जैसे डॉक्टर रोगियों से कभी बैर मोल नहीं लेता इसलिए वह डॉक्टर लोकप्रिय बन जाता है। वैसे ही मुनि रूपी वैद्य को श्रावक रूपी रोगियों से कभी-भी राग-द्वेष नहीं रखना चाहिए। चिकित्सा रोग के अनुसार की जाती है रोगी के अनुसार नहीं। यदि चिकित्सा रोगी के अनुसार की जावेंगी तो उसके दुष्परिणाम भोगने पड़ेगे। इन मोहियों का मोह रूपी रोग दूर हो ऐसी वैराग्य के वचन रूपी चिकित्सा को अपनाना चाहिए। डॉक्टर रोग से घृणा करता है, रोगी से नहीं, वैसे ही साधक को मोह से घृणा करना चाहिए मोहियों से नहीं। डॉक्टर रोग को जड़ से निकाल देता है रोगी को तो हमेशा सांत्वना देता रहता है आज के युग में रोगी ही रोगी की चिकित्सा करने लगे है। इसलिए रोग और बढ़ता चला जा रहा है।
रोगी का अर्थ है- मोही प्राणी। मोहियों को मोहियों या रागियों से उपदेश नहीं सुनना चाहिए बल्कि वीतरागियों से उपदेश सुनना चाहिए। मोह का प्रभाव आत्मा पर अनादिकाल से बना हुआ है। जिसके कारण यह प्राणी जहाँ भी जाता है उसे वहाँ हमेशा दुःख ही उठाना पड़ता है। आचार्य श्री जी का इस प्रकार उपदेश चल रहा था तब किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि इस मोह रूपी घाव को कैसे दूर किया या सुखाया जा सकता है? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- मोह एक प्रकार का घाव है, उसे ठीक करने के लिए त्याग रूपी मलहम पट्टी करते रहना चाहिए एवं जिनसे यह घाव बढ़ता है ऐसे कषाय राग-द्वेष, परिग्रह आदि कारणों से बचना चाहिए।