संयम, संतुलन में ही सुरक्षा है। चाहे लौकिक हो या पारलौकि क्षेत्र हो प्रत्येक क्षेत्र में मन, वचन एवं काय पर संयम रखकर ही सफलता प्राप्त की जा सकती है। वैसे भी बड़े-बुजुर्ग कहा करते हैं। कि प्रत्येक कार्य सावधानी पूर्वक करना चाहिए। इसी सावधानी का नाम ही तो विवेक, संयम है। जैसे धन की सुरक्षा के लिए ताले की जरूरत होती है, वैसे ही आत्मधन की सुरक्षा के लिए संयम रूपी ताले की जरूरत होती है।
एक दिन आचार्य श्री ने हम सभी साधकों को समझाते हुए कहा कि- जैसे अपने धन की सुरक्षा हेतु कोर्ट गए हुए व्यक्ति समस्त नियमों का पालन करके अपने आप को संयमित जैसा कर लेते हैं। वकील जितना बोलने को कहते हैं उतना ही नपा–तुला बोला करता है। जज के सामने जब अपराधी व्यक्ति अपनी-अपनी बात करते हैं। वे भले ही सत्य कहें लेकिन जज कहता है कि- आप दोनों सच कह रहे हैं और जज अपना फैसला सुना देता है। यहाँ पर विचार करने वाली बात यह है कि अपने धन आदि की रक्षा के लिए व्यक्ति अपने आप ही अपने मन एवं वचनों को संतुलित कर लेता है, क्योंकि उसे अपने क्षणिक धन की सुरक्षा करनी है। उसी प्रकार आत्महितैषी के लिए अविनाशी, शाश्वत् आत्म धन की सुरक्षा के लिए जितना गुरु कहते हैं, उतना ही बोलना चाहिए। भाषा आदि समितियों का अच्छी तरह से पालन करना चाहिए।
तब किसी ने पूछा- आचार्य श्री जी हम लोगों को कितना बोलना चाहिए। आचार्य श्री जी ने कहा- जितना व्यक्ति एस.टी.डी. पर फोन करते हुए बोलता है। जैसे एस.टी.डी से फोन करने वाला व्यक्ति सीमित शब्दों में काम की बातें कर लेता है क्योंकि जितनी अधिक बात करता है, उतना अधिक बिल बढ़ता है। उसी प्रकार अष्टि कि बोलने से कर्म बन्ध रूपी बिल बढ़ता है इसलिए आत्महितैषी को। हमेशा मौन रहना चाहिए। यदि बोलना ही पड़े तो कम शब्दों में काम की बातें कहकर मौन हो जाना चाहिए। आचार्य श्री हम सभी को यही उपदेश दे रहें हैं कि आत्मधन की सुरक्षा के लिए सभी को संयम अपनाना चाहिए।