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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - ७२ संकोच स्वभावी ब्रह्मचारी विद्याधर की अलौकिक शिक्षा

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    १३–०३–२०१६

    तलवाड़ा (बाँसवाड़ा राज.)

    तपकल्याणक महोत्सव

     

    गुणानुगुणित गुणधारी गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को त्रिकाल वंदन करता हूँ...

    हे गुरुवर! विद्याधर जी आपके साथ छायावत् हर समय परिणमन कर रहे थे और अपने गुरु की वैयावृत्य में पूर्णतः जागृत, उत्साहित, सावधान एवं चतुर थे उनसे कोई भी बात करता तो उनके जवाब में आध्यात्मिक तत्त्व/पुट होता। वो लोकाचार-व्यवहार में भी ऐसी भाषा बोलते कि सभी को बात समझ में आ जाती और अर्थ आध्यात्मिक निकलता। इस सम्बन्ध में जून १९६८ में जब अजमेर में आप पधारे तब का एक संस्मरण अजमेर की आपकी भक्त श्राविका श्रीमती मनोरमा पाटनी ने मुझे १९९४ में लिखकर दिया

     

    संकोच स्वभावी ब्रह्मचारी विद्याधर की अलौकिक शिक्षा

    "जून १९६८ में गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के साथ ब्रह्मचारी विद्याधर जी अजमेर आए थे। उन्हें हिन्दी भाषा का ज्ञान पूरा नहीं था। कुछ-कुछ शब्दों का ही प्रयोग कर पाते थे। वे बड़े ही संकोच स्वभाव के स्वाभिमानी ब्रह्मचारी थे। मैं उस समय सोनी जी की नसियाँ के सामने सोगानी भवन (तबेला) में रहती थी और जितने समय मुनि ज्ञानसागर जी संघ सहित नसियाँ जी में रुके उतने समय तक हम प्रतिदिन चौका लगाया करते थे। ब्रह्मचारी विद्याधर जी को गर्म पानी या ज्ञानसागर जी महाराज की औषधि तैयार करनी होती थी तो वे हमारे यहाँ पर आते थे। तब उनकी भाषा हम लोगों को समझ में नहीं आती थी। हमारे पड़ोस में एक महाराष्ट्रीयन दम्पत्ति रहते थे तो वो ब्रह्मचारी जी की भाषा समझ जाते थे। वो हम लोगों को हिन्दी में बता देते थे। धीरे-धीरे ब्रह्मचारी जी हिन्दी सीखते चले गए। जिस चीज के बारे में हम हिन्दी में बोलते वे उसे याद कर लेते थे, फिर भूलते नहीं थे। संकोचशील स्वभाव होने के कारण उनकी दृष्टि हमेशा नीचे ही रहती थी। उनको हमने बोला कि आप हमारे यहाँ पर भोजन पानी के लिए आ जाया करो। ये अपना ही घर समझना। तो बोले-‘घर तो छोड़ दिया। अपना कोई घर नहीं होता। सब कुछ छोड़ना ही पड़ता है। तो फिर पकड़ना क्यों?" इस तरह विद्याधर जी के शील स्वभाव से हर कोई प्रभावित हो जाया करता था और आज तक उन्हें भूले नहीं हैं। ऐसे सुशील स्वभाव को प्रणाम करता हुआ... ।

     

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