प्रतिक्रमण विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- कलह को पूर्ण विराम देने के लिए अतिक्रमण का परित्याग कर प्रतिक्रमण अंगीकृत किया जाता है।
- अतिक्रमण उल्लंघन का प्रतीक है। उल्लंघित सीमा से वापस अपनी सीमा में आना ही प्रतिक्रमण है।
- अतिक्रमण से संघर्ष छिड़ जाता है, कलह व्याप्त हो जाती है, किंतु प्रतिक्रमण से संघर्ष विराम हो जाता है शांति छा जाती है।
- पर को देखना भी अतिक्रमण की क्रिया है।
- प्रतिक्रमण करते समय आँखों में पानी आ जाना चाहिए कि हमने ऐसी गलती कर दी।
- जिस समय से प्राणी अपनी आलोचना करता है, वहीं समय उसके लिए चतुर्थ काल है।
- आज तक हमने जब कभी आलोचना की तो अपनी नहीं दूसरों की। भगवान ने अपनी निंदा आलोचना के लिए कहा।
- आक्रमण दूसरों पर और प्रतिक्रमण अपने पर होता है।
- आक्रमण आत्मा को दु:ख में डालने वाला, आत्मा की निधि खोने वाला होता है। प्रतिक्रमण इससे उलटा होता है।
- प्रतिक्रमण जहाँ है, वहाँ दया, अनुकंपा विद्यमान है।
- ग्रहण में आक्रमण है और प्रतिक्रमण में वह जो ग्रहण किया उसका विमोचन। यहीं से धर्म की रूप रेखा बनती है |
- दोषों का आह्वान सो आक्रमण और दोषों को छोड़ना सो प्रतिक्रमण है। अत: किसे अपनाना है उसे आपको देखना है।
- प्रायश्चित में भावों की गहराई होनी चाहिए।
- पश्चाताप के बिना प्रायश्चित कोई मायना नहीं रखता।
- पहले मन से स्वीकार करो कि मैंने गलती की है, अपराध किया है। अकेले में आँखों से आँसू आना चाहिए।
- दोषों की पुनरावृत्ति हो उनके लिए प्रायश्चित नहीं।
- किये की फीलिंग (अनुभव) होना चाहिए वह भी प्रायश्चित का अंग है।
- मात्र उपवास से प्रायश्चित नहीं होता मन की सफाई करने को सर्वप्रथम कहा है।
- प्रतिक्रमण और आलोचना करने से समस्त व्रतों का समूह समस्त गुणों के साथ-साथ चंद्रमा की चाँदनी के समान अत्यंत निर्मल होता है।