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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. क्या आपसे परिचित नहीं ? क्या मृगराज के सम्मुख जा मनमाना करता है मृग भी ? क्या मानी बन मेंढक भी विषधर के मुख पर जा खेल खेल सकता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि धरती की सेवा के मिष आपका उपहास कर रहा हो ! कुछ भी हो, कुछ भी लो, मन-चाह्य, मुँह-माँगा! माँग पूरी होगी सम्मान के साथ, यह अपार राशि राह देख रही है। शिष्टों का उत्पादन-पालन हो दुष्टों का उत्पातन–गालन हो सम्पदा की सफलता वह सदुपयोगिता में है ना !’’ राह में राशि मिलती देख राहु गुमराह-सा हो गया हाय! खेद की बात है राहु की राह ही बदल गई। और चुपचाप यह सब पाप होता रहा दिनदहाड़े- सरासर सागर से निर्यात सौर-मण्डल की ओर...! यान में भर-भर कर झिल-मिल, झिल-मिल अनगिन निधियाँ Isn't the Sun familiar with you ? While standing before a lion… Does even a deer act according to its own sweet will ? Can even a frog being arrogant, Play sportively After finding itself upon a snake's hood ? Probably is it not so, that Under the pretext of serving the Earth He (Sun) should have been mocking at you ! Come what may, take what-ever you should, The desired, the requisitioned thing! The demand shall be met with due regard, This unlimited heap of wealth is awaiting you. The civilized ones should be produced and protected The wicked ones should be uprooted and squeezed, The success of prosperity Lies there in its due utility, indeed!" On seeing the availability of wealth in the way The-Rāhu-goes astray, Alas ! it is a matter of sorrow, The very path of the ‘Rāhu' is altered, indeed, And All these sinful acts are committed Stealthily, in the broad daylight – The export from the ocean in toto Towards the solar system...! Having loaded into an aerial car The treasure of countless Dazzling and glimmering gems
  2. यूँ गरजती दावानल-सम धधकती वनी-सी बनी... सही-सही समझ में नहीं आता। पूरी खुली दोनों आँखों में लावा का बुलावा है क्या ? ...भुलावा है यह! बाहर घूर रहा है ज्वालामुखी तेज तत्त्व का मूल-स्रोत विश्व का विद्युत्-केन्द्र। संसार के कोने-कोने में तेज तत्त्व का निर्यात यहीं से होता है, जिसके अभाव में यातायात ठप्... जड़-जंगमों का! चारों ओर अन्धकार, घुप्… निन्दा की दृष्टि से निरखने में निरत निकट नीचे आये नीच-निराली नीति वाले बादल-दलों को जलाने हेतु- प्रभाकर के प्रयास को निरख सागर ने राहु को याद किया, और कहा : ‘‘प्रभाकर की उद्ण्डता कब तक चलेगी सौर-मण्डल की शालीनता को लीलता जा रहा वह! धरती की सेवा में निरत हुआ पृथिवी से प्रभावित प्रभाकर Roaring thus Appeared as a small forest blazing up like Wild-fire...! It is beyond exact comprehension. In both the eyes fully opened Does there flash a call of lāvā ?... It is a deception! The volcano is staring outside The original source of the element of lustre The electrical centre of the universe. The element of lustre is exported from here Into the every nook and comer of the world, In absence of which all the traffic Of the animate and the inanimate stands still...! All around there prevails utter darkness.... Which were indulged in viewing with an eye of calumny Which descended down nearer Which pursued a lowly and strange policy – To burn off such bands of clouds, The ocean remembered (the dragon-headed planet) Rāhu, After seeing the endeavours of the Sun, And said: “ Till what period, the arrogance of the Sun shall continue, (Under the sway of the Earth, the Sun) Is going on devouring The decorum of the solar system ! Devoted to the service of the Earth Influenced by the Earth
  3. हिंसा की हिंसा करना ही अहिंसा की पूजा है...प्रशंसा, और हिंसक की हिंसा करना ही या पूजा ये दोनों नियम से अहिंसा की हत्या है...नृशंसा। धी-रता ही वृत्ति वह धरती की धीरता है और काय-रता ही वृत्ति वह जलधि की कायरता है। यूँ मही की मूर्धन्यता को अर्चना के कोमल फूलों से और जलधि की जघन्यता को तर्जना के कठोर शूलों से पदोचित पुरस्कृत करता प्रभाकर फिर स्वाभिमान से भर आया, जितनी थी उतनी पूरी-की-पूरी उसकी तेज उष्णता वह उभर आई ऊपर। रुधिर में सनी-सी, भय की जनी ऊपर उठी-तनी भृकुटियाँ लपलपाती रसना बनी, आग की बूंदें ही टपकाती हों, घनी..कहीं.. ‘नहीं, नहीं, किसी को छोड़ेंगी नहीं।’ To nullify the violence Is to adore, to appreciate...non-violence, And To kill or worship a destroyer or killer As a rule Is to murder non-violence...is brutality. That very natural tendency of thoughtfulness Is the steadfastness of the Earth And That very natural tendency of being absorbed into body Is the cowardice of the ocean. Thus, Rewarding according to the due dignity - The supremacy of the Earth With the tender flowers of adoration And The lowliness of the ocean With the harsh thorns of reproval, The Sun, then Was filled with a sense of self-respect, His that sharp heat Sprang up to the full extent Which was there within him. The eyebrows, supine under tension As if bathed into blood, arousing fear, Took the form of a brandishing tongue – Seemed to be dripping the drops of fire, Densely...somewhere... “No, no, none shall be excused.'
  4. १८-०३-२०१६ खान्दू कॉलोनी, बाँसवाड़ा (राजः) भक्ति आँगन के अतिथि गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज! आपके चरणों में भक्तिपूर्वक नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु.... हे गुरुवर! जब आपने समाज के निवेदन पर दीक्षा की तिथि निश्चित कर दी - अषाढ़ शुक्ला पंचमी ३० जून १९६८| तो सर सेठ भागचंद सोनी जी के नेतृत्व में दीक्षा की तैयारियाँ शुरु हो गई। दीक्षा से पाँच दिन पूर्व महोत्सव प्रारम्भ हो गया। इस सम्बन्ध में उस समय अजमेर के दिगम्बर जैन महासंघ के महामंत्री एवं हायर ग्रेड सीनियर सेक्शन ऑफिसर टेलिकॉम के श्रीमान् इन्दरचन्द जी पाटनी, जो पत्रकारिता में रुचि रखते थे और सोनी नसियाँ के बगल में रंगमहल में निवास करते हैं। उन्होंने मुझे २७-१०-२०१५ को पूरा आँखों देखा वर्णन लिखाया। वो मैं आपको दिखा रहा हूँ जिससे लोग महापुरुष के द्वितीय जन्म का मुनि का महोत्सव जान सकें- ब्रः विद्याधर जी की मुनि दीक्षा का आँखों देखा वर्णन "सन् १९६८ में जब सदलगा कर्नाटक के दक्षिण भारतीय ब्रह्मचारी विद्याधर जी की दीक्षा होना निश्चित हुआ, तब ६ दिन तक अजमेर नगर में शोभायात्रा (बिन्दोरी) निकली थी। प्रथम दिवस २५-०६-१९६८ को नला बाजार से शोभायात्रा प्रारम्भ हुई और दरगाह बाजार होते हुए फिर नया बाजार चौपड़ से आगरा गेट से निकलते हुए सोनी जी की नसियाँ पहुँचा। इस जुलूस में घोड़े, ऊँट, बग्घियाँ, ढोल, नगाड़े बैण्ड-बाजे एवं तरह-तरह की पोशाकों में युवाओं की टोलियाँ नृत्य करते हुए शोभा बढ़ाते चल रही थीं। यह जुलूस अजमेर के सेठ श्रीमान् मिश्रीलाल जी मीठा लाल जी पाटनी परिवार की ओर से निकाला गया था। दूसरे दिन २६-०६-१९६८ को अजमेर के सेठ राजमल जी, मानकचन्द जी चाँदीवाल की ओर से ब्रह्मचारी विद्याधर जी की भव्य बिन्दोरी का जुलूस निकाला गया। जो खजाना गली, सरावगी मोहल्ला से गोधागवाड़ी होते हुए दरगाह बाजार, लाखन कोटड़ी से नया बाजार चौपड़ और वहाँ से आगरा गेट होते हुए सोनी जी की नसियाँ पहुँचा था। तीसरे दिन २७-०६-१९६८ को अजमेर के सेठ पूसालाल जी गदिया परिवार की ओर से भव्य जुलूस के रूप में ब्रह्मचारी विद्याधर जी की शोभायात्रा नया धड़ा पंचायती मन्दिर सरावगी मुहल्ला से घी मण्डी गेट होता हुआ नया बाजार चौपड़, गोल प्याऊ, पुरानी मण्डी, चूड़ी बाजार, पृथ्वीराज मार्ग से होता हुआ सेठ साहब सोनी जी की नसियाँ पहुँचा था। चौथे दिन २८-०६-१९६८ को अजमेर के सेठ माँगीलाल जी रिख़बदास जी बड़जात्या परिवार ने सरावगी मोहल्ला से उमराव जी स्कूल के पास से ब्रह्मचारी विद्याधर जी की भव्य शोभायात्रा निकाली। यह शोभायात्राघी मण्डी गेट से नया बाजार चौपड़ होते हुए आगरागेट से सोनी जी की नसियाँ पहुँचा। पाँचवें दिन २९-०६-१९६८ को बिन्दोरी का जुलूस निकालने के लिए केसरगंज अजमेर की जैसवाल दिगम्बर जैन समाज ने भव्य तैयारियाँ की और केसरगंज दिगम्बर जैन मंदिर से दिगम्बर जैन जैसवाल पंचायत ने निकाला जिसमें ७ हाथी बुलाये गए थे। जिसमें से ३ हाथी सर्कस के थे और ४ हाथी जयपुर से बुलाये गए थे जो विशेष आकर्षण के केन्द्र थे। इसमें ६ हाथियों पर केसरगंज के श्रेष्ठीगण बैठे थे और अन्तिम हाथी पर ब्रह्मचारी विद्याधर जी शोभा बढ़ा रहे थे और जुलूस में युवा टोलियाँ नृत्यगान करते हुए चल रही थीं, समाज के श्रेष्ठीगण पंचरत्न लुटा रहे थे और १५-२० हजार जनता जुलूस में सम्मिलित थी इस भव्य शोभायात्रा में जुलूस के दोनों ओर रंग-बिरंगी ट्यूब लाईट से जुलूस को रोशन किया जा रहा था एवं ब्रह्मचारी विद्याधर जी सफेद धोती-दुपट्टा में सोने-चाँदी का मुकुट लगाये हुए थे। सुन्दर घुँघराले बाल, छोटी-छोटी दाढ़ी-मूछ, बड़ी-बड़ी आँखे, गोरे चेहरे को देखकर नगर निवासी सुसज्जित हाथी पर बैठे ब्रह्मचारी विद्याधर को महाराजा समझ रहे थे। उनके पीछे पण्डित विद्याकुमार सेठी और विद्याधर के बड़े भाई (उसी वक्त नयाबाजार में जब जुलूस था तब सदलगा से आए थे वे मराठी टोपी लगाए हुए बैठे थे।) यह जुलूस केसरगंज से गवर्नमेन्ट कॉलेज से होता हुआ गोल-चक्कर पड़ाव से बढ़ते हुए मदार गेट, चूड़ीबाजार, नयाबाजार, आगरा गेट होते हुए सोनी जी की नसियाँ पहुँचा। इस बिन्दोरी की चर्चा दैनिक अखबारों में भी छपी। ३०-०६-१९६८ को जुलूस प्रातः ७:३० बजे से सरावगी मुहल्ला से घी मण्डी गेट होते हुए नया बाजार चौपड़, आगरा गेट से सोनी जी की नसियाँ पहुँचा। इसमें ९ हाथी, ११ घोड़े, ११ बग्घियाँ, ५ ऊँट, ७ बैण्ड टोलियाँ, ५ ढोल-नगाड़े टोलियाँ, शोभायात्रा में शोभा बढ़ा रहे थे चूँकि पाँच दिनों से अजमेर नगर में भव्य दिगम्बर मुनि दीक्षा का प्रचार-प्रसार चल रहा था इस कारण अजमेर नगर के जैन-अजैन, आबालवृद्ध, नरनारी हजारों की संख्या में सम्मिलित हुए। सबसे बड़े सुसज्जित हाथी पर सुसज्जित महावत हाथी को ईशारा दे रहा था उस हाथी पर सफेद धोती - दुपट्टा और चाँदी का गोल मुकुट पहने हुए गले में तरह - तरह की गोटे की मालाएँ जिनके गले में डली हुई थीं ऐसे युवा शुक्लवर्णी सुन्दर देहयष्टि के धारक ब्रह्मचारी विद्याधर जी आकर्षण के केन्द्र बने हुए थे। जुलूस कीड़ी की चाल के अनुसार चल पा रहा था क्योंकि युवाओं की टोलियाँ नृत्यगान में इतने मशगूल थे कि मानो स्वर्ग लोक से देव ही उतर आए हों। शहर के प्रत्येक घर के मुखिया और स्त्रियाँ उन्हें शगुन स्वरूप भेंट दे रहे थे और यात्रा मार्ग में जितने भी मकान थे सभी पर सैकड़ों की तादाद में जनमानस झाँकझाँक कर देख रहे थे। उनमें जैन समाज के लोग सम्बोधन देकर अभिनन्दन कर रहे थे-त्यागी जी, भैयाजी, ब्रह्मचारी जी, जय जिनेन्द्र, वन्दना और अपने मकान के छज्जों पर से ही उन्हें भेंट में मुद्रा पकड़ा रहे थे। भव्य मुमुक्षु विद्याधर जी धर्म वात्सल्य भाव से वीतरागी प्रसन्नता लिए हुए उनकी भेंट को हाथ बढ़ाकर स्वीकार रहे थे। इस जुलूस में अजमेर के जैन श्रेष्ठी वर्ग के अतिरिक्त नगर के गणमान्य नेता श्रेष्ठी वर्ग भी शोभा बढ़ा रहे थे और सम्भ्रांत अजैन बन्धुओं के द्वारा भी जगह-जगह पुष्प अर्पित किए जा रहे थे। अन्तिम बिन्दोरी एवं दीक्षा देखने के लिए प्रातः काल से ही अजमेर के बाहर से लोगों के आने का ताँता लगा हुआ था, जयपुर, दूदू, किशनगढ़, कुचामन सिटी, रूपनगढ़, मौजमाबाद, नरायना, फुलेरा, दादिया, नसीराबाद, ब्यावर, पीसागंन, जेठाना, बीर, विजयनगर, गुलाबपुरा, चापानेरी, भीलवाड़ा, केकड़ी, सरवाड़ आदि स्थानों से हजारों की संख्या में लोग उपस्थित हो गए थे। सुबह से ही भीषण गर्मी अपना प्रभाव दिखा रही थी उसके बावजूद भी सड़क पूरी भरी हुई थी कहीं कोई पुलिस की व्यवस्था नहीं थी फिर भी आत्मानुशासक के इस दिव्य कार्यक्रम में सभी लोग आत्मानुशासित थे। पग-पग पर जयकारों के सिंहनाद से पूरा अजमेर शहर गुंजायमान हो रहा था।’’ इस प्रकार अजमेर शहरवासियों ने ब्रह्मचारी विद्याधर जी की बिन्दोरियाँ निकालकर भव्यात्माओं को बता दिया था कि पतित से पावन, नर से नारायण, भक्त से भगवान, खुद से खुदा, इंसान से ईशु और आत्मा से परमात्मा कैसे बना जा सकता है ? देखो समझो और जिनशासन की शरण को ग्रहण करो। इसके बाद इन्दरचन्द जी पाटनी ने बताया दीक्षा पूर्व ब्र० विद्याधर जी ने किया शान्ति विधान "प्रात: काल से ही दीक्षा देखने वालों का तांता लगा हुआ था। धर्म के माता-पिता श्रीमान् हुकुमचन्द जी लुहाड़िया एवं उनकी धर्मपत्नी सुबह ब्रह्मचारी विद्याधर जी के लिए आकर्षक सोने-चाँदी के अष्ट अर्घ बनाकर लाए और विद्याधर जी के साथ शान्तिमण्डल विधान की पूजा अर्चना की। तत्पश्चात् प्रातः ११ बजे से भव्य शोभायात्रा प्रारम्भ हुई। शोभायात्रा की व्यवस्था हुकुमचन्द जी लुहाड़िया, कैलाशचन्द जी, स्वरूपचन्द जी, ब्रह्मचारी प्यारेलाल जी बड़जात्या ने की थी। समस्त शोभायात्रा का निर्देशन सर सेठ भागचन्द जी सोनी कर रहे थे। शोभायात्रा जैसे ही दीक्षा पाण्डाल में पहुँची तत्काल सेठ साहब, कजोड़ीमल जी अजमेरा, छगनलाल जी पाटनी, कैलाशचन्द जी पाटनी, महेन्द्र कुमार जी बोहरा, पण्डित विद्याकुमार जी सेठी, मा० ताराचन्द जी टोंग्या, मा० मनोहरलाल जी, पदमकुमार जी बड़जात्या आदि भक्त लोग मुनि ज्ञानसागर जी महाराज को साथ लेकर आए। तभी पाण्डाल में जयकारों का गुंजायमान प्रारम्भ हो गया। कार्यक्रम का संचालन पण्डित विद्याकुमार जी सेठी अजमेर ने किया। कार्यक्रम के प्रारम्भ में मंगलाचरण पण्डित चम्पालाल जी जैन विशारद, नसीराबाद ने किया। तत्पश्चात् प्रभुदयाल जी कोविद् जी ने इस सुअवसर पर स्वरचित दीक्षा मंगलगान प्रस्तुत किया- मंगल-गान (तर्ज-खिले हैं सखी आज फुलवा मनके, चित्र-गृहस्थी) बजे हैं देखो साज धरती गगन के, चले हैं मुनिराज दुलहा बनके।।टेक।। धन्य हैं विद्याधर ब्रह्मचारी, जिन्होंने दीक्षा निर्ग्रन्थ धारी, नग्न दिगम्बर, दूल्हा बनकर, शिव को वरने की है तैयारी। खिले हैं देखो आज फुलवा मनके, चले हैं मुनिराज०॥१॥ श्री मल्लप्पा के सुत प्राण प्यारे, मात श्रीमन्तीजी के दुलारे, गाँव सदलगा, जन्म लीना, बालपने ही भाव धर्म के धारे। सम्मुख लिया शील आचार्य रतन के, चले हैं मुनिराज०॥२॥ शान्तिनाथ और अनन्तनाथा, श्री महावीर हैं जिनके भ्राता, बहन सुवर्णा, अरु शान्ता, तोड़ दिया है अब सबसे ही नाता। हुए हैं ये तो आज वासी वनके, चले हैं मुनिराजः।।३।। ज्ञान का अर्जन करने के ताईं, शरण गुरु ज्ञानसागर की पाई, मन इन्द्रिय पर, पूर्ण विजयकर, मुनिवर दीक्षा की भावना भाई। सपन हुए साँच अब जीवन के, चले हैं मुनिराजः॥४॥ समता सखी ने उबटन लगाया, शान्ति सलिल से न्हवन कराया, रागद्वेष का मैल हटाया, मन और आतम को पावन बनाया। हटाई हैं कषाय भी चुन-चुनके, चले हैं मुनिराजः।।५ ।। पंच महाव्रत जामा सजाके, दस लक्षण का मोड़ बँधाके, रत्नत्रय का पहन के गहना, अन्तर अंगों को खूब सजाके। हुए हैं ये सवार चारित रथ पे, चले हैं मुनिराज०॥६॥ आतम रंग की मेहेंदी रचाई, समिति, गुप्तियाँ गायें बधाई, बारह भावन नाचे छन-छन, सोला कारण बारात सजाई। लिये हैं तलवार तप की तनके, चले हैं मुनिराज०॥७॥ शुक्ल ध्यान की अग्नि जलाके, होम करेंगे निज कर्म खपाके, शुभ बेला में मुक्ति रमा से, ब्याह रचेंगे शिवमहल जाके। करेंगे जय-जयकार त्रिभुवन इनके, चले हैं मुनिराज०॥८॥ चारित चक्रवर्ती थे शान्तिसागर, वीर शिरोमणि थे वीरसागर, चालक हैं जो चारित रथ के, तीजी पीढ़ी में गुरुवर शिवसागर। उनके शिष्य 'ज्ञान' प्रियजन मनके, चले हैं मुनिराज०॥९॥ ज्ञान की मूरत हैं दीक्षा गुरुवर, चारित्र मूरत हैं विद्यासागर, इनका संयम होगा अनुपम, होगी जहाँ में इनकी कीर्ति अमर। करेंगे यश गान सुर नर इनके, चले हैं मुनिराज०॥१०॥ साढ़ सुदी पंचमी 'प्रभु'आई, साल दो हज्जार पच्चीस माईं, पहला अवसर दीक्षा मुनिवर, नगर अजयमेरु इतिहास भाई। वरण लिखे जायेंगे सुवरन के, चले हैं मुनिराजः॥११॥ ब्र० विद्याधर जी के अग्रज ने रुलाया सबको "मंगलाचरण के तुरन्त पश्चात् ब्रह्मचारी विद्याधर जी के गृहस्थ अवस्था के बड़े भाई श्री महावीरजी जैन अष्टगे, सदलगा को बुलाया गया और उनसे ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने मोक्षमार्ग की ओर बढ़ने के लिए एवं सांसारिकता से मुक्ति पाने के लिए आत्मसाधना व आत्मकल्याण के लिए मुनि दीक्षा ग्रहण करने हेतु अनुमति का निवेदन किया और जाने-अनजाने में भूलवश हुई त्रुटियों के लिए बड़े भाई व परिवारजनों से सहृदयता से क्षमायाचना की तब अग्रज श्री महावीर जी अष्टगे भाव विह्वल हो गए, आँखों में पानी भर गया और भारी मन से बोले- 'मैं अनुमति प्रदान करता हूँ।' यह दृश्य देखकर सभी दृष्टा श्रावकजन भी भावविह्वल हो गए। सभी की आँखों से आँसू बहने लगे। जयकारों के नाद से आकाश गुंजायमान हो उठा।" इस प्रकार बताते हुए इन्दरचन्द जी पाटनी भाव विह्वल हो उठे और रूमाल से आँसू पौंछने लगे। फिर आगे बताया ब्र० विद्याधर जी ने किया तृतीय केशलोंच “तत्पश्चात् ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने गुरु महाराज श्री ज्ञानसागर जी के चरणों में नमोस्तु करते हुए दीक्षा हेतु आत्म निवेदन किया और श्री फल चढ़ाकर आशीर्वाद प्राप्त किया। मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने पिच्छी उठाकर ब्रह्मचारी विद्याधर जी के सिर पर लगाकर आशीर्वाद प्रदान किया। तत्पश्चात् ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने 'नमः सिद्धेभ्यः' बोलकर केशलोंच शुरु कर दिया। यह उनका तृतीय केशलोंच था। इससे पहले प्रथम केशलोंच किशनगढ़-मदनगंज में किया। द्वितीय केशलोंच दादिया में किया। तृतीय केशलोंच जब वो मंच पर कर रहे थे तो खटखट की आवाज सुन श्रोतागण सिसक रहे थे। तभी संचालक महोदय पण्डित विद्याकुमार जी सेठी ने सर सेठ भागचन्द जी सोनी को उद्बोधन हेतु बुलाया, तब सेठ साहब बोले- सर सेठ भागचंद जी सोनी का प्रासंगिक उद्बोधन ‘सर सेठ भागचन्द जी सोनी ने मुनि ज्ञानसागर जी महाराज को नमोस्तु करके बोलना शुरु। किया-‘ब्रह्मचारी विद्याधर जी युवावस्था में होने व पंचमकाल की भौतिकता के आकर्षण के बावजूद। पंचेन्द्रिय विषयों को त्यागकर वीतरागता की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। दिगम्बर साधु बनना बड़ा साहसिक कदम हैं। धन्य हैं, ऐसी भव्य आत्माओं के दर्शन कर हम भी धन्य हो गये, किन्तु कुछ लोगों को इस उम्र में दीक्षा लेने व सफलता हासिल करने में संदेह-सा अनुभव हो रहा है। मैं उनके संदेह को लेकर मुनि ज्ञानसागर जी महाराज के पास पहुँचा और उनको सारी स्थिति से अवगत कराया, तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज बोले- ‘हमने सब प्रकार से परीक्षण कर लिया है और मेरी परीक्षा में ‘विद्याधर खरा उतरा है अतः 'विद्याधर' दीक्षा ग्रहण करने योग्य है।' यह सुनने के बाद हमने विचार किया और समाज वालों से चर्चा की, विद्वानों से चर्चा की तो सभी ने मुक्त कण्ठ से समर्थन किया। इसके बाद हमने ब्रह्मचारी श्री विद्याधर जी की परीक्षा की, ये भोजन कैसे लेते हैं, सामायिक कैसे करते हैं, कितना सोते हैं, कितना पढ़ते हैं, लौकिक जनों से कितना सम्पर्क रखते हैं, गुरु के प्रति कितना समर्पण भाव है, धर्म का कितना ज्ञान है, वैराग्य कितना मजबूत है, क्या-क्या त्यागा है ? आदि हर प्रकार से मैंने स्वयं व अन्य से परीक्षा करवाई। तो विद्याधर जी हर परीक्षा में खरे उतरे व १०० में से १०० अंक प्राप्त किए। ऐसे मनोज्ञ, वीतरागता व वैराग्य से ओतप्रोत भव्य मुमुक्षु को कौन दीक्षा ग्रहण करने से रोक सकता था और आज आप सबके समक्ष वह क्षण उपस्थित है। मैं इसकी जवाबदारी लेता हूँ। इनकी दीक्षा के उपरान्त किसी को भी कोई शिकायत नहीं मिलेगी। आप देखेंगे परमपूज्य मुनि श्री आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी की परम्परा को श्रेष्ठ ऊँचाईयों पर ले जायेंगे, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है।' सेठ जी के उद्बोधन में कई बार उपस्थित जनसमुदाय ने उल्लसित होकर तालियाँ बजाकर हर्ष प्रकट किया। अन्त में तालियाँ बजाते हुए जयघोष करके समर्थन किया। इसके बाद और भी विद्वानों का उद्बोधन हुआ। सबने देखा अलौकिक चमत्कार “लगभग डेढ़ घण्टे में ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने केशलोंच पूर्ण किया, उसके बाद ज्ञानसागर जी मुनि महाराज ने दीक्षा के संस्कार किए और विद्याधर जी को वस्त्र त्याग करने के लिए कहा, तत्काल ब्रह्मचारी जी खड़े हुए और धोती-दुपट्टा उतारे और लंगोट खोलकर जैसे ही हवा में उछाली तभी चमत्कार हो गया बहुत जोरों से बादलों के गरजने की आवाज आई, मानों स्वर्गलोक के देव बैण्ड-बाजे बजाने लगे हों और जोरदार बारिश शुरु हो गयी। लगभग ५० हजार के आस-पास जन समुदाय जहाँ गर्मी से हाल-बेहाल हो रहा था, घनघोर बारिश के चलते शीतलता का अनुभव करने लगा। ५-१० मिनट के लिए केवल दीक्षा पाण्डाल व उसके आस-पास बारिश बरसती रही। यह चमत्कार देख जनता ने जयकारों से आकाश व समस्त वातावरण को गुंजायमान कर दिया। ऐसा लग रहा था मानो देवताओं और जनता के मध्य भक्ति प्रदर्शन की होड़-सी लग गई हो। १० मिनट बाद यकायक पानी बरसना बंद हो गया, हवायें चलने लगीं और धूप निकल आई। सभी को मन ही मन एहसास हुआ कि यह चमत्कारी मुनि दीक्षा है, जो नए इतिहास को लिखेगी तथा जिसकी संयम की सुगन्धी वीतरागता का पराग लिए दशों दिशाओं में फैलेगी। चतुर्थ काल का आभास करायेगी।" विद्याधर बने विद्यासागर "जैसे ही जयकारों का नाद रुका उसके बाद गुरुज्ञानसागर जी महाराज ने नवदीक्षित मुनि को संयम के उपकरण पिच्छी-कमण्डलु प्रदान किए और नामकरण संस्कार किया। बोले- 'अभी तक आप लोग ब्रह्मचारी को विद्याधर जी कहकर बुलाते थे अब यह संसार का नाम त्याग किया जाता है और आज से पूरी दुनियाँ इन्हें मुनि विद्यासागर जी के नाम से पहचानेगी।' जैसे ही नामकरण हुआ तभी सर सेठ भागचन्द जी ने गुरु-शिष्य की जयकार लगवायी-परमपूज्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की... जय, परमपूज्य मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज की... जय-जय-जय... पूरा पाण्डाल जयकारों के नाद से पुनः गूँज उठा। उसके बाद धर्म के माता-पिता हुकुमचन्द जी लुहाड़िया ने नवदीक्षित मुनि को नमोस्तु कर जिनवाणी-शास्त्र भेंट किया। उसी समय वैराग्य के इस महाप्रभावी दृश्य को देखकर किशनगढ़ के शान्तिलाल जी (सिराणा वाले) जिनकी ४२ वर्ष की उम्र और टेलीफोन एक्सचेंज अजमेर में सेवारत थे को वैराग्य उत्पन्न हो गया और वो गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज से दीक्षा माँगने लगे। तब ज्ञानसागर जी महाराज ने उनकी गार्हस्थिक परिवेश देखकर उनको घर पर रहकर साधना की शिक्षा दी। तभी उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत ले लिया और बाद में ज्ञानसागर जी महाराज एवं मुनि विद्यासागर जी महाराज के निर्देशन में साधना करते रहे। प्रतिमाएँ ग्रहण कर। अंत में समाधिमरण किया।" नवोदित मुनि विद्यासागर जी ने की अमर घोषणा "एक अद्भुत दृश्य हमारी आँखों ने देखा-जब नवदीक्षित मुनि पूज्य श्री विद्यासागर जी ने गुरु श्री ज्ञानसागर जी महाराज को नमोस्तु किया तब मुनि श्रीज्ञानसागर जी महाराज ने भी पिच्छी उठाकर प्रति नमोस्तु किया। इसके पश्चात् मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को संक्षिप्त में बोलने को कहा गया, तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज मात्र इतना बोले- ‘गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी मुनि महाराज की जय, मैंने अपने आत्म कल्याण हेतु यह दीक्षा ग्रहण की है और गुरु महाराज ने मुझे दीक्षा देकर मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है। मैं गुरु महाराज को विश्वास दिलाता हूँ कि भगवान महावीर की वाणी को जैसा आचार्य कुन्दकुन्द महाराज आदि ने बताया है वैसा ही मोक्षमार्ग स्वीकार करके उस पर मैं निर्दोष रीति से चलूँगा, आपके दिए मुनि पद में किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगने दूँगा। गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी मुनि महाराज की... जय।' इसके पश्चात् मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज अपने संघ सहित सोनी जी की नसियाँ प्रस्थान कर गए।" इस तरह अजमेर जिले के दर्शक आज तक उस दृश्य को भूले नहीं हैं। इसी प्रकार व्यावर के पदम गंगवाल ने दीक्षा के समय बारिस के चमत्कार के बारे में बताया- लंगोट के उछालते ही सुगन्धित वर्षा हुई “जैसे ही विद्याधर जी ने लंगोट उतारकर हवा में उछाली भयंकर गर्मी में ४०-५० हजार दर्शकों की साक्षी में चमत्कार हो गया। घनघोर वर्षा शुरु हो गई १० मिनिट तक वर्षा होती रही, जिससे पूरा वातावरण शीतल सुगन्धमय बन गया और चंदन मिश्रित अष्टांग धूप की सुगन्ध सर्वत्र फैल गई, १० मिनिट बाद बादल कहाँ चले गए पता नहीं चला। शाम को सर्वत्र चर्चा फैल गई मात्र पण्डाल के ऊपर ही वर्षा हुई और उसकी सुगन्ध सबके दिलोदिमाग में बस गई। जिसको आज तक अजमेर जिले के निवासी भूल नहीं पा रहे हैं।" इस प्रकार और भी लोगों ने आँखों देखा वर्णन कर कई विशेषताएँ बतलाकर गुरु गौरव से हृदय को आनन्दित कर दिया। दादिया के श्रीमान् हरकचंद जी झाँझरी ने १९९४ में मुझे अन्तिम बिन्दोरी के बारे में लिखकर दिया था। वह मैं आपको बता रहा हूँ क्योंकि आप तो निस्पृही साधक थे आपने किसी को महोत्सव के बारे में पूछा कि नहीं मुझे ज्ञात नहीं, इसलिए आप तक प्रेषित कर रहा हूँ- निस्पृही दीक्षार्थी विद्याधर जी “दीक्षा से पहले ५ रोज तक शाम को अंधेरा होने के बाद बिन्दोरी निकाली गई थीं। आखरी बिन्दोरी में सेठ साहब भागचंद जी सोनी ब्रह्मचारी जी से अरज करी कि अन्तिम बिन्दोरी में आप सेरवानी मोड़तुर्रा लगाकर राजशाही वेशभूषा में हाथी पर विराजमान होवें तो बिन्दोरी की शोभा बहुत बढ़ जायेगी। तब ब्रह्मचारी विद्याधर जी बोले- ‘जब हम पूरे कपड़े ही छोड़ रहे हैं तो कपड़े पहनें ही क्यों ?' तो सेठ साहब ने गुरु महाराज से कह दिया तो ब्रह्मचारी जी मौन रहे किन्तु उन्होंने वेशभूषा नहीं पहनी। तो फिर सर सेठ भागचंद जी सोनी अपने हबेली से सोने-चाँदी का मुकुट लाकर बड़ी नम्रता से बिन्दोरी के वक्त ब्रह्मचारी जी के सिर पर लगा दिया। ब्रह्मचारी जी सफेद धोती-दुपट्टा पहने हुए ही हाथी पर बैठे। २ कि.मी. लम्बा जुलूस बिन्दोरी का था। ऐसा जलसा किसी भी धर्म का इतना बड़ा कभी भी नहीं निकला।" इसी तरह दीपचंद जी छाबड़ा नांदसी वालों ने आँखों देखा वर्णन सुनाया- बिन्दोरियों के जुलूस में सेठ साहब का उत्साह "मैं २९ जून १९६८ के दिन अजमेर सोनी जी की नसियाँ गया था। सायं लगभग ७:३० बजे ब्रह्मचारी विद्याधर जी सफेद-धोती-दुपट्टा पहने हुए थे और उनके गले में गोटे की माला श्रावकों ने डाली और श्रीफल लेकर गुरु महाराज के पास आए। ब्रह्मचारी जी ने गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज को बैठकर पंचांग नमोस्तु किया। गुरुदेव ने मुस्कुराते हुए आशीर्वाद दिया। तभी पीछे से सर सेठ भागचंद जी सोनी, कजोड़ीमल जी अजमेरा, छगनलाल जी पाटनी, माधवलाल जी गदिया आदि गणमान्य जन उपस्थित हुए और सेठ साहब ने गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज से कहा- हम लोग भावी मुनि, मनोज्ञ ब्रह्मचारी विद्याधर जी को बिन्दोरी के लिए ले जाना चाहते हैं आपकी अनुमति एवं आशीर्वाद चाहिए। तब गुरुवर ज्ञानसागर जी बोले- ‘३-४ दिन से बिन्दोरियाँ निकाल रहे हो क्या अभी भी इच्छा पूरी नहीं हुई?' तब सेठ साहब बोले-गुरु महाराज! महाभाग्यवान् राजकुमार के समान तेजस्वी विद्याधर जी को देखकर हम लोगों के भाव अंतरंग से गीले हो रखे हैं। भावनाएँ हृदय में समा नहीं रहीं हैं। इसलिए पंच महाव्रत लेने वाले त्यागी की महिमा ५ दिन तक सभी को। दिखाना चाहते हैं और आज पाँचवा दिन है आशीर्वाद दीजिए सानंद संपन्न हो, तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने विद्याधर जी के सिर पर तीन बार पिच्छिका रखकर आशीर्वाद दिया और सेठ जी आदि पर भी पिच्छिका रखकर उत्साहवर्धन किया। इसी तरह अजमेर के आपके अनन्य भक्त श्रीमान् कैलाशचंद पाटनी ने भी अपनी आँखों से देखा वाकया मुझे सन् १९९४ अजमेर में सुनाया। जो इस प्रकार है। नवदीक्षित मुनि को गुरु का प्रथम सम्बोधन "३० जून का वह दिन अन्य दिनों की अपेक्षा काफी गरम था। सुबह से ही लू के थपेड़े लग रहे थे। फिर भी हजारों की संख्या में जैन-जैनेतर समूह उमड़ा जा रहा था। पाण्डाल खचाखच भरा हुआ था। इस कारण पाण्डाल से दोगुनी जनता बाहर गर्मी में खड़ी थी लेकिन सभी बड़ी उत्सुकता से सारे कार्यक्रम को देख रहे थे। सभी की नजर उस महान् निर्ग्रन्थ तपस्वी के दर्शन के लिए लालायित हो रही थीं, जो वहाँ आकर बाल ब्रह्मचारी युवावस्था में मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होने के लिए नग्न दिगम्बरी दीक्षा लेने वाले थे। जैसे ही गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज मंच पर आए। लोगों ने जय-जयकार करना शुरु कर दिया। भीड़ में हलचल मच गई। एक क्षीणकायज्ञानमूर्ति जिसके मुख पर असीम सौम्य और तेज टपक रहा था और जिसके हाथ प्रत्येक प्राणी को मंगलमयी आशीर्वाद के लिए उठ रहे थे। इतनी भयंकर गर्मी व शोरगुल के बावजूद भी गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी शान्तचित्त होकर अपने में ही लीन होकर बैठे थे। दीक्षा के दृश्य को देखकर जनता विचलित हो उठी। सभी की आँखे गीली हो उठी थीं। दीक्षा के बाद गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने नवदीक्षित युवा मुनिराज श्री विद्यासागर जी महाराज को महत्त्वपूर्ण अमृत सम्बोधन दिया- अब तुम्हें आत्मकल्याण के लिए आगे देखकर बढ़ते जाना है। जो जीवन बीत चुका है उसके बारे में क्षणमात्र भी विचार नहीं करना है। मुनि का धर्म है ऊपर देखने का क्योंकि उसका लक्ष्य है मोक्ष को प्राप्त करने का। अत: मोक्ष की ही साधना करना है। जबकि गृहस्थ को नीचे देखकर आगे बढ़ना है क्योंकि अभी सांसारिक अवस्था है। गृहस्थ ने अपने से बड़ों को देखकर ईष्र्या की और नीचे वालों से घृणा की तो वह अपना कल्याण नहीं कर पाता। अत: सदा अपने व्रतों का ध्यान रखना। जिस उत्साह और विशुद्धि से मोक्षमार्ग में कदम रखा है। ऐसा ही उत्साह और विशुद्धि बनाए रखना। तो कल्याण अवश्यंभावी है।" इस तरह मुनि विद्यासागर जी के निमित्त से आपश्री का अमृत प्रवचन सभी को सुनने को मिला। दीक्षा के प्रसंग में एक विशेष बात और ज्ञात हुई। जो आपके आशीर्वाद के चमत्कार की हैं। यद्यपि आप वह बात जानते हैं, किन्तु आपको बताकर मुझे अपार खुशी हो रही है कि मेरे गुरुनाम गुरु की साधना कितनी अतिशयकारी थी। इस सम्बन्ध में अजमेर की आपकी अनन्य भक्त ब्रह्मचारिणी बाई कंचन माँ जी ने एक। संस्मरण सुनाया था। वह लिख रहा हूँ- गुरुनाम गुरु ज्ञानसागर जी के आशीर्वाद का चमत्कार "विद्याधर जी की दीक्षा के समय अजमेर की समाज वालों ने १० हजार व्यक्तियों की रसोई बनायी थी, किन्तु बाहर से आने वालों की भीड़ ज्यादा बढ़ गई। २०-२५ हजार लोग आ गए और बढ़ती जा रही थी। तब कमेटी वाले घबड़ा गए और वो लोग गुरु महाराज ज्ञानसागर जी के पास गए और अपनी समस्या बताई कि जनता तो बढ़ती ही जा रही है। हम लोगों की इज्जत दाँव पर लग गई है। गुरुदेव भोजन कम न पड़ जाए, आशीर्वाद दीजिए। तब गुरु ज्ञानसागर जी महाराज बोले- एक थाली में रसोई परोसकर कपड़े से ढाँककर हमारे पास रख दो और एक व्यक्ति को शुद्ध वस्त्र पहनाकर बैठा दो। कमेटी वालों ने ऐसा ही किया और उस दिन पूरी जनता ने भोजन कर लिया किन्तु रसोई खत्म नहीं हुई। यह था गुरु महाराज का चमत्कार।" इस प्रकार अनेकों लोगों ने तरह-तरह से आँखों देखी अनुभूतियाँ मुझे बताईं। ऐसे भावलिंगत्व के धनी गुरु-शिष्य के चरणों में अपनी विनयांजली अर्पित करता हआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  5. ‘ग्रहण' की व्यवस्था अविलम्ब होगी। ‘अकीर्ति का कारण कदाग्रह है' कदाग्रही को मिलता आया है चिर से कारागृह वह ! कठोर कर्कश कर्ण-कटु शब्दों की मार सुन कर दशों-दिशाएँ बधिर हो गईं, नभ-मण्डल ही निस्तेज हुआ फैले बादल-दलों में डूब-सा गया अवगाह-प्रदाता आवगाहित-सा हो गया! और, प्रभाकर का प्रभा-मण्डल भी कुछ-कुछ निष्प्रभ हुआ कहता है, कि ‘अरे ठगो, औरों को ठग कर ठहाका लेने वालो! अरे, खण्डित जीवन जीने वालो, पाखण्ड-पक्ष ले उड़ने वालो! यह रहस्य की बात समझने में अभी समय लगेगा तुम्हें! गन्दा नहीं बन्दा ही भयभीत होता है विषम-विघन संसार से- और, अन्धा नहीं, आँख-वाला ही भयभीत होता है परम-सघन अन्धकार से। The arrangement for the ‘eclipse' shall be made without delay. The reason behind ignominy is evil practices The person with evil conduct has always Met with that imprisonment ! On facing the strokes Of the hard, harsh and bitter wordings All the ten directions went deaf, The heavenly sphere lost brilliance, indeed, It got drowned into the scattered band of clouds The space provider for plunging seemed itself to be plunged into ! And, The halo of light of the Sun too Losing a little of its lustre says, That Othou the swindlers, having cheated others, O thou the enjoyers of the peals of laughter, O thou the seekers of a fragmented life, O thou the high-soarers with the wings of hypocrisy ! You will take time In grasping this point of mystery ! Not a filthy one But a devotee is afraid of The odd and the worthless world - And, Not the blind, But the one having eyes indeed, is frightened By the immensely dense darkness.
  6. गुरु-गर्जन करते कहते हैं कि, “धरती का पक्ष क्यों लेता है ? सागर से क्यों चिढ़ता है? अरे खर! प्रभाकर सुन! भले ही गगनमणि कहलाता है तू, सौर-मण्डल ‘देवता-ग्रह’- ग्रह-गणों में अग्र तुझमें व्यग्रता की सीमा दिखती है अरे उग्रशिरोमणि! तेरा विग्रह...यानी- देह-धारण करना वृथा है। कारण, कहाँ है तेरे पास विश्राम-गृह ? तभी...तो दिनभर दीन-हीन-सा दर-दर भटकता रहता है! फिर भी क्या समझ कर साहस करता है सागर के साथ विग्रह-संघर्ष हेतु ? अरे,...अब...तो सागर का पक्ष ग्रहण कर ले, कर ले अनुग्रह अपने पर, और सुख-शान्ति-यश का संग्रह कर! अवसर है, अवसर से काम ले अब, सर से काम ले! अब...तो...छोड़ दे उलटी धुन अन्यथा, Resounding with heavy roar say that, “Why do you take sides with the Earth? Why do you get irritated with the ocean? O thou sharp-edged Sun, listen ! well good! thou art recognized as the jewel of the sky, The deity-planet of the solar system - The presiding planet of the galaxy of planets, There appears the apex of uneasiness in thee O the most fiercely hot jewel of the crown! Thy incarnation into a body...that is, – Thy embodiment is of no avail. The reason, Where is the rest-house with thee ? That is...why Thou hast to wander, the day in and the day out, Door to door, like the poor and helpless one ! Even then, With what notion does thou venture For an encounter against the ocean ? Hark, ...even...now to Take the sides with the ocean, Have some pity upon thyself And Treasure happiness, peace and fame for thyself! It is an occasion, Take advantage of it Now, make good use of thy brain ! Even...now...get rid of the perverted craze Otherwise,
  7. १५-०३-२०१६ तलवाड़ा (बाँसवाड़ा-राजः) मोक्षकल्याणक महोत्सव लोक परलोक के दैहिक सुखों को तिलांजलि देने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में मेरा त्रिकाल वंदन.... हे गुरुवर! २९ जून १९६८ को ब्रह्मचारी विद्याधर जी का अन्तिम आहार धर्म के माता-पिता के यहाँ पर हुआ। तब उन्होंने मनुहारपूर्वक मिष्ठान्न खिलाने की कोशिश की तो विद्याधर की दृढता देखते ही बनी। इस सम्बन्ध में चापानेरी के टीकमचंद जैन ने बताया मीठा हुआ परीक्षा में फेल ‘श्रीमान् हुकुमचंद जी लुहाड़िया श्रीमती जतनबाई लुहाड़िया की कोई संतान नहीं होने के कारण गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज से क्षणिक संतानसुख पाने के लिए ब्रह्मचारी विद्याधर जी के धर्म के मातापिता बनने के लिए निवेदन किया था। तब गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज ने उन्हें आशीर्वाद प्रदानकर अलौकिक पुत्र के माता-पिता बनकर अलौकिक सुखानुभूति करने हेतु उन्हें अवसर प्रदान किया था। मुनि दीक्षा से एक दिन पहले २९ जून १९६८ को धर्म के माता-पिता ब्रह्मचारी विद्याधर जी को अपने नया बाजार स्थित निवास स्थान पर भोजन हेतु ले गए। अन्तिम आहार को देखने के लिए बहुत भीड़ एकत्रित हुई, मैं भी देख रहा था। परिवार जन सभी लोग भोजन के अंदर मीठा पकवान आदि देने की कोशिश कर रहे थे, किन्तु विद्याधर जी मंदमंद मुस्काते हुए मना करते रहे। तब हुकुमचंद जी लुहाड़िया जी ने बड़ी ही आत्मीयता से कहा-भैयाजी! कल आपकी दीक्षा हो जायेगी आज तो मेरी बात मान लो, इतना बड़ा दीक्षा का महोत्सव हो रहा है और जीवन में आमूलचूल परिवर्तन होने जा रहा है। इस खुशी में मीठा मुँह तो करना ही पड़ेगा। आप तो रस लेते नहीं, किन्तु आप थोड़ा मीठा ले लेंगे तो हम लोगों को आनन्द रस आ जाएगा। तब विद्याधर जी को जोरों से हँसी आ गई, किन्तु फिर भी मीठा नहीं लिया। अपने त्याग में दृढ़-संकल्पी बने रहे। जब वे किशनगढ़ आये थे तब से ही उन्होंने नमक-मीठे का त्याग कर दिया था। आहार के पश्चात् ब्रह्मचारी विद्याधर जी भैया बोले- 'जिस चीज को छोड़ दिया उसे पुन: क्या ग्रहण करना', उनकी दृढ़ता को देखकर देखने वालों की भीड़ ने जयकारा लगाया और सब समझ गए कि ये ऐसे निर्दोषचर्या पालक मुनि बनेंगे जो जीवन में कोई दोष नहीं लगायेंगे।" इस तरह गुरुदेव आपने ब्रह्मचारी विद्याधर की दृढ़ता को देखकर जो निर्णय लिया वह आज कसौटी बनकर उपस्थित हुआ है, देश-विदेश में जैन मुनि / श्रमण के बारे में चर्चा होती है कि मुनि / श्रमण कैसा होना चाहिए तो लोग उदाहरण देते हैं आचार्य श्री विद्यासागर जैसा होना चाहिए। आपने असंयमी, अनुभवहीनों, अज्ञानियों, संकीर्ण-बुद्धिमानों की बात नहीं मानकर आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी को जीवित कर श्रमण संस्कृति पर महान् उपकार किया है, आप धन्य हैं, आपकी कीर्ति अमर। हो गई। आपके दृढ निर्णय को प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  8. जड़त्व को धारण करने से जो मति-मन्द मदान्ध बने हैं। यद्यपि इनका नाम पयोधर भी है, तथापि विष ही वर्षाते हैं वर्षा-ऋतु में ये। अन्यथा, भ्रमर-सम काले क्यों हैं ? यह बात निराली है कि वसुधा का समागम होते ही ‘विष' सुधा बन जाता है और, यह भी एक शंका होती है, कि वर्षा-ऋतु के अनन्तर शरद्-ऋतु में हीरक-सम शुभ्र क्यों होते...? उपाय की उपस्थिति ही पर्याप्त नहीं है, उपादेय की प्राप्ति के लिए अपाय की अनुपस्थिति भी अनिवार्य है। और वह अनायास नहीं, प्रयास-साध्य है। इस कार्य-कारण की व्यवस्था को स्मरण में रखते हुए ही सर्व-प्रथम वह बादल-दल देखते-देखते पलभर में अपने पथ में बाधक बने प्रभाकर से जा भिड़ते हैं और घन घमण्ड-घुले Those who have become dull-minded and intoxicated By retaining senselessness with them. Though they bear another name “Payodhara' "too, Even then They shower poison in the rainy season. Otherwise, Why are they as dark-black as the large black bees? It is something remarkable that The ‘poisono transforms into nectar As soon as it comes in close contact with the Earth And, one more doubt lurks, that Why do they look as bright as diamond. After the rainy season, in the autumn...? Only the presence of some endeavour Isn't enough, For the attainment of the beneficial’ The absence of the injurious’ is also inevitable. And that too Is accomplished by special effort, and not all of a sudden. Keeping in mind, indeed, This discipline of the cause and effect, At first, those bands of clouds At once, within the twinkling of the eye, Get together against the Sun Which poses a hindrance in their way. And They, melted with high pride,
  9. निशा इनकी बहन लगती है, सागर से शशि की मित्रता हुई अपयश-कलंक का पात्र बना शशि किसी रूपवती सुन्दरी से सम्बन्ध नहीं होने से शशि का सम्बन्ध निशा के साथ हुआ, सो. सागर को श्रेय मिलता यह! मोह-भूत के वशीभूत हुए कभी किसी तरह भी किसी के वश में नहीं आते ये, दुराशयी हैं, दुष्ट रहे हैं दुराचार से पुष्ट रहे हैं, दूसरों को दुःख दे कर दूसरों को देखते ही रुष्ट होते हैं, तप्त होते हैं, प्रतिशोध की वृत्ति इनकी सहजा - जन्मजा है वैर-विरोध की ग्रन्थि इनकी खुलती नहीं झट से। निर्दोषों में दोष लगाते हैं सन्तोषों में रोष जगाते हैं वन्द्यों की भी निन्दा करते हैं शुभ कर्मों को अन्धे करते हैं, सुकृत की सुषमा-सुरभि को सुँघना नहीं चाहते भूल कर भी, विषयों के रसिक बने हैं कषाय-कृषि के कृषक बने हैं जल-धर नाम इनका सार्थक है। The night is related to them as their sister, The moon sought its friendship with the ocean The moon became an object of disgrace and blemish Due to its failure in getting itself related With some lovely lass, The moon was married to night, Hence...this credit goes to the ocean ! Being infatuated with the ghost of delusion They are never subdued by anyone in any way, They are ill-intentioned and have been the wicked ones, They have been strong in their malpractices, They feel satisfied and satiated Through inflicting sufferings on others; At the very sight of others They feel displeased and agitated Their tendency to take revenge Is spontaneous and inborn Their complex for hostility and discord Doesn't relax itself easily. They slander the innocents They awaken anger among the contentments They scandalize even the venerable elders The auspicious acts are blinded by them; They don't like to smell, even by mistake, The charming fragrance of the good deeds, They have resigned themselves to the tastes of senses They have become the farmers of the harvest of foul passions Their denomination- 'Jala-dhara' i.e. jealousy holders' is meaningful.
  10. १४-०३-२०१६ तलवाड़ा (बाँसवाड़ा राजः) ज्ञानकल्याणक महोत्सव हर संभव नियति पर विजय प्राप्त करने वाले योगी गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में त्रिकाल नमोस्तु... हे गुरुवर! जब आप अजमेर पहुँचे। तब ब्रह्मचारी विद्याधर जी की मुनि दीक्षा को लेकर समाज में बहुत उत्साह था, किन्तु कुछ लोगों को यह पसंद नहीं था। तब सर सेठ भागचंद जी सोनी जी ने माध्यस्थता की थी। इस सम्बन्ध में अजमेर के आपके अनन्य भक्त श्रीमान् छगनलाल जी पाटनी ने मुझे १९९४ में एक संस्मरण लिखकर दिया। जो इस प्रकार है ब्रह्मचारी विद्याधर जी की अन्तिम परीक्षा "मुनि विद्यासागर जी की मुनि दीक्षा के पूर्व अजमेर समाज के कुछ लोगों ने बतंगड़ बनाया कि गोरानारा जवान छोकरा है और दक्षिण का है पता नहीं कैसे संस्कार हैं ? और फिर साधना का अभी एक ही वर्ष हुआ है। अत: ज्ञानसागर जी महाराज को सीधे मुनि दीक्षा नहीं देना चाहिए। यह बात गुरु महाराज को हमने जाकर कही तब ज्ञानसागर जी महाराज ने समाज के समक्ष कहा- ‘ब्रह्मचारी विद्याधर जी को हमने हर तरह से देखा परखा है। मेरी हर परीक्षा में वह खरा उतरा है। इसलिए मैं सीधे मुनि दीक्षा दूँगा। यदि आप लोग मना करोगे तो, मैं जंगल में जाकर दूँगा, लेकिन दूँगा। 'इसके दूसरे दिन ब्रह्मचारी विद्याधर जी का प्रवचन हुआ। अजमेर समाज ने सुना, तो सुनते ही रह गया। प्रवचन सुनने के बाद सभा में सभी लोग एक मत से कहने लगे कि यह ब्रह्मचारी तो मुनि बनने के काबिल है इनकी दीक्षा हो जानी चाहिए। फिर भी २-३ लोगों ने सर सेठ भागचंद जी सोनी से पूँछा-क्या आप ऐसी दीक्षा से संतुष्ट हैं ? तब सेठजी ने कहा-मैं ५-७ दिन बाद जवाब दूंगा और सेठ जी ने ब्रह्मचारी विद्याधर जी की परीक्षा की। रात्रि ३ बजे से रात्रि ११ बजे तक ब्रह्मचारी जी अपनी साधना में निरत रहते, उनकी चर्या, साधना, वैराग्य एवं नग्न अवस्था में सामायिक करते देखकर सेठ जी बड़े प्रभावित हुए और वे कैसे आहार लेते हैं ? यह भी देखा। तब ब्रह्मचारी जी को खड़े होकर हाथ में आहार लेते और नीचे कुछ भी नहीं गिरता देखा, न ही उनकी दृष्टि इधर-उधर देखी एवं आहार में नमक, मीठा का त्याग देखा। तो सेठ जी बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने एक दिन प्रवचन की सभा में सम्पूर्ण समाज के सामने खड़े होकर कहा-मेरी परीक्षा में ब्रह्मचारी विद्याधर जी पूर्णतया पास हो गए हैं और आज मैं मुक्त कण्ठ से घोषणा करता हूँ कि वे दिगम्बर-मुनि दीक्षा लेने के सर्वतः योग्य पात्र हैं और इसके लिए सकल जैन समाज अजमेर को भव्य तैयारियाँ करनी चाहिए। सोनी जी के द्वारा परीक्षा में पास और दीक्षा की घोषणा को सुनकर सम्पूर्ण समाज की श्रद्धा के आँसू बह पड़े, तालियों से सभा गूँज उठी और गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज का जयकारा आकाश में अनहदनाद कर उठा।" इस तरह सर सेठ भागचंद जी सोनी ने ब्रह्मचारी विद्याधर जी की अन्तिम परीक्षा ली और उन्हें सर्व योग्यताओं से सुसज्जित ब्रह्मचारी जी को सीधे मुनि दीक्षा से सम्बन्धित प्रतिवाद का पटाक्षेप करने वाला संस्मरण सुनाया तो मेरी आँखे भर आई, हृदय गद्गद् हो उठा, रोमरोम रोमांचित हो उठे, जन्मजात महापुरुषत्व के वैशिष्ट्य गुणों से समृद्ध गुरुवर की सहजोपलब्धि विजय को देख मेरी चेतना गौरव का अनुभव करने लगी। ऐसे सहज उत्तीर्ण साधक को नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  11. और निराश ही लौटता है यानी भ्रमर से भी अधिक काला है यह पहला बादल-दल...। दूसरा... दूर से ही विष उगलता विषधर-सम नीला नील-कण्ठ, लीला-वाला- जिसकी आभा से पकी पीली धान की खेत भी हरिताभा से भर जाती है! और, अन्तिम-दल कबूतर रंग वाला है। यूँ ये तीनों, तन के अनुरूप ही मन से कलुषित हैं। इनकी मनो-मीमांसा लिखी जा रही है - चाण्डाल-सम प्रचण्ड शील वाले हैं घमण्ड के अखण्ड पिण्ड बने हैं। जिनका हृदय अदय का निलय बना है, रह-रह कर कलह करते ही रहते हैं ये, बिना कलह भोजन पचता ही नहीं इन्हें ! इन्हें देख कर दूर से ही भूत भाग जाते हैं भय से, भयभीत होती अमावस्या भी इनसे दूर कहीं छुपी रहती...वह, यही कारण है कि एक मास में एक ही बार- बाहर आती है आवास तज कर। And Turns back, on being disappointed That is to say The first band of clouds... Is even more dark than the big black-bee. The second one...right from a distance, Is like a dark blue serpent, spitting out poison The blue-necked one with sportive performances – By the pomp of which Even the ripened yellowish farm of paddy Assumes a greenish splendour ! And The last band of clouds Reflects the colour of a dove. Thus, all the three of them, According to their bodies, are corrupt too in their minds. Their mental analysis is being depicted : They possess a violent character like that of a merciless wretch They have turned into a solid mass of pride. Their hearts have fashioned into an abode of cruelty, They go on indulging into strife By fits and starts, Without a quarrel, they are unable to get their diet digested! On beholding them from a distance The ghosts take to their heels out of fear, Even the frightened last night of a dark fortnight, Keeps Itself hidden away... from them somewhere at a distance; That is why Only once in a month – It sets out abandoning its dwellings.
  12. कूट-कूट कर सागर में कूट-नीति भरी है। पुनः प्रारम्भ होता है पुरुषार्थ। पृथिवी पर प्रलय करना प्रमुख लक्ष्य है ना! इसीलिए इस बार पुरुष को प्रशिक्षित किया है प्रचुर-प्रभूत समय दे कर। और वह पुरुष हैं- ‘तीन घन-बादल’ बदलियाँ नहीं दल-बदलने वालीं झट-सी दया से पिघलने वालीं। शुभ-कार्यों में विघन डालना ही इनका प्रमुख कार्य रहा है। इनका जघन परिणाम है, जघन ही काम! और ‘घन' नाम! सागर में से उठते-उठते क्षारपूर्ण नीर-भरे क्रम-क्रम से वायुयान-सम अपने-अपने दलों सहित आकाश में उड़ते हैं। पहला बादल इतना काला है कि जिसे देख कर अपने सहचर-साथी से बिछुड़ा भ्रमित हो भटका भ्रमर-दल सहचर की शंका से ही मानो बार-बार इससे आ मिलता। Within the ocean, the diplomacy Has been filled in a compact form. The special endeavour gains momentum again. The main objective, indeed, is To bring total annihilation upon the Earth ! That is the reason why, this time, A man has been trained By bestowing ample and mature opportunity to him. And those personages are- The three dense clouds’ And not the cloudlets, often changing o the groupings On being melted soon out of mercy. Their first and the foremost job has been To obstruct the auspicious ceremonies. Their feelings are detestable - Performance abominable, indeed! And Their name is ‘ghana’, 65b that is, ‘ the cloud' ! Having risen from inside the ocean Filled up with alkaline waters, They fly high up into the sky Like the lined-up aeroplanes With their different rings. The very first cloud is so dark That, at the very sight of which The band of bewildered and deviated big black bees, Separated from its fellow-partners Mixes with it once and again, As if doubting it to be its own companion
  13. और जो करता है वह कहता नहीं, यूँ ठहाका लेता हुआ सागर व्यंग कसता है पुनः “ऊपर से सूरज जल रहा है नीचे से तुम उबल रहे हो! और बीच में रह कर भी यह सागर कब जला, कब उबला ? इसका शीतल-शील...यह ...कब बदला...? हाय रे! शीतल योग पा कर भी शीतल कहाँ बने तुम ? तुमने उष्णत्व को कब उगला ? दूसरी बात यह भी है कि, तुम्हारी उष्ण प्रकृति होने से सदा पित्त कुपित रहता है तथा चित्त क्षुभित रहता है, अन्यथा उन्मत्तवत् तुम यद्वा-तद्वा बकते क्यों ? पित्त-प्रशमन हेतु मुझसे याचना कर, सुधाकर-सम सुधा-सेवन किया करो और प्रभाकर का पक्ष लिया न करो!" And The one who acts doesn't say, Thus, bursting into laughter The ocean again passes a sarcastic remark, “ The sun is burning from above the sky You are boiling from under the ground ! And In spite of dwelling in-between ...When has this ocean got burnt or boiled ? When has its cool character… ...Got itself altered...? Ah me ! Where have you become cool Despite being one with coolness ? When have you spitted out haughtiness ? The second point as well is, that, Your bilious humuor always remains fretful Because of your nature being hot And your mood is found always under excitement, Otherwise, Like a frenzied one Why should have you indulged into absurd talks ? For subsiding your bilious humuor, Having made an entreaty with me, You should make good use of the moon-like nectar, And Shouldn't take sides with the Sun !”
  14. अदम्य आकांक्षा सर्व-भक्षिणी वृत्ति… सागर की इस स्थिति को देख कर तेज प्रभाकर को सहा नहीं गया यह सब! अतः रवि ने सागर-तल के रहवासी तेज तत्त्व को सूचित किया गूढ़ संकेतों से सचेत किया जो प्रभाकर से ही शासित था, जातीयता का साम्य भी था जिसमें; परिणामस्वरूप तुरन्त बड़वानल भयंकर रूप ले खौल उठा, और ‘‘हे क्षार का पारावार सागर! तुझे पी डालने में एक पल भी पर्याप्त है मुझे यूँ बोल उठा। आवश्यक अवसर पर सज्जन-साधु पुरुषों को भी, आवेश-आवेगों का आश्रय ले कर ही कार्य करना पड़ता है। अन्यथा, सज्जनता दूषित होती है दुर्जनता पूजित होती है जो शिष्टों की दृष्टि में इष्ट कब रही...? कथनी में और करनी में बहुत अन्तर है, जो कहता है वह करता नहीं And all-devouring tendency.... On seeing this position of the ocean The luminous Sun Couldn’t tolerate this all! Therefore it Informed the lustrous element Residing at the sea-floor With mysterious hints aroused it Which was governed by the Sun itself, - Where there was found communal similarity too; The result was that at once The submarine fire fiercely boiled up, And O thou sea, an endless deposit of salty matter ! Even a single second is enough to me For drinking thee off upto the last drop’ - Thus grumbled it out. On some inevitable occasion Even the gentle and saintly persons Have to fulfil their responsibility By taking recourse to flurry and fury. Otherwise, The goodness gets defiled The villainy gets extolled Has it ever been desirable in the eyes of the well bred...? There is a veritable difference between the word and the deed, The one who says doesn't act -
  15. भविष्य का भाल भला नहीं दिखा उसे और कषाय-कलुषित मानसवाला यूँ सोचता हुआ सागर कुछ पंक्तियाँ कहता है, कि : ‘‘स्वस्त्री हो या परस्त्री, स्त्री-जाति का यही स्वभाव है, कि किसी पक्ष से चिपकी नहीं रहती वह। अन्यथा, मातृभूमि मातृ-पक्ष को त्याग-पत्र देना खेल है क्या ? और वह भी… बिना संक्लेश, बिना आयास! यह पुरुष-समाज के लिए टेढ़ी-खीर ही नहीं, त्रिकाल असम्भव कार्य है! इसीलिए भूल कर भी कुल-परम्परा-संस्कृति के सूत्रधार स्त्री को नहीं बनाना चाहिए। और गोपनीय कार्य के विषय में विचार-विमर्श-भूमिका नहीं बताना चाहिए...। धरती के प्रति वैर-वैमनस्य-भाव गुरुओं के प्रति भी गर्वीली दृष्टि सबको अधीन रखने की The forehead of the future doesn't appear favourable to him .And Thinking thus, the ocean, With a mind marred by foul emotions Expresses some of its feelings Quotes some lines - that: “Whether our own better-half or that of the others, It is the nature of the woman-folk That She doesn't keep herself stuck to any side. Otherwise, Is it a trivial job to give up The mother-land, the mother-side And that too... Without anguish, without special trouble ! This Is not only a very tortuous job, But an impossible act in all the three spans of time For the man-folk ! Hence, even by mistake, The woman shouldn't be entrusted with The highest office of the hereditary tradition and culture. And The background of the deliberations Relating to the confidential plans Shouldn't be disclosed to her....” A sense of enmity and ill-will for the Earth A proud attitude towards the venerable elders An uncontrollable ambition For keeping the all under subjugation.
  16. सदा सरकती सरिताओं की सरवर सरसिज सुषमा की आदि...आदि...यूँ भाँति...भाँति आभाओं की धरती से सरलिम प्रीति वह और बढ़ती जा रही है और बढ़ती जा रही है...! अरे यह कौन-सी परिणति उलटी-सी! सागर की गरलिम रीति है… और चिढ़ती जा रही है धरती की बढ़ती कीर्ति को देख कर! हे सखे! अदेसख-भाव है यह ...बेशक...! कुम्भ को मिटा कर मिट्टी में मिला-घुला कर मिट्टी को बहाने हेतु प्रशिक्षिता हुई प्रेषिता थीं, जो पर-पक्ष की पूजा कर मुक्ता की वर्षा करतीं धरती के यश को और बढ़ाती हुईं लजीली-सी लौटती बदलियों को देख सागर का क्षोभ पल-भर में चरम सीमा को छूने लगा। लोचन लोहित हुए उसके, भृकुटियाँ तन गई गम्भीरता भीरुता में बदलती है That of the ever-gliding rivers That of the pool with the loveliness of Lotus Etc. ...etc. ...thus That of the diverse splendours - Natural that love with the Earth Is prospering more and more soo Is growing ever and ever...! Oh, what is this reverse-like tendency! The practice of the ocean is venomous… It is getting more and more irritated On seeing the growing glory of the Earth ! O dear friend! It is a malicious feeling ...Undoubtedly...! Having destroyed the pitcher on Having dissolved and mixed it into the dust, - Which are trained and directed messengers To make the soil flow as waste - - Which, having adored the opposite side, Cause the pearls to fall out, - On beholding those shy cloudlets turning back After enriching the glory of the Earth, The anguish of the ocean Reaches its climax within moments . Its eyes turn reddish The eyebrows get knitted together The gravity changes into fright –
  17. और मुक्ता की दुर्लभ निधि ले राज-कोष को और समृद्ध करता है। इसी भाँति धरती की धवलिम कीर्ति वह चन्द्रमा की चन्द्रिका को लजाती-सी दशों दिशाओं को चीरती हुई और बढ़ती जा रही है सीमातीत शून्याकाश में। सूरज-शूरों, वीरों की श्रीमानों की, धीमानों की धीर-जनों की, तस्वीरों की शिशुओं की औ पशुओं की किशोर किस्मतवालों की युवा-युवति, यति-यूथों की सामन्तों की, सन्तों की शीलाभरण-सतियों की परिश्रमी ऋषि-कृषकों की असि-मषि कर्मकारों की ऋद्धि-सिद्धि-समृद्धों की बुद्धों की, गुणवृद्धों की तरुवरों की, गुरुवरों की परिमल पल्लव-पत्तों की गुरुतर गुल्म-गुच्छों की फल-दल कोमल फूलों की किसलय-स्निग्ध किसलयों की पर्वत-पर्व-तिथियों की। And Having received the rare treasure of pearls, Enriches the state-treasury further more. In the same manner! That bright glory of the Earth, As if putting the moon-light to shyness, Piercing through all the ten directions Is constantly growing High around the limitless firmament. That of the sun-like heroes and the braves That of the wealthy and the wise That of the firm-minded and their paintings That of the children and the animls That of the fortunate adolescents That of the lads and lasses and the group of saints That of the feudal lords and the ascetics That of the chaste women adorned with character That of the toilsome hermit-like farmers That of the workers with sword and pen in hand That of the accomplished sages and the inspired seers That of the divine personages and the virtuous elders That of the grand trees and the great Spiritual Guides That of the fragrant buds and tender leaves That of the dense cluster of shrubs That of the soft flowers and the bunches of fruits That of the new-born leaves like smooth sprouts That of the mountains and the observance of festivals, –
  18. मंगलाचरण शुद्ध भाव से नमन हो, शुद्धभाव के काज। स्मरों, स्मरूं नित थुति करूं उरमें करूं विराज।। अगार गुण के गुरु रहे, अगुरु गन्ध अनगार। पार पहुँचने नित नर्मू नमूं, प्रणाम बारम्बार ।। नमू भारती भ्रम मिटे, ब्रह्म बनूँ मैं बाल। भार रहित भारत बने, भास्वत भारत भाल।। श्री आदिनाथ भगवान आदिम तीर्थकर प्रभु, आदिनाथ मुनिनाथ। आधि व्याधि अघ मद मिटे तुम पद में मममाथ।। वृष का होता अर्थ है, दयामयी शुभ धर्म। वृष से तुम भरपूर हो, वृष से मिटते कर्म।। दीनों के दुर्दिन मिटे तुम दिनकर को देख। सोया जीवन जागता, मिटता अघ अविवेक।। शरण चरण है आपके, तारण तरण जहाज। भव दधि तट तक ले चलो करुणाकर जिनराज।। श्री अजितनाथ भगवान हार जीत के हो परे, हो अपने में आप। बिहार करते अजित हो, यथा नाम गुण छाप।। पुण्य पुंज हो पर नहीं, पुण्य फलों में लीन। पर पर पामर भ्रमित हो, पल पल पर आधीन।। जित इन्द्रिय जित मद बने जितभव विजित कषाय। अजितनाथ को नित नमूं, अर्जित दुरित पलाय।। कोंपल पल पल को पलें, वन में ऋतु पति आय। पुलकित मम जीवन लता, मन में जिनपद पाय।। श्री संभवनाथ भगवान भव-भव भव-वन भ्रमित हो, भ्रमता-भ्रमता आज। संभव जिनभव शिव मिले, पूर्ण हुआ मम काज।। क्षण क्षण मिटते द्रव्य हैं, पर्यय वश अविराम। चिर से है चिर ये रहे, स्वभाव वश अभिराम्।। परमार्थ का कथन यूं कथन किया स्वयमेव। यतिपन पाले यतन से, नियमित यति हो देव।। तुम पद पंकज से प्रभु, झर झर झरी पराग। जब तक शिव सुख ना मिले, पीऊ षटपद जाग।। श्री अभिनन्दन नाथ भगवान गुण का अभिनन्दन करो, करो कर्म की हानि। गुरु कहते गुण गौण हो, किस विध सुख हो प्राणि।। चेतन वश तन, शिव बने, शिव बिन तन शव होय। शिव की पूजा बुध करें, जड़ तन शव पर रोय।। विषयों को विष लख तजू, बनकर विषयातीत। विषय बना ऋषि ईश को, गाऊँ उनका गीत।। गुणधारे पर मद नहीं, मृदुतम हो नवनीत। अभिनन्दन जिन ! नित नमूं मुनि बन मैं भवभीत।। श्री सुमतिनाथ भगवान बचें अहित से हित करूँ, पर न लगा हित हाथ। अहित साथ, ना छोड़ता, कष्ट सहूँ दिन-रात्।। बिगड़ी धरती सुधरती, मति से मिलता स्वर्ग। चारों गतियाँ बिगड़ती, पा अघ मति संसर्ग।। सुमतिनाथं प्रभु सुमति हो, मम मति है अतिमंद। बोध, कली खुल खिल उठे, महक उठे मकरन्द। तुम जिन मेघ मयूर मैं, गरजो बरसो नाथ। चिर प्रतीक्षित हूँ खड़ा, ऊपर करके माथ।। श्री पद्मप्रभ भगवान निरीछटा ले तुम छटे, तीर्थकरों में आप। निवास लक्ष्मी के बने, रहित पाप संताप।। हीरा मोती पद्म ना, चाहूँ तुमसे नाथ। तुम सा तम-तामस मिटा, सुखमय बनूँ प्रभात।। शुभ्र सरल तुम बाल, तव कुटिल कृष्ण तम नाग। तव चिति चित्रित ज्ञेय से, किंतु न उसमें दाग।। विराग पद्मप्रभु आपके, दोनों पाद सराग। रागी मम मन जा वहीं, पीता तभी पराग।। श्री सुपार्श्वनाथ भगवान यथा सुधा कर खुद सुधा, बरसाता बिन स्वार्थ। धर्मामृत बरसा दिया, मिटा जगत का आर्त।। दाता देते दान हैं, बदले की ना चाह। चाह दाह से दूर हो, बड़े बड़ों की राह।। अबंध भाते काट के, वसु विधि विधि का बंध। सुपार्श्व प्रभु निज प्रभुपना, पा पाये आनन्द।। बांध-बांध विधि बन्ध मैं, अन्ध बना मतिमन्द।। ऐसा बल दो अंध को, बन्धन तोडू द्वन्द।। श्री चन्द्रप्रभु भगवान सहन कहाँ तक अब कहँ, मोह मारता डंक। दे दो इसको शरण ज्यों, माता सुत को अंक।। कौन पूजता मूल्य क्या, शून्य रहा बिन अंक। आप अंक है शून्य मैं, प्राण फूक दो शंख।। चन्द्र कलंकित किंतु हो, चन्द्रप्रभु अकलंक। वह तो शंकित केतु से, शंकर तुम निशंक।। रंक बना हूँ मम अतः, मेटे मन का पंक। जाप जपूँ जिन नाम का, बैठ सदा पर्यक।। श्री पुष्पदन्त भगवान सुविधि सुविधि के पूर हो, विधि से हो अति दूर। मम मन से मत दूर हो, विनती हो मन्जूर।। किस वन की मूली रहा, मैं तुम गगन विशाल। दरिया में खसखस रहा, दरिया मौन निहार।। फिर किस विध निरखें तुम्हें, नयन करूं विस्फार। नाचें गाँऊ ताल दें, किस भाषा में ढाल।। बाल मात्र भी ज्ञान ना, मुझमें मैं मुनि बाल। बवाल भव का मम मिटे, तुम पद में मम भाल।। श्री शीतलनाथ भगवान चिन्ता छूती कब तुम्हें, चिंतन से भी दूर। अधिगम में गहरे गये, अव्यय सुख के पूर।। युगों-युगों से युग बना, विघन अघों का गेह। युग दृष्टा युग में रहें, पर ना अघ से नेह।। शीतल चंदन है नहीं, शीतल हिम ना नीर। शीतल जिनतव मत रहा, शीतल हरता पीर।। सुचिर काल से मैं रहा, मोह नींद से सुप्त। मुझे जगाकर, कर कृपा, प्रभो करो परितृप्त।। श्री श्रेयांसनाथ भगवान रागद्वेष और मोह ये, होते करण तीन। तीन लोक में भ्रमित यह, दीन हीन अघ लीन।। निज क्या, पर क्या, स्व-पर क्या, भला बुरा बिन बोध । जिजीविषा ले खोजता, सुख ढोता तन बोझ।। अनेकान्त की कान्ति से, हटा तिमिर एकान्त। नितान्त हर्षित कर दिया, क्लान्त विश्व को शान्त।। निःश्रेयस सुखधाम हो, हे जिनवर! श्रेयांस। तव थुति अविरल मैं कहूँ, जब लौ घट में श्वाँस।। वासुपूज्य भगवान औ न दया बिन धर्म ना, कर्म कटे बिन धर्म। धर्म मर्म तुम समझकर,करलो अपना कर्म।। वासुपूज्य जिनदेव ने, देकर यूं उपदेश। सबको उपकृत कर दिया, शिव में किया प्रवेश।। वसुविध मंगल द्रव्य ले, जिन पूजो सागार। पाप घटे फलतः फले, पावन पुण्य अपार।। बिना द्रव्य शुचि भाव से, जिन पूजो मुनि लोग। बिन निज शुभ उपयोग के शुद्ध न हो उपयोग।। श्री विमलनाथ भगवान काया कारा में पला, प्रभु तो कारातीत। चिर से धारा में पड़ा, जिनवर धारातीत।। कराल काला व्याल सम, कुटिल चाल का काल। विष विरहित उसका किया, किया स्वप्न साकार।। मोह अमल बस समल बन, निर्बल मैं भयवान्। विमलनाथ तुम अमल हो, सम्बल दो भगवान।। ज्ञान छोर तुम मैं रहा, ना समझ की छोर। छोर पकड़कर झट इसे, खींचो अपनी ओर ।। श्री अनन्तनाथ भगवान आदि रहित सब द्रव्य है, ना हो इनका अन्त। गिनती इनकी अन्त से, रहित अनन्त अनन्त।। कर्ता इनका पर नहीं, ये न किसी के कर्म। सन्त बने अरिहन्त हो, जाना पदार्थ धर्म। अनन्त गुण पा कर दिया, अनन्तभव का अन्त । अनन्त सार्थक नाम तव, अनन्त जिन जयवन्त।। अनन्त सुख पाने सदा, भव से हो भयवन्त। अन्तिम क्षण तक मैं तुम्हें, स्मरू स्मरें सब संत।। श्री धर्मनाथ भगवान जिससे बिछुड़े जुड सकें, रुदन रुके मुस्कान। तन गत चेतन दिख सके, वही धर्म सुखखान।। विरागता में राग हों, राग नाग विष त्याग। अमृत पान चिर कर सकें, धर्म यही झट जाग।। दयाधर्म वर धर्म है, अदया भाव अधर्म।। अधर्म तज प्रभु धर्म ने, समझाया पुनि धर्म।। धर्मनाथ को नित नमूं, सधे शीघ्र शिव शर्म। धर्म-मर्म को लख सकें, मिटे मलिन मम कर्म।। श्री शान्तिनाथ भगवान सकलज्ञान से सकल को, जान रहे जगदीश। विकल रहे जड़ देह से, विमल नमूं नतशीश।। कामदेव हो काम से, रखते कुछ ना काम। काम रहे ना कामना, तभी बने सब काम।। बिना कहे कुछ आपने, प्रथम किया कर्तव्य। त्रिभुवन पूजित आप्त हो, प्राप्त किया प्राप्तव्य।। शान्ति नाथ हो शान्त कर, सातासाता सान्त। केवल-केवल-ज्योतिमय, क्लान्ति मिटी सब ध्वांत।। श्री कुंथुनाथ भगवान ध्यान अग्रि से नष्ट कर, प्रथम पाप परिताप। कुंथुनाथ पुरुषार्थ से, बने न अपने आप।। उपादान की योग्यता, घट में ढलती सार। कुम्भकार का हाथ हो, निमित्त का उपकार।। दीन दयाल प्रभु रहे, करुणा के अवतार। नाथ अनाथों के रहे, तार सको तो तार।। ऐसी मुझपैं हो कृपा, मम मन मुझ में आय। जिस विध पल में लवण है, जल में घुल मिल जाए।। श्री अरहनाथ भगवान चक्री हो पर चक्र के, चक्कर में ना आय। मुमुक्षु पन जब जागता, बुभुक्षु पन भग जाय।। भोगों का कब अन्त है, रोग भोग से होय। शोक रोग में हो अतः काल योग का रोय।। नाम मात्र भी नहिं रखो, नाम काम से काम्। ललाम आतम में करो, विराम आठों याम्।। नाम धरो ‘अर' नाम तव, अतः स्मरू अविराम। अनाम बन शिवधाम में, काम बनूं कृत-काम्।। श्री मल्लिनाथ भगवान क्षार क्षार भर है भरा, रहित सार संसार। मोह उदय से लग रहा, सरस सार संसार।। बने दिगम्बर प्रभु तभी, अन्तरंग बहिरंग। गहरी-गहरी हो नदी, उठती नहीं तरंग।। मोह मल्ल को मार कर, मल्लिनाथ जिनदेव। अक्षय बनकर पा लिया, अक्षय सुख स्वयमेव।। बाल ब्रह्मचारी विभो, बाल समान विराग। किसी वस्तु से राग ना, तुम पद से मम राग।। श्री मुनिसुव्रतनाथ भगवान निज में यति ही नियति है, ध्येय “पुरुष’ पुरुषार्थ। नियति और पुरुषार्थ का, सुन लो अर्थ यथार्थ।। लौकिक सुख पाने कभी, श्रमण बनो मत भ्रात। मिले धान्य जब कृषि करे, घास आप मिल जात’।। मुनिबन मुनिपन में निरत, हो मुनि यति बिन स्वार्थ। मुनि व्रत का उपदेश दे, हमको किया कृतार्थ।। मात्र भावना मम रही, मुनिव्रत पाल यथार्थ। मैं भी मुनिसुव्रत बनू, पावन पाय पदार्थ।। श्री नमिनाथ भगवान मात्र नग्नता को नहिं, माना प्रभु शिव पंथ। बिना नग्नता भी नहीं, पावो पद अरहन्त।। प्रथम हटे छिलका तभी, लाली हटती भ्रात। पाक कार्य फिर सफल हो, लो तव मुख में भात। अनेकान्त का दास हो, अनेकान्त की सेव। करूं गहूँ मैं शीघ्र से, अनेक गुण स्वयमेव।। अनाथ मैं जगनाथ हो, नमीनाथ दो साथ। तव पद में दिन रात हूँ, हाथ जोड़ नत-माथ।। श्री नेमिनाथ भगवान राज तजा राजुल तजी, श्याम तजा बलिराम। नाम धाम धन मन तजा, ग्राम तजा संग्राम।। मुनि बन वन में तप सजा, मन पर लगा लगाम। ललाम परमातम भजा, निज में किया विराम।। नील गगन में अधर हो, शोभित निज में लीन। नील कमल आसीन हो, नीलम से अति नील।। शील-झील में तैरते, नेमि जिनेश सलील। शील डोर मुझे बांध दो, डोर करो मत ढील।। श्री पार्श्वनाथ भगवान रिपुता की सीमा रही, गहन किया उपसर्ग। समता की सीमा यही, ग्रहण किया अपवर्ग।। क्या क्यों किस विध कब कहें, आत्म ध्यान की बात। पल में मिटती चिर बसी, मोह अमा की रात।। खास-दास की आस बस, श्वास-श्वास पर वास। पार्श्व करो मत दास को, उदासता का दास।। ना तो सुर-सुख चाहता, शिव सुख की ना चाह। तव थुति सरवर में सदा, होवे मम अवगाह।। श्री महावीर भगवान क्षीर रहा प्रभु नीर मैं, विनती करूं अखीर। नीर मिला लो क्षीर में, और बना दो क्षीर।। अबीर हो, तुम वीर भी, धरते ज्ञान शरीर। सौरभ मुझ में भी भरो, सुरभित करो समीर।। नीर निधि से धीर हो, वीर बनें गंभीर। पूर्ण तैर कर पा लिया, भवसागर का तीर।। अधीर हूँ मुझ धीर दो, सहन करूं सब पीर। चीर चीर कर चिर लखू, अन्दर की तस्वीर ।। रचना एवम् स्थान परिचय "बीना बारह क्षेत्र पे सुनो! नदी सुख चैन। बहती बहती कह रही, इत आ सुख दिन रैन।। श्याम राम माल रस गंध की वीर जयन्ती पर्व। पूर्ण हुआ थुति शतक है, पढ़े सुनें हम सर्व।। ‘श्याम नारायण ६ राम १ रस ५ गध २ यानी ११५२ अंकानाम वामतो गति केअनुसार वीर निर्माण संवत २५१६ विक्रम संवत् २०५० शक संवत् १६१५ चैत्रसुदी त्रयोदशी महावीर जयन्ती दिवस पर सुखचैन नदी के समीपवर्ती श्रीदिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बीना बारहा देवरी सागर में प्र में ४ अप्रेल १९६३ईश्वी, रविवार के दिन दिगम्बर जैनाचार्य सन्तशिरोमणि श्री विद्यासागर मुनिमहाराज के द्वारा यह ‘स्तुति शतक" अपर नाम "दोहा थुति शतक " पूर्ण हुआ।
  19. परन्तु सुनो...! मुक्ता वह नामानुकूल न राग करती, न द्वेष से भरती अपने आपको! न ही मद-मान-मात्सर्य उसे छू पाते कोई विकार! सर्व-प्रथम प्रांगण में गिरी आकाश मण्डल से, फिर निरी-निरी हो बिखरी, बोरियों में भरी गई। सम्मान के साथ अब जा रही है राज-प्रासाद की ओर…! मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा हो रही है, पर मन्त्रमुग्धा हो सुनती कब उसे ? मुदित-मुखी महिलाओं के संकटहारिणी कण्ठहार बनती! द्वार पर आगत अभ्यागतों के सर पर हाथ रखती, तारणहार तोरणद्वार बनती, इस पर भी वह उन्मुक्ता मुक्ता ही रहती अहंभाव से असंपृक्ता...मुक्ता....! कुम्भकार के निवेदन मुक्ता और माहौल के सराहन-समर्थन पर विचार करता हुआ राजा स्वीकारोक्ति का स्वागत करता है, सानन्द! But listen...! That pearl, worth its name, Neither indulges into affection Nor fills itself with malice ! Nor vanity, self-conceit, jealousy - No other passions can touch it ! At first, it gets rained upon the courtyard From the blue sphere, Then, it is scattered around in portions And is packed into the bags. Now it is being carried, with due regard, Towards the royal palace… It is being admired, without any reserve, But When does it listen to it being enchanted ? It is enshaped into the safe-guarding necklaces of the ladies with buoyant faces ! It extends blissful touch of its palm Upon the heads of visitors and guests at the door, It is utilized as the liberating gate-festoon, Despite this all That unchained one remains a liberated-’pearl’ Unstained with arrogance...unfettered...! The king, pondering over The submission of the Potter-artisan The admiration and backing Of the pearls and the surroundings, Extends his welcome to the offer of acceptance, Delightfully !
  20. उद्भीपन उतरता-सा गया, अस्त-व्यस्त-सी स्थिति ...अब पूरी स्वस्थ-शान्त हुई देख, फिर से निवेदन, कर-जोड़ प्रार्थना: ‘‘हे कृपाण-पाणि! कृपाप्राण! कृपापात्र पर कृपा करो यह निधि स्वीकार कर इस पर उपकार करो! इसे उपहार मत समझो यह आपका ही हार है, शृंगार आपकी ही जीत है इसका उपभोग-उपयोग करना हमारी हार है, स्वामिन्!'' बोरियों में भरी उपरिल मुक्ता-राशि बाहर की ओर झाँकती कुम्भकार की इस विनय-प्रार्थना को जो राजा से की जा रही है, सुनती-देखती, और समझ भी रही है राजा के मन की गुदगुदी को, सम्मति की ओर झुकी राजा की चिति की बुदबुदी को मुख पर मन्द-मुस्कान के मिष ‘‘हे राजन्! पदानुकूल है, स्वीकार करो इसे यूँ मानो कह रही है। The excitement seemed to be decreasing, The position which seemed to be confused On being found now... To be entirely sound and quiet, Again an entreaty, a request with folded hands : “O Thou Holder-of-the-sword, O Thou Merciful-at-heart ! Take pity upon thy object-of-mercy Kindly do a good turn to this treasure By accepting it ! Don't take it as a gift It is the very necklace of yours, an embellishment, Is your triumph indeed, Its consumption and usage Is our defeat, O Lord !" Filled into the bags upto the brim, the heap of pearls Peeping outside, Hearing and understanding The Potter-artisan's humble request, Which is being made to the King; And Is grasping too The ardent desire of the King's heart, The bubbling up of the King's mentality Which is inclined towards consent, With an excuse of a faint smile upon the face : - Is supposed to be whispering thus – O King ! It becomes your high status, accept it –
  21. यानी शिव-पथ पर चलेंगे हम, यूँ उन्हें वचन देना महा वरदान है सुख-सुधा, और गुरु हो कर लघु जनों को स्वप्न में भी वचन देना, यानी उनका अनुकरण करना सुख की राह को मिटाना है। पर, हाँ! विनय-अनुनय-समेत यदि हित की बात पूछते हों, पक्षपात से रहित हो अक्षघात से रहित हो हित-मित-मिष्ट वचनों से उन्हें प्रवचन देना दुःख के दाह को मिटाना है।” शनैः शनैः ज्वर-सूचक यन्त्र-गत ऊपर चढ़ा हुए उतरता पारा-सम! या उबलते-उफनते ऊपर उठ कर पात्र से बाहर उछलने को मचलते दूध में जल की कुछ बूंदें गिरते ही शान्त उपशमित दूध-सम! कुम्भ को समझाते कुम्भकार की बातों से राजा की मति का उफान- That is to say, To take a vow before them in the manner that We shall tread upon the path of spiritual wellbeing, Is a great boon for the nectar of happiness, And, Being a Spiritual Guide i. e., a Guru, To bestow a promise even in a dream to the young Learners, That is To follow their ways Is to demolish the way to happiness. But, yes ! If they ask something about their well-being With an earnest request and humility, - Without any partiality - Without winking a trickful eye, To instruct them With worthy, and suitable and sweet preachings Is to efface the agony of sufferings. Little by little Like risen mercury fluctuating down Inside the clinical thermometer ! Or Like the milk boiling-bubbling And, having risen up, refracting To jump out of the vessel, Getting calmed down and pacified On some water-drops being mingled with it ! Through the utterings of the Potter-artisan instructing the pitcher The boiling up of the King's intellect-
  22. कुम्भ के व्यंग्यात्मक वचनों से राजा का विशाल भाल एक साथ तीन भावों से भावित हुआ- लज्जा का अनुरंजन! रोष का प्रसारण-आकुंचन!! और घटना की यथार्थता के विषय में चिन्ता-मिश्रित चिन्तन!!! मुख-मण्डल में परिवर्तन देख राजा के मन को विषय बनाया, फिर कुम्भकार ने कुम्भ की ओर बंकिम दृष्टिपात किया। आत्म-वेदी, पर मर्म-भेदी काल-मधुर, पर! आज कटुक कुम्भ के कथन को विराम मिल ...किसी भाँति, और राजा के प्रति सदाशय व्यक्त हो अपना ...इसी आशय से। लो, कुल-क्रमागत- कोमल कुलीनता का परिचय मिलता कुम्भ को! ‘‘लघु हो कर गुरुजनों को भूल कर भी प्रवचन देना महा अज्ञान है दु:ख-मुधा, परन्तु, गुरुओं से गुण ग्रहण करना Due to the sarcastic remarks of the pitcher The broad forehead of the King Was reflected With three feelings simultaneously - The flush of bashfulness ! The expanding and shrinking of anger !! And The thinking mixed up with anxiety About the reality of the occurrence !!! On discerning some change into the facial halo The King's mind was held under reference, Then The Potter-artisan cast his curved eyesight Towards the pitcher. ...Some how should be ceased The utterings of the pitcher, Which were heart-rending! Though self-explanatory, Which were future-sweet, but, bitter today. And ... With this very intention that Our goodwill for the King should be expressed. Lo, the pitcher is acquainted with – The mild nobility of descent Inherited through parentage ! To preach, even by mistake the eminent elders Despite being youngers, Is a prominent folly which is vainly troublesome, But, To acquire virtues from the Spiritual Guides i.e.,Gurus.
  23. खो जाते शून्य में...तभी के। और यह कौन-सी बुद्धिमत्ता है कि जलती अगरबाती को हाथ लगाने की क्या आवश्यकता थी ? अगर अगरबाती अपनी सुरभि को स्वयं पीती, तो...बात निराली थी, मगर, सौम्य सुगन्धि को आपकी नासिका तक प्रेषित कर ही रही थी। दूसरी बात यह भी है कि ‘‘लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन रावण हो या सीता हो राम भी क्यों न हों दण्डित करेगा ही!'' अधिक अर्थ की चाह-दाह में जो दग्ध हो गया है अर्थ ही प्राण, अर्थ ही त्राण यूँ-जान-मान कर, अर्थ में ही मुग्ध हो गया है, अर्थ-नीति में वह विदग्ध नहीं है। कलि-काल की वैषयिक छाँव में प्रायः यही सीखा है इस विश्व ने वैश्यवृत्ति के परिवेश में- वेश्यावृत्ति की वैयावृत्य...!" Into the vacuum...since long time. And What wisdom does it indicate – Where was the need to touch A burning incense-stick ? If The incense-stick would have Drunk its own fragrance itself, Then...there was something remarkable, But, It was remitting, indeed, The mild fragrance upto your very nose ! The other point too is that “The violation of Laksmana Rekhā, that is, the lawful limit, Would surely deserve punishment for the one- Whether he is Rāvana or Sītā Or, whether it comes even to Lord Rām Himself!” The one, who has scorched himself In pursuit of his burning anxiety for unlimited wealthiness For whom only wealth is life, only wealth is deliverance, And after knowing and believing so Who has been infatuated with power and pelf, - He isn't a man of keen wisdom So far as such money-policy is concerned. Under the sensuous shadow of the ‘kali-yuga–Iron Age, This world has often learnt In the atmosphere of trade-mentality – To tender its due services for the lustful malpractices...!”
  24. १३–०३–२०१६ तलवाड़ा (बाँसवाड़ा राज.) तपकल्याणक महोत्सव गुणानुगुणित गुणधारी गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को त्रिकाल वंदन करता हूँ... हे गुरुवर! विद्याधर जी आपके साथ छायावत् हर समय परिणमन कर रहे थे और अपने गुरु की वैयावृत्य में पूर्णतः जागृत, उत्साहित, सावधान एवं चतुर थे उनसे कोई भी बात करता तो उनके जवाब में आध्यात्मिक तत्त्व/पुट होता। वो लोकाचार-व्यवहार में भी ऐसी भाषा बोलते कि सभी को बात समझ में आ जाती और अर्थ आध्यात्मिक निकलता। इस सम्बन्ध में जून १९६८ में जब अजमेर में आप पधारे तब का एक संस्मरण अजमेर की आपकी भक्त श्राविका श्रीमती मनोरमा पाटनी ने मुझे १९९४ में लिखकर दिया संकोच स्वभावी ब्रह्मचारी विद्याधर की अलौकिक शिक्षा "जून १९६८ में गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के साथ ब्रह्मचारी विद्याधर जी अजमेर आए थे। उन्हें हिन्दी भाषा का ज्ञान पूरा नहीं था। कुछ-कुछ शब्दों का ही प्रयोग कर पाते थे। वे बड़े ही संकोच स्वभाव के स्वाभिमानी ब्रह्मचारी थे। मैं उस समय सोनी जी की नसियाँ के सामने सोगानी भवन (तबेला) में रहती थी और जितने समय मुनि ज्ञानसागर जी संघ सहित नसियाँ जी में रुके उतने समय तक हम प्रतिदिन चौका लगाया करते थे। ब्रह्मचारी विद्याधर जी को गर्म पानी या ज्ञानसागर जी महाराज की औषधि तैयार करनी होती थी तो वे हमारे यहाँ पर आते थे। तब उनकी भाषा हम लोगों को समझ में नहीं आती थी। हमारे पड़ोस में एक महाराष्ट्रीयन दम्पत्ति रहते थे तो वो ब्रह्मचारी जी की भाषा समझ जाते थे। वो हम लोगों को हिन्दी में बता देते थे। धीरे-धीरे ब्रह्मचारी जी हिन्दी सीखते चले गए। जिस चीज के बारे में हम हिन्दी में बोलते वे उसे याद कर लेते थे, फिर भूलते नहीं थे। संकोचशील स्वभाव होने के कारण उनकी दृष्टि हमेशा नीचे ही रहती थी। उनको हमने बोला कि आप हमारे यहाँ पर भोजन पानी के लिए आ जाया करो। ये अपना ही घर समझना। तो बोले-‘घर तो छोड़ दिया। अपना कोई घर नहीं होता। सब कुछ छोड़ना ही पड़ता है। तो फिर पकड़ना क्यों?" इस तरह विद्याधर जी के शील स्वभाव से हर कोई प्रभावित हो जाया करता था और आज तक उन्हें भूले नहीं हैं। ऐसे सुशील स्वभाव को प्रणाम करता हुआ... । आपका शिष्यानुशिष्य
  25. आप प्रजापति हैं, दयानिधान! हम प्रजा हैं दया-पात्र, आप पालक हैं, हम बालक! यह आप की ही निधि है हमें आप की ही सन्निधि है एक शरण! मेरी अनुपस्थिति के कारण आप लोगों को कष्ट हुआ, अब पुनरावृत्ति नहीं होगी स्वामिन्! आप अभय रहें।” यूँ कहता-कहता मुक्ता की राशि को बोरियों में स्वयं अपने हाथों से भरता है बिना किसी भीति से। इस दृश्य को देख कर मण्डली-समेत राज-मुख से तुरन्त निकलती है ध्वनि- ‘‘सत्य-धर्म की जय हो! सत्य-धर्म की जय हो!!" इसी प्रसंग में प्रासंगिक बात बताता है अपक्व कुम्भ भी प्रजापति को संकेत कर : ‘‘बाल-बाल बच गये, राजन्! बड़ा भाग्य का उदय समझो! वरना, जल-जल कर वाष्प बन You are a sovereign, Othou the Treasure of Mercy ! We are the people, an object of compassion, You are the protector, we the youngsters, This is really your own treasure We belong to your Holy Presence A Shelter ! You elders faced troubles Due to my absence, Now, no more of such repetitions, my Lord ! You kindly rest assured.” While making such utterings, Fills the heaps of pearls With his own hands, into the bags Without any sense of terror. On beholding this scene, A voice at once spreads out From the lips of the King, along with his retinue, – “ Victory to the true religion ! The true religion be triumphant !!” In this very context The immature pitcher too Relates a relevant point By dropping a hint to the Sovereign : “ You made a narrow escape, O King ! Take it as the dawning of a favourable fate ! Otherwise, You, having burnt yourself,Would have evaporated
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