तत्त्वार्थ सूत्र ग्रंथ के अष्टम अध्याय के 7वें सूत्र का व्याख्यान करते हुए आचार्य गुरुदेव ने बताया कि-निद्रा लेने का अर्थ बेहोशी नहीं है बल्कि थकान को दूर करना है। मद, खेद और थकावट को दूर करने को सोना (निद्रा) कहा है। जिस आसन में बैठकर थकान दूर हो जाती है वही लाभकारी है। निद्रा लेना आवश्यक तो है लेकिन अनिवार्य नहीं। स्त्यान गृद्धि निद्रा के उदय में जीव रौद्र कार्य कर जाता है, सोते हुए बहुत दूर तक चला जाता है और पुन: अपनी जगह आ जाता है। इसका उदय छठवें गुणस्थान तक चलता है।
आचार्य श्री जी ने बताया-कि आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने एक बार कहा कि स्त्यानगृद्धि निद्रा का प्रभाव मुझे बनारस में देखने को मिला। उस समय मैं संस्कृत विश्वविद्यालय में अध्ययनरत् था। कुछ बच्चे साथ में पढ़ते थे। एक बालक के शरीर के वस्त्र एवं विस्तर प्रात: गीले मिलते। कुछ बच्चों ने इस घटना की जानकारी के लिए रात में जागरण प्रारंभ कर दिया । आखिर यह पानी में भींग कर कैसे आ जाता है ? तब पाया कि वह रात्रि में नींद में ही उठकर बाहर नदी में घुस गया। सभी ने सोचा कहीं वह नदी में डूब न जाये और चिल्ला दिया। चिल्लाने से उसकी निद्रा भंग हो गयी और वही हुआ कि वह नदी में डूब गया।
इस प्रसंग से यह ज्ञाता होता है कि निद्रा कर्म के उदय से इस प्रकार के कार्य भी हो सकते हैं इसे भूत-प्रेत की बाधा न मानकर कर्म का उदय ही मानना चाहिए। जिन कार्यों के माध्यम से दर्शनावरणी कर्म का बंध होता है उनसे बचना चाहिए। प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अंतराय, आसान और उपघाम ये ज्ञानावरण कर्म और दर्शनावरण कर्माश्रव के कारण। इनसे बचना चाहिए। तत्त्व के उपदेश सुनने में कभी अनादर नहीं करना चाहिए। दिन में नहीं सोना चाहिए क्योंकि इनसे भी दर्शनावरणी कर्म का आश्रव होता है।
(18.09.2002 सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर)