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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पात्रता

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    पात्रता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. पात्र को ही पढ़ाना चाहिए। यदि योग्यता नहीं है तो नहीं पढ़ाना चाहिए। पात्र बनाकर पढ़ाना चाहिए। शुद्धि और विशुद्धि दोनों के साथ हमेशा जिनवाणी का, बृहद् ग्रन्थों का, आर्ष प्रणीत ग्रन्थों का, अध्ययन कराना चाहिए।
    2. दिन में भोजन, रात को जुगाली। ऐसे ही दिन में अध्ययन और रात में जुगाली के रूप में अध्ययन चिंतन होना चाहिए।
    3. जो अध्ययन ज्यादा करते हैं, वे चिंतन के क्षेत्र में प्राय: प्रमादी होते हैं।
    4. जो व्यक्ति सप्त व्यसन का त्याग नहीं करता उसको स्वाध्याय नहीं सुनाना चाहिए। जिनवाणी के लिए तर्क-युक्ति की आवश्यकता नहीं, जिनवाणी के लिए आस्था की आवश्यकता है।
    5. सम्यक दृष्टि जीव विद्या का दुरुपयोग नहीं करता है, इसीलिए पात्र को देखकर विद्या दी जाती है।
    6. योग्य व्यक्तियों को तैयार करना चाहिए और उन्हीं को समय देना चाहिए।
    7. सप्त व्यसन के त्याग बिना जिनवाणी सुनने की पात्रता ही नहीं आ सकती।
    8. उपदेश उसे दिया जाता है जो सुनकर अंगीकार कर सके। जब तक उपदेश सुनकर अंगीकार करने वाले नहीं होते तब तक उपदेश नहीं दिया जाता इस दृष्टि से मनुष्य ही उसके पात्र हैं।
    9. पाप के फल के रूप में जो सम्पदा आती है उसको पुण्य के रूप में ढालने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर देता है वह धन्यवाद का पात्र है।
    10. जो विनयवान हो, ग्रहण करने की योग्यता रखता हो, हमारी बात समझने की पात्रता जिसमें हो, उससे ही वचन व्यवहार करना चाहिए। अन्यथा मौन सदैव/सर्वत्र अच्छा साधन है।
    11. वीतराग धर्म सुनने से पूर्व उसके योग्य पात्रता बनाना भी आवश्यक है। जैसे सिंहनी का दूध स्वर्ण पात्र में ही रुकता है उसी प्रकार वीतराग धर्म का श्रवण करके उसे धारण करने की क्षमता भी सभी में नहीं होती।
    12. जो व्यक्ति जितनी पात्रता रखता है हमें उसे उतना ही पढ़ाना चाहिए। हम उसे सीधे अध्यात्म आदि की बात कहेंगे तो ठीक नहीं है।

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