भावना विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- भावना भाई जाती है पहले, बाद में ध्यान होता है। तीर्थंकर जैसे भी बारह भावना भाते हैं,उसके बिना वे भी घर से बाहर नहीं निकलते।
- वैराग्य भावना भी माँ के समान है, जो बच्चे को घर से बाहर निकालती है प्रेम से चलो बेटा अब घर से बाहर चलो।
- अच्छी-अच्छी भावनाओं को भाना। सात्विक भाव से साधना द्वारा कर्म निर्जरा करते रहना।
- अहंकार के साथ संवेदन की धारा टूटती है लेकिन भावना के साथ संवेदन की धारा जुड़ती है।
- सबसे महान् भावना है अपने को भूल जाना।
- आपकी बुद्धि की स्थिरता जितनी होगी, एकत्व भावना उतनी ही अच्छी चलेगी। इसके लिए बड़ी धीरता की गंभीरता की आवश्यकता है।
- अस्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति एकत्व और अन्यत्व भावनाओं को नहीं भा सकता है उसकी यह कमजोरी है।
- भावना के माध्यम से जो अपना आत्मतत्व दूषित है, एक प्रकार से धूमिल है, हम उसे उज्ज्वलता/निर्मलता दे सकते हैं।