सर्वोदय तीर्थ-श्रेत्र अमरकंटक से पेण्ड्रा गांव की ओर विहार हुआ रास्ते में ही आचार्य श्री जी के पैर में दर्द होने लगा। पेण्ड्रा गांव में पहुँचने के उपरांत आचार्य श्री जी के पैर में असहनीय दर्द शुरू हो गया। कुछ दिन तक तो यह ज्ञात ही नहीं हुआ कि यह कौन-सा रोग है। पैर में छोटी-छोटी सी फुसियाँ दिखाई देने लगी किसी ने कहा अग्निमाता है, किसी ने कुछ फिर बाद में मालूम पड़ा कि यह हरपिस रोग" है। 7-8 तारीख को दर्द और अधिक बढ़ गया। उस वक्त आचार्य श्री जी ध्यान में लीन हो गए। श्रावक ध्यान में विघ्न न बने इसलिए वहाँ पर मैं एवं मुनिश्री पुराणसागर जी बैठ गए। कुछ देर पश्च्यात सिर पर पगड़ी बांधे और हाथ में लकड़ी लिए हुए एक वृद्ध सज्जन आए। वे सज्जन आचार्य श्री जी के दर्शन करने के लिए जिद करने लगे। जब हम लोगों ने उन्हें दर्शन करने से मना किया तब वह बोले कि- मैं आचार्य श्री जी के पैर में यह लकड़ी स्पर्श करके बाहर आ जाऊँगा उन्हें किसी भी प्रकार का विघ्न उपस्थित नहीं करूंगा। उनकी भावुकता को देखकर लग रहा था वह किसी गाँव से भक्तिवश गुरुवर के स्वास्थ्य की सुनकर कोई जड़ी-बूटी लेकर आए हैं। उनसे कहा- भाई जब आचार्य श्री जी ध्यान से उठेंगे तब आप अपना काम कर लेना फिर भी वह नहीं माने और सीधे जाकर आचार्य श्री जी के पैर से लकड़ी स्पर्श कर दी और बिना रुके ही वह सज्जन वापस चले गए। जब आचार्य श्री ध्यान से उठे तब स्वयं बोले पैर का दर्द तो अब न के बराबर रह गया हम लोगों ने श्रावक को सज्जन के लिए ढूंढने भेजा। लोगों का कहना था ऐसे पगड़ी वाले सज्जन न आते और न जाते दिखे। जब बहुत खोजने पर भी वह सज्जन नहीं मिले तब हम लोग समझ गए वह कोई देव होगा जो गुरुजी की सेवा करके चला गया। जब आचार्य श्री जी को बताया तो आचार्य श्री जी खूब हंसे।