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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • मन

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    मन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. यह मन दूसरे का स्वामी बनना चाहता है तो इस मन के कान पकड़ लेना चाहिए। स्वामी बनना है तो अपने स्वामी बनो इस प्रकार कह करके मन को समझा देना चाहिए।
    2. सबसे ज्यादा खराब यह मन है। इस मन के कारण ही इन्द्रियाँ विषयों की ओर चली जाती हैं। लेकिन ये मन कभी नहीं पिटता है इन्द्रियाँ पिट जाती हैं।
    3. मन सबका नियन्ता है। इस मन को नियंत्रण में रख लो तो सारी इंद्रियों को नियंत्रण में रख सकता है।
    4. इस मन को वश में रखने के लिए अंधे बन जाओ बहरे बन जाओ, गूंगे बन जाओ, बस इस प्रकार जो करना जानता है वो व्यक्ति साधना कर जाता है।
    5. धर्मध्यान सरल है तो बहुत कठिन भी है। ये सब मानसिकता का खेल है।
    6. जो मन को जीत लेता है तो वो ४ प्रकार के धर्मध्यान, चार शुक्ल ध्यान को ही करता है।
    7. जिसने मन को जीत लिया उसका हर समय धर्मध्यानमय रहता है।
    8. मन अपने निर्णय से दूसरे को समझाने का सदा प्रयास करता है लेकिन मोक्षमार्ग में पहले अपने आपको समझाना चाहिए फिर दूसरे को समझाना चाहिए।
    9. मन अनुकूलता पसंद करता है प्रतिकूलता नहीं।
    10. अपने मन को वश में करने वाले ही महात्मा माने गये हैं।
    11. मन को वश में करने का अर्थ मन को दबाना नहीं है, बल्कि मन को समझाना है। मन को समझाना, उसे प्रशिक्षित करना, तत्व के वास्तिविक स्वरूप की ओर जाना ही वास्तव में, मन को अपने वश में करना है।
    12. जिसका मन संवेग और वैराग्य से भरा है वही इस संसार से पार हो सकता है।
    13. जैसे घोड़े पर लगाम हो तो वह सीधा अपने गन्तव्य पर पहुँच जाता है। ऐसे ही मन पर यदि वैराग्य की लगाम हो तो वह सीधा अपने गन्तव्य मोक्ष तक ले जाने में सहायक होता है।
    14. जो मन पर लगाम लगाने का आत्म पुरुषार्थ करता है वही संयमी हो पाता है और वही कर्म के उदय को, उसके आवेग को झेल पाता है।
    15. इन्द्रियों को जीतना सेमीफाइनल है। और मन पर विजय पाना फाइनल है। इन्द्रियों को जीतने वाला सेमीफाइनल जीतता है और मन पर विजय पाने वाला फाइनल जीतता है। फाइनल जीतने पर पुरस्कार मिलता है।
    16. मन अदृश्य है किन्तु सबको अधीन में रखता है, संसार में नचा रहा है।
    17. मन और इन्द्रियों पर अपना अधिकार है तो मोक्षमार्ग पर जा सकते हैं। और इनके अधिकार में हम हैं तो मोह मार्ग पर चल रहे हैं। यह निर्णय स्वयं का है कि हमें अधिपति होना है या दास बने रहना है इनका।
    18. मन की आराधना छोड़कर हमें मन को आत्मा की आराधना की ओर लगाना है।
    19. धारणा बनाते ही धारण करने की क्रिया आरंभ हो जाती है।
    20. इन्द्रियाँ बूढ़ी होने पर भी मन जवान है वह काम कराता रहता है।
    21. इन्द्रियाँ और कषाय, ध्यान और गुप्ति से डरती हैं।
    22. मन का साथ देने से अविवेक काम करता है विवेक नहीं।
    23. मन की प्रतिकूल सोच सारे भावों को प्रतिकूल बनाती है। अत: मन को समझने की बात है, मन को समझाया जाता है। यह व्यवस्था विवेक के ऊपर आधारित है।
    24. मन में आई अनुभूति, उद्वेगों को अगर संयम के साथ विवेक से वश में कर लें तो क्रोध रूपी अग्नि मन में नहीं जल सकती और क्षमा भाव का उदय हो सकता है।
    25. मन को सन्तुलित करके रखा जाये तो उस पर काबू पाना आसान है।
    26. मन के ऊपर नियंत्रण असंयम से नहीं संयम से होता है।
    27. मन को वर्तमान की तरफ नहीं, वर्धमान की तरफ ले जाने की आवश्यकता है।
    28. जिनके जीवन में घृणा, ईर्ष्या, कलह-क्लेश, दुर्भावनाएँ रहती हैं वह व्यक्ति उतना ही अधिक मन से रुग्ण रोगी होता है।
    29. मन को चिकित्सा हेतु आवश्यक है कि आप अपने मन को दुर्भावनाओं से दूर रखें एवं सभी के प्रति मैत्री , प्रमोद, करुणा की भावना से मन को भरना होगा।
    30. जिस व्यक्ति का मन जितना अधिक चंचल होता है, उसका मन उतना ही अधिक अस्वस्थ रहता है।
    31. बारह सौ भावना भाने से मन नहीं लगता, बारह भावना भाना चालू कर दो अभी मन लग जायेगा।
    32. बाहर की ओर यदि मन जा रहा है तो निश्चित रूप से वह मन दूसरों का चाकर बनेगा और आपको वह बार-बार बाध्य करेगा।
    33. मन का विषय गौण रूप से बहुत कुछ है लेकिन मुख्य रूप से मन का विषय मान है।
    34. दुनिया में संघर्ष मन के माध्यम से हुआ करते हैं और हर्ष भी प्राय: करके मन के माध्यम से हुआ करते हैं।
    35. मन कभी भी समझना नहीं चाहता, मन तो हमेशा समझाना चाहता है उसी का नाम मान है।
    36. आत्मा समझना चाहती है तो आत्मा को कह दो कि मन की बात मत सुनो। फिर भी वह मन आत्मा को अपने घेराव में ले लेता है।
    37. मन आत्मा को अपने घेराव में लाता है और उससे नौकरी-चाकरी कराता रहता है।
    38. यदि सुख को प्राप्त करना चाहते हो तो मन को वशीभूत कर लो।
    39. मन स्वस्थ है तो सब कुछ स्वस्थ है और मन यदि अस्वस्थ है तो फिर कोई भी स्वस्थ हो ही नहीं सकता।
    40. कहते हैं, मन नहीं लग रहा है, ये बड़ी बीमारी है। सब कुछ लग रहा है और मन नहीं लग रहा ये क्या है? राजरोग बोलना चाहिए इसको।
    41. आत्मा तो मान लेती है लेकिन मन नहीं मानता है।
    42. मन कहाँ पर मानता है बताओ? मान मिलता है तो वह मान लेता है।
    43. मन नहीं माना बताओ कितनी मात्रा में चाहिए किलो में या टन में?
    44. मन का स्वभाव भूलना है उस भूल-भुलैया के साथ हम रहना नहीं चाहते हैं।
    45. जिस व्यक्ति को हम सारी बातें सुना दें, बता दें और वह भूल जाता है तो उस व्यक्ति के साथ रहना नहीं चाहिए।
    46. भूलने का स्वभाव मन का है आत्मा का नहीं।
    47. सबके ऊपर विश्वास करियो मन के ऊपर कभी भी विश्वास नहीं करियो, क्योंकि आँखों को धूल से बचा लो वो निर्मल रहेंगी, कानों को शब्दों से बचा लो वो निर्मल रहेंगे लेकिन मन को किससे-किससे बचाएँ? कोई न कोई आ जाता है और भूल भी जाता है।
    48. मन को काम में ले लेंगे तो वह शांत बैठ जायेगा लेकिन यह होता ही नहीं है। यह साहस की बात है।
    49. मन में जितना बल है, वचनों के बल से वह बहुत असीम है। वचनों में जितना बल है तन के बल से वह भी असीम है। तन का बल, धन के बल से असीम है। इसलिए धन से जो काम होता है वह बहुत कमजोर होता है।
    50. एक ही नियंत्रित मन चाहे तो वह सब कुछ काम कर सकता है।
    51. तन के मल को दूर किया जा सकता है। वाणी के मल को दूर किया जा सकता है, लेकिन मानसिक मल भी है, जिसे दूर करना बहुत कठिन हुआ करता है। उसके लिए साबुन सोड़ा कहाँ से लायें?
    52. एक मात्र अध्यात्म ऐसा साधन है जिसके द्वारा चित्तगत सारा का सारा मल दूर हो जाता है।
    53. वैज्ञानिकों न इस बात को स्वीकार कर लिया है, कि मन की चिकित्सा पहले अनिवार्य है, तन की चिकित्सा करें न भी करें तो चल सकता है |
    54. हमारी जो दूषित मानसिकता है उसको सत्साहित्य के माध्यम से परिमार्जित किया जा सकता है।
    55. मन की बात मानोगे तो हमेशा-हमेशा मन आपको नचायेगा।
    56. मन की बात मानने वाला महामना नहीं बन सकता।
    57. वैसे मन बहुत कमजोर है, वह इस अपेक्षा से कि उसका कोई अंग नहीं है लेकिन वह अंगअंग को हिला देता है। विचलित कर देता है।
    58. मन सबका नियन्ता बनकर बैठ जाता है। आत्मा भी इसकी चपेट में आ जाती है और अपने स्वभाव को भूल जाती है।
    59. इन्द्रियों को खुराक मिले या न मिले चल जाता है लेकिन मन को खुराक मिलनी चाहिए ऐसा यह मन है।
    60. मन भी बहुत कठोर होता है। ये ध्यान रखो मन के ऊपर भी घन पटकने वाले हम ही हैं। आत्मा को तो बचायेंगे लेकिन मन के ऊपर तो घन पटकना होगा हमें क्योंकि मन हिंसक होता है।
    61. स्वयं ही मर जाता है तथा दूसरे के लिए मरवा देता है।
    62. मन को आप काबू में रखो, आपकी शिक्षा बहुत कीमती होगी यदि मन को अधीन कर लिया तो
    63. ध्यान रखो सबसे ज्यादा कमजोर और अनिष्टकारी कार्य हो सकता है तो वो मन के माध्यम से यहीं शिक्षा सभी ग्रन्थों में दी है।
    64. हमें ये चाहिए वो चाहिए इसमें कुछ नहीं रखा, रात दिन लग जाओ, मन को बचाओ, सुरक्षित रखो तथा साथ ही शरीर को भी ये बहुत बड़ा मौलिक धन है, संयमलब्धि स्थान को प्राप्त किया है तो इसी के माध्यम से।
    65. हमारा मन किसी न किसी के वशीभूत तो है तभी तो हमें ये चाहिए, ये चाहिए, इस प्रकार ये चाहता ही रहता है। इस चाह को पूर्ण करने की क्षमता किसी के पास नहीं इसे समझना चाहिए।

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