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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पावन प्रवचन 13 - उपकार या परोपकार...

       (1 review)

    कहीं बाहर से प्रकाश को लाने की आवश्यकता नहीं, मात्र अंधकार मिटाना है। जैसे जैसे अंधकार मिटता जाएगा वैसे-वैसे प्रकाश उद्धत होता जाएगा। जो आत्मा का वास्तविक आधार है, जिसके माध्यम से जीवन में क्रान्ति आती है और सुख की प्राप्ति होती है वह है वीतरागता। उसी वीतरागता की प्राप्ति के लिए यह सारे के सारे प्रयास चल रहे हैं।


    किसी के ऊपर यदि आप उपकार नहीं कर पा रहे हैं तो कोई बात नहीं, किन्तु यदि आप दूसरों के पैरों में हुए घावों पर नमक नहीं छिड़कते तो भी समझो आप उसके ऊपर महान् उपकार कर रहे हैं। आज की पावन बेला में भगवान् महावीर को उस अलौकिक पद की प्राप्ति हुई है,जिस पद के लिए उन्होंने वर्षों तक अथक परिश्रम किया और वह परिश्रम तन से, मन से और वचन से किया था। उनकी वह साधना दुनिया के समस्त प्राणियों से भिन्न थी। दुनिया का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है किन्तु सुख के साधनों के प्रति वह इतना चिंतनशील, मननशील नहीं होता जितना होना आवश्यक है।

     

    साध्य की प्राप्ति के लिए साधन भी हुआ करते हैं, मोक्ष सुख एक साध्य वस्तु है जो कि प्राप्तव्य है, उसके लिए साधन के साथ-साथ साधना भी अनिवार्य है। ऐसी स्थिति में जो दुख से छुटकारा चाहता है उसके लिए यह अनिवार्य होता है कि वह समीचीन साधना की खोज करे । आज भी मोक्ष सुख को प्रत्येक प्राणी चाहता है किन्तु उसे प्राप्त न कर पाने का यही एकमात्र कारण है कि वे उसकी उस साधना में कहीं न कहीं अवश्य Fai| (असफल) हैं और जब तक उनकी साधना सही-सही नहीं चलेगी तब तक उन्हें उस अभीष्ट सुख से वंचित रहना ही पड़ेगा।


    अनंत सुख एक ऐसी चीज है जिसे हम महादुर्लभ कह सकते हैं, जो कि आत्मा का आनन्द एवं सबसे निकटतम गुण है। उसकी अनुभूति तभी हो सकती है जब रागद्वेष आशा तृष्णा को हम समाप्त करेंगे। भगवान महावीर का कहना यही था कि -


    यह सुख की परिभाषा।

    ना रहे मन में आशा।

    ईदृश हो प्रति भाषा।

    परितः पूर्ण प्रकाशा॥

    (मुक्तक शतक)

    उजाला अपने पास है, प्रात:काल की बात है। हमने पहले ही विचार किया कि दस साल का अनुभव अपने को जाग्रत था, भीड़-भाड़ अवश्य होगी। इसलिए बड़े बाबा के मन्दिर में ना रहकर हमने छोटे बाबा का मन्दिर ही पसन्द किया और वहीं पर सामायिक, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि कार्य निर्विध्न सम्पन्न किए। आज वैसे ही नींद, रात्रि बारह बजे से खुल गई क्योंकि बीच-बीच में आप लोगों की भीड़ जा रही थी। मैंने सोचा एक-एक करके भर्ती हो रही है, गाड़ियाँ आने लगी हैं। क्षेत्र कमेटी वाले यदि आपको १२ बजे ही छुट्टी दे देते तो आप बारह बजे से ही आ जाते पर वह दी नहीं गई।


    एक व्यक्ति ने हाथ में Torch ले रखी है। उसके माध्यम से वह प्रकाश प्राप्त कर रहा था। उस प्रकाश के माध्यम से जो वस्तु खो गई है, वह प्राप्त हो जाती है लेकिन उस समय Torch का मुँह किधर था वह उन्हें मालूम नहीं था, उन्होंने Button दबाया तो प्रकाश उनके मुँह पर पड़ा फलत: वह वस्तु जिसे, खोजना चाहते थे वह उन्हें प्राप्त नहीं हो सकी।


    वह देख रहा है सुख को किन्तु वह सुख अंदर है; बाहर नहीं, अपने पास है। ज्ञान का उपयोग हम बाहरी पदार्थों की ओर कर रहे हैं। ज्ञान तो अपना कार्य कर रहा है। ज्ञेयभूत पदार्थों को लाकर के आपके सामने रखेगा इसमें कोई संदेह नहीं, किन्तु हम उस ज्ञान का दुरुपयोग कर रहे हैं, इसलिए अनादिकाल से वह सुख हमारे पास होते हुए भी अज्ञात ही रहा है। हम बाहरी पदार्थों के ऊपर ही Torch मार रहे हैं और Torch का मारना ज्ञान का ही काम है। Torch का काम है दिखाना, वह तो पक्षपात नहीं रखता कि मैं-इसे दिखाऊँ और इसे ना दिखाऊँ। उसका काम है मात्र दिखाना। यही कारण है कि आप दूसरे पदार्थ से ही परिचित हो गए और स्वयं से अनभिज्ञ रहे क्योंकि कभी भी आपने अपने ऊपर उस Torch का प्रयोग नहीं किया। दीपावली मनाते हैं आप लोग। मराठी भाषा से विचार करने पर यह विदित होता है कि दिवाली आई. मैं उस भाषा की दृष्टि से यह कहना चाहूँगा कि दिवा अर्थात् दिन और अ का अर्थ है आई. क्या आई? दिवाली आई। भाषा ऐसी है कि वहाँ पर क्रियापद आली है। और दिवा अर्थात् दिन, उजाला। उस व्यक्ति के Torch मारने से मुझे चिंतन के लिए विषय मिला, उन सज्जन के लिए क्या मिला यह तो वे ही जानें उनको शायद आकुलता हो गई होगी कि अरे! महाराजजी ने देख लिया होगा और वे Torch बंद करके जल्दीजल्दी चले गये।


    आप लोग कहते हैं कि दीपावली आ गई. ३६५ दिन के लिए विराग। क्या कहूँ भैया! जिसके बीच रात, उसकी क्या बात तो ३६५ दिन और रात की कौन कहे? तो वह Torch वाला व्यक्ति भूलकर भी अपने आपको देखना नहीं चाहता था। यही एकमात्र हमारे पुरुषार्थ की कमी है। आपके पास साधन होने पर भी आप उसका समुचित रूप से प्रयोग करना नहीं चाहते और इस ही कमी ने आपको ऐसा धोखा दिया है अनादिकाल से कि आपके पास अनंत-सुख होते हुए भी उससे वंचित रहना पड़ा है। यह वैकालिक सत्य है, जब तक हम अपने ऊपर Torch नहीं मारेंगे तब तक हमें बाहरी पदाथों का अवलोकन ही मिलेगा अंदर का नहीं। यह उस केवलज्ञान की भूमिका का ज्ञान है-


    चेत चेतन चकित हो।

    स्वचिंतन बस मुदित हो।

    यों कहता मैं भूला।

    अब तक पर मैं फूला।

    (मुक्तक शतक)

    जिस समय वह वैराग्यमयी ज्ञान किरण अपनी आत्मा में उद्धृत होती है उस समय की यह बात है, जब हम समस्त विश्व को भूल जाते हैं और अपने उपादेय भूत आत्म तत्व की आरती उतारना प्रारंभ कर देते हैं, वह पावन घड़ी आज तक आप लोगों को उपलब्ध नहीं हुई और ऐसा भी नहीं है कि वह घड़ी दूसरों को मिल जाए तो आपको भी मिल जाए। दूसरे का जीवन भिन्न रहेगा।

    चूँकि इसका दृष्टिकोण भिन्न है, उसका आचार-विचार, उसका लक्ष्य, उसका केन्द्र बिन्दु सब कुछ पृथक् है। आप लोगों से मैं यही कहूँगा कि दूसरे की विशुद्धि, दूसरे का पुण्य आपके काम नहीं आने वाला है।


    भगवान महावीर स्वामी ने जिस समय अपने ध्यान-चिंतन के फलस्वरूप अपने आत्मा को पाया, उस समय कई व्यक्ति वहाँ पर बैठे होंगे, कई व्यक्ति देखते होंगे लेकिन प्रत्येक के लिए उसका लाभ नहीं होता क्योंकि उसको आप खरीद नहीं सकते। दूसरे को प्राप्त हुई सुखद घड़ियों के ऊपर आपका कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने प्रयास किया। फलस्वरूप उन्हें आत्मा की उपलब्धि हुई ऐसी स्थिति में हमें सोचना चाहिए कि हमारी साधना में कहाँ पर कमी है? और है तो क्यों? और इसके उपरांत उस कमी की पूर्ति कैसे होगी? ये तीन प्रश्न आपके मन में हर बार उठना चाहिए, उठने के उपरांत आपको तदनुकूल प्रयास भी करना आवश्यक हो जाता है। भगवान महावीर ने प्रयास किया था |


    वैराग्य से तुम सुखी,

    भज के अहिंसा।

    होता दुखी जगत है,

    कर राग हिंसा।

    जहाँ पर प्रभु विराजमान हैं वहीं पर सारा का सारा संसार विद्यमान है किन्तु वहाँ पर सुख यहाँ पर दुख है। वहाँ पर मुक्ति, यहाँ पर बंधन। दुख और सुख में कितना अंतर है ? बोलो. महाराज दु: और सु का तो अंतर है। दु: और सु का तो अंतर है लेकिन यही अंतर जमीन आसमान का है। जमीन से आप आसमान को नापना चाहो तो कभी आकाश में विराम नहीं पा सकोगे, आकाश को नाप नहीं सकोगे। ठीक उसी प्रकार दुख की सुख के साथ तुलना नहीं कर सकते। क्योंकि वह संभव ही नहीं।

     

    प्रभु महावीर का जीवन सुखमय था और संसारी जीवों का जीवन दुखमय है। हमारी साधनायें विपरीत चल रही हैं। उनकी साधना अहिंसा की थी और आपकी हिंसा की। उनकी साधना वीतरागता की है और आपकी सरागता की है।


    संसार सकल त्रस्त है

    पीड़ित व्याकुल विकल

    इसमें है एक कारण

    हृदय से नहीं हटाया राग को

    हृदय में नहीं बिठाया वीतराग को

    जो है शरण, तारण-तरण।

    (नर्मदा का नरम कंकर) एक व्यक्ति की दस खण्ड की बिलिंडग खड़ी है आपके पड़ोस में और आपकी भी वहीं पर Building (भवन) है पर जो उस दस खण्ड के मालिक को आनन्द आ रहा है, वह आपके लिए नहीं आ रहा है और दूसरी बात है उसी दस खण्ड के मकान में वह बीस घंटा गुजारता है। उसके मकान को देखकर आपका मन कहता है कि कब इस प्रकार की Building का निर्माण करूं । निर्माण करके क्या करेंगे? उसकी छाया में रहेंगे ये ही तो है। उसी प्रकार आप महावीर भगवान् का निर्वाण महोत्सव मना करके भी उनके सुख को छीन नहीं सकते। उस सुख का आप एक कण भर भी अनुभव नहीं कर सकते। जिन्होंने अपने जीवन में साधना की है, उन्होंने ही इस प्रकार की सिद्धि प्राप्त की है। ऐसे आज तक अनन्तों सिद्ध परमात्मा हो चुके हैं, हो रहे हैं और आगे भी होंगे। यह वैकालिक सत्य है, कि साधना करने वाले ही हुए हैं और हो रहे हैं आगे होंगे। हमारी साधना विपरीत चल रही है बंधुओ!


    वैराग्य से तुम सुखी, भज के अहिंसा।

    होता दुखी जगत है, कर राग हिंसा।

    सत् साधना सहज, साध्य सदा दिलाती।

    दु:साधना दुखमयी विष ही पिलाती॥

    (निरंजन शतक/२८)

    यह विपरीत साधना ही आप लोगों के दुखों का Foundation (नींव) है और इसको छोड़े बिना सुख मिलना असंभव है। तीन काल में भी आपके मन के विचार साकार नहीं हो पायेंगे, क्योंकि! साधना के बल पर ही हम साध्य को प्राप्त कर सकते हैं। साधना आप लोगों की दुख की है। आप राग-द्वेष को, विषय-कषाय को हटाना नहीं चाह रहे हैं और वीतरागता की उपासना आप करना चाहते हैं। वह वीतरागता की उपासना फालतू है आपकी। वह उपासना नहीं कहलाती, वह एकमात्र अभिनय है। नाटक आप खेलते रही-खेलते रहो, आपको आनंद नहीं आएगा। आप इन शब्दों के पास जाकर के कुछ अपना काम करना चाहो तो होने वाला नहीं है।


    शब्द एक मात्र उस व्यक्ति को भाव तक पहुँचाने में सीढ़ी का काम करते हैं। लेकिन आप भाषा में ही अटक जाते हैं और प्राय: अपने ध्रुव बिन्दु को भूल जाते हैं। इस दुनियाँ का स्वभाव ध्रुव बिन्दु को भूल जाना ही बन चुका है। आप लोगों का लक्ष्य एक दिन तक ही चलता है दूसरे दिन लक्ष्य छूट जाता है।


    भौतिक विषयों की चमक-दमक में उसका जो कोई भी लक्ष्य है वह छूट जाता है और भटक जाता है और ऐसा भटक जाता है कि वर्षों तक मालूम नहीं पड़ता। इसलिए सच्चा साधक कभी भी बाधक कारणों को नहीं भूलता, सर्वप्रथम याद रखता है कि इसका फल क्या निकलेगा? दूसरी बात है कि जिसकी प्रत्येक श्वास में लक्ष्य सामने रहता है वही व्यक्ति वास्तविक साधक माना जाता है किन्तु जो उदयागत कर्मों की चपेट में आकर लक्ष्य को भूल जाता है वह कभी भी लक्ष्य को नहीं पा सकता |


    भगवान् महावीर की उम्र उस समय ३० वर्ष की थी जिस समय उन्होंने दीक्षा धारण की थी। उन्होंने ऐसा कौन सा लक्ष्य बनाया जिससे बारह वर्ष के अथक परिश्रम के उपरान्त उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। आज भी तीस-तीस साल के नौजवान कई हैं तो तीस मिनट क्या तीस सैकेंड में उनका मन डायवर्ट हो जाता है। कुछ तो मन उछाल लेता है कि मैं भी ऐसा करूं ! करूं कि नहीं? उसके पीछे-पीछे और भी संकल्प विकल्प जो भटकाने वाले हैं, वे सारे के सारे मिलकर उसे विचलित कर देते हैं। साधक की यह परिभाषा ध्यान रखने योग्य है


    उस पथिक! की क्या परीक्षा, पथ में शूल न हो| 

    उस नाविक! की क्या परीक्षा, धारा प्रतिकूल न हो || 

    हम तट पर रह करके कुछ काम करना चाहते हैं और फल यह निकलता है कि थोड़ी सी भी कठिनाई आने पर कार्य करना बन्द कर देते हैं। फिर कार्य कैसे हो सकता है? जिस समय धारा प्रतिकूल रहती है उस समय वह नाविक अपनी चतुराई के साथ इस छोर से उस छोर तक चला जाए, यही एकमात्र उसकी परीक्षा है, परख है।


    कई युवक आए मेरे पास उनमें कोई B.A. था, तो कोई M.A., कोई LL.B. आदि आदि। लेकिन जब उनके मुख से हड़तालों की आवाज सुनता हूँ तो दंग रह जाता हूँ कि ये संस्कार इनमें कैसे और कहाँ पड़े। जिस समय उनके Exam (परीक्षा) आती है, उस समय उनकी माँग होती है कि परीक्षा की तिथि बढ़ा दी जाये, नहीं तो हम हड़ताल करेंगे, अनशन करेंगे। भैया ३६५ दिन तो दिये हैं और फिर भी एक माह के लिए माँग, एक माह की कोई बात नहीं है वह पूरी हुई नहीं कि दूसरी माँग और अनेक माँगे साथ-साथ आ जाती हैं। इससे अच्छा तो यही है कि University में कोई ऐसी मशीन तैयार की जाए जो उन युवकों के लिए प्रमाण-पत्र वितरित कर दे। सीधीसीधी बात तो यह है कि परीक्षा की भी क्या आवश्यकता है और अध्ययन की भी क्या आवश्यकता है अब जो चाहो वही कर लो। हम परिश्रम से डरते हैं, फल यह निकलता है यह अनायास की नीति हमें रसातल की ओर ले जाती है। विकास चाहते हुए भी उसका विनाश हो जाता है और वह विनाश इसलिए हो जाता है कि इसकी कोई साधना नहीं रहती।


    भगवान महावीर ने सर्वप्रथम यह कहा है कि सत् साधना अनिवार्य है। उसमें देर भले ही लग जाये पर अन्धेर नहीं होना चाहिए और आप Readymade जीवन व्यतीत करने वाले हैं। सुबह का शाम को नहीं.नहीं बहुत देर हो गई इतना अंतराल तो ठीक नहीं है। आप डॉक्टर के पास जाकर के कहते हैं कि दवाई लिख दो और बस! लिखते ही रोग दूर होना चाहिए, दवाई पीना तो दूर रहा। इसी कारण एक रोग के जाते ही दस और नये पैदा हो जाते हैं और आप यह जान नहीं पाते । विपरीत दिशा की ओर आप बहुत तेज गति से बढ़ते जा रहे हैं। इसका ध्यान ही नहीं रहा कि मील के पत्थर के ऊपर क्या लिखा है ? इससे क्या मतलब है बस ! अपने की जाना है। उसके साथ-साथ ये भी तो विचार करो की मुझे कहाँ जाना हैं ?

     

    एक व्यक्ति ने बड़े विश्वास के साथ कलकत्ता से बॉम्बे जाने का टिकट खरीदा और वह मद्रास से आया था, सफर के कारण बहुत थका हुआ था। वह टिकट खरीद करके देहली वाली गाड़ी में बैठ गया कि अब तो सुबह जा करके उठना है और वह निश्चित होकर सो गया। गाड़ी जा रही है देहली की ओर उसे जाना था बॉम्बे, कोई भी व्यवधान नहीं है। ज्यों ही वह देहली के स्टेशन पर उतरता है, तो क्या बॉम्बे आ गया ? जब साईन बोर्ड पर देहली देखता है तो कहता है कि अरे! यह तो देहली आ गई। अब तो मुश्किल हो गई क्योंकि उसके सारे के सारे रुपये खत्म हो गये थे, अब निर्वाह कैसे हो और दूसरी बात यह है कि वह चोर साबित हो गया। टिकट Checker ने कहा कि तुम्हारा टिकट कहाँ है ? वह टिकट देता है पर वह टिकट तो बॉम्बे का था, अत: वह टिकट Checker कहता है कि तुमने बदमाशी की है। वह व्यक्ति कहता है कि नहीं.नहीं मैंने बदमाशी नहीं की है। ठीक है यदि बदमाशी नहीं कि तो हजार मील की यात्रा की है, फिर भी आपको इतना ख्याल तो रखना चाहिए कि यह गाड़ी कहाँ तक जायेगी कम से कम पूछना तो चाहिए था वह कहता है मैंने टिकट तो खरीदा है? तो मात्र टिकट खरीदने से क्या मतलब है?


    यात्री का स्टेशन पर आते ही कर्तव्य अनिवार्य हो जाता है कि यह गाड़ी किधर से आई है और किधर तक जाएगी और मुझे कहाँ जाना है और मैं कहाँ से आ रहा हूँ। हम यही तो भूल जाते हैं, सोचते हैं कि टिकट खरीद लिया है तो इसी के माध्यम से सब कुछ हो जायेगा किन्तु ऐसा नहीं है, जब तक कार्य सम्पन्न नहीं होता, तब तक साधक को परम सावधानी बरतना चाहिए यदि किसी प्रकार की वह असावधानी करता है तो वह बहुत जल्दी लक्ष्य से च्युत हो जाता है।


    भगवान् महावीर ने यह ध्यान रखा था कि साधनों के क्षेत्र में अहिंसा ही एकमात्र पाथेय का काम कर सकती है और इसके विपरीत हिंसा, राग, द्वेष, मोह, मत्सर इसके लिए प्रतिकूल है। इनके माध्यम से यदि मैं चलेंगा तो तीन काल में काम नहीं होगा। दूसरी बात यह है, उन्होंने ये भी विशेषता बताई है कि साधना अपनाने से पहले बाधक कारणों को पहले हटाओ। बाधक कारणों को हटायेंगे तो साधक कारण अपने आप आ जायेंगे। साधक कारण अपने आप आ गये हैं लेकिन बाधक कारणों का अभाव नहीं हुआ है तो भी ध्यान रखना, वह संसार से पार नहीं हो सकता है। जीवन में भगवान् महावीर का एक उद्देश्य रहा है कि उन्होंने अहिंसा को अपनाया इतना ही नहीं हिंसा का कोई काम भी नहीं किया बल्कि हिंसा का निषेध ही किया। हिंसा का जैसे-जैसे निषेध किया वैसे-वैसे अहिंसा उभरती गई उनके अंदर, कहीं बाहर से लाने की आवश्यकता नहीं पड़ी। बाहर से प्रकाश को लाने की आवश्यकता नहीं, मात्र अंधकार मिटाना है। जैसे-जैसे अंधकार मिटता जाएगा वैसे वैसे प्रकाश उद्धृत होता जायेगा।


    कुछ साधन आपने रखे हैं लेकिन उनका समुचित प्रयोग करना आप नहीं जानते और जब तक समुचित रूप से प्रयोग नहीं होगा तब तक आप अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सकेंगे। जब तक माइक बोलता रहता है तब तक आप कानों को इधर-उधर रखकर सभा में हल्ला-गुल्ला करते हैं, और जब वह बंद हो जाता है तब आप कान लगा करके सुनते हैं। आपने अपने जीवन को बहुत व्यस्त बना रखा है कि उसमें बहुत समय अनावश्यक चला जाता है। जीवन बहुत छोटा है और उस छोटे से जीवन में भी हमने इतना समय निकाल रखा है फालतू कामों के लिये कि उनकी कोई गिनती नहीं है।


    भगवान महावीर ने कहा कि अपव्यय इस जीव को बहुत सताता है, व्यय नहीं सताता किंतु अपव्यय जीवन में आकुलता पैदा कर देता है। समय का अपव्यय, धन का अपव्यय, शारीरिक शक्ति का अपव्यय। अपव्यय बहुत प्रकार के होते हैं। आप लोगों को यह मालूम ही नहीं पड़ता कि हमारा सारा का सारा जीवन अपव्यय की कोटि में जा रहा है। इसलिये अंतिम समय में जाकर के वे पश्चाताप का अनुभव करते हैं और अंत में पश्चाताप करने से कुछ नहीं होता।


    आधे दिन पाछे गए हरि से किया न हेत।

    अब पछतावे होत क्या चिड़िया चुग गई खेत॥

    एक महिला दूध तपा रही है। उसने ध्यान नहीं दिया कि दूध तप रहा है, करीब आधा घंटा हो गया। अग्नि के तेज होने से वह ऊपर आ रहा है, उस महिला ने यह नहीं देखा कि उसमें क्या प्रक्रिया हो रही है। जैसे ही पानी सूखा वैसे ही दूध पात्र से बाहर आ गया। उस समय वह महिला उसको फूंकने लग जाती है फिर भी फ्रैंकते-फूंकते वह दूध ऊपर आ जाता हे वह रुकता नहीं है क्योंकि उसको जितनी ऊष्मा चाहिए थी उससे ज्यादा हो गई उसका अपव्यय हो गया। ऐसी स्थिति में हानि ही होगी। फूंकने से वह रुकेगा नहीं, वह नीचे नहीं जाएगा, बल्कि थोड़ी सी धारा छोड़ दो पानी की। घाटा पड़ जाता है, घाटा तो पड़ेगा ही, अपव्यय में घाटा नियम से पड़ता है। हमारा सारा का सारा जीवन आदि से अंत तक अपव्यय की कोटि में जा रहा है।


    जिस व्यक्ति ने बाधक कारणों को नहीं हटाया और साधक कारणों के बारे में प्रयास कर रहा है उसे जीवन के अंत समय में पश्चाताप ही लगता है और कुछ नहीं। प्राय: जो विषय कषाय नहीं छोड़ते वे भी जीवन के अंतिम समय में पश्चाताप करते हैं। जब वे अपना इतिहास देखते हैं तो उन्हें रोना आ जाता है कि मैंने अपने जीवन में कुछ भी धार्मिक कार्य नहीं किया। अब मुझे नीचे जाना पड़ेगा इसलिए वह डरता है और रोता है। जिसने अच्छे कार्य किये हैं, उसे अंत समय में रोना नहीं आता वह पश्चाताप नहीं करता। वह अवश्य ही विजयी बनता है वह सोचता है कि मैंने साधना की है, अपने जीवन को अपव्यय से बचाया है। इस तरह मेरे जीवन में कोई भी कमी नहीं रही है अब आगे का जो जीवन होगा वह मेरे अनुरूप होगा। प्रयास भूमिका से ही प्रारंभ होना चाहिए, समीचीन साधना होनी चाहिए। यदि उतावली में आप कोई भी काम करोगे तो वह नियम से ठीक नहीं होगा। सावधानी के साथ कार्य करोगे तो अच्छा होगा। जो कुछ भी कार्य, साधना हो वह अहिंसापूर्वक हो, राग-द्वेष को कम करते हुए हो। अहिंसा किसी चिड़िया का नाम नहीं है, जिसको आप पाना चाहते हैं। किन्तु राग-द्वेष को हटाना ही अहिंसा है। जो राग-द्वेष से सहित है वह हिंसक है और वे बहुत ही जल्दी अपनी साधना के मार्ग से स्खलित हो जाते हैं। प्रति फलस्वरूप उन्हें राग-द्वेष एवं हिंसा ही हाथ लगती है।


    महावीर स्वामी ने अपने आपको बहुत जल्दी राग द्वेष से निवृत्त किया था। समीचीन साधनों को अपनाकर बहुत जल्दी बारह साल में ही उन्होंने अपना काम किया और उसमें ध्यान रखना बारह साल का समय प्रवाह की अपेक्षा से लगा था वैसे मात्र अंतर्मुहूर्त में ही उन्हें कैवल्य की उपलब्धि हो गई थी, लेकिन जब तक समीचीन साधना की पूर्ति नहीं हुई थी तब तक चराचर पदार्थों को जानने वाला वह केवलज्ञान उपलब्ध नहीं हुआ था। बंधुओ जिस समय साधना पूर्ण हुई उसी समय कैवल्य की अनुभूति प्राप्त हो गई। उन्हीं के अनुसार अपने को राग-द्वेष की प्रणाली से बचाते हुए, अहिंसा की गोद में अपने-आपको समर्पित करना है।


    अनादिकाल से हमें अहिंसा की उपलब्धि नहीं हुई है और जब तक अहिंसा की उपलब्धि नहीं होगी तब तक हमारी जो साधनायें हैं, वे मात्र दुख देने वाली हैं। दुख को यदि मिटाना चाहते हो, तो यह ध्यान रखो! समीचीन साधनों का आलम्बन लेना परमावश्यक है। भगवान महावीर के बारे में कई लोगों की उल्टी धारणायें हैं। चूँकि जब से उन्होंने समीचीन पथ का आलम्बन लिया और उस पथ पर अपने आपके जीवन को चलाना प्रारंभ किया तब उनके जीवन की कोई ऐसी घटना नहीं है जो परोपकारमय हो, लेकिन आप लोग परोपकार को महत्व देते हैं। उसकी ओर हम ध्यान नहीं रख पाते कि, परोपकार से बढ़कर भी कोई चीज है और वह है स्व के ऊपर उपकार करना बस! यही महावीर भगवान का वास्तविक Foundation (नींव) है। स्व के ऊपर जो उपकार करेगा, उससे बढ़कर और कोई परोपकार नहीं होगा। तो इससे यह सिद्ध हो जाता है कि जिस व्यक्ति ने पर से मुख मोड़ लिया, पर के प्रति जो बाधक कारण उपस्थित कर रहा था वह बिल्कुल down (कम) हो गया। यह नहीं समझना चाहिए कि हम पर के लिए उपकार करते हैं तो उपकार नहीं करते हैं। यह लेन-देन चलता रहता है सेर भर देना और सवा सेर लेना यह आपका धंधा है। दिखता ऐसा ही है कि मैंने पर के ऊपर कुछ उपकार किया है किन्तु वह पर के ऊपर उपकार नहीं है। जो पर के लिए कुछ करता है वह अपने लिए स्वार्थ-सिद्धि की इच्छा तो रखता ही है। और जिस समय आप उपकार करते हैं, उस समय दूसरे को कोई बाधा नहीं होनी चाहिए आपके माध्यम से इसलिए आचार्यों ने उपकार करने से धर्म होता है ऐसा नहीं कहा किन्तु जो अपने ऊपर उपकार करना प्रारंभ कर देता है, उस समय उसके माध्यम से पर के ऊपर उपकार होता चला जाता है। आप दूसरे पर उपकार मत करो कोई बात नहीं! लेकिन तुम यदि उसके लिए बाधक कारण उपस्थित नहीं करोगे तो पर के प्रति आपका महान् उपकार माना जाएगा।


    जिस समय आप प्रवृत्ति करोगे तो उस समय उसको कुछ न कुछ धक्का अवश्य लगेगा । मान लो कोई स्वर्णाभरण बनाना होंगे तो, स्वर्ण का आभरण अलग चीज है और स्वर्ण अलग चीज है। जिस समय आप स्वर्ण के बारे में पूछते हैं, तो वह बिल्कुल Pure (शुद्ध) रहेगा ज्यों ही उसको आभरण के रूप में देखना चाहोगे तो कुछ ना कुछ बट्टा अवश्य आएगा। उस बट्टे के बिना वह आभरण बन नहीं सकता क्योंकि सोने का गुण छुपाना है, थोड़ा सा भी धक्का लग जाए तो वह आभरण कंगन आदि टूट जाएगा। यदि आप उस सोने को, कंगन के रूप में देखना चाहोगे तो वह १०० टच नहीं रह सकेगा। उसमें कुछ न कुछ बट्टा अवश्य आएगा, मिलावट अवश्य आएगी तभी आप उस कंगन को धारण कर सकोगे। उसी प्रकार ज्यों ही आपने पर के प्रति उपकार करने की दृष्टि बनाई, त्यों ही उसमें बट्टा लग गया।


    मरहम पट्टी बांधकर, वृण का कर उपचार।

    ऐसा यदि ना बन सके, डंडा तो मत मारा।

    (दोहा-दोहन)

    हम करना यह चाहते हैं और यह कहकर के अपने आपको कृतार्थ बनाना चाहते हैं कि मैंने मरहम पट्टी की, ये किया, वो किया, मरहम पट्टी के माध्यम से उस व्यक्ति को हम बांधना चाहते हैं। घाव ठीक होने के उपरांत जब कभी भी वह मिल जाता है तो आप कहते हैं कि हमने तुम्हें उस दिन मरहम. पट्टी. चिपका दी थी और इस माध्यम से आप उस व्यक्ति को मोल खरीदना चाहते हैं बल्कि उसका भावी जीवन भी बंध गया। आपकी मरहम पट्टी में वह बिक जायेगा। किसी को आप एक रोटी भी खिलाते हैं तो बस! हो जाता है काम और उसको जीवन भर कहने के(टोकने के) आप अधिकारी हो जाते हैं। थोड़ा भी समय मिला और आप कह देते हैं कि देख लो क्या इतिहास था तुम्हारा अब चार दिन के लिए सेठ बन गये हो।


    समीचीन अध्ययन आज तक हमने नहीं किया और निस्वार्थ सेवा भी नहीं की। किसी सज्जन ने एक बार मुझे सुनाया था कि एक व्यक्ति तालाब में डूब रहा था। वह जिस समय तालाब में डूब रहा था उस समय दूसरे व्यक्ति ने देख लिया, वह तैरना जानता था उसने अपनी मेहनत और परिश्रम से उस डूबते हुए व्यक्ति को बचाया, तालाब से बाहर निकाला और बाहर निकालने के उपरांत वह व्यक्ति जो डूब रहा था उस व्यक्ति की कृतज्ञता के प्रति नम्रीभूत होकर बोला-आपने मुझे जीवन प्रदान कर बहुत बड़ा उपकार किया और इसके लिये तो मैं कभी भूलूगा नहीं। आप यदि कुछ सेवा मुझसे चाहो तो कहो, नहीं. नहीं, मुझे अभी आवश्यकता नहीं है। कुछ समय उपरांत जिसने बचाया था उस व्यक्ति ने कविता लिखना प्रारम्भ किया तो वह सोचता है मैं कविता तो लिखता हूँ अत: मेरा प्रचार-प्रसार भी अधिक होना चाहिए और जो व्यक्ति डूब रहा था वह किसी प्रसिद्ध पत्रिका का संपादक था, तो वह सोचता है कि मैं उससे जाकर के कह सकता हूँ। बात यह थी कि उसकी कविता कोई भी पत्रिका वाले मंजूर नहीं कर रहे थे, वह जाकर कहता है कि आज मेरा थोड़ा सा काम है; हाँ! हाँ! बोलो आपको तो कभी भूलेंगा नहीं, संपादक ने बड़ी नम्रतापूर्वक कहा। यह एक मौलिक कविता है जिसको मैंने लिखा है, कितनी अच्छी है देखो तो सही इस प्रकार अपने आप शाबाशी लेकर के कहा। संपादक कविता पढ़कर बोला कि भाई साहब आप ऐसा करो कि मुझे तालाब के पास ले चलो, जिसमें मैं डूबा था और आप मुझे डुबा दो! मुझे डूबना मंजूर है लेकिन आपकी यह कविता छापना मंजूर नहीं है।


    आप लोगों ने अर्थ समझा होगा कोई व्यक्ति यदि उपकार करता है तो प्रत्युपकार की इच्छा से करता है। आप Balance में देखते रहते हैं कि मैंने इतने-इतने कार्य किये हैं, जब कभी भी प्रसंग आ जाए तो उतने-उतने उपकारों के आप दावेदार हैं। आपके पास Date (तारीख) तक लिखी रहती है कि जब कभी भी काम होगा तब पकड़ेंगा जाकर के उसकी Collar को। बन्धुओ! यह उपकार नहीं एक प्रकार का व्यवसाय है। इस प्रकार के व्यवहार से महावीर भगवान् कोसों दूर रहते थे। यदि हम किसी के ऊपर उपकार नहीं कर रहे हैं किन्तु जिसके पैर में घाव हुआ है, उस पर नमक भी नहीं डाल रहे हैं तो हम उसके प्रति महान् उपकार कर रहे हैं। यह रहस्य महावीर भगवान् के जीवन का रहा और राग-द्वेष उनके हृदय में जन्म नहीं ले पाये। राग-द्वेष पर की अपेक्षा से जन्म लेते हैं। स्व की अपेक्षा से राग-द्वेष कभी पैदा नहीं हुआ करते। हम वस्तु को छोटा, बड़ा, हल्का, भारी कहते हैं। गौण रूप से छोटे के सामने बड़ा अवश्य है और हल्के के सामने भारी अवश्य है, गुणवान के सामने अवगुणी अवश्य है। इस प्रकार की तुलना जब तक होती रहेगी तब तक राग-द्वेष अवश्य रहेगा।


    जो वस्तु को न बड़ा न छोटा कहता है, समता रखता है वही व्यक्ति भगवान महावीर के मार्ग पर अपने आपको नियुक्त कर पाता है। एक को अच्छा कह दें तो दूसरे को अपने आप धक्का लग जाता है। हम दूसरे को धक्का लगाने के लिए अच्छा बना लेते हैं अपने आपको। और ‘‘जो कुछ है. सो है' उससे किसी को धक्का नहीं लगता, मेरा-तेरा समाप्त हो जाता है। प्रवचन तो हो ही जाएगा, प्रयास तो यही करूंगा। घड़ी तो बहुत जल्दी-जल्दी चल रही है क्या बात है? महावीर भगवान् का शासन समाप्त हो गया? मैं यह कह रहा हूँ जब तक यह संसारी प्राणी तेरा-मेरा करता रहेगा, तब तक राग-द्वेष होता रहेगा।


    भगवान् महावीर ने कहा कि राग-द्वेष को हटाना मोक्ष-मार्ग में अनिवार्य है। तेरा-मेरा हटाकर के जो कुछ 'मैं रूप' सत्ता है उसे भी उन्होंने राग-द्वेष बढ़ाने की उपाधि दी है। कौन? क्या? इसके बारे में उपाधियाँ लग जाती हैं। प्रत्येक के लिए 'क' का प्रयोग है। और ‘है' का प्रयोग जो है वह विशेष रूप से क्या करता है प्रत्येक की व्यवस्था करता है और उसमें किसी प्रकार का तेरा-मेरा नहीं होता और तेरा-मेरा नहीं होने से उस ‘है' में कभी राग-द्वेष नहीं होता। भगवान् महावीर स्वामी ने अपने आपको ‘है" के रूप में परिवर्तित कर दिया। और ‘है" के रूप में परिवर्तित होते ही जो अनादिकाल से ‘मैं, मैं", मेरा-तेरा समाप्त हो गया इसलिए वे केन्द्र तक पहुँच गये। केन्द्र तक पहुँचने के लिए परिधि का त्याग परमावश्यक है। प्राय: करके परिधि के ऊपर जो नाचता रहता है उसके लिए वह केन्द्र बिन्दु प्राप्त नहीं हो पाता। जो कुछ मजा है वह केन्द्र बिन्दु में है, परिधि में मजा नहीं है। केन्द्र में सुरक्षा है और परिधि में जीवन समाप्त।


    एक बार की बात है पिताजी और पुत्र जा रहे थे। नाम तो आपको मालूम है, कबीरदास जी और उनका बेटा! कमाल! पिताजी कहते हैं कि देखो बेटा यह सारा का सारा संसार पिसता जा रहा है कोई सुखी नहीं है। संसार के सारे के सारे जितने भी जीव हैं सब दुखी हैं। और यह संसार दुख का अनुभव किस प्रकार कर रहा है उसके लिए वे चक्की का उदाहरण देते हैं।


    जिस प्रकार चक्की के दोनों पाटों में धान के दाने पिस रहे हैं उसी प्रकार सारा का सारा संसार दुख और सुख रूपी चक्की में पिसता जा रहा है। यह सब बात सुनकर कमाल कहता है कि पिताजी! एक बात मैं कहना चाहता हूँ। वास्तव में बात तो आपने बहुत अच्छी कही है। पूरे सोलह आने तो मैं कह नहीं सकूंगा, किन्तु सत्य बात, रहस्य की बात यह है कि सारा का सारा संसार दुखी ही हो ऐसा कोई नियम नहीं है। किन्तु कुछ ऐसे भी प्राणी हैं जो सुख का अनुभव कर रहे हैं। आपने जो उदाहरण दिया है, वह पूर्ण रूप से सिद्ध नहीं है। आपका उदाहरण भी स्ववचन से बाधित है, कैसे है ? एक बात मैं यहाँ पर बताना चाहूँगा कि गुरु और शिष्य में जिस समय वार्तालाप होता है, उस समय यदि शिष्य गुरु की थोड़ी सी भी गल्ती निकाल लेता है तो गुरु को बहुत आनंद होता है कि हाँ! अब इसके बारे में मुझे कोई चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसके ज्ञान में प्रौढ़ता आ गई है अब यह तैयार हो गया है। कबीर कहता है कमाल से कि बता दे बेटा! क्या बात है जिससे में भी शिक्षा ले सकूं। तब वह कमाल कहता है कि पिताजी! आपका उदाहरण एक देश तो घटित हो रहा है सर्व देश नहीं, हाँ.हाँ बेटा! मैंने वही तो पूछा है कि कैसे नहीं सर्व देश घटता। इस चक्की में धान तो पिस रहे हैं, प्राय: सभी पिस रहे हैं लेकिन.लेकिन! क्या? बोली तो सही। जो केन्द्र में कील के सहारे धान है वे धान के दाने तीन काल में पिस नहीं सकते और में भी केन्द्र के बारे में बात कर रहा था। परिधि में सारे के सारे धान पिसते जा रहे हैं। उस चक्की को तो छोड़ दीजिये, महिलायें जब चक्की चलाती हैं तब जाकर के देख लीजिए, वह बार-बार धान तो डालती हैं पर अंगुलियों से यूँ यूँ करती जाती हैं। मैंने सोचा कि धान तो डाल दी अब ऐसा क्यों करती हैं हाथ हटाना चाहिए। तो मालूम पड़ा कि उसमें भी कुछ धान ऐसे मजबूत रहते हैं जो कीले को छोड़कर नहीं जा रहे थे और उस महिला को तो आटा बनाना है। कोई भी धान का दाना रह ना जाये इसलिए वह बार-बार ऐसेऐसे (अंगुली चलाकर इशारा) करती रहती थी। बिल्कुल ठीक है कीले के पास जो रहेगा वह भले ही चक्की एक घंटा भी चलती रहे तो भी वह धान का दाना पिसेगा नहीं। इसी प्रकार पिताजी! बात ऐसी है कि जो राग-द्वेष की परिधि के ऊपर नाच रहे हैं, पर्यायों के ऊपर नाच रहे हैं वे तो पिसेंगे और उनका आटा बनेगा। किन्तु जो राग-द्वेष नहीं करेगा तो उसकी पर्यायदृष्टि मिट जायेगी और पर्यायदृष्टि नहीं होगी तो उसी में वह साबुत रहेगा, उसको कौन मिटा सकता है।


    संसारी प्राणी कभी सोचता है कि मैं राजा बन गया और जब तक प्रजा है तब तक राजा है। प्रजा पलटेगी तो फिर राजा खाजा बन जाएगा नाम तक नहीं रहेगा। खाजा का अर्थ क्या है? खाजा एक पकवान का नाम है। तो वह राजा तब तक रहता है जब तक प्रजा पलटी नहीं है यानि उसके अनुकूल है। तो उसी प्रकार जब तक हम राग-द्वेष करते रहेंगे तब तक मिटते रहेंगे और हमारा कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में वह खुशबू, वह महक हमें नहीं आ सकती। हमारा जीवन दुर्गन्धमय रहेगा। जीवन सड़ता ही जा रहा है, यह पर्यायबुद्धि का ही एकमात्र परिणाम है।


    महावीर स्वामी ने आज के दिन अनादिकाल से जो पर्यायबुद्धि चल रही थी, उसे हटा दिया, और जो श्रीव्य है जिसे केन्द्र बिन्दु कहना चाहिए उसे प्राप्त कर लिया। केन्द्र में रहने वाला व्यक्ति कभी पिसता नहीं है। अब जन्म, जरा, मृत्यु उन्हें कुछ भी नहीं है। जन्म तो समाप्त हो जाता है और मृत्यु की ही मृत्यु हो जाती है और अनंत काल के लिए मात्र जीवन रहता है। इसलिए जो जीवन जीना चाहता है उस व्यक्ति के लिए यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि महावीर भगवान ने जो केन्द्र बिन्दु बनाई थी, वह है एकमात्र ‘सत्ता'! जिस सत्ता में किसी प्रकार की प्रक्रिया नहीं होती और होते हुए भी वह प्रक्रिया उसे बाधक नहीं होती। एक मुक्तक के माध्यम से आप समझ सकते हैं
     

    व्यक्तित्व की सत्ता मिटा दे,

    उसे महासत्ता में मिला दे।

    अार-पार तदाकार

    सत्ता मात्र निराकार।

    (मुक्तक–शतक)

    ऐसा जीवन बन जाये, जो आर-पार हो जाये, अटके नहीं। किसी प्रकार की अटकन न हो तो भटकन भी न हो! अटके नहीं आर-पार हो जाये। हमारी दृष्टि अटकती है, कहाँ अटकती है? पर्यायों में अटकती है, इसलिए हम दुखी हो जाते हैं। Transfer होता चला जाए, प्रत्येक द्रव्य में अंदर चला जाये ऊपर नहीं क्योंकि झगड़ा आदि कार्य जो भी हैं वे सब ऊपर में ही हैं, अंदर नहीं हैं। वह कैसा है? अंदर-कंदर मंदर सुन्दर और अंदर का अर्थ बिल्कुल द्रव्य में और वहाँ पर ऐसा कंदर है बहुत गहराई में जाने पर कोई आवाज कानों तक नहीं आ पाती। वहाँ पर सुन्दर चेतनात्मकता दर्शन रूप आत्मा बैठा हुआ है।


    एक पिक्चर देखी थी, उसमें एक व्यक्ति धन कमाकर अपने घर जा रहा था। उसका एक मंदिर था। पहले उसमें एक दरवाजा मिलता है, ५-६ कदम चलने पर दूसरा दरवाजा मिलता है इस प्रकार कई दरवाजे मिलते हैं। जैसे-जैसे वह अन्दर चला जाता है वैसे-वैसे वे दरवाजे बन्द होते चले जाते हैं। इसके उपरान्त वह एक गाना भी गाने लगता है। अंदर की आवाज बाहर तक नहीं आती। फिर अंतिम दरवाजा आता है तो वहाँ पर उसका साम्राज्य बिछा हुआ है, वहाँ पर उसकी धन दौलत थी। वह कभी ताला नहीं लगाता था। उसे देखकर वह आनंद का अनुभव कर रहा था। यह बहुत ठीक है अंदर, कंदर में वह ऐसी गहराई में जा रहा है बिल्कुल निभीक होकर के जहाँ पर कोई प्रवेश नहीं पा सकता और वह Revolving Chair (घमने वाली कुर्सी) पर घूम रहा था। मैंने कहा यह भी ठीक है इसी प्रकार महावीर भगवान् अंदर चले गये इतने अंदर चले गये कि वे अपने मंदर में आनंद के साथ घूम रहे हैं और अब अनंत काल तक उसी में घूमते हुए आनंद का अनुभव करेंगे।

     

    बंधुओ! आज के इस प्रवचन से यही शिक्षा लेना है कि यदि किसी का उपकार नहीं कर सकते हो तो अपकार करने के भाव मत करो और वास्तविक सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये तो अपने ऊपर उपकार करते जाना ही सही मायने में परोपकार करना है। जैसा कि महावीर भगवान् ने अपने छद्मस्थ काल में हमेशा अपनी साधना की ओर ध्यान दिया था। अपनी आत्मा का कल्याण करने में जो साधक लगा हुआ है, अपने ऊपर ही उपकार करने में जो लगा हुआ है, वही व्यक्ति वास्तव में सभी जीवों के ऊपर उपकार (परोपकार) कर सकता है। भगवान् महावीर ने पहले आत्मकल्याण किया बाद में जनकल्याण किया। हमें भी भगवान् महावीर के समान ही आत्मकल्याण की ओर अग्रसर होना है और अन्त में एक मुक्तक कहकर समाप्त करता हूँ-


    चेत चेतन चकित हो,

    स्व चिंतन वश मुदित हो।

    यों कहता मैं-भूला,

    अब तक पर में-फूला ॥

    (मुक्तक-शतक)


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    रतन लाल

      

    किसी के ऊपर यदि आप उपकार नहीं कर पा रहे हैं तो कोई बात नहीं, किन्तु यदि आप दूसरों के पैरों में हुए घावों पर नमक नहीं छिड़कते तो भी समझो आप उसके ऊपर महान् उपकार कर रहे हैं। 

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