आचार्य श्री जी दीक्षा दिवस के दिन सभी साधकों को मार्गदर्शन देते हुए कह रहे थे कि- प्रतिभावान छात्र यह नहीं सोचता कि- मैंने कितने प्रतिशत अंक प्राप्त किए हैं, बल्कि यह सोचता है कि अभी कितने प्रतिशत अंक पाना आवश्यक है। इसी प्रकार सच्चा साधक अपनी मोक्षमार्ग की साधना में क्या कमी रह गई यह देखता है। विद्यार्थी, विद्यालय में जब 12 वीं कक्षा पास कर लेता है तब उसके माता-पिता कहते हैं कि- दुकान पर बैठा करो बेटा कहता कॉलेज भेजना चाहते हो तो दुकान पर मत भेजो इसी प्रकार साधक को दीक्षा लेने के उपरांत अपनी साधना के अलावा अन्य किसी चीज की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। ख्याति, लाभ, पूजा की चाह नहीं करनी चाहिए एवं तंत्र, मंत्र के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। तपस्या एवं ज्ञान का फल मोक्ष प्राप्त करना होना चाहिए अन्य कोई चीज नहीं।
उदाहरण देते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- जैसे कोई व्यक्ति वृक्ष लगाता है तो उसमें पहले फूल लगते हैं और फिर बाद में फल लगते हैं। यदि वह व्यक्ति फूल को तोड़कर नष्ट कर दे तो उसे मीठे फलों से वंचित रहना पड़ेगा। उसी प्रकार जो व्यक्ति तप तथा शास्त्राभ्यास का फल ऋद्धि, बड़प्पन एवं मान-सम्मान चाहता है, वह फूलों को नष्ट करके स्वर्ग और मोक्ष के सरस फूलों से वंचित रह जाता है।
साधु को बाहर से किसी भी चीज की व्यवस्था की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि साधक स्वयं व्यवस्थित रहता है। साधु का ज्ञान एवं गुरु ही मार्गदर्शक हैं, लज्जा साथ चलने वाली सखी है, तप मुक्ति पथ का पाथेय (भोजन) है, चारित्र पालकी है, स्वर्ग पड़ाव का स्थान है, गुण पहरेदार हैं, रत्नत्रय रूप मार्ग सीधा है, समता रूपी जल है। एवं दयारूपी छाया है, ऐसी यात्रा मुनियों को वाधा रहित मोक्ष रूपी मंजिल पर पहुँचा देती है।
आचार्य श्री जी साधकों को उपदेश देते हुए कह रहे थे कि आत्मा की साधना करने वाला ही सच्चा साधु होता है। एक सच्चा साधु तंत्र, मंत्र एवं नाम, प्रतिष्ठा की कामना से हमेशा दूर रहता है। आचार्य श्री जी आत्मा की साधना करते हुए हम सभी को आत्मा की साधना में लगे रहने की प्ररेणा देते है। "धन्य है ऐसे गुरुवर।"