अभ्यास एक ऐसी वस्तु है जिसके माध्यम से हम शरीर रूपी मशीन को नियंत्रित कर सकते हैं। शरीर को पहले से ही अभ्यास के माध्यम से सल्लेखना के लिए तैयार कर लेना चाहिए। बारह भावना का अभ्यास और णमोकार मंत्र का अभ्यास अभी से अच्छे ढंग से कर लेना चाहिए, अंत समय यही काम आवेगा जैसे - परीक्षा के समय कंठस्थ विद्या ही काम आती है। सब कुछ मन से लिखना पड़ता है, अभ्यास पहले से किया है तभी कुछ लिख पाओगे। ठीक वैसे ही सल्लेखना के समय होता है।
जिनवाणी माँ पर विश्वास रखिये उनके इशारे पर त्याग करते जाइये आपकी अच्छी सल्लेखना हो जायेगी क्योंकि परीक्षा के समय विद्यार्थी को अनिवार्य प्रश्न पहले हल करना होता है। एक दिन आचार्य श्री ने सल्लेखना के प्रकरण में बताया कि - उस समय आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की सल्लेखना चल रही थी तब मुनि श्री सुपार्श्वसागर जी महाराज उनकी सल्लेखना देखने के लिए आये थे। सुपार्श्वसागर जी महाराज का एक आहार एक उपवास चलता था। उन्हें अचानक पेट में जलन हो गयी उन्हें त्याग का अभ्यास पहले से ही था। आखिर हुआ ऐसा कि आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज से पहले ही उनकी संलेखना हो गयी। इसलिए साधकों को हमेशा अभ्यस्त और जाग्रत रहना चाहिए सल्लेखना के लिए। पता नहीं कब कौन से रोग से यह शरीर ग्रसित हो जावे और जीवन का उपसंहार करना पड़े।
साधकों को हमेशा तैयार रहना चाहिए-सैनिकों की भाँति “ऑर्डर सो वॉर्डर।" जब आदेश तभी तैयार। इस नश्वर शरीर को कब त्याग करना पड़े भरोसा नहीं, इसलिए हमेशा इससे ममत्व भाव कम करते जाना चाहिए। भोजन-पानी के माध्यम से इसे बलिष्ठ नहीं बनाना चाहिए, बल्कि कृष् करते चले जाना चाहिए। फिर अंत में इस शरीर को छोड़ने में ज्यादा परेशानी नहीं आवेगी। यदि सल्लेखना विधि पूर्वक नहीं हो पायी तो जीवन की साधना अधूरी मानी जाती है। दूध से दही, दही से नवनीत निकालना, नवनीत को तपाकर घी बनाना, यदि धी नहीं बना तो समझना अधूरा कार्य हुआ है।
13.10.2003