प्रसन्नता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- कोई कुछ भी करे उसके प्रति वैरभाव नहीं आना ये सबसे ज्यादा प्रसन्नता की दवाई है और वैर रखना सबसे बड़ी बीमारी है। वैर नहीं रखना सबसे उत्तम बात है वैर रखना नील लेश्या का परिणाम है।
- अपनी दुकान है अपनी आमदनी ज्यादा बढ़ाना चाहिए। आमदनी बढ़ गई तो हमें प्रसन्नता होगी।
- प्रसन्न व्यक्ति को देखकर हमें प्रसन्नता होती है।
- सज्जनों की प्रशंसा नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं पर दुर्जनों की निंदा मत करो।
- प्रशंसा और ख्याति की चाहत रखना खाई में कूदना है।
- जीव को पाप से वैर से और धर्म से प्रीति रखना चाहिए।
- अपनी प्रशंसा में नहीं अपनी आत्मा की स्तुति करने में लगो।
- सबसे उत्तम स्तुति करने वाले यदि संसार में हैं तो सिद्धपरमेष्ठी हैं जो अपनी आत्मा की स्तुति में लीन रहते हैं।
- देवों को सुख तो मिलता है लेकिन वह दु:ख का कारण है इसलिए है क्योंकि वह विषयों के माध्यम से सुख मिलता है वह वस्तुत: सुख नहीं है।
- प्रशंसा करने से विकास रुक जाता है।
- हमारे वैरी बाहर में और कोई भी नहीं हुआ करते हैं, पाप ही हमारा वैरी है।
- वैश्य-वृत्ति जब तक हम नहीं अपनायेंगे तब तक हमारी दुकान चलने वाली नहीं। हानि-लाभ पहले सोचना चाहिए।
- जब भी उत्साह बढ़ता है कार्य में लगना चाहिए। जैसे रेस दौड़ छोड़ने के बाद इधर-उधर नहीं देखते और बढ़ते जाते हैं ऐसे ही उत्साह बढ़ने पर और ही बढ़ते जाना चाहिए।
- आलस्य के साथ कोई भी आवश्यक नहीं करना चाहिए सभी आवश्यक प्रसन्नता पूर्वक प्रमोद भाव के साथ हमें करना चाहिए।
- पथ पर प्रयोग के बिना उत्साह नहीं रहता।