रक्षाबंधन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- मर्यादा का बंधन बंधन नहीं रक्षाबंधन है। यही सुखद अनुबंधन भी है।
- रक्षाबंधन के वास्तविक रहस्य के समझे बिना प्रतिवर्ष रूढ़ि की तरह इसे मनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं, यह ठीक नहीं।
- क्यों? वात्सल्य के वशीभूत होकर, धर्म की प्रभावना हेतु, यह है सच्चा रक्षाबंधन। रक्षा हेतु जहाँ बन्धन को अपना लिया जाये।
- रक्षा के लिए जो बंधन है वह सभी के लिए मुक्ति का कारण है।
- रक्षा बंधन को सच्चे अर्थों में मनाना है, अपने भीतर करुणा को जागृत करें। अनुकम्पा, दया,वात्सल्य का आलम्बन लें। उदाहरण-आषाढ़ और सावन के काले बादलों की करुणा ही है? कोई नहीं, हमें भी जल-भरे बादल बनना है, रीते बादल नहीं।
- रक्षाबंधन पर्व का अर्थ है हममें जो करुणाभाव है वह तन-मन-धन से अभिव्यक्त हो। एक दिन नहीं, सदैव वह हमारा स्वभाव बन जाये ऐसी चेष्टा करनी चाहिए।
- ' सत्त्वेषु मैत्री' इसका नाम है रक्षाबंधन।
- रक्षा बंधन पर्व एक दिन के लिए ही नहीं है। हमारे वात्सल्य करुणा एवं रक्षा के भाव जीवन भर बने रहे इन शुभ संकल्पों को दोहराने का यह स्मृति-दिवस है।
- ‘मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे' प्रतिदिन यह पाठ उच्चारित करते हैं। पर इस 'मेरी भावना' को व्यवहार में नहीं लाते। व्यवहार में लाने वाले महान् बन जाते हैं। उदाहरण-गाँधी जी की महानता का भी यही कारण है। वे परम कारुणिक थे। एक बार की घटना है-गाँधी जी सर्दी में अपने कमरे में रजाई ओढ़े अंगीठी ताप रहे थे। थोड़ी रात होने पर उन्हें कहीं बच्चों का रोना सुनाई दिया। बाहर आने पर उन्होंने कुछ पिल्लों को सर्दी के मारे रोता देखा। उनका हृदय रो दिया। वे उन पिल्लों को उठाकर अपने कमरे में ले आये और उन्हें रजाई ओढ़ा दी। थोड़ी गर्मी पाकर पिल्ले आनन्द से सो गये। यह थी गाँधी जी की करुणा पर आज उनके अनुयायी "स्व" से आगे बढ़ ही नहीं पाते।