भारतीय चिकित्सा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- भारत को छोड़कर जितनी भी चिकित्सा पद्धति है उनमें रिएक्शन होता है। भारतीय चिकित्सा पद्धति में कोई भी रिएक्शन नहीं।
- विदेशी दवाइयाँ तो मरती भी हैं एक्सपायरडेट होती हैं लेकिन रोगी तो बना रहता है।
- भारत का इतिहास सब जगह काम कर जाता है क्योंकि सब के काम का है। इसलिए भारतीय इतिहास पढ़कर वस्तु स्थिति समझिए तथा विदेशी संस्कृति का समर्थन न करिये।
- शिक्षा के साथ-साथ चिकित्सा भी प्रयोग के ऊपर निर्भर है।
- रोगों का निष्कासन करने के लिए औषध का प्रयोग किया जाता है। आज न तो रोग ठीक हो रहा है न उपयोग ठीक हो रहा है क्योंकि प्रयोग नहीं हो रहा है।
- पहले वैद्य वगैरह दवाई का प्रयोग करके देखते थे फिर दवाई दूसरों को देते थे। स्वयं अपने हाथों से औषधि निर्माण कर अनुभव करते थे फिर अपने हाथ से कितना, कब, किसके साथ औषध देना यह ध्यान रखते थे।
- औषध पथ्य के साथ रस संयोजन के साथ, परहेज को ध्यान में रखकर सेवन करता है तो वह औषध रोग को ठीक कर सकती है।
- आज का विज्ञान वर्षों लग जायें तो भी व्यक्ति को स्वस्थ नहीं कर सकता और जिसको मंत्र सिद्ध हो गया वह एक बार में ही ठीक कर सकता है इसको बोलते हैं संस्कारित शिक्षा।
- आज शिक्षा, चिकित्सा, कृषि, शिल्पकला, हस्तकला आदि-आदि सभी क्षेत्रों में आप लोग पिटते/पिछड़ते चले जा रहे हैं इन सबका कारण है शिक्षा का आधार सही नहीं होना।
- हम जैसा पढ़ते, सोचते, सुनते हैं वैसा जीवन बनता जाता है।
- शिक्षा व चिकित्सा क्षेत्र की विकृतियाँ संस्कार के माध्यम से ही निकल सकती हैं।
- औषधि रखने के पात्र कैसे होना चाहिए इसका भी महत्व है। आज तो सब प्लास्टिक में रखते हैं। आयुर्वेदिक में सोना, तांबा, पीतल, लोहा आदिक पात्रों में घिसकर दवाइयाँ बनती थी।
- आज तो दवाई रखने के पात्र ऐसे हैं कि उसमें जीवों की उत्पति अवश्य होती है। प्रदूषण से बचा ही नहीं सकते।
- आज पोटेंसी बढ़ाकर दवाई देते हैं जैसे चार दिन की दवाई डोज दो दिन में देते हैं लेकिन रोगी के पास वह डोज सहने की क्षमता नहीं होने से रिएक्शन हो जाते हैं, रोगी कभी-कभी तो बच ही नहीं पाता है।
- दवाइयों की पोटेंसी गुणवत्ता का अनुपात होना चाहिए।
- आज केमिकल्स रसायन से दवाई बनती हैं। पहले धातु से, जड़ी-बूटियों से दवाइयाँ औषध तैयार की जाती थी।
- एलोपैथी दवाइयों में एक्सपायरडेट होती है लेकिन आयुर्वेदिक में ऐसा नहीं है। आयुर्वेदिक में तो जितनी पुरानी उतनी अच्छी व गुणकारक वस्तु मानी जाती है।
- एलोपैथी दवाइयों से रिएक्शन होता है किन्तु आयुर्वेद औषध से रिएक्शन नहीं, प्रतिक्रिया नहीं होती। हाँ परहेज जो बताया वह जरूरी है।
- जैसे पारे की भस्म के साथ खटाई का योग हो जाये तो पुन: पारा बन जाता है। अत: खटाई से परहेज आवश्यक है यदि परहेज नहीं किया जो प्रतिक्रिया होगी।
- होम्योपैथी में वात,पित्त, कफ की कोई चर्चा नहीं है, आयुर्वेदिक में भारतीय चिकित्सा पद्धति से वात, पित्त, कफ को लेकर चिकित्सा होती है। उसमें स्कोप होना चाहिए।
- आयुर्वेदिक शास्त्र वात,पित्त, कफ पर आधारित हैं। पहले देखकर भी चिकित्सा होती थी, रोगी के अभाव में भी चिकित्सा होती थी।
- वात,पित्त, कफ इससे शरीर चलता है। जैसे वात है तो पेट का, मस्तिष्क का आदि ८४ प्रकार के वात का वर्णन कल्याण कारक ग्रन्थ में है।
- रक्त में भी वात होता है वह दूषित हो जाता है तो कैंसर आदि होते हैं। यह रक्त शोधक दवाइयों से दूर हो सकता है।
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव