संसारी प्राणी का अधिकांश समय शरीर की सेवा में ही निकल रहा है। समय और धन का अपव्यय भी हो रहा है, इसके साथ ही साथ पापकर्म का बंध होता रहता है। शरीर को चमकाने में पानी एवं साबुन आदि का दुरूपयोग करते रहना इस संसारी प्राणी का स्वभाव सा बन गया। एक दिन आचार्य श्री जी ने समयसार ग्रंथ की वाचना में कहा कि- आज लोग अशुचि भावना पढ़ते हैं।
दिपै चाम चादर मणि, हाड़ पीजरा देह।
भीतर या सम जगत में और नहीं घिनघेय ||
और दिन में दो बार साबुन से मलमल कर स्नान करते हैं। मैंने कहा- आचार्य श्री जी यह शरीर अशुचि है, नश्वर है इस बात को सभी जानते हैं फिर भी इससे छूट क्यों नहीं पाते? इसकी सेवा में क्यों लगे रहते हैं? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- जानना अलग है, और अंदर से मानना, स्वीकारना अलग बात है। जानना ज्ञान का विषय है और मानना श्रद्धा का विषय है।
आचार्य श्री जी ने गांधी जी का उदाहरण देते हुए कहा कि- गांधी जी साबुन का उपयोग करना फिजूलखर्ची मानते थे लेकिन आज देश के कर्णधार टिनोपाल में रंगे वस्त्र पहन कर गांधी जी को ही फिजूल कहने लगे हैं। बात छोटी-सी है पर आचार्य श्री जी इसके माध्यम से हमें कितनी बड़ी शिक्षा देना चाह रहे हैं कि- हमें समय का सदुपयोग करना चाहिए। धन एवं समय का अपव्यय नहीं करना चाहिए।