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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. मोक्षमार्ग में देव-शास्त्र-गुरु पर श्रद्धान रखना ही सम्यग्दर्शन माना जाता है। जो कि मोक्ष महल का प्रथम सोपान है। प्रभु-गुरु की आज्ञा मानना आज्ञा सम्यक्त्व माना जाता है। यूँ कहो जो प्रभु और गुरु ने कहा है यही तत्त्व ग्रहण करने योग्य है ऐसा विचार करना आज्ञा-विचय धर्म ध्यान माना जाता है। इस धर्म के माध्यम से ही संसारी प्राणी को सुख शांति की उपलब्धि होती है चाहे वह लौकिक-शारीरिक सुख हो, शाश्वत-मोक्ष सुख हो; धर्म के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। आचार्य श्री ने बताया कि-हमें अपने धर्म पर विश्वास होना चाहिए, अपने सत्कर्मों एवं परिणामों पर विश्वास होना चाहिए। फिर अपने आप कर्मों में परिवर्तन आने लगता है। असाता कर्म भी साता में परिवर्तित हो जाता है यही तो परिणामों का वैचित्र्य है। आचार्य श्री ने बताया - एक वृद्ध श्रावक मेरे पास आये। उन्हें असाध्य रोग (कैंसर) हो गया था, तकलीफ बहुत थी। मैंने उन्हें आशीर्वाद दिया, और कहा - कुछ त्याग कर सकते हो ? उन्होंने हाथ जोड़कर कहा - जी महाराज जी। मैंने उनसे कहा -अब एक ही दवाई है असाता को साता में बदलने की। उन्होंने कहा - क्या ? मैंने कहा कि - व्रत नियम से रहो, रात्रि में चारों प्रकार के (खाद्य, स्वाद्य, लेय एवं पेय) आहार का त्याग कर दो और रात्रि में दवाई भी नहीं लेना। उन्होंने आस्था के साथ ये नियम ले लिया। बस फिर क्या उनका परिणाम प्रत्यय काम कर गया। कुछ दिन बाद वे पुन: मेरे पास आये और बोले कि -आचार्य श्री ! मेरा कैंसर तो कैंसिल हो गया। यह है परिणामों का खेल, असाता भी साता में बदल गया। संकल्प के माध्यम से, आस्था के माध्यम से, परिणामों को इस तरह से बदला जा सकता है। फिर मैंने पूँछा - क्यों”, जो नियम लिये थे उनका अच्छे से पालन हो रहा है ? बोले - जी महाराज जी, अच्छे से हो रहा है। आचार्य श्री ने अंत में कहा सुनो - इस चिकित्सा को एक गरीब व्यक्ति भी अपना सकता है लेकिन, धैर्य और श्रद्धान होना चाहिए। यह है अपने परिणामों का वैचित्र्य। 03.10.2002
  2. अभ्यास एक ऐसी वस्तु है जिसके माध्यम से हम शरीर रूपी मशीन को नियंत्रित कर सकते हैं। शरीर को पहले से ही अभ्यास के माध्यम से सल्लेखना के लिए तैयार कर लेना चाहिए। बारह भावना का अभ्यास और णमोकार मंत्र का अभ्यास अभी से अच्छे ढंग से कर लेना चाहिए, अंत समय यही काम आवेगा जैसे - परीक्षा के समय कंठस्थ विद्या ही काम आती है। सब कुछ मन से लिखना पड़ता है, अभ्यास पहले से किया है तभी कुछ लिख पाओगे। ठीक वैसे ही सल्लेखना के समय होता है। जिनवाणी माँ पर विश्वास रखिये उनके इशारे पर त्याग करते जाइये आपकी अच्छी सल्लेखना हो जायेगी क्योंकि परीक्षा के समय विद्यार्थी को अनिवार्य प्रश्न पहले हल करना होता है। एक दिन आचार्य श्री ने सल्लेखना के प्रकरण में बताया कि - उस समय आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की सल्लेखना चल रही थी तब मुनि श्री सुपार्श्वसागर जी महाराज उनकी सल्लेखना देखने के लिए आये थे। सुपार्श्वसागर जी महाराज का एक आहार एक उपवास चलता था। उन्हें अचानक पेट में जलन हो गयी उन्हें त्याग का अभ्यास पहले से ही था। आखिर हुआ ऐसा कि आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज से पहले ही उनकी संलेखना हो गयी। इसलिए साधकों को हमेशा अभ्यस्त और जाग्रत रहना चाहिए सल्लेखना के लिए। पता नहीं कब कौन से रोग से यह शरीर ग्रसित हो जावे और जीवन का उपसंहार करना पड़े। साधकों को हमेशा तैयार रहना चाहिए-सैनिकों की भाँति “ऑर्डर सो वॉर्डर।" जब आदेश तभी तैयार। इस नश्वर शरीर को कब त्याग करना पड़े भरोसा नहीं, इसलिए हमेशा इससे ममत्व भाव कम करते जाना चाहिए। भोजन-पानी के माध्यम से इसे बलिष्ठ नहीं बनाना चाहिए, बल्कि कृष् करते चले जाना चाहिए। फिर अंत में इस शरीर को छोड़ने में ज्यादा परेशानी नहीं आवेगी। यदि सल्लेखना विधि पूर्वक नहीं हो पायी तो जीवन की साधना अधूरी मानी जाती है। दूध से दही, दही से नवनीत निकालना, नवनीत को तपाकर घी बनाना, यदि धी नहीं बना तो समझना अधूरा कार्य हुआ है। 13.10.2003
  3. तत्त्वार्थ सूत्र ग्रंथ के अष्टम अध्याय के 7वें सूत्र का व्याख्यान करते हुए आचार्य गुरुदेव ने बताया कि-निद्रा लेने का अर्थ बेहोशी नहीं है बल्कि थकान को दूर करना है। मद, खेद और थकावट को दूर करने को सोना (निद्रा) कहा है। जिस आसन में बैठकर थकान दूर हो जाती है वही लाभकारी है। निद्रा लेना आवश्यक तो है लेकिन अनिवार्य नहीं। स्त्यान गृद्धि निद्रा के उदय में जीव रौद्र कार्य कर जाता है, सोते हुए बहुत दूर तक चला जाता है और पुन: अपनी जगह आ जाता है। इसका उदय छठवें गुणस्थान तक चलता है। आचार्य श्री जी ने बताया-कि आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने एक बार कहा कि स्त्यानगृद्धि निद्रा का प्रभाव मुझे बनारस में देखने को मिला। उस समय मैं संस्कृत विश्वविद्यालय में अध्ययनरत् था। कुछ बच्चे साथ में पढ़ते थे। एक बालक के शरीर के वस्त्र एवं विस्तर प्रात: गीले मिलते। कुछ बच्चों ने इस घटना की जानकारी के लिए रात में जागरण प्रारंभ कर दिया । आखिर यह पानी में भींग कर कैसे आ जाता है ? तब पाया कि वह रात्रि में नींद में ही उठकर बाहर नदी में घुस गया। सभी ने सोचा कहीं वह नदी में डूब न जाये और चिल्ला दिया। चिल्लाने से उसकी निद्रा भंग हो गयी और वही हुआ कि वह नदी में डूब गया। इस प्रसंग से यह ज्ञाता होता है कि निद्रा कर्म के उदय से इस प्रकार के कार्य भी हो सकते हैं इसे भूत-प्रेत की बाधा न मानकर कर्म का उदय ही मानना चाहिए। जिन कार्यों के माध्यम से दर्शनावरणी कर्म का बंध होता है उनसे बचना चाहिए। प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अंतराय, आसान और उपघाम ये ज्ञानावरण कर्म और दर्शनावरण कर्माश्रव के कारण। इनसे बचना चाहिए। तत्त्व के उपदेश सुनने में कभी अनादर नहीं करना चाहिए। दिन में नहीं सोना चाहिए क्योंकि इनसे भी दर्शनावरणी कर्म का आश्रव होता है। (18.09.2002 सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर)
  4. तत्त्व दृष्टि वाले व्यक्ति संसार के प्रत्येक पदार्थ में, घटना में, तत्त्व का ही दर्शन किया करते हैं। यूँ कहो उसमें से तत्त्व को खोज लिया करते हैं। इसलिए कहा गया है - "कि सृष्टि नहीं दृष्टि बदलो, जीवन बदल जावेगा।" विहार करते हुए नरसिंहपुर की ओर जा रहे थे, रास्ता बहुत खराब था। आचार्य गुरुदेव से कहा - ऐसे रास्ते पर समय बहुत लगता है एवं ऐसी सड़क पर पैर भी छिल जाते हैं खराब हो जाते हैं। आचार्य महाराज हँसकर कहते हैं - पैर कम दिमाग ज्यादा खराब होता है, यह खराब सड़क अपर्याप्त दशा जैसी है। जिस प्रकार अपर्याप्त दशा में मिश्रकाय योग रहता है, उसमें मिश्र वर्गणायें आती हैं, उसी प्रकार इस रास्ते पर चलने से अलग प्रकार का अनुभव हो रहा है। थोड़ा रुककर बोले - हाँ अपूर्णता का नाम ही अपर्याप्त दशा है वह यही है, जिसे पार करना है। हे गुरु! मैं क्या करूँ यूँ तो पृथ्वी पर न जाने कितने कुएँ, कितनी नदियाँ और कितने तालाब हैं किन्तु हंस का मन तो मानसरोवर का ही ध्यान किया करता है ...। (28.01.2002 नरसिंहपुर)
  5. संसारी प्राणी सुख चाहता है, दुःख से भयभीत होता है। दुःख छूट जावे ऐसा भाव रखता है। लेकिन दुःख किस कारण से होता है इसका ज्ञान नहीं रखा जावेगा तो कभी भी दुःख से दूर नहीं हुआ जा सकता। आचार्य कहते हैं - कारण के बिना कोई कार्य नहीं होता इसलिए दु:ख के कारण को छोड़ दो दुःख अपने आप समाप्त हो जायेगा। सुख के कारणों को अपना लिया जावे तो सुखस्वत: ही उपलब्ध हो जावेगा। दु:ख की यदि कोई जड़ (कारण) है तो वह है-परिग्रह। परिग्रह संज्ञा के वशीभूत होकर यह संसारी प्राणी संसार में रुल रहा है, दुःखी हो रहा है। पर वस्तु को अपनी मानकर उससे ममत्व भाव रखता है यही तो दु:ख का कारण है। आचार्य महाराज ने परिग्रह त्याग के संबंध में बताया कि एक बार कुम्हार, गधे के ऊपर मिट्टी लादकर आ रहा था। वह गधा नाला पार करते समय नाले में ही बैठ गया। मिट्टी धीरेधीरे पानी में गलकर बहने लगी। उसका परिग्रह कम हो गया और उसका काम बन गया, उसे हल्कापन महसूस होने लगा। फिर हँसकर बोले - जब परिग्रह छोड़ने से गधे को भी आनंद आता है तो आप लोगों को भी परिग्रह छोड़ने में आनंद आना चाहिए। वहाँ बैठे श्रावक आचार्य भगवन् के कथन का अभिप्राय समझ गये और सभी लोग आनंद विभोर हो उठे। हँसी-हँसी में ही गुरुदेव से इतना बड़ा उपदेश मिल गया कि - यदि इसे जीवन में उतारा जावे तो संसार से भी तरा जा सकता है और शाश्वत सुख को प्राप्त किया जा सकता है। ( छपारा पंचकल्याणक, 20.01.2001)
  6. अमूल्य का अर्थ स्पष्ट है, जिसका कोई मूल्य नहीं आंका जा सकता उसे अमूल्य कहते हैं। अमूल्य वस्तु को पाना बहुत दुर्लभ होता है उसका समीचीन उपयोग कर पाना और ही दुर्लभ हुआ करता है। संसार में प्रत्येक वस्तु का मूल्य हो सकता है लेकिन जिनके माध्यम से संसार सागर से पार उतरने की कला सीखी जाती हो वह तो अमूल्य ही होता है देव-शास्त्र-गुरु हमारे आराध्य हैं और पूज्यनीय हैं। इसलिए वे हमारे लिए हमेशा अमूल्य ही हैं। जहाँ पर श्रद्धा जुड़ जाती है, अपनत्व होता है, वहाँ कीमत कोई वस्तु नहीं रह जाती है, वह अमूल्य हो जाता है। उनके सामने तो संसार की सारी संपत्ति तृण के समान प्रतीत होती है। आज शास्त्र (ग्रंथ) पर मूल्य/कीमत डाली जाती है जो कि शास्त्र का मूल्य कम कर देती है, अमूल्य जिनवाणी पर कभी भी मूल्य नहीं डालना चाहिए। परम पूज्य आचार्य गुरुदेव ने एक दिन जिनवाणी की विनय कैसे करना चाहिए विषय को समझाते हुए कहा - कि जिसको हम पूज्य मानते हैं उसका व्यवसाय नहीं करना चाहिए। "जिनवाणी पर मूल्य नहीं लिखा जाना चाहिए"। जैसा माँ के प्रति बहुमान होता है, उससे भी ज्यादा बड़कर जिनवाणी माँ के प्रति आदर/बहुमान होना चाहिए। पूज्य गुरुदेव की इस बात से हमें यह शिक्षा लेना चाहिए कि, कभी-भी कोई भी पुस्तक हो, धार्मिक ग्रंथ हो उस पर मूल्य नहीं डालना चाहिए। कभी भी इन शास्त्र आदि उपकरणों का व्यवसाय नहीं करना चाहिए। श्रद्धा के साथ इनकी विनय करना चाहिए तभी हम इनसे समीचीन फल प्राप्त कर सकते हैं एवं अपनी श्रद्धा को सुरक्षित रख सकते है। क्योंकि अमूल्य पर मूल्य डालना अमूल्य का मूल्य नहीं समझना है। (10.01.2001, छपारा)
  7. सन् 2007 में गुरूवर के आशीर्वाद एवं आज्ञा से पूज्य मुनिश्री पुष्पदंत सागर जी एवं मैं (कुन्थुसागर) आमगाँव में प्रवास कर रहे थे। वहाँ पर पंचकल्याणक होना था। एक दिन अजैन दम्पति मेरे पास आकर प्रणाम करके बैठ गए। उनके दर्शन करने के तरीके से लग रहा था कि वे जैनेत्तर बंधु हैं। उन्होंने कहा- महाराज जी आप भी आशीर्वाद दीजिए ताकि मैं हमेशा ऐसा ही स्वस्थ्य रह सकूँ। उन्होंने बताया कि कुछ दिन पहले उनको केंसर रोग था। जबलपुर मेडिकल हॉस्पिटल में भर्ती थे। उस समय आचार्य श्री जी मढ़िया जी क्षेत्र पर विराजमान थे। डॉक्टर ने चलने-फिरने को मना दिया था पर सुना जैनियों के महान् गुरु यहाँ पर आए हुए हैं तो मैंने सोचा मरता क्या नहीं करता ? मरना तो है ही क्यों न ऐसे गुरु के दर्शन कर लूँ। फिर क्या था हम लोग गुरुजी के दर्शन करने गए उनका आशीर्वाद मिलते ही मेरे शरीर में शक्ति का संचार हो गया। डॉ. भी आश्चर्य कर रहा था इतना आराम कैसे मिल गया। यह सब उन्हीं गुरु की कृपा थी। और वह दोनों पति-पत्नी की आंखो से गुरु के प्रति कृतज्ञता के आंसु झलक आए। इसे कहते है श्रद्धा का चमत्कार एवं गुरुजी की असीम कृपा।
  8. सन् 2005 ग्रीष्म काल के उपरांत कुण्डलपुर से अतिशय क्षेत्र बीनाबारहा क्षेत्र की ओर विहार हुआ। उस समय कोई कह रहा था कि- आचार्य श्री जी सागर जा रहे हैं और कोई कह रहा था जबलपुर में चातुर्मास होगा। विहार करते हुए गढ़ाकोटा आ गये। उस दिन बहुत तेज बरसात हुई सभी नली-नाले में पूर (बाढ़) आ गई। गढ़ाकोटा से पहली-पटनागंज की ओर विहार होना था। इन दोनों के बीच में एक चौरई नदी पड़ती है। समायिक के उपरांत आचार्य श्री जी दोपहर में रहली की ओर विहार करने लगे तब श्रावकों ने कहा- चौरई नदी पर बाढ़ आ गई है। कंधे तक पानी बह रहा है, संघ का निकलना संभव नहीं हो सकता लेकिन आचार्य श्री जी तो आचार्य श्री जी हैं। पटनागंज के बड़े बाबा की जय बोलते हुए विहार कर दिए। सभी लोग घबरा गए यह सोचकर कि आगे क्या होगा? नदी कैसे पार करेंगे? उस समय मुझे 102°c बुखार था। आचार्य श्री जी के साथ ही विहार कर रहा था। मुझे भी लग रहा था कि- बाढ़ एवं बुखार की स्थिति में नदी को कैसे पार कर सकेंगा? आचार्य श्री जी संघ सहित जैसे ही नदी के पास पहुँचे नदी का पानी पहले जो कंधे तक जा रहा था अब घुटने तक रह गया। सारा संघ एवं श्रावकगण बड़ी आसानी से नदी को सहज पार कर गए और सभी लोग कहने लगे आचार्य श्री जी के दृढ़ संकल्प के सामने नदी को भी झुकना पड़ा। उस समय वह भजन याद आ गया कि- "सागर से गहरे, हिमालय से ऊँचे, इन्हें कौन रोके, इन्हें कौन बांधे।"
  9. सर्वोदय तीर्थ अमरकंटक की ओर संघ का बिहार चल रहा था। रात्रि विश्राम के लिए एक गाँव में रुकना हुआ। प्रातःकाल वहाँ से बिहार हुआ एक बकरे ने भी साथ में चलना प्रारंभ किया। दूसरे गाँव तक साथ में चलता रहा वह बार-बार मुझसे सटकर चलने लगता। थोड़ी देर बाद आचार्य श्री जी के पास पहुँच जाता। दोपहर में सामयिक के उपरांत पुनः बिहार हुआ फिर वही बकरा आ गया और शाम तक चलता रहा। रात्रि में गायब हो गया पुनः सुबह विहार हुआ तो रास्ते में बकरा फिर मिल गया। वह बकरा दो दिन से साथ में चल रहा था लेकिन किसी ने उसे कुछ भी खाते-पीते नहीं देखा। इस बात को लेकर सब के मन में शंका उत्पन्न हुई कि- यह बकरा है कि कुछ और इस संदेह को दूर करने के लिए किसी सज्जन ने उसकी फोटो खींच ली लेकिन उसकी फोटो कैमरे में नहीं आई। यह देखकर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ तब मैंने आचार्य श्री जी से कहा कि- जो दो दिन से विहार में बकरा चल रहा था उसकी आवक ने फोटो ली तो उसकी फोटो कैमरे में नहीं आई। यह सुनकर आचार्य श्री जी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया 'कुंथु' औदारिक शरीर की फोटो आती है, वैक्रियिक शरीर की नहीं। हम सभी लोग समझ गए कि- औदारिक शरीर मनुष्य और तिर्यंचों का होता है और वैक्रियिक शरीर नारकियों एवं देवों का होता है। नारकी तो यहाँ पर आ नहीं सकते इसलिए देव ही यहाँ बकरा बनकर आया होगा।
  10. दयोदय तीर्थ क्षेत्र तिलवारा घाट जबलपुर में चातुर्मास चल रहा था। एक सरदार दम्पत्ति गुरूवर के दर्शन के लिए आये। दर्शन करके गुरूवर से हाथ जोड़कर निवेदन करते हुए कहने लगे कि गुरुजी हम लोगों को शादी किए बहुत समय हो गया पर कोई संतान नहीं है। आप आशीर्वाद दीजिए ताकि हमारी मनोकामना पूर्ण हो जाए। आचार्य श्री जी यह सुनकर हँसने लगे क्योंकि आचार्य श्री तो मोक्षमार्ग पर बढ़ने के लिए आशीर्वाद देते हैं। मोहमाया में फंसने के लिए नहीं। वह सरदार यह कहकर चले गए कि हमने तो आपके सामने अर्जी लगा दी अब आपकी मर्जी है कि आपको क्या करना है। हम तो आपके ही भरोसे हैं। लगभग एक वर्ष के उपरांत आचार्य श्री जी बहोरीबंद क्षेत्र पर विराजमान थे। तब वही सरदार दम्पत्ति एक बच्चा गोद में लेकर आये और आचार्य श्री जी के चरणों में उस बच्चे को रख दिया। आचार्य श्री जी ने आशीर्वाद दिया। सरदार बोले यह लड़का बोलता, देखता नहीं है, एकदम शांत पड़ा रहता है, दूध भी ढ़ग से नहीं पीता। आपने ऐसा बच्चा क्यों दिया? इसे आप ही रख लो या फिर इसे ठीक कर दो। यह सुनकर आचार्य श्री जी फिर हँसने लगे और मुस्कराते हुए आशीर्वाद दे दिया। दो तीन दिन के बाद वह सरदार दम्पत्ति पुनः आ गए और गुरूवर के दर्शन करके बोले आपके आशीर्वाद ने तो चमत्कार कर दिया। हमारा बच्चा अब हँसता है, दूध भी अच्छे से पीता है। बस ऐसी ही कृपा हमेशा हमारे परिवार पर बनाये रखना।
  11. आचार्य श्री जी ने एक बार बताया कि संसार में सबसे दुर्लभ वस्तु है- सच्ची श्रद्धा। हमारे मंत्रों में बहुत शाक्ति विद्यमान है, लेकिन यह मंत्र आज काम क्यों नहीं करते? क्योंकि जैनियों को णमोकार मंत्र पर श्रद्धा नहीं है। अन्य जगह विश्वास रखते है। यदि कोई जैनी हमारे पास आकर मंत्र मांगता है तो हम कह देते हैं। णमोकार मंत्र पढ़ो इससे बड़ा कोई मंत्र नहीं है तो वह कह देते हैं। यह मंत्र तो हम फेरते हैं, जपते हैं। मतलब यह हुआ कि मात्र जपते हैं, उस मंत्र पर विश्वास नहीं रखते। जैनियों के मंत्र पर विश्वास रखने वाले मुसलमान बंधु भी बिच्छु, सर्प आदि ने किसी व्यक्ति को काट लिया हो तो उसका जहर उतार देते हैं (दूर कर देते हैं)। उनसे पूछो, आपने तो बड़ा चमत्कार कर दिया तो वह कहते हैं आप लोगों के णमोकार मंत्र ने चमत्कार किया है, मैंने कुछ नही किया। मैंने तो णमोकार मंत्र पढ़कर हाथ फेर दिया जहर उतर गया। जैनियों की बात तो ऐसी हो गई कि- एक व्यक्ति के घर में दो T.V. थी। एक स्वयं के मेहनत के पैसों से खरीदी थी और दूसरी दहेज में मिली थी। उसके बेटे ने एक दिन आकर कहा- पिताजी T.V. बिगड़ गई। पिता ने पूछा- कौन-सी दहेज वाली कि अपनी। बेटे ने कहा- दहेज वाली। पिताजी कहते है बिगड़ तो जाने दो आखिर है भी तो दहेज की। बस यही दशा जैनियों की है। उन्हें णमोकार मंत्र जन्म से ही जैन कुल में प्राप्त हुआ है, इसलिए उसे दहेज में मिला है ऐसा समझकर पढ़ लेते हैं। श्रद्धा तो अंजन चोर जैसी होनी चाहिए।
  12. तारादेही से अतिशय क्षेत्र बीनाबारहा की ओर बिहार चल रहा था। रास्ते में नौरादेही अभ्यारण्य पार करना पड़ता है, जो कि बहुत घना जंगल है। उस जंगल में नीलगाय, हिरण, सियार, लकड़बग्घा आदि जानवर आज भी विद्यमान है। जंगल में अंदर प्रवेश करते ही आस-पास के गाँव में जाने के लिए अनेक रास्ते हैं। अनेक रास्तों की वजह से असमंजस की स्थिति बन जाती है आखिर कौन-सा रास्ता कहाँ जाता है? आचार्य श्री जी थोड़ी देर के लिए खड़े हो गए और कुछ विचार करने लगे। इतने में कुछ महाराज एक पगडंडी के रास्ते से आगे निकल गए। थोड़ी देर बाद अचानक कहीं से एक कुत्ता आया और आचार्य श्री जी को देखकर आगे के दोनों पैरों से झुककर देखने लगा। ऐसा लग रहा था जैसे वह आचार्य श्री जी को नमस्कार कर रहा हो और तत्काल उठकर दूसरी पगडंडी से उसने चलना प्रारंभ कर दिया। आचार्य श्री जी भी उस पगडंडी से चल दिए हम सभी महाराज भी आचार्य श्री जी के पीछे चल दिए। थोड़ी देर बाद बीना-बारहा के मंदिरों की शिखर दिखाई देने लगी। मैंने आचार्य श्री जी से कहा देखिए आचार्य श्री जी मंदिर की शिखर दिख रही है। तब आचार्य श्री जी ने हाथ जोड़कर वहीं से बीना-बारहा के शांतिनाथ भगवान की जय कहते हुए उन शिखरों को नमस्कार किया। अभी तक तो आगे चलता हुआ कुत्ता दिख रहा था लेकिन मुख्य रास्ते पर आते ही गायब हो गया। तब मैंने आचार्य श्री जी से कहा कि- आचार्य श्री जी अब कुत्ता नहीं दिख रहा तब आचार्य श्री जी ने कहा- उसे रास्ता दिखाना था सो दिखा दिया। वह अपना काम करके चला गया। जो महाराज दूसरे रास्ते से आगे निकल गए थे वह थोड़े भटक कर 10-15 मिनट बाद आए तब आचार्य श्री जी बोलते है। कि जहाँ असमंजस्य की स्थिति बने वहाँ थोड़ा-सा रुक कर विचार करके ही निर्णय लेना चाहिए फिर कुछ न कुछ रास्ता अवश्य निकल आता है।
  13. आचार्य श्री का धर्म पर व्याख्यान चल रहा था कि- जैन धर्म विश्वधर्म है, जैनधर्म वीतराग धर्म है। यह धर्म किसी जाति विशेष से सम्बंध रखने वाला नहीं है जो भी प्राणी वीतरागता को अपने जीवन में स्थान देता है, वही इस धर्म का महत्त्व समझ सकता है और अपना कल्याण कर सकता है। हाँ वह वीतरागता बाह्य और आन्तरिक दोनों रूप से होना आवश्यक है। जो व्यक्ति मात्र बाहर से परिवार, वस्त्र आदि का त्याग तो कर देता है, लेकिन अन्दर अभी भी अटेचमेन्ट रहता है वह भी सही अर्थ में जैन धर्म को समझ नहीं सकता और जो व्यक्ति यह चाहें या कहें कि हमारा अन्दर आत्मा से तो त्याग है। बाहर में यह सब सांसारिक कार्य करना पड़ रहे हैं वह भी विशाल जैन धर्म सम्बंधी तत्त्व को पहिचान नहीं सकता। इस प्रकार की तर्कणा करके अपने आपको कृतकृत्य मान लेना अथवा वीतरागी मान लेना और समझना कि हाँ मैं अपने जीवन में धर्म को स्थान दे रहा हूँ तो समझना अपने आपको ठगना है, क्योंकि यह संभव ही नहीं है। कि अन्दर से जिस चीज के प्रति रुचि नहीं है अथवा अन्दर से जिस चीज का त्याग कर दिया है, उसको बाहर से अपनाता चला जाये। अब यदि कोई तर्कवादी तर्कणा करता है कि मुक्ति प्राप्त करने के लिए यदि बाहर से पूर्ण त्याग आवश्यक है तो फिर इस शरीरका भी त्याग करना चाहिए, क्योंकि यह शरीर भी तो अपना नहीं है। तो आचार्य कहते हैं कि- पहली बात तो यह है कि संसार में शरीर का त्याग नहीं किया जा सकता उसके प्रति ममत्व छोड़ा जा सकता है। दूसरी बात शरीर का त्याग करने में महान् हिंसा बतलाई गई है, जबकि जैन धर्म परमं अंहिसामय धर्म है। पूर्व में अज्ञान अवस्था में शरीरादि नाम कर्म का बन्ध किया था तो उसके फलस्वरूप शरीर की प्राप्ति तो निश्चित रूप से ही होगी। अतः मुक्ति प्राप्त करने के लिए शरीर का त्याग नहीं किया जाता, किन्तु उसका जो कारण कर्म है उसकी निर्जरा करें तो अपने आप शरीरातीत अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए इस शरीर के माध्यम से जितनी अधिक कर्म निर्जरा का साधन बन सके, बनाते जाना चाहिए। पुनः तर्कवादी यदि कहता है कि- शरीर अज्ञान भाव से ग्रहण किया गया था तो अब ज्ञान भाव से त्याग कर दो। लेकिन आचार्य कहते हैं कि शरीर का त्याग होता नहीं और आज तक मुक्ति प्राप्त मुक्त जीवों ने शरीर का त्याग नहीं किया। किन्तु शरीर से सम्बंधित जो भी रिश्ते-नाते, कुटुम्ब-परिवार, विषय, भोग सम्बंधी सामग्री है उन सभी का अवश्य ही त्याग किया। उसका त्याग किए बिना मुक्ति प्राप्त नहीं हुई। क्योंकि जिस प्रकार अज्ञानता से शरीर प्राप्त होता है, वैसे कपड़े आदि कभी प्राप्त हुए हों ऐसा नहीं है, किन्तु इनको तो संसारी प्राणी बुद्धि पूर्वक ग्रहण करता है। इसलिए इनको बुद्धिपूर्वक त्याग भी किया जा सकता है। अतः मुक्ति जब भी होगी निर्ग्रन्थ अवस्था से ही होगी इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। पुनः तर्कणा की जाती है कि मान लो कोई मुनि ने बुद्धिपूर्वक बाह्य परिग्रह और अन्तरंग परिग्रह का त्याग किया है एवं सामायिक में बैठे हैं ऊपर से कोई भी श्रावक उनको कपड़े उड़ा दें तो कुछ बाधा होगी क्या ? आचार्य कहते हैं कि- उस समय तो ऐसी स्थिति मुनिराज के लिए डबल निर्जरा का कारण बन सकती है। एक प्रकार से वह उपसर्ग माना जाता है और उपसर्ग को सहन करना डबल कर्म निर्जरा के लिए कारण होता है और बाधा भी यदि होती है तो प्रवृत्ति जिस समय करना है, उस समय होती है। अन्यथा वे बैठे रहेंगे, उठेंगे नहीं। तर्क करने वाला कहता है कि अब उस मुनि को बाधा क्यों हुई ? उसको तो अपनी आत्मा में लीन रहना चाहिए। आचार्य श्री जी उत्तर देते हैं कि- ठीक है लेकिन यह स्थिति उस समय बन जाती है, जिस समय उसे कुछ प्रवृत्ति न करना पड़े। मान लो श्रेणी में चढ़ा है तो उसको इस प्रकार का उपसर्ग आने में कोई बाधा नहीं होगी। जैसे कि पाण्डव आदि हुए। पुनः कोई तर्क करे कि हम जानते हैं कि आत्मा शुद्ध, बुद्ध है। कषाय करना उसका स्वाभाव नहीं है। इस प्रकार के ज्ञान से मुक्ति होना चाहिए। आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि- यह ज्ञान मोक्षमार्ग में ज्ञान नहीं माना जाता है कि वह जान तो रहा है कि कषाय करना आत्मा का स्वभाव नहीं है फिर भी कषाय करते जाना, किन्तु मोक्षमार्ग में सम्यग्ज्ञान को महत्त्व दिया गया है। संसार मार्ग अलग है, मोक्षमार्ग अलग है। मान लो आप कॉलेज में पढ़ते हैं। तीन पेपर देना है और आप सोचें कि मैं तो मात्र जो विषय मुझे इष्ट है, उसी में प्रयास करूँगा ऐसा करने पर क्या आप तीनों पेपर में पास हो सकेंगे ? नहीं। उसी प्रकार से आचार्य श्री जी कहते हैं कि- संसार रूपी क्लास से पास होने के लिए रत्नत्रय रूपी तीनों पेपर में शत प्रतिशत नम्बर लेकर पास होना आवश्यक होता है। आप सोचें कि मैं तो मात्र सम्यग्दर्शन अथवा सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके पास हो जाऊँगा तो ऐसा सोचने वाले कभी भी पास नहीं माने जायेंगे और मात्र एक विषय में ही अभ्यास करने से हम कभी भी संसार रूपी क्लास से पास होकर मुक्ति रूपी क्लास में आगे नहीं बढ़ सकते। इस प्रकार की सारी तर्क-वितर्क के साथ की गई चर्चा सुनने से यह विदित होता है कि- महावीर भगवान् ने साथ-साथ परम्परागत मान्य आचार्यों ने जिस प्रकार मुक्ति का मार्ग दिखाया है वैसी ही साधना अपने जीवन में प्रत्येक समय करते रहना चाहिए। इसी में दुःखमय संसार समुद्र से पार हो सकते हैं और मुक्ति रूपी मंजिल को हम प्राप्त कर सकते हैं? अनन्तानन्त काल के लिए इस संसार से हम विदा लेकर अपने आप में लीन हो सकते हैं। यही वास्तविकता है अन्य कुछ भी नहीं।
  14. सल्लेखना का प्रकरण चल रहा था। उस समय आचार्य श्री जी ने कहा कि- जो जीवन में पहले से ही विषाय, कषायों को जीतने का प्रयास नहीं करता वह अंत समय में अपने आपको सम्भाल नहीं सकता। कई बार तो ऐसा भी हो जाता है कि जो व्यक्ति जीवन पर्यंत विषय-कषायों को जीतने का प्रयास करता है फिर भी तीव्र कर्मोदय के कारण अंत समय में सम्भल ही जाए यह भी जरूरी नहीं है। इसी बीच किसी साधक ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी संल्लेखना के समय साधक को किस प्रकार की सावधानी रखनी चाहिए। तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- एक बात हमेशा याद रखना कि दवाई रोगी के अनुसार नहीं, बल्कि रोग के अनुसार दी जाती है वरन् रोगी कभी ठीक नहीं होता। रोग में वृद्धि हो सकती है। इस प्रकार सल्लेखना में भी क्षपक के इच्छानुसार त्याग एवं ग्रहण नहीं होता, बल्कि शरीर की प्रकृति एवं आगमानुसार त्याग किया जाता है। सल्लेखना में शरीर की नहीं आत्मा की सेवा की जाती है। आर्यिकाओं को इंगिनी एवं प्रायोपगमन मरण नहीं बताया और पंचम काल में हीन संहनन होने से साधु एवं आर्यिका सभी को भक्तप्रत्याख्यान नाम का मरण ही बताया है। इसमें धीरे-धीरे भोजन को कम करना होता है, इसके क्रम में भी विवेक रखना पड़ता है। इसके लिए अभ्यास की भी आवश्यकता होती है। सबसे पहले गरिष्ठ भोजन लड्डू मिठाई, ड्रायफ्रुट्स का सबसे पहले त्याग करना चाहिए फिर फल एवं उनके रसों का त्याग, इसके बाद खरपान-रूक्षपदार्थ (छाछ, कांजीर आदि पतला पेय पदार्थ) फिर शुद्ध प्रासुक पानी फिर उसका भी त्याग हो जाता है। एक विशेष सावधानी रखना चाहिए कि सल्लेखना के समय साधक को किसी भी प्रकार की खटाई नहीं देना चाहिए और इमली का पानी तो भूलकर भी नहीं देना चाहिए, क्योंकि इमली के पानी से सन्निपात की संभावना रहती है। वात प्रकोप हो जाता हैं। जल त्याग के बिना सल्लेखना की पूर्णता नहीं मानी जाती, क्योंकि जल भी पेय आहार में आता है। भोजन, पानी त्याग का अभ्यास बहुत पहले से करना चाहिए। इस बात को समझाते हुए आचार्य श्री जी ने एक उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे एक खिलाड़ी हाई जम्प और लॉग जम्प में दूर से भगता आता है, तभी जम्प ले पाता है। वैसे ही अन्त समय आहार पानी त्यागने के लिए पहले से अभ्यास किया जाता है। अभ्यास एक ऐसी वस्तु है। जिसके माध्यम से हम शरीर रूपी मशीन को नियंत्रित कर सकते हैं। शरीर स्वयं बड़ा कूटनीतिज्ञ है, इसके सामने अच्छे-अच्छे कूटनीतिज्ञ भी फेल हो जाते हैं। अंत में तत्त्वज्ञान अकेला काम नहीं आता। मात्र णमोकार मंत्र ही काम आता है। सुख में प्राप्त किया गया ज्ञान दुःख आने पर विलीन हो जाता है। इसलिए बारह भावना और णमोकार मंत्र का अभ्यास अच्छे ढंग से कर लेना चाहिए। अंत समय वही काम आवेगा। व्रतों का पालन 355 दिनों की पढ़ाई है, लेकिन सल्लेखना परीक्षा के 10 दिनों के समान है। परीक्षा के समय कण्ठस्थ विद्या ही काम में आती है, सब कुछ मन से ही लिखना पड़ता है। अभ्यास किया है तो कुछ याद आवेगा तभी लिख पाओगे। अंत समय में आक्षेपिणी, विक्षेपिणी कथाएँ काम में नहीं आती बल्कि संवेगनी एवं निर्वेदनी कथा ही काम में आती है। तपस्वी को अपने शरीर और मन को संतुलित रखना चाहिए। शरीर को ज्यादा पुष्ट नहीं बनाना चाहिए। काय में रत (लीन) होना ही कायरता है। किसी साधक ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- सल्लेखना के लिए बारह वर्ष का समय क्यों रखा? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- यह निमित्त ज्ञानियों के लिए है, क्योंकि निमित्त ज्ञान होने से यह ज्ञात हो जाता है कि आयु की सीमा कितनी है। वैसे तो पूरा जीवन भी इसमें लगा देना चाहिए। दूसरी बात यह है कि यदि क्षपक निर्यापक आचार्य की गवेषणा करना चाहते हों तो कर लें। इसलिए भी बारह वर्ष का समय रखा। पुनः शंका व्यक्त करते हुए पूछा कि- किस प्रकार के आचार्य के समीप समाधि साधना होती है? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि मरणकण्डिका ग्रंथ में लिखा है कि- जो संसार, शरीर एवं भोगों से उदासीन हैं, पापभीरू हैं, अर्हंतदेव के आगम के सार के ज्ञाता हैं। ऐसे आचार्य के पादमूल में जाने वाला यति आराधक समाधि का साधक होता है। पुनः शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- हे गुरुवर! जब मरणकाल में आराधना का सार प्राप्त होता है, ऐसा कहा है तो फिर चार आराधनाओं का सदा प्रयत्न करने की क्या आवश्यकता है ? तब आचार्य श्री जी ने समाधान करते हुए कहा कि जिस प्रकार राजपुत्र सर्वदा अस्त्र-शस्त्र का संचालन आदि रूप युद्ध का अभ्यास करता रहता है, तभी वह रणांगण में विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है। उसी प्रकार हमेशा आराधना, गुप्ति, ध्यान, योग आदि परिकर्म को करता हुआ साधु मरणकाल में समाधि करने में समर्थ होता है। सल्लेखना दो प्रकार की होती है- कषाय एवं काय सल्लेखना। कषायों को आत्म भावना द्वारा कम करना कषाय सल्लेखना है और शरीर को अनशन आदि तप द्वारा कम करना काय सल्लेखना है।
  15. एक दिन वैय्यावृत्ति तप का वर्णन करते हुए आचार्य महाराज ने कहा कि- वैय्यावृत्ति करने वाले को विशेष सावधानी एवं विवेक रखने की आवश्यकता होती है। वैय्यावृत्ति करते समय डिढोरा नहीं पीटना चाहिए। इतना तक की दायें हाथ से औषधि दी जाए तो बायें हाथ को भी मालूम नहीं पड़ना चाहिए। वैय्यावृत्ति करने वाले को अन्य सब आकांक्षाओं से रहित होते हुए मात्र यह आकांक्षा होनी चाहिए। कि जिसकी वैय्यावृत्ति की जा रही है वह पूर्ण रूप ठीक हो जाये। सब कुछ करते हुए संसारी प्राणी विवेक के अभाव में सब कुछ भूल जाता है। साधक की साधना में सहयोग देना यही वैय्यावृत्ति है, शिक्षार्थी को, चिन्तन, मनन शील व्यक्ति को किसी भी प्रकार का सहयोग देना ही वैय्यावृत्ति है, साधु के पैर दबाना ही वैय्यावृत्ति नहीं है। साधक को यह नहीं सोचना चाहिए कि - मेरी साधना का मुझे क्या फल मिला है बल्कि यह देखते रहना चाहिए कि मेरे गुणों में कितनी वृद्धि हुई है। इतने ही गुणों की वृद्धि क्यों हुई इससे ज्यादा गुणों की वृद्धि होनी चाहिए थी। अब गुणों की वृद्धि की साधना करना है। जिस प्रकार माँ-छोटे से लेकर घर के सभी छोटे-बड़े सदस्यों का पात्र के अनुसार विवेक पूर्वक वैय्यावृत्ति करती है। उसी प्रकार हमें भी मोक्षमार्ग में विवेक पूर्वक देखकर सभी साधकों की वैय्यावृत्ति कर लेना चाहिए। विवेकशील व्यक्ति ही वैय्यावृत्ति करके कर्म निर्जरा कर सकता है। विवेक के अभाव में एक धर्मात्मा को अधर्मात्मा बनने में देर नहीं लगती। अतः धर्मात्मा को प्रत्येक समय प्रत्येक कार्य के लिए विवेक आवश्यकता है। शारीरिक शिथिलता में ही वैय्यावृत्ति की जाती है ऐसा नहीं है, किन्तु मानसिक शिथिलता को भी ठीक करने के लिए वैय्यावृत्ति की जाती है। वैय्यावृत्ति करने वाला बहुत सहनशील, समताशील, विवेकशील, मधुरभाषी होता है। वैय्यावृत्ति करने के लिए व्यापाक दृष्टि भी आवश्यक होती है। रोग परीषह को दूर करना और मिथ्यात्व आदि का प्रभाव होने पर उसको दूर करने का प्रयास करना वैय्यावृत्ति है। कभी स्वप्न में भी धर्मात्मा के प्रति ऐसे वचन नहीं बोलना चाहिए कि जिससे वह अपने मार्ग पर जो अपने आप चल रहा है उसको बाधा आ जाये। प्रत्येक धर्मात्मा में धर्म के मार्ग पर चलने के लिए वात्सल्य होना आवश्यक होता है। वैय्यावृत्ति तभी तक की जाती है जब तक पात्र अज्ञान है, नादान है। ज्ञानी की वैय्यावृत्ति नहीं की जाती, किन्तु ज्ञानी स्वयं वैय्यावृत्ति करता है। स्वयं स्वाश्रित हो जाने के उपरांत दूसरे को भी स्वाश्रित बनाने का प्रयास करना यह भी महान् वैय्यावृत्ति है। उसको मधुरता के साथ कहना चाहिए कि देखो में जिस उपाय से इस स्थिति में आया हूँ इस स्थिति पर यदि तुम्हें भी आना है तो मैं जैसे-जैसे उपाय बताऊँगा वैसे-वैसे करते जाना। वैय्यावृत्ति करते समय कषाय नहीं होना चाहिए। निकषाय भाव के साथ ही वैय्यावृत्ति हो सकती है। मन के द्वारा ही वस्तुतः वैय्यावृत्ति होती है, वचन और काय तो उसी प्रकार माध्यम बन जाते हैं जैसे कि रोगी को दवाई दी जाती है तो दवाई से रोग ठीक होता है, किन्तु दवाई चम्मच के माध्यम से जाती है। उसी प्रकार वैय्यावृत्ति उज्ज्वल मन के माध्यम से होती है। वचन और काय तो उसमें चम्मच के समान माध्यम बन जाते हैं।
  16. प्रायः आजकल व्यक्ति एक, दो शास्त्रों का अध्ययन कर लेते हैं। और समझने लगते हैं कि मेरे अन्दर दूसरों को उपदेश देने की क्षमता आ गई है। वे दूसरों को उपदेश देने ही लगते हैं। लेकिन वे इस बात को भूल जाते हैं कि उपदेश देने का अधिकारी कौन है? किसी साधक ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- वक्ताओं को किस प्रकार का उपदेश देना चाहिए एवं साधु के लिए भाषा समिति, सत्यधर्म, सत्य महाव्रत एवं वचन गुप्ति का उपयोग कहाँ एवं किस लिए करना चाहिए ? तब आचार्य श्री जी ने समाधान देते हुए कहा कि- वक्ता को अपना आचरण इस प्रकार रखना चाहिए एवं उपदेश भी ऐसा ही देना चाहिए जिससे स्वयं एवं दूसरों के संवर एवं निर्जरा के स्रोत खुलते चले जाए एवं कर्म आस्रव के स्रोत बंद हो जाए। मोक्षमार्ग विकास की ओर होना चाहिए विनाश की ओर नहीं। आपके उपदेश से शंकाओं का समाधान ही न होता जाए बल्कि भव्य जीव कल्याण मार्ग पर लग जाए। यही सच्चा उपदेश है। अहित से हित की ओर आ जाए ऐसे हित, मित एवं प्रिय वचन बोलना ही भाषा समिति है। आगे उन्होंने बताया कि- उपदेश के समय भाषा समिति, अध्यापन के समय सत्य धर्म, अपने लिए एवं जीव हिंसा से बचने के लिए सत्यमहाव्रत और ध्यान के समय वचन गुप्ति काम करती है। इस प्रकार चार प्रकार के वचनों का प्रयोग होता है। भाषा समिति, सत्यधर्म आदि का प्रयोग करने के लिए विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है।
  17. संसारी प्राणी का अधिकांश समय शरीर की सेवा में ही निकल रहा है। समय और धन का अपव्यय भी हो रहा है, इसके साथ ही साथ पापकर्म का बंध होता रहता है। शरीर को चमकाने में पानी एवं साबुन आदि का दुरूपयोग करते रहना इस संसारी प्राणी का स्वभाव सा बन गया। एक दिन आचार्य श्री जी ने समयसार ग्रंथ की वाचना में कहा कि- आज लोग अशुचि भावना पढ़ते हैं। दिपै चाम चादर मणि, हाड़ पीजरा देह। भीतर या सम जगत में और नहीं घिनघेय || और दिन में दो बार साबुन से मलमल कर स्नान करते हैं। मैंने कहा- आचार्य श्री जी यह शरीर अशुचि है, नश्वर है इस बात को सभी जानते हैं फिर भी इससे छूट क्यों नहीं पाते? इसकी सेवा में क्यों लगे रहते हैं? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- जानना अलग है, और अंदर से मानना, स्वीकारना अलग बात है। जानना ज्ञान का विषय है और मानना श्रद्धा का विषय है। आचार्य श्री जी ने गांधी जी का उदाहरण देते हुए कहा कि- गांधी जी साबुन का उपयोग करना फिजूलखर्ची मानते थे लेकिन आज देश के कर्णधार टिनोपाल में रंगे वस्त्र पहन कर गांधी जी को ही फिजूल कहने लगे हैं। बात छोटी-सी है पर आचार्य श्री जी इसके माध्यम से हमें कितनी बड़ी शिक्षा देना चाह रहे हैं कि- हमें समय का सदुपयोग करना चाहिए। धन एवं समय का अपव्यय नहीं करना चाहिए।
  18. सर्वोदय तीर्थ-श्रेत्र अमरकंटक से पेण्ड्रा गांव की ओर विहार हुआ रास्ते में ही आचार्य श्री जी के पैर में दर्द होने लगा। पेण्ड्रा गांव में पहुँचने के उपरांत आचार्य श्री जी के पैर में असहनीय दर्द शुरू हो गया। कुछ दिन तक तो यह ज्ञात ही नहीं हुआ कि यह कौन-सा रोग है। पैर में छोटी-छोटी सी फुसियाँ दिखाई देने लगी किसी ने कहा अग्निमाता है, किसी ने कुछ फिर बाद में मालूम पड़ा कि यह हरपिस रोग" है। 7-8 तारीख को दर्द और अधिक बढ़ गया। उस वक्त आचार्य श्री जी ध्यान में लीन हो गए। श्रावक ध्यान में विघ्न न बने इसलिए वहाँ पर मैं एवं मुनिश्री पुराणसागर जी बैठ गए। कुछ देर पश्च्यात सिर पर पगड़ी बांधे और हाथ में लकड़ी लिए हुए एक वृद्ध सज्जन आए। वे सज्जन आचार्य श्री जी के दर्शन करने के लिए जिद करने लगे। जब हम लोगों ने उन्हें दर्शन करने से मना किया तब वह बोले कि- मैं आचार्य श्री जी के पैर में यह लकड़ी स्पर्श करके बाहर आ जाऊँगा उन्हें किसी भी प्रकार का विघ्न उपस्थित नहीं करूंगा। उनकी भावुकता को देखकर लग रहा था वह किसी गाँव से भक्तिवश गुरुवर के स्वास्थ्य की सुनकर कोई जड़ी-बूटी लेकर आए हैं। उनसे कहा- भाई जब आचार्य श्री जी ध्यान से उठेंगे तब आप अपना काम कर लेना फिर भी वह नहीं माने और सीधे जाकर आचार्य श्री जी के पैर से लकड़ी स्पर्श कर दी और बिना रुके ही वह सज्जन वापस चले गए। जब आचार्य श्री ध्यान से उठे तब स्वयं बोले पैर का दर्द तो अब न के बराबर रह गया हम लोगों ने श्रावक को सज्जन के लिए ढूंढने भेजा। लोगों का कहना था ऐसे पगड़ी वाले सज्जन न आते और न जाते दिखे। जब बहुत खोजने पर भी वह सज्जन नहीं मिले तब हम लोग समझ गए वह कोई देव होगा जो गुरुजी की सेवा करके चला गया। जब आचार्य श्री जी को बताया तो आचार्य श्री जी खूब हंसे।
  19. मोक्षमार्ग में युक्ति से काम लेना पड़ता है। यहाँ अंतरंग से कर्मों से युद्ध चलता रहता है। हवा में तलवार चलाने से कभी विजय लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती। ज्ञान और वैराग्य रूपी तलवार एवं ढाल के साथ युद्ध लड़ा जाता है। चारित्र और विशुद्धि को पहले समझो फिर उसे प्राप्त करो। अंतरंग तप के विकास के लिए भगवान् ने बाह्य तप को अपनाया था क्योंकि बाह्य कारण कभी कार्य रूप में नहीं ढलते लेकिन अंतरंग कारण ही कार्य में ढलता है यह सार्वभौमिक नियम है। आचार्य श्री जी का इस प्रकार तप का उपदेश चल रहा था। किसी ने बीच में ही पूछ लिया कि- आचार्य श्री जी फिर क्या बाह्य तप, देव-शास्त्र-गुरु आदि बाह्य निमित्तों को महत्व नहीं देना चाहिए? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि ऐसा नहीं है बाह्य निमित्त तो अंतरंग निमित्त का मित्र होता है। उसके सहयोग से ही कार्य होता है। कार्तिकेय एवं गणेश का उदाहरण देते हुए कहा कि कार्तिकेय के पास तो शक्ति–साधन सब कुछ था इसलिए उन्होंने पृथ्वी की परिक्रमा कर ली लेकिन गणेश का वाहन तो चूहा था। वह कैसे करते इसलिए उन्होंने शिव जी की परिक्रमा लगा कर कह दिया कि- मेरी परिक्रमा पूर्ण हो गई। यह कहलाता है युक्ति से काम लेना। इसी प्रकार तीन लोक के नाथ को समझें, तीन लोक के नाथ गुरु, तप को समझे फिर आत्मा की बात करें। अंतरंग निमित्त ही बाह्य निमित्त के संयोग से कार्यरूप में ढलता है। इसके लिए आचार्य श्री जी ने आईसक्रीम का उदाहरण देते हुए कहा कि- जैसे आईसक्रीम बनाते समय डिब्बा में दूध-मेवा आदि डाल दिए दूसरे खन में वर्फ, नमक आदि डाल दिए फिर हाथ से चलाना शुरू कर दिया फिर यह होता है कि- बाहरी ठण्डक से भीतर आईसक्रीम बनती जाती है। वह दूध क्रीम आदि में ढ़लता जाता है। इसी प्रकार रत्नत्रय शुद्धोपयोग रूपी क्रीम में ढलने लगता है, शरीर नहीं ढ़लता यह निमित्त-नैमित्तिक सम्बंध है इसी से कार्य की सिद्धि होती है। एक ही डिब्बे में सब कुछ डाल दो तो आईसक्रीम नहीं जमेगी। युक्ति से काम लेना पड़ता है, ऐसा ही बाहय और अंतरंग तप तपते समय युक्ति (विवेक) से काम लेना पड़ता है, क्योंकि बाहय तप अंतरंग तप में वृद्धि करते हैं। युक्ति से ही मुक्ति मिलती है।
  20. आचार्य श्री जी दीक्षा दिवस के दिन सभी साधकों को मार्गदर्शन देते हुए कह रहे थे कि- प्रतिभावान छात्र यह नहीं सोचता कि- मैंने कितने प्रतिशत अंक प्राप्त किए हैं, बल्कि यह सोचता है कि अभी कितने प्रतिशत अंक पाना आवश्यक है। इसी प्रकार सच्चा साधक अपनी मोक्षमार्ग की साधना में क्या कमी रह गई यह देखता है। विद्यार्थी, विद्यालय में जब 12 वीं कक्षा पास कर लेता है तब उसके माता-पिता कहते हैं कि- दुकान पर बैठा करो बेटा कहता कॉलेज भेजना चाहते हो तो दुकान पर मत भेजो इसी प्रकार साधक को दीक्षा लेने के उपरांत अपनी साधना के अलावा अन्य किसी चीज की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। ख्याति, लाभ, पूजा की चाह नहीं करनी चाहिए एवं तंत्र, मंत्र के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। तपस्या एवं ज्ञान का फल मोक्ष प्राप्त करना होना चाहिए अन्य कोई चीज नहीं। उदाहरण देते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- जैसे कोई व्यक्ति वृक्ष लगाता है तो उसमें पहले फूल लगते हैं और फिर बाद में फल लगते हैं। यदि वह व्यक्ति फूल को तोड़कर नष्ट कर दे तो उसे मीठे फलों से वंचित रहना पड़ेगा। उसी प्रकार जो व्यक्ति तप तथा शास्त्राभ्यास का फल ऋद्धि, बड़प्पन एवं मान-सम्मान चाहता है, वह फूलों को नष्ट करके स्वर्ग और मोक्ष के सरस फूलों से वंचित रह जाता है। साधु को बाहर से किसी भी चीज की व्यवस्था की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि साधक स्वयं व्यवस्थित रहता है। साधु का ज्ञान एवं गुरु ही मार्गदर्शक हैं, लज्जा साथ चलने वाली सखी है, तप मुक्ति पथ का पाथेय (भोजन) है, चारित्र पालकी है, स्वर्ग पड़ाव का स्थान है, गुण पहरेदार हैं, रत्नत्रय रूप मार्ग सीधा है, समता रूपी जल है। एवं दयारूपी छाया है, ऐसी यात्रा मुनियों को वाधा रहित मोक्ष रूपी मंजिल पर पहुँचा देती है। आचार्य श्री जी साधकों को उपदेश देते हुए कह रहे थे कि आत्मा की साधना करने वाला ही सच्चा साधु होता है। एक सच्चा साधु तंत्र, मंत्र एवं नाम, प्रतिष्ठा की कामना से हमेशा दूर रहता है। आचार्य श्री जी आत्मा की साधना करते हुए हम सभी को आत्मा की साधना में लगे रहने की प्ररेणा देते है। "धन्य है ऐसे गुरुवर।"
  21. आजकल कई स्थानों पर सम्यग्ज्ञान शिविर का आयोजन चलता रहता है, लेकिन चारित्र के सुधार के लिए कोई शिविर नहीं लगता। यदि कहीं पर्युषण पर्व के दौरान दस दिन का श्रावक-संस्कार शिविर का आयोजन मुनिराजों, त्यागी–व्रतियों के सान्निध्य में लगता भी है। तो कुछ एकांतवादी इसकी आलोचना करते रहते हैं कि इससे क्या होता है? दस दिन एकासन, उपवास कर लेने से आत्मा का भला नहीं हो जाता इत्यादि। ज्ञान प्राप्त करो जिससे आत्मा का भला हो। ऐसे लोग सम्यग्ज्ञान की प्रशंसा करते समय सम्यग्चारित्र की आलोचना कर जाते हैं, जो कि उन्हें ही घातक सिद्ध होगा। ज्ञान की प्रशंसा करना अच्छा है, लेकिन आचरण को गौण करना, चारित्र की क्रियाकाण्ड करकर निंदा करना अच्छी बात नहीं है। इसी विषय पर आचार्य श्री का उपदेश चल रहा था कि- संयत ज्ञान का नाम ही ध्यान है। यह ध्यान ही "स्वरूपाचरण चारित्र" है। शिवभूति मुनिराज को मंत्र तक का ज्ञान नहीं था मात्र गुरु पर श्रद्धान था। श्रद्धान को मजबूत बनाओ और चारित्र की ओर बढ़ जाओ, क्योंकि लगाम के बिना घोड़ा कितना भी समझदार हो उस पर सवारी करना खतरा मोल लेना है। मन रूपी घोड़े पर यदि संयम की लगाम लगाए बिना आप बैठ जाएँगे तो वह दौड़ने लगेगा आप बीच में उतर नहीं सकते। वह जहाँ ले जाएगा आपको वहाँ जाना पड़ेगा। एवं जहाँ गिराएगा वहाँ गिरना पड़ेगा। यह सुनकर किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी क्या संयम लेने के लिए पूर्णज्ञान आवश्यक है? आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- पूर्णज्ञान के बाद संयम धारण करूँगा ऐसा सोचने वालो पूर्णज्ञान तो केवलज्ञान है। केवलज्ञान के बाद क्या संयम लोगे बल्कि संयम लेने के बाद केवलज्ञान होता है। मोक्षमार्ग में पूर्णज्ञान की नहीं बल्कि पर्याप्त ज्ञान की आवश्यकता है। संयम लेने के बाद पूर्णज्ञान अपने आप प्राप्त हो जाएगा। यहाँ पर्याप्त ज्ञान से क्या तात्पर्य है ? यहाँ पर्याप्त ज्ञान का अर्थ है आचारवस्तु- अष्टप्रवचनमात का (तीन गुप्ति, पाँच समिति) का ज्ञान होना है। मति, श्रुत ज्ञान ही मोक्षमार्ग में पर्याप्त है। श्रुतज्ञान के माध्यम से हेयोपादेय का ज्ञान हो जाता है। मोक्षमार्ग में इतना ज्ञान ही पर्याप्त है। अधिक ज्ञान कभी-कभी बाधक सिद्ध हो जाता है। भरत चक्रवर्ती का अवधिज्ञान भी काम नहीं कर रहा था, मोह एवं असंयम के कारण तभी तो उन्होंने अपने भाई बाहुबलि पर चक्र चला दिया था। अंत में आचार्य श्री जी ने कहा कि- मोह, ज्ञान को विषयों की गंदगी की ओर ले जाता है। जैसे कुत्ते को साबुन से स्नान करा दो, इत्र भी लगा दो फिर उसे स्वतंत्र छोड़ दो तो वह गंदी नाली में ही जाता है। इसलिए श्रद्धान मजबूत रखो, निर्दोष चारित्र पालो, अक्षर ज्ञान कम भी हो तो भी कल्याण हो जाएगा।
  22. आचार्य श्री जी मोक्षमार्ग में श्रद्धा का महत्त्व के बारे में बता रहे थे कि- मोक्षमार्ग में श्रद्धा ही महत्त्वपूर्ण है। श्रद्धा एक निजी वस्तु है, निजी वस्तु के साथ-साथ संसार में सबसे दुर्लभ वस्तु है। इसे जो भी प्राप्त कर लेता है वह शीघ्र ही संसार-समुद्र से पार हो जाता है। यह संसारी प्राणी धर्म के कार्य छोड़कर बाकी सभी कार्य करते समय विश्वास रखता है। वह सोचता है कि धर्म करने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता। यदि कुछ नहीं करेंगे तो क्या खाएँगे लेकिन वह एक बात भूल जाता है कि- पुण्य के प्रभाव से जीवन में सब कुछ अनायास ही प्राप्त हो जाता है और एक बात यह भी है कि- जो दिखायी नहीं देता उसी पर तो यह श्रद्धा रखी जाती है कि वह वस्तु संसार में दिशा-बोध है। प्रायः लोगों को यह विश्वास नहीं हो पाता कि- धर्म करने का फल कालांतर में सुख का कारण बनता है। तब किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आज हम लोग धर्म तो करना चाहते हैं, लेकिन हम लोगों के पास संहनन नहीं है? तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- आप लोगों को मोक्षमार्ग में बढ़ने के लिए ही संहनन याद आता है, विषयों को भोगते समय याद नहीं आता धन एवं पंचेन्द्रिय विषयों को प्राप्त करने के लिए भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, मान-अपमान आदि सभी प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक दुःखों को सहन कर लेते हो, क्योंकि आप लोगों को उनमें रुचि है एवं उसी में सुख मानते हो। परिस्थितिवश व लौकिक सुख की प्राप्ति के लिए आप लोगों को कितना भी कष्ट हो पर वह कष्ट जैसा नहीं लगता। माँ के पेट में नौ माह तक उल्टा लटका रहा हाथ पैर संकुचित रहे थोड़ा-सा भी हाथ पैरों को हिला तक नहीं पाया उस कष्ट को सहता रहा। अब मोक्षमार्ग में तपस्या करने के लिए साधना कष्ट महसूस हो रहा है। आचार्य श्री जी ने लिखा भी है कि- नौ मास उल्टा लटका आज तप कष्ट कर क्यों ? अर्थात्- इस जीव ने परवश होकर कितने कष्ट सहे हैं, उन्हें याद करें तो तपस्या में कभी कष्ट महसूस न हो। मोक्षमार्ग पर बढ़ने के लिए संहनन की नहीं भावों की आवश्यकता होती है।
  23. जैसे डॉक्टर रोगियों से कभी बैर मोल नहीं लेता इसलिए वह डॉक्टर लोकप्रिय बन जाता है। वैसे ही मुनि रूपी वैद्य को श्रावक रूपी रोगियों से कभी-भी राग-द्वेष नहीं रखना चाहिए। चिकित्सा रोग के अनुसार की जाती है रोगी के अनुसार नहीं। यदि चिकित्सा रोगी के अनुसार की जावेंगी तो उसके दुष्परिणाम भोगने पड़ेगे। इन मोहियों का मोह रूपी रोग दूर हो ऐसी वैराग्य के वचन रूपी चिकित्सा को अपनाना चाहिए। डॉक्टर रोग से घृणा करता है, रोगी से नहीं, वैसे ही साधक को मोह से घृणा करना चाहिए मोहियों से नहीं। डॉक्टर रोग को जड़ से निकाल देता है रोगी को तो हमेशा सांत्वना देता रहता है आज के युग में रोगी ही रोगी की चिकित्सा करने लगे है। इसलिए रोग और बढ़ता चला जा रहा है। रोगी का अर्थ है- मोही प्राणी। मोहियों को मोहियों या रागियों से उपदेश नहीं सुनना चाहिए बल्कि वीतरागियों से उपदेश सुनना चाहिए। मोह का प्रभाव आत्मा पर अनादिकाल से बना हुआ है। जिसके कारण यह प्राणी जहाँ भी जाता है उसे वहाँ हमेशा दुःख ही उठाना पड़ता है। आचार्य श्री जी का इस प्रकार उपदेश चल रहा था तब किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि इस मोह रूपी घाव को कैसे दूर किया या सुखाया जा सकता है? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- मोह एक प्रकार का घाव है, उसे ठीक करने के लिए त्याग रूपी मलहम पट्टी करते रहना चाहिए एवं जिनसे यह घाव बढ़ता है ऐसे कषाय राग-द्वेष, परिग्रह आदि कारणों से बचना चाहिए।
  24. निधि के संबंध में बताया गया है कि यह परिवार की बहुत लाड़ली बेटी हैं दमोह. कहते हैं कि आचार्य विद्यासागर के दर्शन पाकर लोग इंसानी जन्म की वास्तविक समझकर लोभ, मोह से दूरियां बना लेते हैं। कई लोगों ने आचार्यश्री के दर्शन लाभ लेकर बैराग्य धारण कर लिया है और आज वह संघ में शामिल होकर समाज व विश्व शांति की ओर अग्रसर हैं। इन्हीं में जबेरा नगर की एक बेटी भी शामिल हुई है। आचार्यश्री के दर्शन लाभ पाने के बाद जबेरा नगर का गौरव बढ़ाते हुए, नगर के गल्ला व्यापारी कमल चौधरी की सुपुत्री निधि ने आजीवन सयंम ब्रह्मचर्य व्र्रत को अंगीकार किया है। निधि के संबंध में बताया गया है कि यह परिवार की बहुत लाड़ली बेटी हैं, इनके दो बड़े भाई भाइयों नीलेश व नागेश हैं व दो बहन हैं जिनमें यह सबसे छोटी हैं। निधि इन दिनों जैन मंदिर में संचालित श्रीअनेकांत विद्या केंद्र की शिक्षिका भी हैं। परिवार के लोगों ने बताया है कि निधि की रूची शुरू से ही धार्मिक रही है। जबेरा में आर्यिका संघ के चातुर्मास के बाद से निधि ने स्वयं को पूरी तरह धार्मिक गतिविधियों के लिए समर्पित कर दिया था। निधि ने एम से पोस्ट ग्रेज्युवेशन किया है साथ ही यह कम्प्यूटर शिक्षा में पीजीडीसीए भी किए हुए हैं, इसके अलावा एमएसडब्लू डिप्लोमाधारी भी हैं। विदित हो कि दमोह जिले के पथरिया निवासी अमित जैन जो अब निराग सागर के नाम से जाने जाते हैं, इन्होंने वर्ष २००९ में आचार्यश्री से अमरकंठक में ब्रह्मचर्य व्रत लिया था और वर्ष २०१३ में दीक्षा लेकर मुनिपद धारण किया था। वहीं इनके अलावा दमोह के इंकमटैक्स वकील सुनील जैन ने भी आचार्यश्री की दीक्षा लेकर मुनिश्री पद धारण कर लिया था, आज इन्हें निर्मोंह सागर के नाम से जाना जाता है। इन्होंने १८ नवंबर २००७ को ब्रह्मचर्य व्रत सागर जिले के बीना बारह में धारण कर लिया था। १० अगस्त २०१३ में इन्हें आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने मुनि दीक्षा दी थी। https://www.patrika.com/damoh-news/brahmacharya-vrat-2629038/
  25. संयम, संतुलन में ही सुरक्षा है। चाहे लौकिक हो या पारलौकि क्षेत्र हो प्रत्येक क्षेत्र में मन, वचन एवं काय पर संयम रखकर ही सफलता प्राप्त की जा सकती है। वैसे भी बड़े-बुजुर्ग कहा करते हैं। कि प्रत्येक कार्य सावधानी पूर्वक करना चाहिए। इसी सावधानी का नाम ही तो विवेक, संयम है। जैसे धन की सुरक्षा के लिए ताले की जरूरत होती है, वैसे ही आत्मधन की सुरक्षा के लिए संयम रूपी ताले की जरूरत होती है। एक दिन आचार्य श्री ने हम सभी साधकों को समझाते हुए कहा कि- जैसे अपने धन की सुरक्षा हेतु कोर्ट गए हुए व्यक्ति समस्त नियमों का पालन करके अपने आप को संयमित जैसा कर लेते हैं। वकील जितना बोलने को कहते हैं उतना ही नपा–तुला बोला करता है। जज के सामने जब अपराधी व्यक्ति अपनी-अपनी बात करते हैं। वे भले ही सत्य कहें लेकिन जज कहता है कि- आप दोनों सच कह रहे हैं और जज अपना फैसला सुना देता है। यहाँ पर विचार करने वाली बात यह है कि अपने धन आदि की रक्षा के लिए व्यक्ति अपने आप ही अपने मन एवं वचनों को संतुलित कर लेता है, क्योंकि उसे अपने क्षणिक धन की सुरक्षा करनी है। उसी प्रकार आत्महितैषी के लिए अविनाशी, शाश्वत् आत्म धन की सुरक्षा के लिए जितना गुरु कहते हैं, उतना ही बोलना चाहिए। भाषा आदि समितियों का अच्छी तरह से पालन करना चाहिए। तब किसी ने पूछा- आचार्य श्री जी हम लोगों को कितना बोलना चाहिए। आचार्य श्री जी ने कहा- जितना व्यक्ति एस.टी.डी. पर फोन करते हुए बोलता है। जैसे एस.टी.डी से फोन करने वाला व्यक्ति सीमित शब्दों में काम की बातें कर लेता है क्योंकि जितनी अधिक बात करता है, उतना अधिक बिल बढ़ता है। उसी प्रकार अष्टि कि बोलने से कर्म बन्ध रूपी बिल बढ़ता है इसलिए आत्महितैषी को। हमेशा मौन रहना चाहिए। यदि बोलना ही पड़े तो कम शब्दों में काम की बातें कहकर मौन हो जाना चाहिए। आचार्य श्री हम सभी को यही उपदेश दे रहें हैं कि आत्मधन की सुरक्षा के लिए सभी को संयम अपनाना चाहिए।
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