्रयास कर रहा है उसे जीवन के अंत समय में पश्चाताप ही लगता है और कुछ नहीं। प्राय: जो विषय कषाय नहीं छोड़ते वे भी जीवन के अंतिम समय में पश्चाताप करते हैं। जब वे अपना इतिहास देखते हैं तो उन्हें रोना आ जाता है कि मैंने अपने जीवन में कुछ भी धार्मिक कार्य नहीं किया। अब मुझे नीचे जाना पड़ेगा इसलिए वह डरता है और रोता है। जिसने अच्छे कार्य किये हैं, उसे अंत समय में रोना नहीं आता वह पश्चाताप नहीं करता। वह अवश्य ही विजयी बनता है वह सोचता है कि मैंने साधना की है, अपने जीवन को अपव्यय से बचाया है। इस तरह मेरे जीवन में कोई भी कमी नहीं रही है अब आगे का जो जीवन होगा वह मेरे अनुरूप होगा। प्रयास भूमिका से ही प्रारंभ होना चाहिए, समीचीन साधना होनी चाहिए। यदि उतावली में आप कोई भी काम करोगे तो वह नियम से ठीक नहीं होगा। सावधानी के साथ कार्य करोगे तो अच्छा होगा। जो कुछ भी कार्य, साधना हो वह अहिंसापूर्वक हो, राग-द्वेष को कम करते हुए हो। अहिंसा किसी चिड़िया का नाम नहीं है, जिसको आप पाना चाहते हैं। किन्तु राग-द्वेष को हटाना ही अहिंसा है। जो राग-द्वेष से सहित है वह हिंसक है और वे बहुत ही जल्दी अपनी साधना के मार्ग से स्खलित हो जाते हैं। प्रति फलस्वरूप उन्हें राग-द्वेष एवं हिंसा ही हाथ लगती है। महावीर स्वामी ने अपने आपको बहुत जल्दी राग द्वेष से निवृत्त किया था। समीचीन साधनों को अपनाकर बहुत जल्दी बारह साल में ही उन्होंने अपना काम किया और उसमें ध्यान रखना बारह साल का समय प्रवाह की अपेक्षा से लगा था वैसे मात्र अंतर्मुहूर्त में ही उन्हें कैवल्य की उपलब्धि हो गई थी, लेकिन जब तक समीचीन साधना की पूर्ति नहीं हुई थी तब तक चराचर पदार्थों को जानने वाला वह केवलज्ञान उपलब्ध नहीं हुआ था। बंधुओ जिस समय साधना पूर्ण हुई उसी समय कैवल्य की अनुभूति प्राप्त हो गई। उन्हीं के अनुसार अपने को राग-द्वेष की प्रणाली से बचाते हुए, अहिंसा की गोद में अपने-आपको समर्पित करना है। अनादिकाल से हमें अहिंसा की उपलब्धि नहीं हुई है और जब तक अहिंसा की उपलब्धि नहीं होगी तब तक हमारी जो साधनायें हैं, वे मात्र दुख देने वाली हैं। दुख को यदि मिटाना चाहते हो, तो यह ध्यान रखो! समीचीन साधनों का आलम्बन लेना परमावश्यक है। भगवान महावीर के बारे में कई लोगों की उल्टी धारणायें हैं। चूँकि जब से उन्होंने समीचीन पथ का आलम्बन लिया और उस पथ पर अपने आपके जीवन को चलाना प्रारंभ किया तब उनके जीवन की कोई ऐसी घटना नहीं है जो परोपकारमय हो, लेकिन आप लोग परोपकार को महत्व देते हैं। उसकी ओर हम ध्यान नहीं रख पाते कि, परोपकार से बढ़कर भी कोई चीज है और वह है स्व के ऊपर उपकार करना बस! यही महावीर भगवान का वास्तविक Foundation (नींव) है। स्व के ऊपर जो उपकार करेगा, उससे बढ़कर और कोई परोपकार नहीं होगा। तो इससे यह सिद्ध हो जाता है कि जिस व्यक्ति ने पर से मुख मोड़ लिया, पर के प्रति जो बाधक कारण उपस्थित कर रहा था वह बिल्कुल down (कम) हो गया। यह नहीं समझना चाहिए कि हम पर के लिए उपकार करते हैं तो उपकार नहीं करते हैं। यह लेन-देन चलता रहता है सेर भर देना और सवा सेर लेना यह आपका धंधा है। दिखता ऐसा ही है कि मैंने पर के ऊपर कुछ उपकार किया है किन्तु वह पर के ऊपर उपकार नहीं है। जो पर के लिए कुछ करता है वह अपने लिए स्वार्थ-सिद्धि की इच्छा तो रखता ही है। और जिस समय आप उपकार करते हैं, उस समय दूसरे को कोई बाधा नहीं होनी चाहिए आपके माध्यम से इसलिए आचार्यों ने उपकार करने से धर्म होता है ऐसा नहीं कहा किन्तु जो अपने ऊपर उपकार करना प्रारंभ कर देता है, उस समय उसके माध्यम से पर के ऊपर उपकार होता चला जाता है। आप दूसरे पर उपकार मत करो कोई बात नहीं! लेकिन तुम यदि उसके लिए बाधक कारण उपस्थित नहीं करोगे तो पर के प्रति आपका महान् उपकार माना जाएगा। जिस समय आप प्रवृत्ति करोगे तो उस समय उसको कुछ न कुछ धक्का अवश्य लगेगा । मान लो कोई स्वर्णाभरण बनाना होंगे तो, स्वर्ण का आभरण अलग चीज है और स्वर्ण अलग चीज है। जिस समय आप स्वर्ण के बारे में पूछते हैं, तो वह बिल्कुल Pure (शुद्ध) रहेगा ज्यों ही उसको आभरण के रूप में देखना चाहोगे तो कुछ ना कुछ बट्टा अवश्य आएगा। उस बट्टे के बिना वह आभरण बन नहीं सकता क्योंकि सोने का गुण छुपाना है, थोड़ा सा भी धक्का लग जाए तो वह आभरण कंगन आदि टूट जाएगा। यदि आप उस सोने को, कंगन के रूप में देखना चाहोगे तो वह १०० टच नहीं रह सकेगा। उसमें कुछ न कुछ बट्टा अवश्य आएगा, मिलावट अवश्य आएगी तभी आप उस कंगन को धारण कर सकोगे। उसी प्रकार ज्यों ही आपने पर के प्रति उपकार करने की दृष्टि बनाई, त्यों ही उसमें बट्टा लग गया। मरहम पट्टी बांधकर, वृण का कर उपचार। ऐसा यदि ना बन सके, डंडा तो मत मारा। (दोहा-दोहन) हम करना यह चाहते हैं और यह कहकर के अपने आपको कृतार्थ बनाना चाहते हैं कि मैंने मरहम पट्टी की, ये किया, वो किया, मरहम पट्टी के माध्यम से उस व्यक्ति को हम बांधना चाहते हैं। घाव ठीक होने के उपरांत जब कभी भी वह मिल जाता है तो आप कहते हैं कि हमने तुम्हें उस दिन मरहम. पट्टी. चिपका दी थी और इस माध्यम से आप उस व्यक्ति को मोल खरीदना चाहते हैं बल्कि उसका भावी जीवन भी बंध गया। आपकी मरहम पट्टी में वह बिक जायेगा। किसी को आप एक रोटी भी खिलाते हैं तो बस! हो जाता है काम और उसको जीवन भर कहने के(टोकने के) आप अधिकारी हो जाते हैं। थोड़ा भी समय मिला और आप कह देते हैं कि देख लो क्या इतिहास था तुम्हारा अब चार दिन के लिए सेठ बन गये हो। समीचीन अध्ययन आज तक हमने नहीं किया और निस्वार्थ सेवा भी नहीं की। किसी सज्जन ने एक बार मुझे सुनाया था कि एक व्यक्ति तालाब में डूब रहा था। वह जिस समय तालाब में डूब रहा था उस समय दूसरे व्यक्ति ने देख लिया, वह तैरना जानता था उसने अपनी मेहनत और परिश्रम से उस डूबते हुए व्यक्ति को बचाया, तालाब से बाहर निकाला और बाहर निकालने के उपरांत वह व्यक्ति जो डूब रहा था उस व्यक्ति की कृतज्ञता के प्रति नम्रीभूत होकर बोला-आपने मुझे जीवन प्रदान कर बहुत बड़ा उपकार किया और इसके लिये तो मैं कभी भूलूगा नहीं। आप यदि कुछ सेवा मुझसे चाहो तो कहो, नहीं. नहीं, मुझे अभी आवश्यकता नहीं है। कुछ समय उपरांत जिसने बचाया था उस व्यक्ति ने कविता लिखना प्रारम्भ किया तो वह सोचता है मैं कविता तो लिखता हूँ अत: मेरा प्रचार-प्रसार भी अधिक होना चाहिए और जो व्यक्ति डूब रहा था वह किसी प्रसिद्ध पत्रिका का संपादक था, तो वह सोचता है कि मैं उससे जाकर के कह सकता हूँ। बात यह थी कि उसकी कविता कोई भी पत्रिका वाले मंजूर नहीं कर रहे थे, वह जाकर कहता है कि आज मेरा थोड़ा सा काम है; हाँ! हाँ! बोलो आपको तो कभी भूलेंगा नहीं, संपादक ने बड़ी नम्रतापूर्वक कहा। यह एक मौलिक कविता है जिसको मैंने लिखा है, कितनी अच्छी है देखो तो सही इस प्रकार अपने आप शाबाशी लेकर के कहा। संपादक कविता पढ़कर बोला कि भाई साहब आप ऐसा करो कि मुझे तालाब के पास ले चलो, जिसमें मैं डूबा था और आप मुझे डुबा दो! मुझे डूबना मंजूर है लेकिन आपकी यह कविता छापना मंजूर नहीं है। आप लोगों ने अर्थ समझा होगा कोई व्यक्ति यदि उपकार करता है तो प्रत्युपकार की इच्छा से करता है। आप Balance में देखते रहते हैं कि मैंने इतने-इतने कार्य किये हैं, जब कभी भी प्रसंग आ जाए तो उतने-उतने उपकारों के आप दावेदार हैं। आपके पास Date (तारीख) तक लिखी रहती है कि जब कभी भी काम होगा तब पकड़ेंगा जाकर के उसकी Collar को। बन्धुओ! यह उपकार नहीं एक प्रकार का व्यवसाय है। इस प्रकार के व्यवहार से महावीर भगवान् कोसों दूर रहते थे। यदि हम किसी के ऊपर उपकार नहीं कर रहे हैं किन्तु जिसके पैर में घाव हुआ है, उस पर नमक भी नहीं डाल रहे हैं तो हम उसके प्रति महान् उपकार कर रहे हैं। यह रहस्य महावीर भगवान् के जीवन का रहा और राग-द्वेष उनके हृदय में जन्म नहीं ले पाये। राग-द्वेष पर की अपेक्षा से जन्म लेते हैं। स्व की अपेक्षा से राग-द्वेष कभी पैदा नहीं हुआ करते। हम वस्तु को छोटा, बड़ा, हल्का, भारी कहते हैं। गौण रूप से छोटे के सामने बड़ा अवश्य है और हल्के के सामने भारी अवश्य है, गुणवान के सामने अवगुणी अवश्य है। इस प्रकार की तुलना जब तक होती रहेगी तब तक राग-द्वेष अवश्य रहेगा। जो वस्तु को न बड़ा न छोटा कहता है, समता रखता है वही व्यक्ति भगवान महावीर के मार्ग पर अपने आपको नियुक्त कर पाता है। एक को अच्छा कह दें तो दूसरे को अपने आप धक्का लग जाता है। हम दूसरे को धक्का लगाने के लिए अच्छा बना लेते हैं अपने आपको। और ‘‘जो कुछ है. सो है' उससे किसी को धक्का नहीं लगता, मेरा-तेरा समाप्त हो जाता है। प्रवचन तो हो ही जाएगा, प्रयास तो यही करूंगा। घड़ी तो बहुत जल्दी-जल्दी चल रही है क्या बात है? महावीर भगवान् का शासन समाप्त हो गया? मैं यह कह रहा हूँ जब तक यह संसारी प्राणी तेरा-मेरा करता रहेगा, तब तक राग-द्वेष होता रहेगा। भगवान् महावीर ने कहा कि राग-द्वेष को हटाना मोक्ष-मार्ग में अनिवार्य है। तेरा-मेरा हटाकर के जो कुछ 'मैं रूप' सत्ता है उसे भी उन्होंने राग-द्वेष बढ़ाने की उपाधि दी है। कौन? क्या? इसके बारे में उपाधियाँ लग जाती हैं। प्रत्येक के लिए 'क' का प्रयोग है। और ‘है' का प्रयोग जो है वह विशेष रूप से क्या करता है प्रत्येक की व्यवस्था करता है और उसमें किसी प्रकार का तेरा-मेरा नहीं होता और तेरा-मेरा नहीं होने से उस ‘है' में कभी राग-द्वेष नहीं होता। भगवान् महावीर स्वामी ने अपने आपको ‘है" के रूप में परिवर्तित कर दिया। और ‘है" के रूप में परिवर्तित होते ही जो अनादिकाल से ‘मैं, मैं", मेरा-तेरा समाप्त हो गया इसलिए वे केन्द्र तक पहुँच गये। केन्द्र तक पहुँचने के लिए परिधि का त्याग परमावश्यक है। प्राय: करके परिधि के ऊपर जो नाचता रहता है उसके लिए वह केन्द्र बिन्दु प्राप्त नहीं हो पाता। जो कुछ मजा है वह केन्द्र बिन्दु में है, परिधि में मजा नहीं है। केन्द्र में सुरक्षा है और परिधि में जीवन समाप्त। एक बार की बात है पिताजी और पुत्र जा रहे थे। नाम तो आपको मालूम है, कबीरदास जी और उनका बेटा! कमाल! पिताजी कहते हैं कि देखो बेटा यह सारा का सारा संसार पिसता जा रहा है कोई सुखी नहीं है। संसार के सारे के सारे जितने भी जीव हैं सब दुखी हैं। और यह संसार दुख का अनुभव किस प्रकार कर रहा है उसके लिए वे चक्की का उदाहरण देते हैं। जिस प्रकार चक्की के दोनों पाटों में धान के दाने पिस रहे हैं उसी प्रकार सारा का सारा संसार दुख और सुख रूपी चक्की में पिसता जा रहा है। यह सब बात सुनकर कमाल कहता है कि पिताजी! एक बात मैं कहना चाहता हूँ। वास्तव में बात तो आपने बहुत अच्छी कही है। पूरे सोलह आने तो मैं कह नहीं सकूंगा, किन्तु सत्य बात, रहस्य की बात यह है कि सारा का सारा संसार दुखी ही हो ऐसा कोई नियम नहीं है। किन्तु कुछ ऐसे भी प्राणी हैं जो सुख का अनुभव कर रहे हैं। आपने जो उदाहरण दिया है, वह पूर्ण रूप से सिद्ध नहीं है। आपका उदाहरण भी स्ववचन से बाधित है, कैसे है ? एक बात मैं यहाँ पर बताना चाहूँगा कि गुरु और शिष्य में जिस समय वार्तालाप होता है, उस समय यदि शिष्य गुरु की थोड़ी सी भी गल्ती निकाल लेता है तो गुरु को बहुत आनंद होता है कि हाँ! अब इसके बारे में मुझे कोई चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसके ज्ञान में प्रौढ़ता आ गई है अब यह तैयार हो गया है। कबीर कहता है कमाल से कि बता दे बेटा! क्या बात है जिससे में भी शिक्षा ले सकूं। तब वह कमाल कहता है कि पिताजी! आपका उदाहरण एक देश तो घटित हो रहा है सर्व देश नहीं, हाँ.हाँ बेटा! मैंने वही तो पूछा है कि कैसे नहीं सर्व देश घटता। इस चक्की में धान तो पिस रहे हैं, प्राय: सभी पिस रहे हैं लेकिन.लेकिन! क्या? बोली तो सही। जो केन्द्र में कील के सहारे धान है वे धान के दाने तीन काल में पिस नहीं सकते और में भी केन्द्र के बारे में बात कर रहा था। परिधि में सारे के सारे धान पिसते जा रहे हैं। उस चक्की को तो छोड़ दीजिये, महिलायें जब चक्की चलाती हैं तब जाकर के देख लीजिए, वह बार-बार धान तो डालती हैं पर अंगुलियों से यूँ यूँ करती जाती हैं। मैंने सोचा कि धान तो डाल दी अब ऐसा क्यों करती हैं हाथ हटाना चाहिए। तो मालूम पड़ा कि उसमें भी कुछ धान ऐसे मजबूत रहते हैं जो कीले को छोड़कर नहीं जा रहे थे और उस महिला को तो आटा बनाना है। कोई भी धान का दाना रह ना जाये इसलिए वह बार-बार ऐसेऐसे (अंगुली चलाकर इशारा) करती रहती थी। बिल्कुल ठीक है कीले के पास जो रहेगा वह भले ही चक्की एक घंटा भी चलती रहे तो भी वह धान का दाना पिसेगा नहीं। इसी प्रकार पिताजी! बात ऐसी है कि जो राग-द्वेष की परिधि के ऊपर नाच रहे हैं, पर्यायों के ऊपर नाच रहे हैं वे तो पिसेंगे और उनका आटा बनेगा। किन्तु जो राग-द्वेष नहीं करेगा तो उसकी पर्यायदृष्टि मिट जायेगी और पर्यायदृष्टि नहीं होगी तो उसी में वह साबुत रहेगा, उसको कौन मिटा सकता है। संसारी प्राणी कभी सोचता है कि मैं राजा बन गया और जब तक प्रजा है तब तक राजा है। प्रजा पलटेगी तो फिर राजा खाजा बन जाएगा नाम तक नहीं रहेगा। खाजा का अर्थ क्या है? खाजा एक पकवान का नाम है। तो वह राजा तब तक रहता है जब तक प्रजा पलटी नहीं है यानि उसके अनुकूल है। तो उसी प्रकार जब तक हम राग-द्वेष करते रहेंगे तब तक मिटते रहेंगे और हमारा कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में वह खुशबू, वह महक हमें नहीं आ सकती। हमारा जीवन दुर्गन्धमय रहेगा। जीवन सड़ता ही जा रहा है, यह पर्यायबुद्धि का ही एकमात्र परिणाम है। महावीर स्वामी ने आज के दिन अनादिकाल से जो पर्यायबुद्धि चल रही थी, उसे हटा दिया, और जो श्रीव्य है जिसे केन्द्र बिन्दु कहना चाहिए उसे प्राप्त कर लिया। केन्द्र में रहने वाला व्यक्ति कभी पिसता नहीं है। अब जन्म, जरा, मृत्यु उन्हें कुछ भी नहीं है। जन्म तो समाप्त हो जाता है और मृत्यु की ही मृत्यु हो जाती है और अनंत काल के लिए मात्र जीवन रहता है। इसलिए जो जीवन जीना चाहता है उस व्यक्ति के लिए यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि महावीर भगवान ने जो केन्द्र बिन्दु बनाई थी, वह है एकमात्र ‘सत्ता'! जिस सत्ता में किसी प्रकार की प्रक्रिया नहीं होती और होते हुए भी वह प्रक्रिया उसे बाधक नहीं होती। एक मुक्तक के माध्यम से आप समझ सकते हैं व्यक्तित्व की सत्ता मिटा दे, उसे महासत्ता में मिला दे। अार-पार तदाकार सत्ता मात्र निराकार। (मुक्तक–शतक) ऐसा जीवन बन जाये, जो आर-पार हो जाये, अटके नहीं। किसी प्रकार की अटकन न हो तो भटकन भी न हो! अटके नहीं आर-पार हो जाये। हमारी दृष्टि अटकती है, कहाँ अटकती है? पर्यायों में अटकती है, इसलिए हम दुखी हो जाते हैं। Transfer होता चला जाए, प्रत्येक द्रव्य में अंदर चला जाये ऊपर नहीं क्योंकि झगड़ा आदि कार्य जो भी हैं वे सब ऊपर में ही हैं, अंदर नहीं हैं। वह कैसा है? अंदर-कंदर मंदर सुन्दर और अंदर का अर्थ बिल्कुल द्रव्य में और वहाँ पर ऐसा कंदर है बहुत गहराई में जाने पर कोई आवाज कानों तक नहीं आ पाती। वहाँ पर सुन्दर चेतनात्मकता दर्शन रूप आत्मा बैठा हुआ है। एक पिक्चर देखी थी, उसमें एक व्यक्ति धन कमाकर अपने घर जा रहा था। उसका एक मंदिर था। पहले उसमें एक दरवाजा मिलता है, ५-६ कदम चलने पर दूसरा दरवाजा मिलता है इस प्रकार कई दरवाजे मिलते हैं। जैसे-जैसे वह अन्दर चला जाता है वैसे-वैसे वे दरवाजे बन्द होते चले जाते हैं। इसके उपरान्त वह एक गाना भी गाने लगता है। अंदर की आवाज बाहर तक नहीं आती। फिर अंतिम दरवाजा आता है तो वहाँ पर उसका साम्राज्य बिछा हुआ है, वहाँ पर उसकी धन दौलत थी। वह कभी ताला नहीं लगाता था। उसे देखकर वह आनंद का अनुभव कर रहा था। यह बहुत ठीक है अंदर, कंदर में वह ऐसी गहराई में जा रहा है बिल्कुल निभीक होकर के जहाँ पर कोई प्रवेश नहीं पा सकता और वह Revolving Chair (घमने वाली कुर्सी) पर घूम रहा था। मैंने कहा यह भी ठीक है इसी प्रकार महावीर भगवान् अंदर चले गये इतने अंदर चले गये कि वे अपने मंदर में आनंद के साथ घूम रहे हैं और अब अनंत काल तक उसी में घूमते हुए आनंद का अनुभव करेंगे। बंधुओ! आज के इस प्रवचन से यही शिक्षा लेना है कि यदि किसी का उपकार नहीं कर सकते हो तो अपकार करने के भाव मत करो और वास्तविक सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये तो अपने ऊपर उपकार करते जाना ही सही मायने में परोपकार करना है। जैसा कि महावीर भगवान् ने अपने छद्मस्थ काल में हमेशा अपनी साधना की ओर ध्यान दिया था। अपनी आत्मा का कल्याण करने में जो साधक लगा हुआ है, अपने ऊपर ही उपकार करने में जो लगा हुआ है, वही व्यक्ति वास्तव में सभी जीवों के ऊपर उपकार (परोपकार) कर सकता है। भगवान् महावीर ने पहले आत्मकल्याण किया बाद में जनकल्याण किया। हमें भी भगवान् महावीर के समान ही आत्मकल्याण की ओर अग्रसर होना है और अन्त में एक मुक्तक कहकर समाप्त करता हूँ- चेत चेतन चकित हो, स्व चिंतन वश मुदित हो। यों कहता मैं-भूला, अब तक पर में-फूला ॥ (मुक्तक-शतक)
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