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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रतिक्रमण

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    प्रतिक्रमण विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. कलह को पूर्ण विराम देने के लिए अतिक्रमण का परित्याग कर प्रतिक्रमण अंगीकृत किया जाता है।
    2. अतिक्रमण उल्लंघन का प्रतीक है। उल्लंघित सीमा से वापस अपनी सीमा में आना ही प्रतिक्रमण है।
    3. अतिक्रमण से संघर्ष छिड़ जाता है, कलह व्याप्त हो जाती है, किंतु प्रतिक्रमण से संघर्ष विराम हो जाता है शांति छा जाती है।
    4. पर को देखना भी अतिक्रमण की क्रिया है।
    5. प्रतिक्रमण करते समय आँखों में पानी आ जाना चाहिए कि हमने ऐसी गलती कर दी।
    6. जिस समय से प्राणी अपनी आलोचना करता है, वहीं समय उसके लिए चतुर्थ काल है।
    7. आज तक हमने जब कभी आलोचना की तो अपनी नहीं दूसरों की। भगवान ने अपनी निंदा आलोचना के लिए कहा।
    8. आक्रमण दूसरों पर और प्रतिक्रमण अपने पर होता है।
    9. आक्रमण आत्मा को दु:ख में डालने वाला, आत्मा की निधि खोने वाला होता है। प्रतिक्रमण इससे उलटा होता है।
    10. प्रतिक्रमण जहाँ है, वहाँ दया, अनुकंपा विद्यमान है।
    11. ग्रहण में आक्रमण है और प्रतिक्रमण में वह जो ग्रहण किया उसका विमोचन। यहीं से धर्म की रूप रेखा बनती है  |
    12. दोषों का आह्वान सो आक्रमण और दोषों को छोड़ना सो प्रतिक्रमण है। अत: किसे अपनाना है उसे आपको देखना है।
    13. प्रायश्चित में भावों की गहराई होनी चाहिए।
    14. पश्चाताप के बिना प्रायश्चित कोई मायना नहीं रखता।
    15. पहले मन से स्वीकार करो कि मैंने गलती की है, अपराध किया है। अकेले में आँखों से आँसू आना चाहिए।
    16. दोषों की पुनरावृत्ति हो उनके लिए प्रायश्चित नहीं।
    17. किये की फीलिंग (अनुभव) होना चाहिए वह भी प्रायश्चित का अंग है।
    18. मात्र उपवास से प्रायश्चित नहीं होता मन की सफाई करने को सर्वप्रथम कहा है।
    19. प्रतिक्रमण और आलोचना करने से समस्त व्रतों का समूह समस्त गुणों के साथ-साथ चंद्रमा की चाँदनी के समान अत्यंत निर्मल होता है।

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