तारादेही से अतिशय क्षेत्र बीनाबारहा की ओर बिहार चल रहा था। रास्ते में नौरादेही अभ्यारण्य पार करना पड़ता है, जो कि बहुत घना जंगल है। उस जंगल में नीलगाय, हिरण, सियार, लकड़बग्घा आदि जानवर आज भी विद्यमान है। जंगल में अंदर प्रवेश करते ही आस-पास के गाँव में जाने के लिए अनेक रास्ते हैं। अनेक रास्तों की वजह से असमंजस की स्थिति बन जाती है आखिर कौन-सा रास्ता कहाँ जाता है? आचार्य श्री जी थोड़ी देर के लिए खड़े हो गए और कुछ विचार करने लगे। इतने में कुछ महाराज एक पगडंडी के रास्ते से आगे निकल गए। थोड़ी देर बाद अचानक कहीं से एक कुत्ता आया और आचार्य श्री जी को देखकर आगे के दोनों पैरों से झुककर देखने लगा। ऐसा लग रहा था जैसे वह आचार्य श्री जी को नमस्कार कर रहा हो और तत्काल उठकर दूसरी पगडंडी से उसने चलना प्रारंभ कर दिया। आचार्य श्री जी भी उस पगडंडी से चल दिए हम सभी महाराज भी आचार्य श्री जी के पीछे चल दिए। थोड़ी देर बाद बीना-बारहा के मंदिरों की शिखर दिखाई देने लगी। मैंने आचार्य श्री जी से कहा देखिए आचार्य श्री जी मंदिर की शिखर दिख रही है। तब आचार्य श्री जी ने हाथ जोड़कर वहीं से बीना-बारहा के शांतिनाथ भगवान की जय कहते हुए उन शिखरों को नमस्कार किया। अभी तक तो आगे चलता हुआ कुत्ता दिख रहा था लेकिन मुख्य रास्ते पर आते ही गायब हो गया। तब मैंने आचार्य श्री जी से कहा कि- आचार्य श्री जी अब कुत्ता नहीं दिख रहा तब आचार्य श्री जी ने कहा- उसे रास्ता दिखाना था सो दिखा दिया। वह अपना काम करके चला गया। जो महाराज दूसरे रास्ते से आगे निकल गए थे वह थोड़े भटक कर 10-15 मिनट बाद आए तब आचार्य श्री जी बोलते है। कि जहाँ असमंजस्य की स्थिति बने वहाँ थोड़ा-सा रुक कर विचार करके ही निर्णय लेना चाहिए फिर कुछ न कुछ रास्ता अवश्य निकल आता है।