१५-०३-२०१६
तलवाड़ा (बाँसवाड़ा-राजः)
मोक्षकल्याणक महोत्सव
लोक परलोक के दैहिक सुखों को तिलांजलि देने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में मेरा त्रिकाल वंदन....
हे गुरुवर! २९ जून १९६८ को ब्रह्मचारी विद्याधर जी का अन्तिम आहार धर्म के माता-पिता के यहाँ पर हुआ। तब उन्होंने मनुहारपूर्वक मिष्ठान्न खिलाने की कोशिश की तो विद्याधर की दृढता देखते ही बनी। इस सम्बन्ध में चापानेरी के टीकमचंद जैन ने बताया
मीठा हुआ परीक्षा में फेल
‘श्रीमान् हुकुमचंद जी लुहाड़िया श्रीमती जतनबाई लुहाड़िया की कोई संतान नहीं होने के कारण गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज से क्षणिक संतानसुख पाने के लिए ब्रह्मचारी विद्याधर जी के धर्म के मातापिता बनने के लिए निवेदन किया था। तब गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज ने उन्हें आशीर्वाद प्रदानकर अलौकिक पुत्र के माता-पिता बनकर अलौकिक सुखानुभूति करने हेतु उन्हें अवसर प्रदान किया था। मुनि दीक्षा से एक दिन पहले २९ जून १९६८ को धर्म के माता-पिता ब्रह्मचारी विद्याधर जी को अपने नया बाजार स्थित निवास स्थान पर भोजन हेतु ले गए। अन्तिम आहार को देखने के लिए बहुत भीड़ एकत्रित हुई, मैं भी देख रहा था। परिवार जन सभी लोग भोजन के अंदर मीठा पकवान आदि देने की कोशिश कर रहे थे, किन्तु विद्याधर जी मंदमंद मुस्काते हुए मना करते रहे। तब हुकुमचंद जी लुहाड़िया जी ने बड़ी ही आत्मीयता से कहा-भैयाजी! कल आपकी दीक्षा हो जायेगी आज तो मेरी बात मान लो, इतना बड़ा दीक्षा का महोत्सव हो रहा है और जीवन में आमूलचूल परिवर्तन होने जा रहा है। इस खुशी में मीठा मुँह तो करना ही पड़ेगा। आप तो रस लेते नहीं, किन्तु आप थोड़ा मीठा ले लेंगे तो हम लोगों को आनन्द रस आ जाएगा। तब विद्याधर जी को जोरों से हँसी आ गई, किन्तु फिर भी मीठा नहीं लिया। अपने त्याग में दृढ़-संकल्पी बने रहे। जब वे किशनगढ़ आये थे तब से ही उन्होंने नमक-मीठे का त्याग कर दिया था।
आहार के पश्चात् ब्रह्मचारी विद्याधर जी भैया बोले- 'जिस चीज को छोड़ दिया उसे पुन: क्या ग्रहण करना', उनकी दृढ़ता को देखकर देखने वालों की भीड़ ने जयकारा लगाया और सब समझ गए कि ये ऐसे निर्दोषचर्या पालक मुनि बनेंगे जो जीवन में कोई दोष नहीं लगायेंगे।" इस तरह गुरुदेव आपने ब्रह्मचारी विद्याधर की दृढ़ता को देखकर जो निर्णय लिया वह आज कसौटी बनकर उपस्थित हुआ है, देश-विदेश में जैन मुनि / श्रमण के बारे में चर्चा होती है कि मुनि / श्रमण कैसा होना चाहिए तो लोग उदाहरण देते हैं आचार्य श्री विद्यासागर जैसा होना चाहिए। आपने असंयमी, अनुभवहीनों, अज्ञानियों, संकीर्ण-बुद्धिमानों की बात नहीं मानकर आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी को जीवित कर श्रमण संस्कृति पर महान् उपकार किया है, आप धन्य हैं, आपकी कीर्ति अमर। हो गई। आपके दृढ निर्णय को प्रणाम करता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य