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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • भाषा

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    भाषा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. संस्कृत भाषा का मस्तिष्क के विकास में बहुत योगदान है अंग्रेजी का ऐसा नहीं।
    2. संस्कृत भाषा सभी भाषाओं का केन्द्र है।
    3. जिस भाषा में हम बोलते हैं उसी भाषा के शब्दों का प्रयोग करें इससे भाषा की निर्दोषता मानी जाती है ये ध्यान का विषय है।
    4. संस्कृत भाषा में प्रत्येक शब्द विभक्ति के साथ होता है इसलिए उसमें कोई परिवर्तन संभव नहीं होता और उसको कहीं भी रखा जाये वह अर्थ पूर्ण होती है इसलिए संस्कृत भाषा व्यापक है, अमर है।
    5. यदि हम भाव समझना सीख लें तो भाषा समझने की आवश्यकता नहीं होती। आज भाषा के भाव प्राय: समाप्त हो रहे हैं, हमने दूसरों की आँखों के भाव पढ़ना ही बंद कर दिये हैं। संवेदनाएँ समाप्त सी हो रही हैं और अकारण प्रतिस्पर्धा का अंतहीन सिलसिला चल रहा है।
    6. कोई अपनों से प्रतिस्पर्धा नहीं करता यदि आगे बढ़ना है तो अतीत से प्रतिस्पर्धा करना जरूरी है।
    7. अपने से बड़ों से और ज्ञानी से प्रतिस्पर्धा करना अविवेकपूर्ण है जबकि लोग इसे ही विवेक समझ रहे हैं।
    8. आचार्य जो उपदेश देते हैं उसमें भाषा नहीं भावों का महत्व होता है। वे सदैव श्रेष्ठ कर्म की शिक्षा देते हैं चाहे भाषा कोई भी हो। ये हम तभी समझ सकते हैं जब एकाग्रता से भावों को समझें।
    9. सबसे ज्यादा एकाग्रता से पढ़ने और लिखने वाले विद्यार्थी (अव्वल) प्रथम आते हैं। इसी तरह एकाग्रता से धर्म, ज्ञान, शिक्षा, संयम, उचित व्यवहार, परोपकार, दान करने वाले भी जीवन में अव्वल होते हैं।
    10. अपनी आंतरिक शक्ति को उद्घाटित करना ही सफलता की कुंजी है।
    11. भाषा व साहित्य के आधार पर ही आचरण सुरक्षित रह सकता है यह भाषा ही काम में आती है आगे बढ़ने में, लिखने से नहीं, बोलने से ही भाषा का प्रभाव पड़ता है।
    12. जीवन में भाषा का क्या प्रयोजन है? अच्छाई के रूप में यदि प्रयोजन चाहते हो तो उसके गुणधर्म अवश्य देखें।
    13. व्यक्ति की पहचान उसकी बोल-चाल सोच विचार आदि के ऊपर आधारित है। मात्र पढ़े लिखें है इससे नहीं किन्तु उसका विचार क्या है? उसका प्रभाव कितना है? बहुत व्यक्तियों के लिए उसे क्या प्रयोजन सिद्ध हो रहा है? चार-पाँच व्यक्तियों पर प्रभाव बता दो तो मैं इसको कभी स्वीकार नहीं करूंगा क्योंकि पाँच व्यक्तियों का नाम विश्व नहीं है। अपने यहाँ मार्गणा का कथन आता है।
    14. आपका जो विपुल साहित्य है जिसे आचार्यों ने प्राकृत व संस्कृत में लिपिबद्ध किया है वह विदेशी भाषा का प्रभाव पढ़ने से यदि उपयोग नहीं किया गया तो उसको पढ़ेंगे, लिखेंगे, सोचेंगे, बोलेंगे नहीं तो वह रद्दी के बराबर हो जायेगा।
    15. ज्ञान का प्रवाह तभी तक रहता है जब तक उसका अध्ययन, अध्यापन प्रयोग होता है यदि ये नहीं है तो भविष्य अंधकारमय होने वाला है।
    16. विषय मुख्य रखो तथा भाषा गौण रखो।
    17. हमें पदार्थ नहीं भटका रहा है किन्तु ज्ञान भटका रहा है।
    18. भगवान और गुरु तो कभी कभी मिलेंगे पर ये सूत्र जिन वचन तो जहाँ बैठे वहीं साथ हैं।

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